Pramod Kavi छतरपुर जिले के बमनी नामक ग्राम के प्रतिष्ठित शर्मा परिवार में जन्में हैं। वे विगत वर्षो से सन्त जीवन बिता रहें है तथा बड़ा मलहरा में रहकर साहित्य साधना में लगे रहते है। वे बिहारी कवि के सान्निध्य में वर्षो तक रहे हैं, इसलिए उन पर रीतिकालीन और शास्त्रीय प्रभाव परिलक्षित होता है।
प्रमोद कवि की बुदेली गीतों से संबंधित दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। तीसरी पुस्तक “चौकड़िया शतक” प्रकाशनार्थ जा रही है। प्रमोद जी ने अपने जीवन के सत्तर वर्ष पूर्ण कर लिए हैं। बुंदेली चौकड़िया के सम्बन्ध में भूमिका लेखक श्री बाबू लाल गुप्तेश जी ने टीप दी है कि “कवि ने बुंदेली चौकड़िया के जनप्रिय एवं लोक प्रसिद्ध कवि ईसुरी की परिपाटी पर एक सौ से अधिक चौकड़ियों का सृजन कर बुंदेली का मान बढ़ाया हैं।
इस कृति में बुंदेली धरती के दुर्लभ प्राकृतिक और सांस्कृतिक चित्रों का रेखांकन हुआ है। कवि ने नौ रसों का आकर्षण पूर्ण चित्रण करके दहेज प्रथा और अशिक्षा की विसंगतियों को उभारा है। राष्ट्रीयता उनकी फागों का मुख्य विषय रहा है। बुंदेल खण्ड की महिमा गाते हुए कवि ने लिखा हैं-
नइ नइ देत उपज अलबेली है ब्रजभूमि सहेली ।
यमुना टोंस नर्मदा चम्बल खेल इनइ संग खेली।
शेल विन्ध्या की बहिन बिरन से, कैरई उठा हथेली ।
प्रान्त प्रमोद बनोचाहत है धरा स्वतंन्त्र बुंदेली ।
प्रमोद कवि अलंकार और भाषा विधान के महापंडित है। उनके प्रतीक और बिम्ब मर्म भेंदी होते हैं। वे रीतिकाल के जीवित कवि प्रमाणित होते है। उनकी निम्नलिखित फाग में विषम अलंकार का सटीक चित्रण है –
पौरूष बैठो घूंघट घालैं देख समय की चालें।
करवाले कोने में धर दई, औधी कर दई ढाले ।
सिंहासन स्यारन खा सौंपे रोर बैठ गये खाले ।
साची बात प्रमोद कहें तो आंखे काड़त लालें ।