Sakhyau Fag रूप दोहे में लटकनिया लगाकर बना है। दोहा जहाँ अपभ्रंश का प्रिय छंद था, वहाँ अभीरों से भी उसका संबंध था। छन्द शास्त्र में 11 मात्राओं के चरण वाला आभीर या अहीर छंद मिलता है। इसका विकास भी दोहे के रूप में संभव है। बुंदेली के दिवारी-गीतों में भी दोहे का ऐसा ही बंधान है। बुंदेली फाग में कभी-कभी दोहे में अन्त्यानुप्रास नहीं रहता और कभी मात्राओं की संख्या सही नहीं होती। चतुर्थ चरण में अपनी तरफ से सो लगा दिया जाता है।
दोहे का गायन भिन्न-भिन्न प्रकार से मिलता है, लेकिन तीसरी पंक्ति (लटकनिया) दादरा ताल पर गायी जाती है। इस कड़ी में मात्राओं का कोई नियम नहीं है। उसके उठते ही वाद्य और नृत्य गीत का अनुसरण करते हैं, बाद में यह नृत्य को गति देने के लिए दुगुन और चैगुन में गायी जाती है।
सबके सैयाँ नीरे बसत हैं मो दूखन के दूर।
घरी घरी पै चाना है सो हो गये पीपरा मूर।
नजर सें टारे टरौ नईं बालमा।।
चुनरी रंगी रंगरेज नें, गगरी गढ़ी कुमार।
बिंदिया गढ़ी सुनार नें, सो दमकत माँझ लिलार।
बिंदिया तौ लै दई रसीले छैल नें।।
ये फागें दुमदार दोहों की भाँति होती हैं, अन्त में एक कड़ी और जुड़ी रहती है, जैसे-
प्रीतम प्रीत लगाये के, बसन दूर नईं जाव।
बसौं हमारी नगरिया, दरशन दे-दे जाव।
नज़र से टारे टरों नई मोरे बालम।
सब के सैंया नीरे बसें, मो दुःखनी के दूर।
घरी-घरी चाहत उइे सो भये पीपरा मूर।
कटै नें काटी जे रतियाँ
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल