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Naurata Bundeli Lok Parv नौरता-बुन्देली लोक पर्व

बुन्देलखंड में बालिकांए कुवांर के महिने में नवरात्रि के समय Naurata Bundeli Lok Parv नामक एक अत्यंत सरल तथा धार्मिक भावनापूर्ण खेल खेलती हैं। नौरता शब्द नौरात्रि का बोधक है तथा नौरता नौरात्रि तक चलने वाला नृत्य है। बुन्देलखंड के अधिकांष ग्राम और नगरों में सुअटा खेलने की परंपरा काफी समय से चली आ रही है। आज भी गांव तथा नगरों के प्रत्येक मुहल्लों में ऐसे चबूतरे नजर आते हैं जहां सुअटा खेलने के लिए एक विषेष जगह बनाई जाती है।

बुन्देलखंड के ग्राम एवं जनपदीय अंचल में कुंवार का महिना विषेष मौज मस्ती और हर्ष उल्लास का माना गया है। सुअटा या नौरता कुमारी कन्याओं द्वार खेला जाने वाला एक अनुष्ठान परक खेल है, जो कि अष्विन- शुक्ल प्रतिपदा से नौ दिन तक चलता रहता है।

इस खेल का सबसे महत्वपूर्ण पात्र सुअटा है। इसलिए उसका नाम सुअटा पड़ा है। नव रात्रि में खेले जाने के कारण और शक्ति से जुड़े होने से उसे नौरता कहा गया है। पहले अष्विन शुक्ल पूर्णिमा को ‘‘स्कंदमह’’ नामक उत्सव मनाया जाता था जिसमें स्कंद की पूजा होती थी। फिर कुंवारी कन्याओं द्वारा गौरी की पूजा होनी लगी। और दोनों उत्सवों को मिलाकर एक कर दिया गया । जिसे कोई सुअटा और नौरता कहने लगे।

अष्विन माह की शुल्क पक्ष की प्रतिपदा से प्रारंभ होकर दषहरा तक जब शक्ति आराधना का नवरात्रि पर्व मनाया जाता है उन्हीं दिनों बालिकाओं का रंगोली पर्व नौरता गांव गांव में आनंद की वर्षा करता है। कुंवारी कन्याओं द्वारा मनाया जाने वाला यह रंगबिरंगा कार्यक्रम प्रतिपदा से नवमी तक नौ रातों के अनुसार नौरता कहलाता है। रंगो में कलात्मक अभिव्यक्ति का यह कार्यक्रम इन दिनों प्रतिदिन ब्रम्ह मुहूर्त में प्रारंभ होकर सूर्य की प्रथम किरण के उदय के पूर्व से ही प्रारंभ होता है।

बालिकायें इन दिनों विभिन्न रंगों से चबूतरों पर आकर्षक कलाकृतियां बनाती है। नौरता बुन्देली संस्कृति का आधार स्तंभ है। जिसके माध्यम से बालिकाओं में सांस्कृतिक चेतना का प्रसार होता है।

नौरता अनुष्ठान की तैयारी
कुँवार माह में नवरात्रि प्रारंभ होने के कई दिन पहिले से लड़कियां नौरता की तैयारी प्रारंभ कर देती हैं। सुअटा खेलने के लिए पास-पड़ौस की कन्याएं सूर्योदय से पूर्व किसी चबूतरे पर एकत्रित हो जाती हैं। कुछ मुहल्लों में सुअटा खेलने की एक जगह निष्चित बन जाती है। कन्यायेँ  मिटटी से बनायी गयी ‘‘सुअटा’’ की मूर्ति की पूजा करती हैं।

लड़कियां, चीलबटा, संगमरमर, दूधिया-पत्थर आदि भिन्न-भिन्न प्रकार के पत्थरों को पीसकर रंग-बिरंगे रंगों से स्वयं की तैयार करती हैं। सूर्योदय से काफी पहले लड़कियां, अपनी-अपनी थालियों में रंगों को लेकर सुअटा खेलने के लिए इकट्ठी होती है।

दूसरे शब्दों में हम कहें तो किसी एक घर या बड़ी सी दहलान में लड़कियॉं नौरता का चौक बनाती हैं। एक मिटटी का चबूतरा बनाया जाता है। जिसमें नीचे हाथ-पांच जोड़कर दैत्य भूत का रूप दिया जाता है। फिर दिवार के सहारे चबूतरे के पीछे- पत्थर- मिट्टी से पर्वत के नीचे दो पकी परियां गाड़कर दुग्ध कुण्ड बनाये जाते हैं। जिसमें पूजन के समय दूध भर दिया जाता है। और उसमें दूबा डाल दी जाती है।

पर्वत शिखर को रंग-बिरंगी पत्थरों तथा कई रंग की मिट्टी जैसे पीरोठा, गेरू आदि से सजाया जाता है। कुम्हड़े एवं तुरैया के फूलों से उसे और भी सजाया जाता है। नदी की रेत से मिलने वाली सफेद सीप तथा शंखियां एवं पत्थर के टुकड़ों को बीनकर उन्हें महीन पीसकर कटोरियों में रख लेते हैं। जिससे सफेद चमकीला चूर्ण तैयार हो जाता है। ईंट तथा लाल खपरे को पीसकर लाल रंग का चूर्ण तैयार कर लिया जाता है।

इन दोनों चूर्णो से रोज नौरता के आसपास तथा ऐसे सामने वाली गली में बड़ी चतुराई और सुन्दरता के साथ चौक पूरे जाते है। फूल रखने के लिये बांस के छिट्न्ना बनवा लिये जाते है। नौरता की जगह लीप-पोतकर साफ की जाती है यह तैयारी नवरात्रि की प्रतिप्रदा के पहले कर ली जाती है।

अब प्रतिपदा से चौथ तक दैत्य पूजन किया जाता है और पंचमी से नवमी तक गौरी पूजन होती हैं। पंचमी के दिन मॉ गौरी की मिट्टी की प्रतिमा स्थापित की जाती है। प्रतिमा के साथ ढोलिया व भदोई को भी स्थापित किया जाता है।

प्रतिपदा के दिन बहुत सुबह सब लड़कियॉ उठकर फूल तोड़कर छिट्न्ना सजाने में लग जाती हैं। छिट्न्ने में फूल बाहर की ओर और उनके डठंल भीतर की गोलकार रूप सजाये जाते है। ये छिट्न्ने नौरता के पास रखकर सब लड़कियां गीत गाती हुई नदी के स्नान करने जाती हैं, फिर पूजन प्रारंभ होता है । 

पूजन प्रारंभ होने पर सब लड़कियां में जो लड़की बड़ी और चतुर होती है वह दुग्ध कुंड में से दूब भिगोंकर बारी-बारी से प्रत्येक लड़की पर  उस दूध को  छिड़कती हैं इसके पश्चात कॉय डाली जाती है गीत गाकर सब लड़कियां अपने अपने हाथ की कॉय- वह फूल लगी छड़ी नौरते पर चढ़ा देती है। पूजन के साथ साथ गीत में परिहास भी चलता जाता है। यह कॉय डालना देवी के ध्यान और आव्हन का रूप जान पड़ता है।

पंचमी से मॉ गौरा की पूजा प्रांरभ होती है मॉ की प्रतिमा की पूजन करके चढ़ावा श्रृगार चढ़ाया जाता है। और गीत गाये जाते है जिन्हें शृंगार  गीत भी कहते हैं। पंचमी से अष्ठमी तक गौर पूजन का क्रम चलता रहता है। क्वार  शुक्ल नवमी खेल का अंतिम दिवस होता है। नवमी के दिन नौरता से नदी तक के समस्त रास्तों पर चौक पूरा जाता है। नवमीं को पूजा के बाद सब लड़कियां गौर की प्रतिमा सिराने संध्या के समय नदी या तालाब जाती है।

रात्रि होते ही “झिंझिया” फिराई जाती है। एक घड़े के ऊपरी भाग में चारों ओर कई छेद कर दिये जाते हैं। आधे घड़े तक राख भरकर उस पर तेल का दिया रख देते है। छेदों से उसका प्रकाश  निकलता है। यह ‘‘झिंझिया’’ रखकर लड़की उसे अपने सिर पर रखकर आगे-आगे चलती है। ‘‘झिंझिया’’ रखकर लड़की प्रत्येक घर जाती है।

जहाँ पर उसे श्रृद्धा के अनुसार अनाज व चन्दा प्राप्त होता है। चंदा से प्राप्त राशि  से अनाज का क्रय किया जाता है और दसवीं  को रात्रि के समय सब लड़कियां उस अनाज से भोजन बनाती हैं और नौरता पर भोजन करती हैं। भोजन समाप्ति के साथ नौरता का खेल भी समाप्त हो जाता है। विवाह होने के पश्चात प्रत्येक लड़की को नौरता के उत्थान करना होता है जिसे नौरता उजाना भी कहते हैं।

अनुष्ठान एवं कॉय डालने का उद्देष्य
सुअटा के पूजन का उद्देष्य उन भयंकर ग्रहों से बचना है जो 16 वर्ष तक के बच्चों को सताते हैं। या तो वे उनका भक्षण करते हैं या अपहरण। गौरा पार्वती की पूजा और अनुष्ठान कुमारियों को श्रेष्ठ और मनचाहे वर पाने के लिए हैं। गौरा के साथ महादेव की मूर्ति रख लेना लोक के लिए सहज ही स्वाभाविक है।

कॉय डालने का प्रमुख उद्देष्य बालिकाओं एवं उनके भाईयों की रक्षा करना है। कन्याओं की पाँच-पाँच और भाईयों की सात-सात मिट्टी की कॉय बना ली जाती हैं। फिर बालिकाऐं सुअटा को घेर कर खडी़ हो जाती हैं। सियानी कन्या दूब और तुरैया के फूल को दूध जल में डुबोकर गौरा पर छिड़कती हैं और फिर अपनी सहेलियों पर वे सब अपना नाम ले-लेकर अपनी अपनी सुअटा पर रखती जाती हैं।

इसके साथ गीत भी चलते रहते हैं। सब भाईयों का नाम ले-लेकर कॉय डाली जाती है। इस प्रकार कॉय डालने का मूल्य उद्देष्य राक्षस के भय से अपनी एवं अपने भाईयों की रक्षा करना है। इस प्रकार नौरता बालिका प्रधान नृत्य है जिसमें नौ दिन तक लड़कियाँ अपने उत्साह एवं खुषी की अभिव्यक्ति नाचकर व गाकर करती हैं।

इस नृत्य में लड़कियाँ नौरता एवं टेसू के गीत गाती हैं तथा ताली बजाकर विभिन्न मुद्राओं में नृत्य करती हैं। नवमी के दिन “झिंझिया” के कारण संध्या के समय यह नृत्य बहुत ही आकर्षक बन पड़ता है। नौरता एक खेल नृत्य है जिसमें बालिकायें पूजन के साथ-साथ खेलती व नृत्य करती हैं। इसमें विभिन्न मनोरंजक गीत उनके नृत्य में सहायक होते हैं।

लोकनृत्य नौरता में गाये जाने वाला गीत:-

पूछत-पूछत आये हैं, नारे सुआ हो।।
कौन बाबुल जू के सुआ हो,
पौरन बैठे भैया पोरिया, नारे सुआ हो
खिड़ला बैठो कुथवार सुआ हो,
निकरो दुलैया रानी बाहरे, नारे सुआ हो
आई बन राट मोरे नाव सुआ हो,
कैसे के निकरे बिन्नू बाहरे, नारे सुआ हो
पौर के पौरया मोरे राज सुआ हो,
हिमांचल जू की कुबर लड़ाई हो, नारे सुआ हो।।
चंदा माने भैया सूरज माने भैया,
के भैया मोरे आहे लिखावन जे हे,
पढ़ावन जेहे लुआवन जेहे पैचावन
जे हे चंदा माने भैया सूरज माने मैया
नौरता के गॉव में राधा रानी आई है,
नौरता के गॉव में श्यामा रानी आई है।
आठ कटीले काटें, जे पॉच भइया पाड़े
छटाई बेन ईगुर सींगुर आओ
आओ अंगना कुकु खेले संगना
आठ कटीले कांटे रे पॉच भइया पाडे
सूरज मोरे बाड़े रे चंदा ऊगे बड़े भुनसारे,
अंगन ने होय बारो चंदा
सबघर होय लिपना पुतना
माई कहो मैं कर हो
बाबुल को कहो में कर हो
मोरे बाड़े चंदा ऊगे बड़े भुनसारे हो
आई गौर की चाई देखो माई देखो
का पैरे देखो, हाथ में कंगना देखा
कानों में बाली देखो, नाकन नथुनिया देखी
पॉव पैजनिया देखो
आई गौर की पाई देखो माई देखो हो

According to the National Education Policy 2020, it is very useful for the Masters of Hindi (M.A. Hindi) course and research students of Bundelkhand University Jhansi’s university campus and affiliated colleges.

बुन्देलखण्ड के लोकोत्सव 

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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