Homeभारतीय संस्कृतिPorva Vaidic Kalin Sanskriti पूर्व वैदिक कालीन संस्कृति

Porva Vaidic Kalin Sanskriti पूर्व वैदिक कालीन संस्कृति

Pre-Vedic Period Culture

Porva Vaidic Kalin Sanskriti से तात्पर्य उस काल से है, जिसमें ऋग्वेद की रचना हुई थी। ऋग्वेद का रचना काल 1500 – 1000 ईसवी पूर्व माना जाता है। अतः Porva Vaidic Kalin Sanskriti की तिथि 1500 – 1000 ईसवी पूर्व है। पूर्व वैदिक काल सभ्य समाज के निर्माण का प्रारंभिक काल था। पूर्व वैदिक कालीन आर्य प्रकृति के सानिध्य में रहते थे।

प्रकृति के सानिध्य में आर्य संस्कृति का क्रमिक विकास हुआ। प्रकृति ने ही धार्मिक भावनाओं का अंकुरण आर्यों में किया। पूर्व वैदिक काल में आर्यों ने शनैः-शनैः संमृद्ध ’ग्राम प्रधान’ समाज का निर्माण किया। शनैः-शनैः पशुपालन, कृषि एवं अन्य व्यवसायों का क्रमिक विकास हुआ। Porva Vaidic Kalin Sanskriti में ही आर्यों की राजनैतिक संस्थाओं का क्रमिक विकास हुआ।

पूर्व वैदिक कालीन सामाजिक जन – जीवन
Social Life of Pre-Vedic Period

पूर्व वैदिक (ऋग्वैदिक) आर्यों का सामाजिक जन – जीवन सुसंगठित एवं व्यवस्थित था। पूर्व  वैदिक (ऋग्वैदिक) आर्यों के ’ग्राम प्रधान’ समाज में सभी लोग समानता के साथ ग्रामीण परिवेश में एक साथ घुल मिलकर रहते थे। आर्यों ने अपनी व्यक्तिगत और खाद्य सुरक्षा को दृष्टिगत रखते हुए सामूहिक जन – जीवन को अपनाया। पूर्व – वैदिक (ऋग्वैदिक) आर्यों के ’ग्राम प्रधान’ समाज की सबसे छोटी इकाई ’परिवार’ थी।

पूर्व वैदिक कालीन परिवार
Pre Vedic Period Family

पूर्व वैदिक कालीन समाज की आधारभूत इकाई ‘कुल’ (परिवार) थी। परिवार ‘पितृसत्तात्मक होता था अर्थात् परिवार का सर्वाधिक आयु का पुरूष ’मुखिया’ होता था, जिसे ‘कुलप’ या ‘गृहपति’ कहा जाता था। विद्वानों कअ मत है कि ‘पशुचारण की प्रधानता ने ‘पितृात्मक’ सामाजिक संरचना के निर्माण में सहायता दी। अतः पूर्व – वैदिक कालीन परिवार में पिता के अधिकार असीमित थे।

पूर्व वैदिक कालीन समाज में ’संयुक्त परिवार’ व्यवस्था थी। परिवार की संपन्नता का मापदण्ड परिवार की ’वृहदता’ थी। ऋग्वेद में  ‘नृप्त’ शब्द का प्रयोग अनेक स्थानों पर हुआ है। ‘नृप्त’ शब्द भतीजे, भाई, पिता, बहन, पुत्र, पुत्री आदि के लिए प्रयोग किया जाता था। ऋग्वेद मे अनेक स्थानों पर ईश्वर से पुत्र प्राप्ति की कामना की गयी है। ऋग्वेद मे बेटी के लिए कामना नहीं है किन्तु, उसके साथ बहुत अच्छा और समानता का व्यवहार किया जाता था।

परिवार में गृह – पत्नि का विशिष्ट महत्व एवं आदर था। ऋग्वेद में लिखा है कि, पति के साथ समान रूप से यज्ञ में सहयोग करती थी –
‘‘या दम्पति सुमनसा आ च धावतः। देवा सो नित्यया शिरा।’’
पूर्व  वैदिक कालीन समाज में गोद लेने की प्रथा थी। पूर्व  वैदिक कालीन ग्रामों की संयुक्त परिवार व्यवस्था में परिवार के सभी सदस्य एक साथ एक ही मकान में रहते थे, उनके मकान मिट्टी, लकड़ी और घास-फूंस के बने होते थे। ऋग्वैदिक कालीन ’ग्राम प्रधान’ समाज में घरों का निर्माण अनुमानतः लकड़ी या नरकट से होता था। प्रत्येक घर में एक बैठक और स्त्रियों के लिए कमरों के अतिरिक्त एक अग्निशाला होती थी।

पूर्व वैदिक कालीन वर्ण व्यवस्था
Pre Vedic-period Varna System

पूर्व  वैदिक कालीन समाज में प्रारंभिक समय में वर्ण व्यवस्था का कोई अस्तित्व नहीं था। प्रारंभिक समय में पूर्व वैदिक कालीन समाज आर्य और अनार्य दो वर्गों में विभक्त था। किन्तु इनके लिए ’वर्ण’ शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में नहीं किया गया है। आर्यों द्वारा जीते गए दास के लिए अनार्य शब्द का प्रयोग किया जाता था। ऋग्वेद में आर्य और अनार्यों के मध्य रंग और शारीरिक संरचना के आधार पर विभेद का वर्णन मिलता है। श्वेत वर्ग आर्य और कृष्ण वर्ग अनार्यों का था।

ऋग्वेद में ब्रह्म, क्षत्र और विश का अनेक बार उल्लेख मिलता है। ’ब्रह्म’ शब्द का प्रयोग पुरोहित वर्ग, शैक्षणिक एवं धार्मिक क्रियाकलापों में लगे लोगों के लिए किया जाता था। ’क्षत्र’ शब्द का प्रयोग राजन्य, राजकाज एवं सुरक्षा में लगे लोगों के लिए किया जाता था। ’विश’ शब्द का सभी प्रयोग सामान्य लोगों के लिए किया जाता था। एक ही परिवार में ब्रह्म, क्षत्र और विश तीन वर्गों के लोग हो सकते थे या यूं कहै कि, एक ही पिता की संतानें तीन वर्गों ब्रह्म, क्षत्र और विश हो सकती थी।

ऋग्वेद के 9 वें मण्डल की 112 वीं ऋचा वर्णित है कि, एक व्यक्ति कहता है मैं कवि हूँ, मेरे पिता एक वैद्य थे, मेरी माता आटा पीसती है। हम सभी धन और पशु की कामना करते हैं। यह उल्लेख मनुष्य के व्यवसाय चुनाव की स्वतंत्रता और एक ही परिवार में विविध वर्गों के होने को प्रदर्शित करता है।

पूर्व वैदिक कालीन समाज में ‘शूद्र’ शब्द का प्रयोग प्रचलित नहीं था। मूल संहिता (ऋग्वेद) में ‘शूद्र’ शब्द का प्रयोग नहीं था। संभवतः इसे बाद में जोड़ा गया होगा। बहरहाल, चतुर्थ वर्ग ‘शूद्र’ ऋग्वेद के अंत में ‘दशवे मंडल’ के ’पुरूष सूक्त’ में दिखायी देता है। जहाँ वर्णित हैं –
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
उरूतदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शुद्रोऽजायत्।।

ऋग्वेद में मात्र एक बार ‘शूद्र’ शब्द का प्रयोग हुआ है। पूर्व – वैदिक कालीन समाज में अन्तर्जातीय विवाह, व्यवसाय परिवर्तन और सहभोज पर कोई नियंत्रण और प्रतिबंध नहीं था। व्यवसाय सहभोज आदि संबंधी दृढ प्रतिबंधों की उत्पत्ति आर्यों से नहीं, अपितु यह द्रविड़ों के पूर्व भारत के टोटेम – प्रधान ओंस्ट्रेल्वायड़ जाति के पूर्वजों और ऑस्ट्रो – एशियाई लोगों से है।

पूर्व वैदिक कालीन विवाह
Pre-Vedic Marriage:

Porva Vaidic Kalin Sanskriti  में विवाह एक पवित्र संस्कार माना जाता था। विवाह एक आवश्यक संस्कार माना जाता था, क्योंकि लौकिक एवं पारलौकिक शांति के लिए पुत्रों की आवश्यकता समझी जाती थी। ऋग्वैदिक कालीन समाज में विवाह के दो प्रमुख संस्कार ‘पाणिग्रहण’ एवं ‘अग्नि परिक्रमा’ थे। ऋग्वेद में ‘सपिण्ड’, ‘सप्रवर’ शब्द नहीं मिलते। ऋग्वैदिक कालीन समाज में भाई – बहिन का विवाह निषिद्ध था। जैसाकि, ऋग्वेद में यम – यमी संवाद से स्पष्ट है। पूर्व  वैदिक कालीन समाज में बाल – विवाह प्रचलित नहीं था। लड़कियों इच्छानुसार पति चुनने के लिए स्वतंत्र थी।

विद्वानों का मत है कि, 16 – 17 वर्ष की आयु में विवाह होता था। पूर्व – वैदिक कालीन समाज में विवाह की आयु 16 – 20 वर्ष के मध्य रही होगी। क्योंकि, यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि, संपूर्ण ऋग्वेद ऐसे अनेक साक्ष्य प्रस्तुत करता है, जिसमें लड़कियों के युवा होने पर विवाह के संकेत है। पूर्व – वैदिक कालीन समाज में ’एकपत्नी प्रथा’ आदर्श रूप में प्रतिष्ठित थी। हालाँकि, बहु – विवाह तथा बहु पत्नी प्रथा भी समाज में विद्यमान थी। बहु – विवाह तथा बहु पत्नी प्रथा संभवतः प्रशासनिक और राजकीय वर्गों में प्रचलित रही होगी।

समाज में पुनर्विवाह, विधवा विवाह तथा नियोग प्रथा भी प्रचलित थी। पूर्व – वैदिक कालीन समाज में स्त्रियों के अपनी स्वेच्छा से अविवाहित रहने के प्रणाम मिलते है। ऋग्वेद में ऐसी आजीवन अविवाहित रहने वाली स्त्रियों को ‘अमाजू’ कहा गया है। बहुपति – प्रथा के कुछ संकेत मिलते हैं। किन्तु स्पष्टतः बहुपति – प्रथा समाज में प्रतिष्ठित नहीं थी। पूर्व – वैदिक कालीन समाज में दहेज प्रथा के संकेत मिलते है।

पूर्व वैदिक कालीन स्त्रियों की स्थिति
Status of women in pre vedic period

Porva Vaidic Kalin Sanskriti में स्त्रियों की स्थिति अत्यन्त सुदृढ़ थी, उसे सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनैतिक सभी प्रकार के अधिकार प्राप्त थे। इस काल में स्त्री अत्यन्त सुशिक्षित, सुसभ्य और सुसंस्कृत थी तथा शिक्षा, ज्ञान, यज्ञ आदि विभिन्न क्षेत्रों में निर्विरोध स्वच्छन्दतापूर्वक सम्मिलित होती तथा सम्मानपूर्वक आदर प्राप्त करती थी। इस काल में बाल – विवाह, पर्दा – प्रथा, सती प्रथा का उल्लेख नहीं मिलता, वहीं पुनर्विवाह, विधवा – विवाह एवं नियोग प्रथा के स्पष्ट उल्लेख मिलते है।

ऋग्वेद (8.31.8 एवं 3.31.1-2) में माता – पिता के अपनी पुत्रियों से स्नेह एवं प्रियता के उल्लेख मिलते हैं। वे उन्हें उच्च शिक्षा देते थे तथा पुत्र के समान ही पुत्रियों का ‘उपनयन – संस्कार’ करते थे। ऋग्वेद में ऐसी 20 उच्च शिक्षित स्त्रियों का उल्लेख है, जिन्होंने ऋग्वेद की 37 ऋचाओं का सृजन किया था। अपाला, घोषा, विश्वबारा, मुद्रा आदि ऐसी ही उच्च शिक्षित स्त्रियों के उदाहरण है।

ऋग्वेद (1.92.4 एवं 10.71.11) में ललितकलाओं से युक्त नृत्य में कुशल एवं सभा में गायन करती स्त्रियों का वर्णन है। ऋग्वेद काल में कन्याओं को स्वयं अपने लिए योग्य वर के चुनाव का अधिकार था। ऋग्वेद (10.27.12) में वर्णित है कि ‘‘सुदर्शना’’ एवं ‘‘अलंकृता’’ होने पर कन्या स्वयं पुरुष को चुन ले। ऋग्वेद (7.2.5 एवं 4.58.8) में ऐसे समारोहों एवं उत्सवों का उल्लेख है, जहाँ कन्याएँ स्वयं अपने लिए पति ढँढती थी।

ऋग्वेद (3.55.16) में शिक्षित स्त्री – पुरुष के विवाह को उपयुक्त बताया गया है। इससे स्पष्ट है कि स्त्रियाँ शिक्षित थी एवं अपने योग्य एवं मनोनुकूल जीवन साथी को चुन सकती थी। ऋग्वेद (10.85.46) में नववधू को श्वसुर – गृह की साम्राज्ञी कहा गया है। ऋग्वेद (5.52.61 एवं 8.35.38) में ऐसे भी उल्लेख है जब माता ने वर के अयोग्य होने पर उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह करने पर आपत्ति  की। इससे यह स्पष्ट होता है कि, कन्या के लिए योग्य वर माता-पिता भी चुनते थे।

इस काल (ऋग्वेद, 4.42.8 एवं 1.116.13) में स्त्री को विशिष्ट परिस्थिति में पति के जीवन काल में, पति की अनुपस्थिति में तथा पति की रुग्णावस्था में पुत्र प्राप्ति हेतु अन्य पुरुष का वरण करने की स्वतंत्रता प्राप्त थी। साथ ही, विधवा स्त्री पुत्र प्राप्ति के लिये अपने देवर के साथ पत्नी के रुप में रह सकती थी (ऋग्वेद, 10.4.2)।

इस प्रकार ऋग्वैदिक कालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति अत्यंत सुदृढ़ थी तथा पुरुषों के समान ही उन्हें सभी अधिकार प्राप्त थे। स्त्रियाँ सभा – समितियों भाग ले सकती थीं। कतिपय विद्वानों का मानना है कि, पूर्व – वैदिक कालीन समाज में स्त्रियों को संपत्ति में एवं राजनीति में भाग लेने का अधिकार प्राप्त नहीं था।

पूर्व वैदिक कालीन वस्त्राभूषण
Pre-Vedic period clothing:

पूर्व – वैदिक कालीन समाज में आर्यों की वेशभूषा साधारण थी। ’ग्राम प्रधान’ सामाजिक जन – जीवन में आर्यों की साधारण वेशभूषा होना स्वाभाविक थी। प्राकृतिक परिवेश में रहने के कारण प्रकृति द्वारा प्रदत्त सामग्री से वस्त्र तैयार किये जाते थे। पूर्व – वैदिक कालीन आर्यों के वस्त्र अलसी के सूत (क्षौम), ऊन और मृगचर्म के बने होते थे। पूर्व – वैदिक कालीन लोगों को कपड़ों को काटने, सिलने, बुनने, कपड़ों पर कढ़ाई करने आदि का ज्ञान था।

ऋग्वेद में सामूल्य (ऊनी कपड़े), पेशस (कढ़े हुए कपड़े), परिधान, अत्क आदि वस्त्रों का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में आर्यों के शरीर पर तीन वस्त्र पहनने का विवरण मिलता है- नीबी (जो नीचे के कमर/कटि भाग में पहना जाता था), वास (नीवी के ऊपर आधुनिक पुरूष धोती के समान), अधिवास (शरीर के ऊपरी भाग पर धारण किया जाता था, इसे अत्क या द्रापि भी कहते थे)।

पूर्व वैदिक कालीन समाज में स्त्री और पुरूष दोनों समान रूप से आभूषण धारण करते थे। कर्ण – शोभन (कानों में), कुरीर (सिर पर), निष्क (गले में), रूक्मा (छाती पर), भुजबंध, मुद्रिका आदि आभूषण धारण करते थे। स्त्रीयाँ वेणियाँ धारण करती, बालों में कंघी करती तथा पुरूष छुरे से दाढ़ी बनाते थे। दाढ़ी रखने की भी प्रथा थी। ऋग्वेद में स्त्री और पुरूष दोनों के उष्णीय (पगड़ी) पहनने का मिलता हैं।

पूर्व वैदिक कालीन भोजन
pre vedic food

पूर्व – वैदिक कालीन समाज में आर्य मूलतः शाकाहारी थे। किन्तु आर्य समाज में मांसाहार भी बड़ी संख्या में प्रचलित था। मांसाहार को बुरा नहीं माना जाता था। इस प्रकार पूर्व – वैदिक कालीन समाज में शाकाहारी एवं मांसाहारी दोनों प्रकार का भोजन किया जाता था। शाकाहारी भोजन में दूध, दही, घी, फल और सब्जियाँ आदि का प्रयोग किया जाता था। प्रकृति के सानिध्य में रहने के कारण निश्चित रूप से प्राकृतिक कंदमूल – फल पूर्व – वैदिक कालीन आर्यों की अधिक पसंद रहे होगे।

पूर्व – वैदिक कालीन समाज में आर्य यव, धान्य, उड़द, मूँग, तथा अन्य दालों आदि अन्नों का भोजन में प्रयोग करते थे। ऋग्वेद में ‘नमक’ का उल्लेख नहीं हैं। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि, आर्य भोजन में ‘नमक’ का प्रयोग नहीं करते होगे।

मांसाहार में पूर्व – वैदिक कालीन आर्य भेड़, बकरी, बैल, जंगली जानवरों आदि का मांस भून कर खाते थे। पूर्व – वैदिक कालीन समाज में आर्य गाय के मांस का सेवन नहीं करते थे। गाय को आर्य अत्यधिक पवित्र मानते थे इसीलिए ऋग्वेद में गाय को ‘अघन्या’ (न मारने वाली) कहा गया है।

पूर्व – वैदिक कालीन समाज में सुरापान भी प्रचलित था, किन्तु ऋग्वेद में सुरापान को एक बुराई के रूप में वर्णित किया गया है। पूर्व – वैदिक कालीन आर्यों का सर्वाधिक प्रिय पेय ’सोमरस’ था। ऋग्वैदिक यज्ञों के समय देवताओं को ’सोमरस’ की आहूति देने एवं ’सोमरस’ ग्रहण करने का प्रचलन था। ऋग्वेद के नवें मण्डल में ‘सोमरस’ के लिए अनेक सूक्त समर्पित हैं।

पूर्व वैदिक कालीन मनोरंजन के साधन
Means of entertainment in pre-Vedic period

पूर्व वैदिक कालीन समाज में आर्य सुखी – आनंदित जीवन के लिए उन्मुक्त होकर अनेक प्रकार के मनोरंजन के साधनों का उपयोग करते थे। रथदौड़, घुड़दौड़, आखेट, द्यूत, नृत्य, गान एवं संगीत आदि आर्यों के मनोरंजन के साधन थे। पूर्व – वैदिक कालीन आर्य वाद्य – संगीत मे वीणा, दुदुभी, शांख, झांझ, मृदंग आदि का उपयोग किया करते थे। ऋग्वेद में अनेक समारोहों एवं उत्सवों का उल्लेख है। लोग संगीत के विशेष प्रेमी थे। जुआ दूसरा लोकप्रिय खेल था। समाज में धार्मिक नाटकों का भी प्रचलन था।

पूर्व वैदिक कालीन शिक्षा
Pre vedic period Education

पूर्व वैदिक कालीन समाज में शिक्षा प्राप्ति में किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं था। शिक्षा सभी स्त्री एवं पुरूष समान रूप से प्राप्त कर सकते थे। ऋग्वेद में शिक्षित स्त्री – पुरुष के विवाह को उपयुक्त बताया गया है। अतः पूर्व – वैदिक कालीन समाज में शिक्षा का बहुत महत्व रहा होगा। ऋग्वेद में ललितकलाओं से युक्त नृत्य में कुशल एवं सभा में गायन करती स्त्रियों का वर्णन है। ऋग्वैदिक पिता पुत्र के समान ही पुत्रियों को उच्च शिक्षा देते थे।

ऋग्वेद में ऐसी 20 उच्च शिक्षित स्त्रियों का उल्लेख है, जिन्होंने ऋग्वेद की 37 ऋचाओं का सृजन किया था। ऋग्वेद में ‘उपनयन संस्कार’ का उल्लेख नहीं मिलता है। पूर्व – वैदिक कालीन आर्यों का ज्ञान ‘श्रुति’ पर आधारित था, उन्हें लिखने का ज्ञान नहीं था। शिक्षा का उद्देश्य धार्मिक एवं साहित्यिक शिक्षा प्रदान करना था। गुरूकुलों में धार्मिक एवं साहित्यिक शिक्षा के साथ – साथ अस्त्र – शस्त्रों की युद्ध विद्या भी दी जाती होगी।

पूर्व वैदिक कालीन आर्थिक जीवन
Economic life of pre Vedic Period

पूर्व वैदिक कालीन आर्यों के आर्थिक जीवन की पृष्ठभूमि ग्राम आधारित अर्थव्यवस्था थी। जिसमें कृषि एवं पशुपालन का महत्वपूर्ण योगदान था। पूर्व – वैदिक कालीन आर्यों के जीवन में पशुधन को संपति माना जाता था। लघु उद्योग एवं व्यापार – वाणिज्य की भी पूर्व वैदिक कालीन आर्यों के आर्थिक जीवन में महत्वपूर्ण योगदान थी।

पूर्व वैदिक कालीन कृषि एवं पशुपालन
Pre-Vedic period agriculture and Animal Husbandry

पूर्व वैदिक कालीन आर्यों के आर्थिक जीवन में कृषि एक प्राचीन वृत्ति थी। ऋग्वेद में कृषि कार्य के लिए ‘कृष’ शब्द का अनेक बार उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में उल्लेखित ‘धान्यकृत्’ शब्द का प्रयोग संभवतः अन्न उत्पन्न करने वाले के लिए हुआ है। ऋग्वेद में उल्लेखित है कि, सर्वप्रथम अश्विन ने खेती के लिए हल द्वारा भूमि जोतने की शिक्षा दी।

ऋग्वेद में हल से खेती के लिए भूमि जोतने के स्पष्ट उल्लेख है। अतः पूर्व वैदिक काल में हल द्वारा खेती की जाती थी। ऋग्वेद में 6, 8, 12 बैलों द्वारा हल खींचने के विवरण मिलते है। किन्तु, यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि, ऋग्वेद में कृषि योग्य भूमि का मात्र दो बार उल्लेख मिलता है, एक में भूमि को कृषि योग्य बनाकर प्रजा को देने का तथा दूसरे में इन्द्र द्वारा ऐसी भूमि को बांटने का संकेत हैं।

ऋग्वेद मे अर, शृंग, शिप्र, फाल, खनितृ आदि कृषि उपकरणों का उल्लेख मिलता हैं। विद्वानों के अनुसार, यव (जौ), गेहूँ, उड़द, मूंग, तिल आदि की फसल होती थी। पूर्व वैदिक कालीन लोग कृषि कर्म की विभिन्न पद्धतियों जुताई, बुआई, कटाई, मड़ाई, अन्न मापन आदि का प्रयोग करते थे।
ऋग्वेद में सिंचाई हेतु अवट (कुएँ), कुल्या (नहर), ल्हद (पोखर या तालाब) आदि का उल्लेख मिलता है। अच्छी फसल एवं वर्षा हेतु ऋग्वेद में देवताओं की स्तुति की गयी है। किन्तु पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि, ऋग्वेद के चौथे मंडल में ही कृषि कार्यों  का वर्णन है, अन्य में नहीं।

ऋग्वेद के केवल 24 श्लोकों में ही कृषि का उल्लेख है। संहिता के मूल भाग में तो कृषि के महत्व के केवल तीन शब्द ऊर्दर, धान्य, वपन्ति प्राप्त होते है। कृष्टि शब्द का उल्लेख 33 बार हुआ है, किन्तु लोगों के अर्थ में जैसें ‘‘पंचकृष्टयः। ऋग्वेद में एक ही अनाज ‘यव’ का कुल 15 बार उल्लेख हुआ है, जिसका केवल तीन बार ही मूल पाठ में उल्लेख मिलता है। अतः पूर्व – वैदिक कालीन आर्यों का प्रमुख व्यवसाय पशुपालन था, न की कृषि।

पूर्व – वैदिक कालीन समाज कबीलों में बंटा था और आर्यों का मुख्य व्यवसाय पशुचारण वृत्ति थी। गाय – बैंल, भैंस, भेड़ – बकरी, घोड़ा, हाथी, ऊँट, कुत्ता, सुअर, गधा, बैंल, आदि पशुपालन किया जाता था। पूर्व वैदिक कालीन समाज में गाय को सर्वाधिक पवित्र एवं दैवीय माना जाता था।

ऋग्वेद में गाय को सबसे उत्तम धन माना गया है। ऋग्वेद में गाय को ‘अघन्या’ (न मारने वाली) कहा गया है। पूर्व – वैदिक काल में गाय संपत्ति, क्रय-विक्रय, दान-दक्षिणा एवं मुद्रा के रूप में प्रयुक्त होती थी। ऋग्वेद में युद्ध का पर्याय ’गविष्टि’ (गाय का अन्वेषण) माना गया है। अतः पूर्व – वैदिक कालीन आर्य पशुपालन द्वारा पशुधन एवं उससे संबंधित आर्थिक लाभ का उपभोग करते थे।

पूर्व वैदिक कालीन व्यवसाय
Pre Vedic Period Business

पूर्व वैदिक कालीन आर्यों आर्थिक जीवन में अनेक व्यवसाय उन्नत स्थिति में थे। ऋग्वेद में ‘वासोवाय’ (वस्त्र बुनने वाले) ‘कमरि’ (धातुकर्म), हिरण्यकार (स्वर्णकार), कुलाल (कुम्हार), तक्षा या तक्षन् (बढ़ई), चर्मम्न (चर्मकार या चमड़े का कार्य करने वाले), भिषक (वैद्य), वाप्तृ (नाई) आदि व्यवसायों का उल्लेख मिलता हैं। पूर्व – वैदिक काल में वस्त्र व्यवसाय उन्नत स्थिति में था। लोगों को कपड़ों को काटने, सिलने, बुनने, कपड़ों पर कढ़ाई करने आदि का ज्ञान था।

पूर्व वैदिक काल में स्वर्णकारों का व्यवसाय भी उन्नत अवस्था में था। कर्ण – शोभन (कानों में), कुरीर (सिर पर), निष्क (गले में), रूक्मा (छाती पर), भुजबंध, मुद्रिका आदि स्वर्णाभूषण बनाये जाते थे। पूर्व – वैदिक काल में धातुकर्म का व्यवसाय भी उन्नत अवस्था में था।

इस काल में लोगों ने धातु गलाकर उसका शोधन करके विविध उपयोगी वस्तुओं का रूप देने एवं विविध प्रकार के अस्त्र – शस्त्रों का निर्माण करने में महारत् हासिल कर ली थी। लगभग समस्त विद्वान इस बात पर एक मत है कि, पूर्व – वैदिक काल में किसी भी व्यवसाय को हीन नहीं माना जाता था। डॉव्म् विमलचन्द्र पाण्डेय का मत है कि, ऋग्वेद में ‘गण’ और ‘व्रात’ का उल्लेख सम्भवतः व्यावसायिक संघो के रूप में हुआ है।

पूर्व वैदिक कालीन व्यापार – वाणिज्य
Pre-Vedic Period Trade – Commerce

पूर्व वैदिक कालीन आर्थिक जीवन में व्यापार – वाणिज्य का भी योगदान था। ऋग्वेद में आंतरिक एवं वैदेशिक व्यापार का उल्लेख मिलते हैं। व्यापार करने वाले को ‘पणि’ कहा जाता था। व्यापार में ‘वस्तु – विनिमय’ (Barter system) की प्रणाली प्रचलित थी। विद्वानों ने ऋग्वेद में वर्णित निष्क, स्वर्ण, शतमान, हिरण्यपिंड आदि के उल्लेख को मुद्रा के प्रचलन का प्रमाण माना है।

ऋग्वेद में सामुद्रिक यात्रा के साक्ष्य विद्यमान है, ऋग्वेद (1.116., 3 – 5) में उल्लेख है कि, जब तुग्र के पुत्र भुज्यु का समुद्र में  जलयान क्षतिग्रस्त हो गया था, तब उसकी प्रार्थना पर अश्विन् ने रक्षा हेतु सौ पतवारों वाली एक नाव भेजी थी। यह सामुद्रिक यात्रा की ओर संकेत करता है। ऋग्वेद में दानों की सूची में एक सुवर्ण ‘मना’ का उल्लेख है। कतिपय विद्वान प्राचीन बेबीलोन की तौल की इकाई ‘मनः’ से इसका साम्य करते है।

पूर्व वैदिक कालीन धार्मिक – अवस्था
Pre Vedic period Religious Stage

पूर्व – वैदिक कालीन आर्य प्रकृति के सानिध्य में रहते थे। प्रकृति में होने वाली शक्तिशाली घटनाओं ने आर्यों में भय और श्रद्धा पैंदा की। और इसी भय और श्रद्धा ने आर्यों में धार्मिक भावनाओं का सृजन किया। आर्यों ने प्रकृति के निर्देशक एवं नियंताओं को अपनी कल्पनाओं में साकार रूप देकर उनका मानवीकरण कर दिया।

इस प्रकार पूर्व – वैदिक कालीन धर्म का जन्म प्रकृति का मानवीकरण करके हुआ था। देवताओं का विकास प्रकृति के धरातल पर बाह्म और अन्तस दो स्वरूपों में  हुआ। देवताओं के विस्तार में ‘अदिति’ नामक देवी का प्रमुख योग रहा हैं। ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि, उस समय तैतीस देवताओं का अस्तित्व था, जिन्हें तीन वर्गों में बांटा गया था –

(A) आकाशवासी: – द्यौस, सूर्य, वरूण, सविता, अश्विन, अदिति, पूषन, विष्णु, ऊषा, आप आदि।
(B) अन्तरिक्षवासी: – इन्द्र, रूद्र, पर्जन्य, वायु, वात, मरूत।

(C) पृथ्वीवासी:- अग्नि, पृथ्वी, बृहस्पति, सोम, सरस्वती आदि।

देवताओं के इस वर्गीकरण में मूर्त  प्रकृति और अमूर्त अन्तस दो स्वरूपों का भी योगदान रहा है।’’ ऋग्वैदिक आर्य प्रकृति के उपासक थे, इसी कारण इतिहासविद् इस काल में मूर्तिपूजा को विद्यमान नहीं मानते है। पूर्व – वैदिक कालीन देवमण्डल में इन्द्र सर्वाधिक शक्तिशाली देवता था। ऋग्वेद में इन्द्र को 250 सूक्त समर्पित है। ऋग्वेद में इन्द्र को पुरामभेत्ता, पुरंदर एवं युद्धों का नेतृत्वकर्त्ता कहा गया है। अग्नि आर्यों का दूसरा सर्वाधिक शक्तिशाली देवता था। ऋग्वेद में अग्नि को 200 सूक्त समर्पित है। याज्ञिक आहूतियाँ अग्नि के माध्यम से अन्य देवताओं तक पहुँचती थीं।

पूर्व – वैदिक कालीन देवताओं की उपासना की मुख्य रीति थी, स्तुतिपाठ और यज्ञबलि अर्पित करना। ऋग्वैदिक काल में स्तुतिपाठ पर अधिक जोर दिया जाता था। स्तुतिपाठ सामूहिक और अलग – अलग भी किया जाता था। बलि या यज्ञाहुति में शाक, जौ, घी, दूध, धान्य या मांस आदि वस्तुएँ दी जाती थी। पूर्व – वैदिक कालीन आर्य अपने देवताओं से संतति, पशु, अन्न, धान्य, आरोग्य आदि पाने की कामना करते थे।

ऋग्वेद में पाप – पुण्य तथा स्वर्ग – नर्क की कल्पना मिलती है। पुण्य कर्मा मृत्यु पश्चात् सानंद स्वर्ग में तथा पाक कर्मा नरक में जाता है। नरक एक अंधकूप की भाँति है। ऋग्वेद में आत्मा और अमरता का उल्लेख मिलता है किन्तु मोक्ष का नहीं। ऋग्वेद (5.85.7) में एक उपासक किसी के प्रति पाप से मुक्ति हेतु अपने आराध्य देव से प्रार्थना करता है।

ऋग्वेद (1.2.6., 8.6.5) में दूसरे स्थान पर ऋषियों ने निर्धन, भूखे, असहाय मनुष्यों के प्रति उदार और दानशील होने की सम्मति दी है। अतः पूर्व वैदिक कालीन धर्म दैवतमय होने के साथ – साथ नैतिक भी था। पूर्व वैदिक कालीन आर्य देवताओं को मित्रवत् समझते थे, अतः जो शक्ति को उन्हें प्रभावित करती, उसे देवता मान लेते और उसे सर्वशक्तिमान मानकर उसे जगत का सृष्टिा, नियंता और उससे अन्य देवताओं की उत्पत्ति मानते थे इसे सर्वदेववाद या सर्वेश्ववादी कहते है।

तत्पश्चात् आर्यों ने सर्वशक्तिमान सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड में एक परम् सत्ता की कल्पना की और ऋग्वेद मे ‘‘एक सत् विप्रा बहुधा वंदति।’’ परम तत्व में रूप में हिरणयगर्भ, प्रजापति और कभी विश्वकर्मा की कल्पना की। एकेश्वर की यह पराकाष्ठा थी। आर्यों ने एकात्मवाद की भी कल्पना की थी जैसाकि, ‘‘ऋग्वेद में सत् एक ही है।’’ एवं ऋग्वेद (10.88.15, 10.101.2) मोह जनित भेदों को छिन्न कर उस परम सत्य  का साक्षात्कार कर लेना मनुष्य का परम लक्ष्य था।

ऋग्वेद से आर्यों के बौद्धिक विकास की तीन स्थितियों का ज्ञान होता है 1. बहुदेववाद 2. एकेश्वरवार 3. एकात्मवाद।

पूर्व वैदिक कालीन राजनीतिक स्थिति
Pre-Vedic Political Situation

पूर्व – वैदिक कालीन राजनीतिक संगठन का स्पष्ट उल्लेख ऋग्वेद मे मिलता हैं। पूर्व  वैदिक कालीन समाज में राजनीतिक संगठन का मुख्य आधार ‘कुटुम्ब’ था, जिसका नेता ‘कुलप’ कहलाता था। कई कुलों से मिलकर ‘ग्राम’ बनता था, जिसका मुखिया ‘ग्रामीण’ कहलाता था। कई ‘ग्रामों’ से मिलकर ‘विश’ बनता था, जिसका अधिकारी ‘विशपति’ होता था। कई ‘विशो’ से एक ‘जन’ बनता था, जन का प्रमुख ‘गोप्ता’ (रक्षक) कहा जाता था।

एक पुरानी ऋचा में दो जनों की संयुक्त युद्ध – क्षमता 21 बताई गई है। अतः किसी जन में सदस्यों की संख्या कुल मिलाकर 100 से अधिक नहीं रहती होगी।’’ कई जन मिलकर ‘राष्ट्र’ (देश) बनाते थे, जिसका प्रमुख ‘राजा’ होता था।

पूर्व वैदिक कालीन प्रशासनिक व्यवस्था
Pre Vedic era Administrative System

पूर्व वैदिक कालीन शासन व्यवस्था प्रमुखतया राजतंत्रात्मक थी, जिसका अध्यक्ष राजा होता था। ऋग्वेद में ‘गणों’ का भी उल्लेख है। ऋग्वेद में राजनीतिक संगठन का क्रमिक स्तरण कुटुम्ब, ग्राम, विश, जन एवं राष्ट्र जैसी राजनैतिक इकाईयों का उल्लेख है। ऋग्वेद में ’पंचजन’ यदु, अणु, पुरू, द्रह्मु, तुर्वस तथा भरत, क्रिवि, त्रिसु, आदि जनों का उल्लेख है।

’कुटुम्ब’ पूर्व – वैदिक कालीन राजनीतिक संगठन की सबसे छोटी तथा राष्ट्र सबसे बड़ी राजनैतिक इकाई थी। इन सबका सर्वोच्च प्रशासनिक प्रमुख राजा होता था। पूर्व वैदिक कालीन राजतंत्रात्मक व्यवस्था को सलाह, सहयोग देने के साथ ही, उस पर नियंत्रण का कार्य सभा – समिति, विदथ जैसी संस्थाएँ करती थीं।

पूर्व वैदिक कालीन राजा Pre Vedic kings
राजा, राष्ट्र (राज्य) का सर्वोच्च प्रशासनिक प्रमुख होने के कारण प्रधान न्यायाधीश, सैना का सर्वोच्च अधिकारी एवं समस्त प्रशासनिक एवं वैधानिक क्रियाकलापों केन्द्र बिन्दु होता था। ऋग्वेद में राजा को ‘गोप जनस्य’ (प्रजा का रक्षक) और ‘पुरामभेत्ता’ (नगरों पर विजय पाने वाला) कहा गया है। राजा भव्य राजप्रासाद में निवास करता था। प्रारंभ में राजा आम जनता के बीच में चुना जाता था। बाद में राजपद पैतृक हो गया था, हाँलाकि बाद में भी जनता द्वारा निर्वाचित राजा के उल्लेख मिलते है।

साधारणतः सबसे प्रतिष्ठित कुल के सबसे वायोवृद्ध व्यक्ति को नेता मानकर राजा बना दिया जाता था।’’ आवश्यकता पड़ने पर जनता राजा को पदच्युत अथवा निर्वासित भी कर सकती थी। राजा निरंकुश नहीं होता था। सभा और समिति उस पर नियंत्रण रखती थी। राज्याभिषेक के पूर्व राजा ‘रत्नी’ (पुरोहित, सेनानी, ग्रामीण) की पूजा करता था।

प्रजा राजा की आज्ञा का पालन करती थी और कर स्वरूप ‘बलि’ नामक ‘कर’ देती थी, क्योंकि ऋग्वेद में राजा को ‘बलिहृत्’ कहा गया है। राजा गुप्तचरों के द्वारा जनता के आचरण पर निगाह रखता था। राजा के व्यक्तिगत कर्मचारियों को ‘उपस्ति’ और ‘इभ्य’ कहते थे। पुरोहित, सेनानी तथा ग्रामणी आदि राजा के मुख्य पदाधिकारी थे।

पूर्व वैदिक कालीन पुरोहित pre-vedic priest
पुरोहित राजा को धार्मिक, न्यायिक, प्रशासनिक, राजनीतिक विषयों पर सलाह देने वाला एक शिक्षक, पथ – प्रदर्शक दार्शनिक तथा मित्र रूप में राजा का प्रमुख साथी होता था।

पूर्व वैदिक कालीन सेनापति या सेनानी
Pre-Vedic Period Commander or Fighter

पूर्व – वैदिक कालीन राज्य की सैना का प्रमुख सेनापति या सेनानी कहलाता था। वह युद्ध के समय सैना का संचालन करता था। ऋग्वेद में शर्ध, व्रात, गण आदि सैनिक ईकाईयों का उल्लेख मिलता है।

पूर्व वैदिक कालीन ग्रामणी/मुखिया
Pre-Vedic Period Gramni /Chief

पूर्व – वैदिक कालीन राज्य में ग्राम का प्रमुख ग्रामणी कहलाता था। ग्रामणी, ग्राम के राजस्व, न्याय, सुरक्षा एवं शांति एवं व्यवस्था का उत्तरदायी होता था। वस्तुतः ग्रामणी घरेलू और सैनिक दोनों कार्यों के लिए ग्राम का प्रधान होता था।

पूर्व वैदिक कालीन सभा और समिति
Pre-Vedic Period Assembly and Committee

पूर्व वैदिक कालीन राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था में राजा को सलाह देने और उस पर नियंत्रण के सभा – समिति और विदथ (विधाता) का उल्लेख मिलता है। किन्तु इनके कर्त्तव्यों एवं अधिकारों के बारे में  पर्याप्त मतभेद हैं। अधिकांश विद्वानों का मत है कि, सभा उच्च सदन के रूप में कार्य करती थी। सभा श्रेष्ठ जनों की संस्था थी, जिसमें उच्च पदाधिकारी तथा गणमान्य व्यक्ति ही भाग लेते थे।

ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं में सभा का संबंध ऐश्वर्यशाली और सुन्दर व्यक्तियों से स्थापित किया जाता है, जिससे अनुमान होता है कि, मुख्यतः सभा श्रेष्ठ जनों की संस्था थी न कि समूचे जन की परिषद्।’’ राजा सभा अध्यक्ष होता था। सभा सार्वजनिक बातों का फैसला करती थी। सभा राष्ट्रीय न्यायालय के रूप में भी कार्य करती थी, इसे ‘आपत्ति’ और ‘आवेश’ भी कहा गया है।

ऋग्वेद के दसवें मण्डल में एक ऐसे व्यक्ति का उल्लेख है, जिस सभा ने दोष रहित किया था। समिति सारी प्रजा की संस्था थी, जिसमें राजा और प्रजा समान रूप से उपस्थित होते थे। इसका प्रमुख कार्य राजा का चुनाव करना था। राज्य की समृद्धि हेतु राजा और समिति का एकमत होना आवश्यक था।

ऋग्वेद में  राजा एक स्थान पर समिति के सदस्यों से कहता है कि ‘‘मैं तुम्हारा विचार और सम्मति स्वीकार करता हूँ।’’ समिति की सभा की अपेक्षा अधिक सार्वजनिक तथा राजनीतिक संस्था थी। सभा एवं समिति को व्यापक अधिकार थे और ये राजा की शक्ति और निरंकुशता पर नियंत्रण रखती थी।

पूर्व वैदिक कालीन विदथ (विधाता)
Pre-Vedic Period Vidatha (Vidhata)

विदथ (विधाता) कर्त्तव्यों, अधिकारों एवं कार्य प्रणाली के बारे में  बहुत अधिक मतभेद हैं। धार्मिक जीवन का प्रबंध विधाता करती थी। प्रतीत होता है कि, विधाता जन्मदात्री संस्था थी, जिससे सभा, समिति और सेना की उत्पत्ति हुई। विधाता नागरिक सैनिक और धार्मिक कार्यों से संबंधित थी। ऋग्वेद में अग्नि को विधाता या केतु या झण्डा कहा गया है।

पूर्व वैदिक कालीन न्याय – व्यवस्था
Pre-Vedic period justice System

पूर्व वैदिक कालीन ऋग्वेद से तत्कालीन न्याय – व्यवस्था के बारे में अत्यल्प जानकारी मिलती है। ऋग्वेद में कानून के लिए ‘धर्मन्’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वेद में किसी तरह के न्यायाधिकारी का उल्लेख नहीं है। वस्तुतः राजा ही सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। चोरी, डकैती, धोखेबाजी, जानवरों को चुराना, सेंधमारी तथा सामाजिक परंपराओं का उल्लंघन भी अपराध माना जाता था। ऐसी समाज विरोधी हरकतों को रोकने के लिए गुप्तचर रखे जाते थे।

न्याय की ‘दिव्य – प्रणाली’ अत्यधिक प्रचलित थी, जिसमें गरम कुल्हाड़ी अग्नि तथा जल का प्रयोग किया जाता था। ऋग्वेद में झगड़ों के निर्णायक को ‘मध्यमशी’ (बीच – बचाब करने वाला) कहा जाता था। ऋण न देने वाले को दण्ड स्वरूप दासता स्वीकारना पड़ती थी। सम्भवतः मृत्युदण्ड का प्रावधान था। सम्भवतः ‘उग्र’ और ‘जीवग्रभ’ शब्द पुलिश कर्मचारियों को ओर इंकित करते हैं।

भारतीय वैदिक संस्कृति 

admin
adminhttps://bundeliijhalak.com
Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

error: Content is protected !!