सिरसागढ पहले बच्छराज का राज था। उसके मरने के बाद दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान ने जीतकर इसे अपने राज्य में मिला लिया था अपने पिता के राज्य को लेने के लिये मलखान अपने साथियों के साथ Sirsagadh Ki Ladai लडी।
आल्हा को बड़ा भाई मानकर ऊदल, मलखान, ब्रह्मा और ढेवा उसकी आज्ञा को पिता की आज्ञा मानकर पालन करते थे। एक दिन मलखान ने आल्हा से शिकार खेलने जाने की अनुमति माँगी। आल्हा ने समझाया कि बेवजह कहीं किसी से लड़ाई हो जाएगी। अपने क्षेत्र में ही शिकार खेल लो। अभी मांडौगढ़ की लड़ाई से अपनी सेना उबर नहीं पाई है।
मलखान ने कहा, “दादा! मैं शिकार खेलने जा रहा हूँ। अकेला जाऊँगा। सेना को ले जाने का प्रश्न ही नहीं उठता।” आल्हा ने अनुमति देते हुए समझाया कि किसी से उलझना मत। मलखे बोला, “दादा! पहली गलती पर ध्यान नहीं दूंगा। दूसरी बार किसी ने छेड़ा तो क्षमा कर दूंगा, पर तीसरी बार गाली दी तो मुँह में तलवार लूंस दूंगा।”
इस तरह मलखान अकेला ही शिकार खेलने निकल पड़ा। दूर तक जंगल में भटकता रहा, परंतु कोई शिकारी पशु न मिला। दोपहर बाद एक हिरन दिखाई दिया। मलखान ने तीर मारा। हिरन गिर गया। मलखे हिरन के पास पहुँचा तो सिरसागढ़ का राजा पारथ अपने घोड़े पर आ पहुँचा। बोला, “मेरे शिकार को तुमने क्यों मारा, मैं इसे घेरकर ला रहा था, तब तुमने इसे क्यों मारा?” मलखान बोला, “मैंने मारा तो मेरा हो गया। पहले तुम मार देते तो मैं कुछ न कहता, पर तुम हो कौन?”
पारथ तो नया-नया राजा बना था। क्रोध से काँपने लगा। बोला, “मैं सिरसा का स्वामी हूँ। मेरा नाम पारथ है। दिल्लीपति पृथ्वीराज का भतीजा हूँ, पर तुम मेरे राज्य में क्यों घुसे, तुम कौन हो?” मलखान ने कहा, “मेरा नाम मलखान है। महोबा का राजकुमार हूँ। यह क्षेत्र महोबा की सीमा में है। तुम्हारे बाप का नहीं है।” पारथ सिंह ने कहा, “पहले यहाँ बच्छराज का राज था। उसके मरने के बाद दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान ने जीतकर इसे अपने राज्य में मिला लिया और मुझे यहाँ का शासन सौंप दिया।” यह सुनकर तो मलखान बिफर गया, “तो यह मेरे ही पिता का है। मैं बच्छराज का ही पुत्र हूँ।”
पारथ सिंह ने कहा, “तो मैं पहले तेरा शिकार करता हूँ। पहले अपने मन की निकाल ले। नहीं तो पीछे पछताएगा।” मलखान ने कहा, “पहला वार तुम ही करो। हम तो कभी पहला वार नहीं करते। भागते हुए के पीछे नहीं भागते। निहत्थे शत्रु को नहीं मारते। स्त्री पर हथियार नहीं उठाते। लो करो पहला वार, मैं हूँ तैयार।” पारथी सिंह ने भाला मारा।
मलखे ने बाएँ होकर वार बचा लिया। फिर उसने सांग उठाकर फेंकी तो मलखान की घोड़ी हट गई और सांग धरती पर गिरी। क्रोध में पारथ ने तलवार निकाल ली। बिल्कुल निकट जाकर तलवार की चोट की। मलखान ने अपनी ढाल से चोट बचाई और वार किया।
कुछ देर खटाखट तलवारें बजी, परंतु मलखे की घोड़ी ने अगले दोनों पाँव उठाकर पारथ के घोड़े पर आक्रमण किया तो घोड़ा उलटे पाँव भागा। मलखान तो बता ही चुका था कि भागते हुए शत्रु का पीछा नहीं करते। अब मलखान अपना मारा हुआ शिकार लेकर चला आया।
महोबे आकर उसने आल्हा को सारी कहानी सुनाई। फिर सिरसा पर अपने अधिकार की बात कही। आल्हा ने कहा, “उस विषय पर तो बात राजा परिमाल से होनी चाहिए। यह दो राज्यों का मामला है। नीति का प्रश्न है। आप राजा से चर्चा करो।”
राजा परिमाल का दरबार इंद्र के समान शोभित था। मलखान ने प्रवेश करते ही प्रणाम किया और फिर राजा के समीप पहुँच गया। राजा परिमाल ने उसे अपने निकट बैठा लिया और पूछा, “बेटा मलखान! आज क्या समस्या आ गई, क्या किसी ने अपशब्द कहे या मुझसे कुछ लेना चाहते हो? बिना संकोच कहो। बेटे, मेरा सबकुछ तो तुम्हारा ही है। ब्रह्मानंद से पहले तुम मेरे पुत्र हो। तुम्हारे पराक्रम से आज महोबे की शान है। तुम्हारे लिए मैं कुछ भी देने को तैयार हूँ।”
तब मलखान ने कहा, “सिरसागढ़ पर मेरे पिता का राज था। मैं अपना राज वापस लेना चाहता हूँ। आप युद्ध की अनुमति प्रदान करें। “राजा परिमाल समझाने लगे, “तुम महोबे के राजकुमार हो। शांति से अपने राज्य में मौज करो। सिरसा की इच्छा ही मत करो। दिल्लीपति पृथ्वीराज से शुत्रता करना हमें भारी पड़ सकता है। बैठे-बिठाए हम मुसीबत मोल क्यों लें?” मलखान की समझ में कोई उपदेश नहीं आया। उसकी तो एक ही रट थी कि हमारे जवान होते हुए हमारे हिस्से पर कोई और राज क्यों करे?
यह हमारी शान के विरुद्ध है। अत: वह तो युद्ध की अनुमति के अतिरिक्त कुछ और सुनना ही नहीं चाहता। मलखान बोला, “मैं खुद आग में कूदना चाहता हूँ। मैं स्वयं मृत्यु का स्वाद लेना चाहता हूँ। आपने मुझे पाला है, प्यार दिया है, अतः आपकी अनुमति चाहता हूँ।” विवश होकर नम आँखों से राजा परिमाल ने कहा, “अच्छा तो यही रहेगा कि पृथ्वीराज से शत्रुता मोल न लें, परंतु यदि सिरसा लेना तेरी जिद है तो जा, मैं तुझे आशीर्वाद देता हूँ। तेरी विजय की कामना करता हूँ।”
मलखान ने राजा के चरण-स्पर्श किए और तुरंत दरबार से चल पड़े। उसमें एक अदम्य उत्साह था। वह रानी मल्हना के पास भी आशीर्वाद लेने गया। माता मल्हना ने उसे पुचकारा, छाती से लगाया और विजय के लिए आशीष दिया, परंतु अकेले जाते देख उनकी आँखों में आँसू थे। अंत में वह माता तिलका के पास गया।
उनसे भी गले मिला, चरण-स्पर्श किए और चल पड़ा, तब तक और सैकड़ों साथी पहुँच गए। मलखान ने उन्हें लौट जाने को कहा, परंतु वे सब साथ चल दिए। बोले, “साथ खेले, साथ खाना खाया, साथ पढ़े और साथ ही युद्ध कला सीखी तो अब साथ जीना-मरना है। हम तुम्हारा साथ नहीं छोड़ सकते।”
मलखान अपने साथियों के साथ सिरसा की ओर चल पड़ा। घने जंगल पार करके जब सिरसा तीन कोस रह गया तो उन्होंने काफिला रोक दिया। रात को वहीं विश्राम किया। प्रातः उठकर नित्यकर्म से निवृत्त हो युद्ध की तैयारी की। तभी विचार बना कि सिरसा के पारथ सिंह को पत्र लिखकर सावधान करना चाहिए। मलखान ने पत्र लिखा।
सम्मानपूर्वक संबोधन करके लिखा “सिरसागढ़ मेरे बाप का है। मैं इसे लेने आ गया हूँ। आप तुरंत सिरसा खाली करके चले जाएँ। इसी में दोनों पक्षों और नगरवासियों का हित है, अन्यथा युद्ध से निर्णय तो हो ही जाएगा।”
हरकारा पत्र लेकर पारथ के पास पहुँचा। पत्र पढ़कर पारथ क्रोधित हो गया। इसी समय सेनापति को युद्ध के लिए तैयारी का आदेश कर दिया गया। इधर के नगाड़ों की आवाज के साथ ही मलखान भी सिरसा की ओर आगे बढ़ा। दोनों ओर से सेनाएँ सम्मुख थीं। मलखान से पारथ पहले घबराया हुआ था। अब फिर सिरसा के सैनिकों में भगदड़ मची।
पारथ भी शाम होने तक तो लड़ा, फिर उसने दिल्लीपति पृथ्वीराज को संदेश भेज दिया, “महोबावालों ने आक्रमण कर दिया है। आप मदद के लिए सेना भेज दो।” हरकारा रात भर घोड़ा दौड़ाता हुआ दिल्ली पहुँचा और राजा पृथ्वीराज को पत्र दे दिया।
पृथ्वीराज ने धाँधू के नेतृत्व में कुमुक भेजी, साथ ही धीर सिंह को भी संदेश भेज दिया कि वह अपनी सेना ले जाकर पारथ की सहायता करे। इधर प्रातः होते ही महोबे में राजा परिमाल ने आल्हा से कहा, “यदि मलखान को, भगवान् न चाहे कुछ हो गया तो जग-हँसाई होगी। सब कहेंगे कि अकेले लड़के को भेजकर मरवा दिया।
अब सेना लेकर सिरसा पहुँचो और मलखान की भरपूर सहायता करो।” महोबे की सेना, तोपें, हाथी, घोड़े और पैदल सब आनन-फानन में तैयार होकर चल पड़े। ऊदल के नेतृत्व में सेना सिरसा पहुँचने लगी। जब आल्हा को पता चला कि धीर सिंह भी लड़ने को तैयार है तो आल्हा भी अपनी सेना को साथ लेकर मलखान की सहायता के लिए चल पड़ा।
धाँधू, चौंडा और चंदन की फौज तो दिल्ली से सिरसा पहुँच ही रही थी। धीर सिंह और आल्हा आमने-सामने टकरा गए। धीरज सिंह ने कहा कि सामने से अपना घोड़ा हटाओ। आल्हा बोले, “हमारा घोड़ा कहर है। आप अपना हाथी दाएँ-बाएँ कर लो।” दोनों भिड़ गए तो धीरज ने सांग फेंककर मारी। आल्हा ने बचाव कर लिया। सांग नीचे जा गिरी। धीरज ने बुर्ज उठाकर चलाया।
आल्हा ने पकड़ लिया। धीरज ने जोर लगाए, पर छुड़ा न सका और हौदे से नीचे कूद गया। धीरज ने तब पूछा, “तुम कौन हो?” आल्हा ने कहा, “मैं दस्सराज का पुत्र हूँ आल्हा। महोबे के राजा परिमाल का पालित हूँ। मैं धीर सिंह से मिलने जा रहा था, सो धीरज सिंह तुमसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई।” धीरज भी आल्हा से मिलकर खुश हुआ। दोनों मित्र बन गए।
आल्हा ने कहा, “बच्छराज चाचा की मृत्यु के बाद पृथ्वीराज ने हमारे सिरसा पर कब्जा कर लिया। पारथ सिंह से सिरसा वापस दिलवा दो, क्यों खून-खराबा किया जाए?” धीरज की समझ में यही न्याय लगा। सिरसा पहुँचकर उसने पारथ को बुलाकर समझाया, परंतु स्वार्थ के सामने न्याय कभी समझ में नहीं आता।
पारथ नहीं माना और दोनों ओर से सेनाएँ लड़ने को तैयार हो गई। तब पारथ बोला, “क्यों न एक-एक वीर अपनी बराबरी से लड़े?” आल्हा ने समर्थन करते हुए कहा, “ठीक है, पारथ और मलखान लड़ें। धाँधू और ऊदल भिड़ें। धीरज सिंह से ताल्हन सैयद लड़ें, चंदन से ढेवा और चौडिया राय से स्वयं आल्हा।”
युद्ध शुरू हो गया। महोबे के वीरों के सामने कोई वीर डट नहीं पाया। दनादन गोलियाँ चलीं। तीर पक्षी की तरह उड़ने लगे। सिरसा की प्रजा भी हाहाकार करने लगी। सेना के जवान गिरते हुए कटे पेड़ों से लग रहे थे। पारथसिंह जान बचाकर दिल्ली भाग गया। सिरसा फतह हो गया। आल्हा ने मलखान को सिरसा में ही राज करने को छोड़ दिया, बाकी वीर महोबा को वापस चले। मलखान ने ताल्हन चाचा से कहा कि मुझे 10 तोप, 50 हाथी, 100 घोड़े और 800 पैदल सैनिक दे दो।
ताल्हन ने तुरंत इतने हथियारबंद सैनिक दे दिए और कहा कि जब किसी वस्तु की जरूरत हो तो महोबे को खबर कर देना। आल्हा, ऊदल, ढेवा, ब्रह्मा और ताल्हन महोबा लौट आए। विजय का समाचार सुनकर राजा और प्रजा सब खुश हो गए। माताएँ भी प्रसन्न हो गईं। रानी तिलका और दिवला ने सिरसा जाने की इच्छा प्रकट की।
उधर पारथ ने दिल्ली पहुँचकर पृथ्वीराज से सब हाल सुनाया और कहा, “आप दिल्ली से भारी सेना भेजकर सिरसागढ़ वापस दिलवाओ।” पृथ्वीराज ने समझा दिया कि सिरसा एक छोटा सा स्थान है, उसके लिए हमें दिल्ली से सेना नहीं भेजनी चाहिए। कभी मौका देखकर हम सिरसा पर फिर से अधिकार कर लेंगे।” तब पारथ दिल्ली में ही रह गया और मलखान सिरसा का राजा बन गया।