कवि श्री शिवसहाय दीक्षित का जन्म ग्राम पठा तहसील महरौनी जिला ललितपुर उत्तरप्रदेश में विक्रम संवत् 1988 के आश्विन मास की शुक्ल चतुर्थी गुरुवार तदनुसार 15 अक्टूबर 1931 को पिता श्री जानकी प्रसाद व माता श्रीमती सीतादेवी के घर हुआ था। पिता जी तत्कालीन ओरछा राज्य टीकमगढ़ में सेवारत थे।
पावस पावनी
जेठ कौ महीना जात उतरो उलायतौ,
परन लगे दोंगरे न दाँद गम्म खात है।
पसीना सां तरबतर सपर जात नारी नर,
खाड़ू खाद खपरा को समय कड़ो जात है।।
भऔ आगमन अषाढ़ कौ, काम डरौ पहाड़ सौ,
घिरन लागे बादल अब आ गइ बरसात है।।
घाम और छाँव की लुका छिपी होंन लगी
बीच बीच बूँदन बौछार पर जात है।।1।।
ज्येष्ठ का मास शीघ्रता से समाप्त हो रहा है और प्रथम वर्षा होने लगी है जिससे परेशानियाँ बढ़ रही हैं। ग्रीष्म के प्रभाव से समस्त स्त्री-पुरुष स्वेद से नहा जाते हैं। खाड़ू (छप्पर की झाड़ियाँ) व खपरैल का समय के साथ खेत में खाद डालने का समय भी बीता जा रहा है। काले मेघ घिरने लगे हैं, आषाढ़ महीना का आगमन हो गया है, बड़े-बड़े पहाड़ से काम शेष है। धूप और छाया के मध्य लुका-छिपी का खेल प्रारंभ हो गया है और समयान्तर से पानी की बौछारें भी आ जाती हैं।
लड़ैयँन कौ ब्याव होत लड़ेर में उछाह होत,
बदरा भऔ घाम अब नहीं सहो जात है।
परन लगो पानी कछू घरी न जाय जानी,
सब बौनी कौ काम डरो जी अकबकात है।
हरभरी किसानन में निकर गये हारन में,
समरत जौ काम कैसें कठिनई दिखात है।
मेह में बयार में किसान डरो हार में,
हार नहिं मानत हर हाँकत ही जात है।।2।।
धूप निकले में वर्षा होने पर बुन्देलखण्ड में इसे सियार का विवाह होना कहते हैं, कवि कहता है कि धूप में वर्षा हो रही है जिससे छोटे-छोटे बच्चों का समूह प्रसन्नता से कह रहे हैं कि सियारों का ब्याह हो रहा है। बादलों के बीच निकलने वाली धूप की गर्मी असहनीय हो रही है। पानी का बरसना प्रारंभ हो गया है, बुआई का काम शेष है जिससे हृदय घबड़ा रहा है। हवा व पानी के बीच किसान खेतों में पड़ा है, वह बिना पराजय स्वीकार किए सतत हल जोतता ही जाता है।
घुमड़ आये बादर जे, पसर गये चादर से
लागो अँधियारौ न घामों दिखात है।
ठन्डी पुरवाई लहर चलन लगी सरर सरर,
बड़ी बड़ी बूँदन जौ पानी सर्रात है।।
दौर दौर रूखन के दुबीचें दुबक जात,
गैलारो मोंगौ सौ वेवश लखात है।
हवा के झकोरा सों झला परत कर्रौं जब,
छर्रौं सौ माथे पै चोट कर जात है।।3।।
चारों दिशाओं से बादल घिरकर चादर जैसे फैल गये हैं। अन्धकार छा गया है, धूप अदृश्य हो गई है। पूर्वी हवायें सर-सराकर चलने लगी हैं और इसी के साथ बड़ी-बड़ी बूँदों के साथ वर्षा प्रारंभ हो गई है। किसान दौड़-दौड़कर वृक्षों के तनों के मध्य छिप जाते हैं। राहगीर मूक और विवश जा रहे हैं। हवा के प्रखर वेग के साथ जब पानी का झला (तेज वर्षा) गिरता है तो उसकी चोट माथे पर गोली के छर्रों जैसी लगती है।
आई धरती पै हरयारी, औ कुरा गये खेत क्यारी,
आ गई लगार कछू नदियँन में पानी की।
कोयल की भई बिदाई मोरा की घरी आई,
मोरनी के आगें नच दुहाइ देत ज्वानी की।।
बगुलन की पाँत उड़त बादर सों होड़ करत,
तपन सब हिरानी है ग्रीषम मनमानी की।।
धरती कौ ताप हरत, शीतल बयार चलत,
कीरत बखानत मनु पावस महारानी की।। 4।।
धरती में हरियाली छा गई है। खेत व क्यारियों में अंकुरण हो गया है। नदियों में पानी का प्रवाह प्रारंभ हो गया है। कोयल की विदाई हो गई है, मोरा (नर मोर) की घड़ी आ गई है, वह मोरनी के समक्ष नृत्य कर अपनी युवावस्था की दुहाई दे रहा है। वकों की पंक्तियाँ बादलों से प्रतिस्पर्धा करके उड़ रही हैं। ग्रीष्म की समस्त तपन विलुप्त हो गई है। धरती का ताप हरण हेतु शीतल वायु ऐसी प्रवाहित हो रही है मानो महारानी वर्षा ऋतु की कीर्ति का वर्णन कर रही हो।
कड़ गऔ अषाढ़ आई सावन बहार,
अब रात रात दिन दिन भर पानी अर्रात है।
नदी और नारे मिल एक भये सारे सो,
पानी ही पानी देखो सोंसर सर्रात है।।
पानी सों ऊब भई खेती सब डूब गई,
नींदा तो देखौ जौ कैसौ गर्रात है।
बादर तौ खोलो राम दिखा परै तनक घाम,
रात दिन किसान बस येई बर्रात है।। 5।।
आषाढ़ के व्यतीत होने पर श्रावण मास की बहार आने से अब दिन-रात भारी वर्षा हो रही है। नदी और नाले सब मिलकर एक से हो गए हैं। पानी के सभी समतल प्रवाहित हो रहे हैं। अब पानी से लोग ऊब (उकता) गये हैं। खेती डूब गई है। नींदा (व्यर्थ पौधे) अत्यधिक तेजी से खेतों में बढ़ रहा है। किसान अब रात दिन बस यही कह रहे हैं कि हे राम! अब वर्षा बन्द कर धूप निकालिये।
ताल में तलैयँन में नदिया औ नारन में,
भाटे में भरकन में पानी ही पानी है।
भूँखे पशु पंछी सब, पानी तो करें गजब,
कैसी होय दइया जा बरसा सरसानी है।।
आवागमन रुक गऔ काम सब अटक रऔ,
घर में छिके बैठे हैं भारी हैरानी है।
हेर रही बहिन बाट नदियँन के छिके घाट,
भइया की आशा में बहिना भुलानी है।। 6।।
तालाबों, पोखरों, नदियों, नालों, खाली खेतों तथा गड्डों में पानी ही पानी दृष्टव्य होता है। पशु-पक्षी सभी भूखे हैं। वर्षा के कारण पानी गजब ढा रहा है। सारा आवागमन अवरुद्ध हो गया है, सारे काम रुक गए हैं। सभी घर में मजबूरन बैठे हैं जिससे परेशानी हो रही है। नदियों के घाटों में बाढ़ आ जाने से ससुराल में बहनें अपने भाइयों की राह देख रही हैं, उन्हें लगता है कि भाइयों ने उन्हें भुला दिया है।
ढूँक रहे दोरन में छपरी औ, पौरन में,
बैठे ठलुआई में सबरे बतियात हैं।
धार नहीं टूटत है घर में तूवा फूटत है,
पानी के पौरा नहिं गलियँन समात हैं।।
चरत रहे हार में सब ढोर बँधे सार में,
ठाँड़े है भूखे इक पूरा कों ललात है।
गसो ऐंन बादर, नहिं खुलत दिखात जा झर,
बिटिया के लिवौआ अब कैसे कें जात हैं।। 7।।
लोग दरवाजों में, बरामदों और बाहर के कक्षों में झाँककर वर्षा देखते हैं। बिना काम के बैठे सभी लोग बातों में व्यस्त हैं। पानी की धारा नहीं टूटती है, घरों में तुवा (दीवालों का पानी रिसाव) फूट रहे हैं। पानी के पौरा (सतत् प्रवाह) गलियों में समाते नहीं है। मवेशी जंगल चरने नहीं जा पाते हैं, अपने-अपने स्थानों पर बँधे हुए हैं। सभी मवेशी भूखे हैं वे घास के एक पूरा (घास को बाँधकर बनाया गया छोटा गट्ठा) को तरस रहे है। बादल घने छा गये हैं जो अब खुलते नहीं दिखते हैं। बिटिया को लिवाने को अब कैसे जा सकेंगे?
बीत गऔ सावन है भादों भयावन यह
गर्जन सुन बादर की जियरा थर्रात है।
तड़कत तड़ाक, तड़ित दँदक जात चलत पथिक,
चकाचोंध ऐसी कि आँख मुँद जात है।।
गड़गड़ात बदरा सब हड़बड़ात ठिठक जात,
तड़तड़ात जहाँ कहुँ गाज गिर जात है।
मूसर सी धार ऐंसी झर कौ सम्हार नहिं,
पानी कौ पसार सब ओर दर्शात है।। 8।।
श्रावण बीत गया और भयावह भाद्रपद आ गया है जिसमें बादल की गर्जना सुनकर हृदय थर्रा रहा है। अचानक बिजली के चमकने से राहगीर चौंक जाते हैं तथा बिजली के प्रकाश से आँखें चौंधिया जाती हैं। जैसे ही बादल गरजते हैं सभी हड़बड़ाकर रुक जाते हैं। तड़तड़ाहट की ध्वनि के साथ कहीं पर वज्रपात होता है। मूसलाधार वर्षा से पानी ही पानी चारों ओर दिखाई देता है।
कर्रौ जब बरस जात उरियन में नहिं समात,
सबरौ घर चुचा जात बिदी कठिन बात है।
घर सों नहिं कड़ो जात, चौपट भई फसल जात,
कछु उपाय नहिं सुझात मुश्किल दिखात है।।
घटा कारी उमेड़ जात एक भये दिवस रात,
सूरज अब नहिं दिखात भारी बरसात है।
सिमट रहौ जल अपार नदी नार धार पार
मानहु जल निधि अपार बढ़ौ चलो जात है।।9।।
जब अधिक पानी बरस जाता है तो उरौतियों (छप्पर में खपरैल की मध्य की नलिकाओं) में नहीं समा पाता और घर की छप्पर से चूने लगता है जिससे दिक्कत होती है। वर्षा के कारण घर से निकलने पर परेशानी होती है जिससे फसलें बर्बाद हो रही हैं।
कोई उपाय नहीं सूझता, जिससे मुसीबतें बढ़ती ही जाती हैं। काली घटाओं के घिरने से दिन और रात्रि का भेद समाप्त हो गया है। अपार जलराशि नदी-नालों में प्रवाहित हो रही है जिसे देखकर लगता है कि मानों समुद्र ही अपनी अपार जलनिधि के साथ बढ़ा हुआ चला आ रहा है।
भादों अब बीत गऔ बादर हू रीत गऔ,
क्वाँर लगें रुई कैसे ढेर दिखलात हैं।
गैल कछू सूख चली, फैली हरयाई भली
घास पूस लता पेड़ कैसे हरियात है।।
उड़त फिरत चुनत चरत चरेरू कल्लोल करत,
भाँति भाँति बोल बोल बाँके चेंचात हैं।।
फसलें फल फूल रहीं खेतन में झूम रहीं,
देखत किसान इन्हें मन में इठलात हैं।। 10।।
भाद्रपद के व्यतीत हो जाने पर बादल भी खाली हो जाते हैं और आश्विन के लगते ही बादल रुई के ढेरों जैसे दिखाई देते हैं। रास्ते सूखने लगते हैं, घास, लताओं, वृक्षों पर हरियाली छाने से चारों ओर हरा भरा दिखाई देता है। पक्षी गण यहाँ-वहाँ उड़कर किलोल करते हुए चुग रहे हैं। विविध प्रकार के पक्षियों की मनोहारी चहचहाहट सुनाई देती है। फसलों में फूल व फल आ जाते हैं जिससे वे खेतों में झूमती हैं जिन्हें देखकर किसान का मन प्रसन्नता से इठला उठता है।
नभ में उड़ात मेघ, कारे और सेत सेत,
नील परिधान पै छींट से लखात हैं।
भादों की याद करत गरजत कहुँ बरस परत,
बूढ़े भये हाथी ज्यों भ्रमत हहरात हैं।।
शरद की अबाई जान बरसा कर रही पयान,
रीत रऔ आसमान खंजन उड़ात हैं।
‘शिव सहाय’ जानी यह रितुवन की रानी है,
पावस बिन रितुपति कहु कैसें सुहात हैं।।11।।
आसमान में श्वेत व श्याम बादल उड़ते हुए ऐसे दिखाई देते हैं जैसे नीले वस्त्र पर छपाई कर दी गई हो। बादल को भाद्रपद की स्मृति आने पर वे कहीं पर गरजते हुए बरस भी जाते हैं। जिस प्रकार बूढ़ा हाथी घूमता है वही हाल बादलों का है। शरद का आगमन समझकर वर्षा प्रस्थान करती है। खाली आसमान में खंजन पक्षी उड़ने लगते हैं। कवि शिवसहाय कहते हैं कि पावस ऋतुओं की रानी है, इसके बिना ऋतुराज बसन्त कैसे अच्छा लग सकता है ?
कवि श्री शिवसहाय दीक्षित का जीवन परिचय
शोध एवं आलेख– डॉ. बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (मध्य प्रदेश)