चौथीं शताब्दी से नवीं शताब्दी के लगभग छः सौ वर्षों तक पल्लवों का प्रशासन दक्षिण भाग में रहा। इस दीर्घकालीन प्रशासन में Pallav Kalin Sanskriti राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में अदभुत प्रगति हुई। इस वंश के नरेशों ने राजनीतिक दायित्व को भली-भांति निर्वहन के साथ ही साथ कला और साहित्य में भी यथोचित रूचि दिखाई।
शिल्पकला और मंदि र निर्माण की दृष्टि से भी पल्लवों का शासनकाल अत्यन्त महत्वपूर्ण है। चट्टानों को काटकर बड़े पैमाने पर मंदिर निर्मित किये गये। पल्लवों द्वारा प्रचलित मंदिर निर्माण की कला-शैली दक्षिण की सभी शैलियों का आधार बन गई।
सामाजिक जीवन
पल्लव काल में वर्ण व्यवस्था और जाति प्रथा समाज का आधार था। जाति-प्रथा में जटिलता और अपरिवर्तनशीलता आ गई थी। समाज में अनेक कुप्रथाएं और परम्पराएं थीं, जिनके निवारण के लिए धार्मिक जीवन में आन्दोलन हुए। नालन्दा विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध आचार्य धर्मपाल कांची के थे। पल्लव राज्य बड़ा विस्तृत था, भूमि उपजाऊ थी एवं कृषि की दशा अच्छी थी। उपज की अधिकता थी। लोग सुखी और सदाचारी प्रवृति के थे।
पल्लवों के अनुदानों से विदित होता है कि छठी सदी के अन्त तक दक्षिण भारत में आर्य पद्धति के समाज ने अपना स्थान पक्का कर लिया था। धर्म सूत्रों के अनुसार सामाजिक जीवन गठित हो गया था। राज्य के करों की विविधता के कारण जनता पर आर्थिक बोझ अधिक था, परन्तु फिर भी उनका आर्थिक स्तर समुन्नत था। आवागमन के पर्याप्त साधनों के कारण व्यापार भी उन्नत दशा में था। उनके भारतीय व्यापारी दक्षिण-पूर्वी एशिया और सुदूर पूर्व के देशों को धनोपार्जन के लिए आते-जाते थे।
इस काल में राजा का कर्त्तव्य वर्ण की शुद्धता को कायम रखना एवं वर्ण संकरता को रोकना था, परन्तु थोड़ी मात्रा में इन नियमों का उल्लंघन सदा होता रहा। इसकाल में यद्यपि अपनी जाति में ही विवाह करना अच्छा समझा जाता था, परन्तु अन्तर्जातीय विवाह भी कभी-कभी हो जाते थे। ये विवाह अनुलोम (उच्च वर्ण का लड़का और निम्न वर्ण की लड़की) कहलाते थे।
’याज्ञवलक्य स्मृति’ में इस प्रकार के विवाहों की आज्ञा दे दी गई है। वास्तव में अन्तर्जातीय विवाह विदेशी कबीलों को हिन्दू समाज में विलीन करने का अच्छा तरीका था। अन्तर्जातीय विवाहों की तरह अन्तर्जातीय भोजन भी चलता रहा। स्मृति लेखकों ने शूद्रों के साथ भोजन करने की मनाही की है, परन्तु कृषक, नाई, दूधवाले व खानदानी मित्रों के साथ सहभोज की आज्ञा दे दी है। पल्लवकाल में जातियों के आम सम्बन्ध प्रेमपूर्ण थे।
अपने सम्पूर्ण प्रदेश में पाठशालाएं, गोशालाएं, अस्पताल व धर्मशालाएं उन्होंने लोगों के लाभ के लिए चलाई थी। पूर्वयुग की भांति इस युग में भी संयुक्त परिवार प्रथा जारी था। सम्पत्ति पिता के नाम रहती थी। यद्यपि भाई व पुत्रों का सम्पत्ति में बराबर का भाग रहता था। गोद लेने की प्रथा प्रचलित थी। प्रायः जिन व्यक्तियों की सन्तान नहीं होती थी वे अपनी पुत्री को गोद लेते थे।
विधवा पुनर्विवाह का प्रचलन नहीं था, परन्तु उन्हें पति की मृत्यु के पश्चात् उसकी सम्पत्ति का भाग प्राप्त था। यद्यपि स्त्रियों में शिक्षा का विशेष प्रचलन नहीं था, फिर भी इस युग में बड़े घराने की लड़कियों के वेदों तथ अन्य ललित कलाओं का अध्ययन काफी चलता रहा। इसकाल में कई विदूषी नारियां लेखिका तथा कवियित्री हुई। इस युग में सती प्रथा का भी प्रचलन था परन्तु कुछ विद्वानों ने विधवाओं के शुद्ध जीवन यापन के लिए विस्तृत नियम बनाये थे। इससे स्पष्ट होता है कि इस युग में सती प्रथा सर्वप्रिय नहीं हुई थी।
इस युग की चित्रकारी से स्पष्ट होता है कि नारियां समाज में स्वतंत्रता पूर्वक घूम सकती थी और उन्हें केवल घर की चाहर-दिवारी में बन्द नहीं रखा जाता था। उच्च घराने की स्त्रियां जब सार्वजनिक स्थानों पर जाती थी तो थोड़ा पर्दा करती थी।
पल्लव काल में सामिष तथा निरामिष दोनों प्रकार के भोजन करने वाले होते थे। बौद्ध, ब्राह्मण व वैश्य मांस नहीं खाते थे, किन्तु क्षत्रिय व निम्न वर्ग के लोग मांस का प्रयोग करते थे। आमोद-प्रमोद के प्रमुख साधनों में शतरंज, चौपड़, शिकार, पशुओं की लड़ाई, नाटक, मेला आदि थे। सरकारी, दफ्तरों, मठों वे ऊँचे घरानों में समय का पता लगाने के लिए नादिकाएं (पानी की घड़ियाँ) होती थी।
शैक्षिक स्थिति
जनता में विद्या एवं विद्वत्ता के प्रति यथोचित लगाव था। शिक्षा प्रसार का अधिकांश कार्य ब्राह्मण करते थे। बौद्ध विहार और हिन्दू मंदिर शिक्षा के केन्द्र थे। पल्लवों की राजधानी कांचीपुरम शिक्षा और साहित्य का प्रसिद्ध केन्द्र था। कांची के समीप एक विशाल विस्तृत विहार था, जहां देश के विभिन्न प्रकाण्ड विद्वान आते-जाते थे और परस्पर भेंट कर विचारों का आदान-प्रदान करते थे।
कांची नगर अनेकानेक विद्वान व्यक्तियों का निवास स्थान था। वहां एक प्रसिद्ध हिन्दू विश्वविद्यालय था जहां अनेक लोग विद्याध्ययन के लिए आया करते थे। नालन्दा विश्वविद्यालय का प्रसिद्ध विद्वान आचार्य धर्मपाल कांची से सम्बधित था। प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान दिग्नाग की शिक्षा कांची में हुई थी।
कदम्ब वंशी राजकुमार मयूर वर्मा शिक्षा के लिए वहां गया था। कांची ही नहीं ग्रामों में भी अनेक विद्वान निवास करते थे। एक ताम्रपत्र लेख से ज्ञात होता है कि कांची के समीप कुर्रम (ग्राम) में एक सौ आठ ब्राह्मण परिवार वेदपाठी थे तथा महाभारत को कण्ठस्थल सुनाने पर पल्लव सम्राट परमेश्वर वर्मन ने विद्वान को पुरूस्कृत किया था।
साहित्य
पल्लव नरेशों का शासन संस्कृत तथा तमिल दोनों ही भाषाओं के साहित्य की उन्नति का काल रहा। कुछ पल्लव नरेश उच्चकोटि के विद्वान थे तथा उनकी राज्य सभा में प्रसिद्ध विद्वान एवं लेखक निवास करते थे। महेन्द्र वर्मा प्रथम ने ’मुत्तविलासप्रहसन’ नाम हास्य ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें कापालिकों एवं बौद्ध भिक्षुओं की हंसी उड़ाई गयी है। कुछ विद्वानों के मतानुसार किरातार्जुनीय महाकाव्य के रचियता भाटवि उसी की राजसभा में निवास करते थे।
महेन्द्र वर्मा का उत्तराधिकारी नरसिंह वर्मा भी महान विद्या-प्रेमी था। उसकी राजसभा में ’दशकुमारचरित’ एवं काव्यादर्श के लेखक दण्डी निवास करते थे। पल्लव शासकों के अधिकांश लेख विशुद्ध संस्कृत में लिखे गये हैं। संस्कृत के साथ-साथ इस समय तमिल भाषा की भी उन्नति हुई।
शैव तथा वैष्णव सन्तों द्वारा तमिल भाषा एवं साहित्य का प्रचार-प्रसार हुआ। पल्लवों की राजधानी कांच्ची विद्या का प्रमुख केन्द्र था जहां एक संस्कृत महाविद्यालय (घटिका) थी। इसी के समीप एक मण्डप में महाभारत का नियमित पाठ होता था तथा ब्राह्मण परिवार वेदाध्यन किया करते थे। कदम्ब नरेश मयूर शर्मा विद्याध्यन के लिए काच्ची के विद्यालय (घटिका) में ही गया था।
शासन-प्रबन्ध
काच्ची के पल्लव नरेश ब्राह्मण धर्मानुयायी थे। अतः उन्होंने धर्म महाराजाधिराज अथवा धर्ममहाराज की उपाधि धारण की। उनकी शासन पद्धति के अनेक तत्व मौर्यों तथा गुप्तों की शासन पद्धतियों से लिए गए प्रतीत होते हैं। शासन का सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था। उसकी उत्पत्ति दैवी मानी जाती थी। पल्लव नरेश अत्यन्त कला-प्रेमी एवं साहित्य के संरक्षक थे। युवराज का पद अत्यन्त महत्वपूर्ण होता था। और वह अपने अधिकार से भूमि दान दे सकता था।
पल्लव सम्राट के पास अपनी मंत्रिपरिषद थी। जिसकी सलाह से वह शासन करता था। पल्लव लेखों में ’अमात्य’ शब्द का उल्लेख मिलता है। बैकुण्ठपेरूमल लेख में नन्दिवर्मन की मंत्रिपरिषद का उल्लेख मिलता है। किन्तु मंत्रियों के विभागों अथवा कार्यों के विषय में हमें कोई सूचना नहीं मिलती है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रमुख विषयों पर मन्त्रणा करने के लिए राजा के पास कुछ खास मंत्री होते थे जिन्हें ’रहस्यादिकद’ कहा जाता था।
पल्लव लेखों में शासन के कुछ प्रमुख अधिकारियों के नाम इस प्रकार मिलते है-सेनापति, राष्ट्रिक, देशाधिकृत, ग्रामभोजक, अमात्य, आरक्षाधिकृत, गौत्मिक, तैर्थिक, नैयोजिक, भट्टमनुष्य, संचरन्तक आदि। विशाल पल्लव साम्राज्य विभिन्न प्रान्तों में विभाजित किया गया था। प्रान्त की संज्ञा थी राष्ट्र या मण्डल। राष्ट्रिक नामक पदाधिकारी इसका प्रधान होता था। यह पद युवराज, वरिष्ठ अधिकारियों अथवा कभी-कभी पराजित राजाओं को भी प्रदान किया जाता था। राष्ट्रिक, अधीन सामन्तों के ऊपर भी नियन्त्रण रखता था।
मण्डल के शासक अपने पास सेना रखते थे तथा उनकी अपनी अदालतें भी होती थी। कालान्तर में उनका पद आनुवांशिक हो गया। ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकारियों को वेतन के बदले में भूमि का अनुदान ही दिया जाता था। दक्षिण भारतीय प्रशासन की प्रमुख तत्व ग्रामसभा या समिति होती थी और यह पल्लव काल में ही रही होगी। प्राचीन पल्लव लेखों से पता चलता है कि ग्रामों का संगठन ’ग्रामकोय’ अथवा ’मुटक’ के नेतृत्व में किया गया था।
राजकीय आदेश उसी को सम्बोधित करके भेजे जाते थे। ग्रामसभा की बैठक एक विशाल वृक्ष के नीचे होती थी। इस स्थान को ’मन्रम’ कहा जाता था। ग्राम प्रायः दो प्रकार के होते थे-ब्रह्मदेय तथा सामान्य। ग्रामों में ब्राह्मणों की आबादी अधिक होती थी तथा इनसे कोई कर नहीं लिया जाता था। सामान्य ग्रामों में विभिन्न जातियों के लोग रहते थे। तथा भूराजस्व के रूप में उन्हें राजा को भी कर देना पड़ता था। यह छठे से दसवें भाग तक होता था।
इसके अतिरिक्त कुछ स्थानीय कर भी लगते थे तथा इनकी वसूली भी ग्राम सभा द्वारा ही की जाती थी। लेखों में 18 पारम्परिक करों का उल्लेख मिलता है। पल्लवों के पास एक शक्तिशाली सेना भी थी। इसमें पैदल अश्वरोही तथा हाथी होते थे। उनके पास नौ सेना भी थी। महाबलिपुरम तथा नेगपत्तन नौ सेना के केन्द्र थे। नौ सैनिक युद्ध के अतिरिक्त अन्य कार्य भी करते थे तथा दक्षिण पूर्व एशिया व्यापार में इनसे सहायता जी जाती थी।