Homeबुन्देलखण्ड का सहित्यRang Ki Saugandh रंग की सौगन्ध

Rang Ki Saugandh रंग की सौगन्ध

आहिस्ता-आहिस्ता मेरे कपोलों पर, मेरे वक्षस्थल पर रंग लेप किया फिर अपने रंग में रंगा देख कर खिलखिला पड़ी। बोली-“कितने अच्छे लग रहे हैं आप। आपसे एक निवेदन है, कि इस घटना का उल्लेख किसी और से न करें। आप को इस Rang Ki Saugandh ‘रंग की सौगन्ध’ ।”

वे सामयिक तीज त्यौहारों पर परिचर्चाएँ आयोजित करते रहते हैं। एक दिन सुबह-सुबह मेरे घर आ-धमके, बोले ‘पराग’ जी एक बहुत सुन्दर शीर्षक मिल गया है-‘विसरत नहीं होली की रंग-फुहार’, आप इस पर अपना एक अच्छा सा संस्मरण लिखकर दे दीजिए तो मजा आ जाएगा। मैंने कहा- “लगता है आपको गैस आसानी से मिल जाती, घासलेट भी चार-छः महीनों के लिए इकट्ठा किए जान पड़ते है, नहीं तो ऐसी मजा लेने की बात न सूझती।” वे बोले “देखिए मजाक में मत टालिए, मैं अपने शीर्षक और होली के प्रति सचमुच गम्भीर हूँ। आपको कुछ न कुछ कहना ही पड़ेगा।

मैं जानता था वे मानेंगे नहीं सो सुई की बारीक नोंक से अपने अतीत को कुरेदने लगा। “जब मैं मात्र चौदह बरस का था तब पति बना दिया गया था। आप समझ गए होंगे, कि मैंने अल्पायु में ही होली खेलने का अधिकार खो दिया था। जब भी होली आती और मैं किसी के नाम की पिचकारी भरता, मेरी आत्मा धिक्कार उठती। छिः शर्म नहीं आती तुम्हें, एक पत्नी के पति होकर भी दूसरों के नाम पिचकारी भरते फिरते हो।” तब मेरी भरी-भराई पिचकारी पिचपिचा कर रह जाती।

मेरी आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं थी। सोचता, जितने पैसों में रंग पिचकारी खरीदूंगा उतने में कागज कार्बन आ जाएगा। फिर मेरे अन्दर बैठा व्यंग्यकार भी मेरी पिचकारी को फुसफुसा कर रख देता। चारों ओर हाय तौबा मची है। लोग बन्दूकों, बमों, मिसाईलों से बारूदी होली खेल रहे हैं, ऐसे में होली की सूझ रही है। कभी-कभी लगता ऐसी हुड़दंगी होली भी किस काम की, उठाया रंग और चाहे जिस पर डाल दिया। अरे मन मिले तो रंग डालो और मन मिलने के हालात रह कहाँ गए है इस देश में….?

इस सब के बावजूद भी यदि कभी होली खेलने को मन मचलता तो मेरी प्राण प्यारी पत्नी होली की पूर्व सन्ध्या पर, मण्डप के नीचे लिए गए सात-पाँच वचनों को दुहरा कर, अधिकार पूर्वक बेदर्दी से मेरे मन को कुचल कर रख देती। पत्नी कहती- “देखो होली खेलना तो दूर होली के बहाने तुम किसी दूसरी की ओर नजर उठा कर देखोगे भी नहीं। नहीं तो….?

मुझे देख कर हँसो न…! मुझ पर रंग क्यों नहीं डालते…? मैं बुरी लगती हूँ क्या….? कितना चाहती हूँ मैं तुम्हें, तुमने आज तक मुझे कुछ नहीं दिया, माथे की एक छोटी सी बिन्दी भी नहीं, फिर भी मैं तुम्हें तन, मन और धन से प्यार किए जा रही हूँ। मेरे सत्यावान, मैं तुम्हारी सावित्री हूँ। मेरे राम, मैं तुम्हारी सीता हूँ। मेरे भोले, मैं तुम्हारी पार्वती हूँ। मगर ध्यान रखना मेरे भोले जरूरत पड़ी तो मैं महाकाली भी बन सकती हूँ।”

परम्परा के अनुसार एक होली पर जब उसने अपने सात-पाँच वचन दुहराए तो मैंने उसे समझाने की कोशिश की-“देखो तुम सचमुच अच्छी हो, मुझे भी लगती हो, किन्तु तुम मेरी पत्नी हो! पत्नी, पत्नी होती है मजाक की चीज नहीं। पत्नी घर में रहती है, घर की मर्यादाएँ होती हैं, मर्यादाएँ तोड़ी तो नहीं जा सकती…?

भला कोई पति अपनी पत्नी को देखकर कैसे हँस सकता है। अगर वह कोशिश करेगा भी तो उसकी हँसी काँटा गड़े साईकिल ट्यूब की तरह फुसफुसा कर रह जाएगी। फिर मैंने आज तक किसी पति को अपनी पत्नी से मजाक करते नहीं देखा। तुम्हें जाने किसने भरमा दिया है कि पति-पत्नी में हँसी-मजाक का रिश्ता होता है। अरे, उनमें पैसा और रोटी का रिश्ता होता है। पति पैसा कमाता है। पत्नी रोटी बनाती है। इसी पैसा और रोटी के रिश्ते से बच्चे पैदा होते हैं। और फिर दोनों उसका पालन-पोषण करने में लग जाते हैं।

बस । हाँ….! एक उपाय है, यदि तुम मुझसे हँसना ही चाहती हो तो कल बन-ठन कर गाँव के बाहर बगीचे में मिलो। मैं तुम्हें देख कर हाउ स्वीट कहूँगा और तुम हाय मैं मर गई कहकर, बलखाती हुई लता की तरह मुझसे लिपट जाना।”

 बस क्या था, पत्नी तुनक कर अर्ध महाकाली बन गई-“शर्म नहीं आती तुम्हें ऐसी बेहूदी बातें करते हुए, तुम भूल से भी राह में छेड़ मत बैठना, नहीं तो मैं तुम्हारा मुँह नोंच लूँगी। जो करना है घर में करो न, घर काहे के लिए है….? मैं तुम्हारी पत्नी हूँ! पत्नी ही रहना चाहती हूँ। बेहया प्रेमिका बन कर सड़क पर इठलाती फिरूँ, अपनी इज्जत धूल में मिला दूँ। यह मुझसे नहीं होगा।”

तो साहब इसी तरह दिन गुजर रहे थे। मैं रंगों की पहचान भूलता चला जा रहा था। पूरी तरह भूल भी जाता, कि एक घटना हो गई। दुर्घटना इसलिए नहीं हुई, कि इसे आज तक मैं जानता हूँ और वह। तब मैं अठारह वर्ष का था और वह सत्रह वर्ष की, मैंने गाँव की पढ़ाई पूरी करके पहली बार शहर के कॉलेज में एडमीशन लिया था। जिस मुहल्ले में मैं किराए के छोटे से कमरे में रहता था, वहीं वह अपने बड़े से मकान में रहती थी।

होली के ठीक अगले दिन परीक्षा थी। इसलिए मुझे घर से बाहर रहने का अवसर मिल गया था। मन बड़ा खुश था, कि एक होली तो आजादी से बीतेगी। किन्तु होली के ठीक एक दिन पहले पत्नी का सात-पाँच वचनों को दुहराता पत्र आ गया। इस बार उसने यह भी याद दिलाई थी, कि मैं पिता बनने वाला हैं। यानि रहा-सहा हँसने का अधिकार भी छिन गया है। मैं पत्नी का गुस्सा युनिवर्सिटी के ऊपर उतारता हुआ अगले दिन के पेपर की तैयारी कर रहा था।

दूर कहीं कव्वालियाँ हो रही थीं। “हुश्न और इश्क” का जंगी मुकाबला चल रहा था, मैंने सोचा…काश….! पत्नी का पत्र न आया होता, कल परीक्षा न होती और मैं बाप बनने वाला न होता तो मैं भी “हुश्न और इश्क” के इस जंगी मुकाबले में सम्मिलित हो जाता। परन्तु हाय री किस्मत, मैंने पहली बार जी भर कर अपने माँ-बाप को कोसा।

पता नहीं कच्ची उम्र में ब्याह रचा कर उन्होंने मुझसे किस जन्म का बैर भँजाया है। तभी हौले-हौले साँकल खनक उठी….! मेरे दिल की धड़कने तेज हो गईं। यद्यपि मैं किसी की प्रतीक्षा नहीं कर रहा था, फिर भी मुझे लगा, साँकल उसी ने बजाई है। इस कल्पना मात्र से मेरे मन पर भय, आश्यर्च और उल्लास की जो मिली जुली प्रतिक्रिया हुई उसे मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता। साँकल फिर खनकी….! मैं उठा और मैंने दरवाजा खोल दिया।

हाँ….वही थी, मेरी कल्पना साकार खड़ी थी….मेरे सामने। हाथ में प्लास्टिक का जग और उसमें बाहर तक छलकता गलाबी रंग। कछ वैसा ही रंग उसके नेत्रों और कपोलों पर भी छलक रहा था। क्षणभर को मुझे लगा जैसे उसने अपने नेत्र और कपोल धोकर ही जग में भर लिए हों। मैं स्तब्ध सा उसे देख रहा था। उसने मेरे बगल से रास्ता बनाया, कमरे के अन्दर आई और बिना किसी भूमिका के बोली- “भाई साहब….! आपके ऊपर रंग डालना है।” “र…अँ…अँ…ग…?” मेरी रूह काँप गई। हवा का एक झोंका आया तो टेबिल पर पडा पत्नी का पत्र पहरेदार फरफरा कर अपनी सजगता का आभास करा गया।

“हाँ….!” वही खनकता स्वर धमनियों में प्रवेश कर रक्त को सनसना गया। रात का सन्नाटा, एकान्त कमरा….! दूर से आती, ‘हुश्न और इश्क’ के जंगी मुकाबले की आवाज! मैं स्वप्न लोक में डूबता जा रहा था। एक जग में क्या होगा। काश! यह दोनों हाथों में बाल्टियाँ भर कर लाई होती। “कहाँ खो गए भाई साहब….?” उसने मुझे चेताया।

“अँ…अँ….?” मैं जैसे नींद से जागा-“तुम मुझे भाई साहब भी कहती हो और रंग भी डालना चाहती हो। या तो जीजा जी, देवर जी जैसा कुछ कहो या परसों दूज के दिन टीका लगाने आ जाना….।”

वह तुनक गई- “आप कहेंगे तो वह भी कर लँगी। परन्तु आज तो रंग डालकर ही जाऊँगी। आप न तो मेरे पति के छोटे भाई हैं और न बहन के पति. जो देवर जी! जीजा जी…! जैसा कछ कहूँ। फिर भाई साहब एक सम्बोधन है, कोई रिश्ता नहीं…. । पूरे नौ महीने हो गए आपको कॉलेज में पढ़ते हुए….इतना भी नहीं सीख पाए। भाई साहब कहना तो कॉलेज की संस्कृति है। तो डाल दूँ आप पर रंग….?”

“पर तुम मुझ पर ही रंग क्यों डालना चाहती हो?” “पहली बात तो यह कि आप मुझे अच्छे लगते हैं। इतने दिन हो गए आप को मेरे पड़ोस में रहते हुए, गलत क्या, आजतक आपने मुझे सही दृष्टि से भी नहीं देखा। दूसरी यह कि इस वर्ष गर्मियों में मेरी शादी होने वाली है मैं ससुराल चली जाऊँगी….” “तुम्हारे ससुराल जाने का मेरे ऊपर रंग डालने से क्या संबंध है?”

“आप तो एक दम बुद्धू हैं…! मान लीजिए शादी के बाद मेरे पति ने पूछा कि शादी के पहले तुमने किसी लड़के के साथ होली खेली या नहीं तो उन्हें क्या कहूँगी?”  “तो कह देना नहीं।” “यही तो मुसीबत है यदि मैं कहूँगी नहीं तो उन्हें विश्वास नहीं होगा। शादी के पहले के ऐसे किसी नहीं पर किसी भी पति को विश्वास नहीं होता।”

“तो मुहल्ले के किसी लड़के पर डाल लो।” “आप इन शहर के लड़कों को नहीं जानते. यदि मैंने भल से किसी पर एक बूँद रंग डाल दिया तो मेरे लिए जीवन भर की मुसीबत खड़ी हो जाएगी। फिर मैं ऐसी वैसी लड़की नहीं हूँ, कि चाहे जिस पर रंग डालती फिरूँ। आप देहात से आए हैं, सीधे-साधे हैं इसलिए मैंने सोचा आप पर रंग डाल लूँ।”

मुझे पहली बार अपने देहाती होने पर गर्व हुआ। मैंने कहा-“तुम मानोगी नहीं….?” “ओफ…..ओ….?” एक सुन्दर षोडषी बाला आप के सामने रंग लिए खड़ी है, और आप हैं, कि नखरे किए जा रहे हैं। जल्दी करिए न….कल पेपर भी है। “अच्छी बात है” मैं खड़ा हो गया-“तुम यह बताओ कि मुझ पर रंग डालना चाहती हो या मेरे कपड़ों पर?”

“आप पर!” “तो ठहरो मैं अपने सारे कपड़े उतार देता हूँ।” “सारे कपड़े…?” उसके हाथ का जग छलक कर उसके ही सलवार को भिगो गया। “नहीं” मैं हँसा-“सेंसर शिप का ध्यान रखूगा।” “आप कपड़े उतारना ही क्यों चाहते है?” मैंने कहा-“तुम तो रंग डाल कर ससुराल चली जाओगी लेकिन मुझे तो अपने मायके जाना पड़ेगा। वहाँ मेरी ‘धर्मपत्नी’ रहती है, यदि उसने मेरे कपड़ों पर रंग की छाया भी देख ली तो….? मैं उसे महाकाली के रूप में नहीं देखना चाहता।”

“बहुत डरते हैं भाभी जी से?” वह हँसी। “डरता नहीं हूँ। प्यार करता हूँ।” “हर पति अपने डर को प्यार ही कहता है। खैर, उससे मुझे क्या, चलिए कपड़े भी उतार लीजिए।” तो भाई साहब आप विश्वास करें या नहीं उस रात के सन्नाटे में एकान्त कमरे में मैं अपने कपड़े उतार कर खड़ा हो गया। उसने पूरे मनोयोग से आहिस्ता-आहिस्ता मेरे कपोलों पर, मेरे वक्षस्थल पर रंग लेप किया फिर अपने रंग में रंगा देख कर खिलखिला पड़ी। बोली-“कितने अच्छे लग रहे हैं आप। आपसे एक निवेदन है, कि इस घटना का उल्लेख किसी और से न करें। आप को इस ‘रंग की सौगन्ध’ ।”

मैं उससे कुछ कह पाने की स्थिति में आ पाता इससे पहले वह चली गई। मैंपूरी रात उसी स्थान पर बैठा रहा। लेटने का मन नहीं हो रहा था डरता था, लेटा तो रंग छूट जाएगा। मुझे लगता था यह रंग सारी जिन्दगी मेरे तन पर इसी तरह चढ़ा रहे। पर ऐसा कब तक चलता। सुबह हो गई मैं उठा, नहाया, खाया और परीक्षा देने चला गया।

उस दिन उत्तर पुस्तिका में मैंने क्या लिखा मुझे आज तक याद नहीं। परीक्षा भवन से बाहर निकल कर सीधा बाजार गया, उसके लिए क्रीम, पावडर, काजल, माथे की बिन्दी गरज यह कि सोलहों शृंगार का सामान खरीदा। सोचा, इस बार जब उससे मुलाकात होगी तो यह सारी चीजें उसे उपहार में दे दूँगा। परन्तु वे सारी चीजें आज तक मेरे पास ज्यों की त्यों सुरक्षित हैं। बहुत बार मन किया है अपनी पत्नी से इस घटना का उल्लेख कर शराफत की डींगें मारूँ, पर डरता हूँ, कहीं वह महाकाली न बन जाए। फिर उसके द्वारा दी गई ‘रंग की सौगन्ध’ भी तो नहीं तोड़ सकता।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

लेखक – डॉ. सुरेश पराग

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