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Raja Hindupati Ko Rachhro राजा हिन्दूपति कौ राछरौ

बुन्देलखण्ड के राजाओं में लोहागढ़ के राजा हिन्दूपति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। Raja Hindupati Ko Rachhro मे साहस और जिंदादिली का बखान है। उन्होंने वीरता पूर्वक अंग्रेजों की विशाल सेना का सामना किया था।

बुन्देलखण्ड की  लोक-गाथा राजा हिन्दूपति कौ राछरौ

भारत में सैकड़ों वर्ष तक अंग्रेजों का शासन स्थापित रहा है। ऐसा कहा जाता है कि अंग्रेजों के शासन में कभी सूर्य नहीं डूबता था। किन्तु सन् 1857 में भारत के राजा और प्रजा अंग्रेजों के विरूद्ध भड़क उठे थे। सहनशीलता की भी सीमा होती है। सन् 1843  ई.  में  राजा  पारीछत  ने  सर्वप्रथम  क्रांति  की  ज्योति  जाग्रत  की  थी।

झाँसी  में महारानी लक्ष्मीबाई, रामगढ़ में रानी अवंतीबाई, बानपुर में राजा मर्दनसिंह और शाहगढ़ में राजा बखतबली शाह अंग्रेजों के विरूद्ध भड़क उठे थे। यहाँ के वीर सपूतों ने अपनी तलवारों के बल पर शत्रुओं के छक्के छुड़ा दिये थे। बुन्देलखण्ड के राजाओं में लोहागढ़ के राजा हिन्दूपति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने वीरतापूर्वक अंग्रेजों की विशाल सेना का सामना किया था। उनकी सेना में मुसलमान सिपाहियों की अधिकता थी। वे बड़ी वीरता और साहस के साथ अंग्रेजों की सेना से युद्ध करते रहे। उन्होंने लड़ते-लड़ते प्राण त्याग दिये, किन्तु पाँव पीछे नहीं किये।

सन्  1857  ई.  में  अंग्रेज  सेनापति  सर  हृयूरोज  ने  लक्ष्मीबाई  को  पराजित  करके झाँसी पर अधिकार कर लिया था। इसके बाद वह आसपास की रियासतों को जीतना चाहता था। इसी सिलसिले में उसने जानजेज के सेनापतित्व में लोहागढ़ पर चढ़ाई कर दी। लोहागढ़ का राजा हिन्दूपति बड़ा ही वीर उत्साही राजा था।

उसने बुंदेली संस्कृति की आन-बान और शान की रक्षा करने हेतु अंग्रेज सिपाहियों को ललकारा था। उनकी सेना में हिन्दुओं की अपेक्षा मुस्लिम सिपाहियों की संख्या अधिक थी। वे हिन्दुओं के साथ कंधा से कंधा मिलाकर जान देने के लिये तत्पर रहते थे। लोहागढ़ निवासी ‘रज्जब बेग पठान’ अपनी नव-वधू को छोड़कर युद्ध क्षेत्र में कूद पड़ा था। घमासान युद्ध हुआ और दोनों ओर से सैकड़ों सिपाही हताहत हुए थे।

राजा हिन्दूपति अपने प्रयास में पूर्ण सफल रहे। राजा हिंदुपति ने लड़ते-लड़ते प्राण त्याग दिये, किन्तु पाँव पीछे नहीं किये। राछरे में उनके शौर्य का जीता-जागता चित्रण अंकित किया गया है। अंग्रेजों को चुनौती देते हुए लोहागढ़ के वीर ललकार कर कह रहे हैं-
लोहागढ़ कठिन मवास, फिरंगी झाँसी भरोसे न रहौ।
जहाँ तोप चले गोला चले,  भाला  की  हुइयैं  मार।
फिरंगी झाँसी भरोसें न रहौ।


गाथाकार युद्ध का वर्णन कर रहा  है-
भई भोरतें लराई, अधिकाई मनभाई,
भारी भीर मुरकाई, भये थकित रथ भान।
उमड़-घुमड़ दल वेग के साथ चले, छड़े कड़ावीन मार-तोप अगवान।
पैदल सें पैदल लरें शूरन से शूर लरें, कायर कपूत के मुख कुमलान।
देवी राय यों  बखान  सों  लखत देवतान,
भई जाहर जहान लोहागढ़ की कृपान।

लोहागढ़ के वीरों की तलवार की प्रशंसा सारे संसार में की जाती थी। उनकी तलवारों के वार देखकर अंग्रेज सिपाही दंग होकर रह जाते थे। गाथाकार ने लोहागढ़ के वीरों के रण  कौशल का वर्णन किया है। जरा देखिये-
जानाजेज अंग्रेज की, को ओटें रणधीर।
लोहगढ़ के धन्य हैं, कटे बराबर बीर।


लड़ते-लड़ते अनेक वीर धराशायी हो गये जो इस प्रकार आत्म-बलिदान कर चुके थे-
चारक कटें भदौरिया, रज रक्खन रजपूत।
दो निसान तिल वंस के, साबित कटे सपूत।


हिन्दू सिपाहियों की अपेक्षा मुसलमान वीरों का उत्साह अधिक प्रशंसनीय दिखाई देता रहा-
छै पठान साबित  कटे,  नगर  लुहारी  खेत।
जाफर खाँ औ नूर खाँ, मिर्जा जस के हेत।
रज्जब बेग बखानिये, मल्ल-जुद्ध जिहि कीन।
पकर शत्रु के टेंटुवा, डार-खास में दीन।


दिनभर भयंकर युद्ध हुआ। दोनों दलों के सैकड़ों वीर योद्धा धराशायी हो गये। शाम को युद्ध विराम हो गया।

संजा-होतन बंद भओ, युद्ध फिरे सब ज्वान।
रज्जब नें तब आनकैं, माँके परसे प्रान।
बीबी ने हँस गरे सों, पिय खौं लियो लगाय।
पाँव पलोटे रात भर, दियला नेह जराय।।


दूसरे दिन फिर सबेरे से युद्ध का नगाड़ा बज उठा। सभी सिपाही सुसज्जित होकर रण -क्षेत्र की ओर चल दिये-
बजो नगाड़ौ जुद्ध कौ, ऐंन होत नई भोर।
चले खेत खौं शूरमा, बाँध-बाँध सिर मौर।।
रज्जब नें उठ कमर में, अपनी कसी कटार।
हिन्दूपति के सामनें, आकैं करी जुहार।


गाथाकार नंदकिशोर ने वीरों की साज-सज्जा और साहस का वर्णन करते हुए लिखा है-
झर-झर परत झिलन बख्तर  टोप, कोप कर किले पै लोहागढ़ बलवान।
साकिन लुहारी तलवार कौ बखान करें, दुरग मकुंद से हठीले हनुमान।
प्रबल पठान नोंक राखी सिरे  जाफरान, राखी मिरजानी मिर्जा नें भरी  आन।
राजा महाराजा हिन्दूपति कौ प्रताप बढ़ो, नन्द हू किसोर झुक-झारी है कृपान।

योद्धाओं की वंशावली का वर्णन करते हुए गाथाकार विस्तारपूर्वक लिख रहा है-
चंद्र वंश में अवतरे, डरूसिंह अनुरूप।
जाकी वान कृपान की, समता  करें न भूप।
सात दिना नों जुद्ध भओ लोहागढ़ दरम्यान,
फिरे फिरंगी बचाउत अपनें-अपनें प्रान।

एक और समसामयिक छंद देखने योग्य है-
जुद्ध अंग्रेज विरूद्ध कियो गुज्जार सौं,
छूटत अराव  धुआँ छायो  आसमान।
तोप तड़क गर्जन  सुन  गोलन  की,

छूटत बड़े मुनीश साहबन के ध्यान।
भनत मकुंद इतै कछिल तमंक लरो,
काट-काट लीने गोरन के प्रान।
राजा महाराजा हिन्दूपति कौ प्रताप बढ़ो, नंद हू किसोर झुक झारी है कृपान।
कटे शूर सामंत वर हिन्दूपति की वान, प्रान-दान दै राख ली लोहागढ़ की शान।

हिन्दूपति के समान अनेक वीरों ने मातृभूमि की रक्षा मे अपने प्राण समर्पित कर दिये थे, जिनका विस्तृत वर्णन इतिहास में नहीं है। लगता है कि इतिहासकार इन हस्तियों की अनदेखी करते रहे हैं, किन्तु लोक साहित्य में यह मूल्यवान सामग्री बिखरी पड़ी है, जिसे बटोरने के लिए कर्मठ और लगनशील हाथ चाहिए और इसको देखने के लिए सूक्ष्म दृष्टि। तभी इनकी सुरक्षा संभव है, अन्यथा ये समस्त मूल्यवान सामग्री विस्मृति के गर्त में विलीन हो जायेगी।

संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त

मर्दन सिंह को साको 

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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