Rasiya Kavi भी ईसुरी के समकालीन लोक कवियों में से एक ठहरते हैं। इनका जन्म सम्वत् अनुमानतः 1913 एवं मृत्यु सम्वत् 1964 के लगभग मानी जाती है । कवि रसिया का फाग साहित्य रीतिकालीन कविता से प्रभावित है। चूंकि उन्होंने रीतिकाल के स्वच्छतावादी कवियों के समान काव्य उक्तियां कही हैं इसलिए विद्धान रसिया को बुंदेलखंड का घनानंद कहते हैं ।
रसिया जी की भाषा, भाव और काव्य के विषय ईसुरी तथा उनके समकालीन अन्य सभी फागकारों से मिलत जुलते हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि ये फाग कवि ईसुरी से प्रभावित थे। विरह के चित्रण में रसिया अद्वितीय हैं। विरह की आंच में झुलस कर कवि की नायिका का सारा रक्त तक सूख गया है। रसिया के शब्दों में
जौतन हो गऔ सूख छुहारौ ने ही तनक निहारै ।
काया भई सूख के पिंजरा, ऊसई हतो इकारो।
लिपटी खाल हाड़ के ऊपर, मकरी कैसो जारो ।
न मांसे भर मांस बदन में, नैयां रकत फुहारो।
रसिया कहे आस मिलवे की, कड़े न हंस निकारो ।
कहा जा सकता हैं कि बुंदेलखण्ड के घनानन्द रसिया का बुदेली फागकारों की श्रेणी में प्रमुख स्थान है तथा इन्होंने भी बुंदेली फागों के माध्यम से बुंदेली लोक साहित्य की सच्ची सेवा की है।