भोपाल-इटारसी के बीच नर्मदा तट पर बसा Narmadapur आज होशंगाबाद अपने सांस्कृतिक और पुरातात्विक वैभव में आज भी सम्पन्न है। यह मध्य रेल्वे का बड़ा स्टेशन है। नर्मदा ने इस नगर को अपार स्नेह दे रखा है। स्टेशन से उत्तर की ओर नाक की सीध में बाजार से गुजरते हुए घाट पर पहुँचा जा सकता है । यह भारत प्रसिद्ध सेठानी घाट है। घाट नर्मदा के दक्षिण तट पर बना है। घाट पूर्व-पश्चिम तक कई सौ मीटर तक पत्थरों की कालीन -सा बिछा है ।
रेवा के दक्षिण तट पर अमरकंटक से लेकर खंभात की खाड़ी तक इतना विशाल कोई दूसरा घाट नहीं है । उत्तर तट पर जरूर इससे बड़ा घाट महेश्वर का है। होशंगाबाद के घाट की चौड़ाई, साफ-सफाई और स्त्री-पुरुषों के स्नान की अलग-अलग व्यवस्था उसकी अपनी विशेषता है । इसे सन् 1881 में श्रीमती जानकीदेवी सेठानी ने बनवाया था। घाट बनते हैं तो जनसमूह वहाँ स्नान करने कुछ ज्यादा ही संख्या में आता है।
जहाँ अनेक मनुष्य पवित्र भाव से जल में जल सरीखे हो जाने की कामना के साथ डुबकी लगाते घाट की पैड़ियों पर बैठकर माँ रेवा को देखते रहना अच्छा लगता है। आते-जाते लोगों में स्नानार्थियों में और जल की घाट से टकराती, आगे बढ़ती लहरों में जीवन गतिमान दिखाई देता है। घाट पर से सुबह शाम की सुनहरी किरणों का अभिनन्दन और आमंत्रण मन को एक अजीब फुरक से भर देते हैं। यहाँ नर्मदा का घाट बहुत चौड़ा है।
उत्तर तट पर विन्ध्याचल है। उत्तर तट पर रेत है । इस ओर पक्का घाट है। घाट पर से जल में उतरते ही माँ की स्नेहिल थपकियों से जल प्रबोधने लगता है। घाट से दस-पन्द्रह फुट तक थोड़ा पानी है। पाँव टिकते रहते हैं । उसके बाद छाती – छाती, गले-गले और फिर नहीं पता कितना गहरा है।
नर्मदा ने घाट-घाट पर सौन्दर्य और जीवन के रंगों की अलग-अलग छटाएँ बिखेरी हैं । यहाँ बच्चों से लेकर वृद्ध जन तक नर्मदा जल स्नानभाव से डुबकी लगाते, तैरते, अर्घ्य देते, अचमन करते और अपने को तीर्थभाव से भरते हुए दिखाई देंगे। कुछ हैं कि साबुन का झाग और सूखे फूल पाती का कचरा नर्मदा जल को सौंपते बिलकुल भी खबरदार नहीं होते। जबकि जल तो गति है । जल की शुद्धि जीवन की शुद्धि का आधार है ।
मैं स्नानकर घाट पर बैठा हूँ । एक पाँच -छह साल की बच्ची पीठ पर कन्सरी बाँध कर पानी में उतरती है । कन्सरी झली हुई है । कहीं पानी अन्दर घुसने का सूराख नहीं है । बालिका कन्सरी के सहारे तैरना सीख रही है। कन्सरी उसे डूबने से बचा रही है। उसके हाथ पाँव का संचालन जल के साथ कभी क्रीड़ा करता है और कभी जल को चुनौती भी देता है । पर जल है कि अथाह और अपरिमित है । बिटिया के हाथ पाँव नन्हें-नन्हें है । फिर भी उसकी कोशिश यात्रा के चिह्न – चिखाने तो बना रही है ।
बिटिया का जीवन बड़ा होते-होते वैसे ही पहाड़ हो जाता है । वह उसे नदी जैसा तरल और पारदर्शी बनाने की कोशिश कर रही है । परिस्थितियों की विपरीत अथाहता के बीच स्वयं को न डूबने देने का प्रयास कर रही है। वह इनसे तैरना सीख रही है। काश! इस धरती की सारी बेटियाँ, बहू बनने के पहले तैरना सीख जाती। जीवन, जल की ही तरह अनमोल है । बहू-बेटी के जीवन की सुरक्षा और निर्मलता तथा जल की सुरक्षा और निर्मलता में साफ-साफ संगति है ।
सेठानी घाट के पूर्व में शनीचरा घाट है । इस पर छोटी-छोटी मढेंया सरीखे शिव और गणेश के मंदिर हैं । शनीचरा घाट से लगा हुआ कोरी घाट है। यह घाट पक्का नहीं है । इसके बाद पूर्व से पश्चिम की ओर चलते चले जाइए। आप सेठानी घाट पर आ जायेगें । सेठानी घाट विरासत और अपनी शांति में अद्भुत है। लगता है बड़ी दूर से उतावली के साथ आती हुई नर्मदा घाट की पैड़ियों पर विश्राम करती है। रेवा का रव बंद हो जाता है । विश्रामदायनी माँ स्वयं विश्राम कर रही है । वह अपनी गरिमा एवं महिमा में और गंभीर हो जाती है । घाट और तीर्थ दुनियादारी की झंझटों से विश्राम पाने के लिए ही बने होते हैं।
कुछ भी हो मेकलसुता यहाँ कुछ देर के लिए बिरमती जरूर है। शिव की भोली कन्या अपने जल में तैरती हुई बालिकाओं के साथ कुछ देर के लिए घरकुल सरीखा कुछ खेलने लगती है। और चल देती है- अपनी मीलों लम्बी यात्रा पर। घाट के ऊपर सत्संग भवन हैं। इसमें वर्ष भर साधु-संन्यासी परिक्रमावासी आते हैं । ठहरते हैं । चले जाते हैं । सत्संग भवन के समीप श्री नर्मदा जी का मंदिर है। बहुत ही आकर्षक और सुन्दर प्रतिमा नर्मदाजी की इसमें स्थापित है।
इससे लगा हुआ शिव मंदिर है। घाट के पश्चिमी छोर पर मारूतिनन्दन का मंदिर है । इसका मुँह पूर्व की ओर है। पास में ही नगर पालिका का तिलक भवन है । इसके साथ ही एक रास्ता शहर में आ जाता है। जिसके दोनों ओर कुछ मंदिर और धर्मशाला बनी हुई हैं। अच्छी बात यह भी है कि इस घाट पर विद्युत व्यवस्था पर्याप्त है, जिससे रात-बिरात भी घाट पर जाकर विश्राम किया जा सकता है। स्नान किया जा सकता है।
हनुमान मंदिर के पिछले भाग में पश्चिम तरफ दुर्गाजी का काफी पुराना मंदिर है। उसी के पास पंचमुखी महादेव का मंदिर है । पास की ही जगह में कुछ वर्षों पूर्व गायत्री जी के मंदिर का निर्माण हुआ है। पास में राधावल्लभ का प्राचीन मंदिर है। इसी से आगे ऋषिकुल है, जो कभी संस्कृत के अध्ययन- अध्यापन का प्राचीन प्रसिद्ध केन्द्र था। अभी भी यहाँ संस्कृत पाठशाला है ।
ऋषिकुल के नीचे हनुमान और गणेश मंदिर आमने-सामने हैं । इन्हीं के पास एक साधु की कुटी बनी है । इसके नीचे काले – मुखी शिव का मंदिर है। इस मंदिर में शिवलिंग काले पत्थर का बना हुआ है । सो इसे कालेमुखी शिव कहते हैं। लोक गुणधर्म और बाहरी वेशभूषा के आधार पर नामकरण करने में देर नहीं करता। वह ईश्वर की भी छाप रख देता है। लोक अपने आप में एक देवता है।
इस मंदिर के पास राम मंदिर है और पास में ही सर्वाधिक पुराना जगदीश मंदिर है । खेड़ापति हनुमान का मंदिर भी पास में ही है। कहते हैं यह स्थान होशंगाबाद जब छोटा गाँव/नगर रहा होगा, तब । आगे हरिगोपाल का मंदिर है। और यहाँ सेठानी घाट का पश्चिमी भाग समाप्त हो जाता है। उसके बाद जमीन है । मिट्टी है ।
थोड़ा आगे मंगलवारा घाट है। यहाँ शिव और हनुमान के मंदिर बने हुए हैं । इसके थोड़ा ऊपर पुराने किले के खण्डहर दिखाई देते हैं। पास में ही मामा-भांजे की प्रसिद्ध मजार है । और निचरोस में दत्तात्रेय का मंदिर है। एक बहुत ही आकर्षक शिव मंदिर का निर्माण भी हुआ है। जिसे कुछ वर्ष पूर्व लंगड़े बाबा ने बनवाया है।
अतीत और इतिहास के झरोखे से देखें तो 14वीं शताब्दी तक इस नगर का नाम नर्मदापुर था । होशंगाबाद निवासियों के कथन से भी इसकी पुष्टि होती है। जनवरी 1992 में प्रकाशित डॉ. धमेन्द्र प्रसाद की तो पुस्तक का नाम ही ‘नर्मदापुर के पुरावशेष’ है । इस पुस्तक में होशंगाबाद एवं उसके आसपास के पुरातत्व और इतिहास की प्रामाणिक जानकारी है। शिलालेखों, शिलाश्रयों और उस क्षेत्र की खुदायी से प्राप्त वस्तुओं पर आधारित है । द्रविड़ सभ्यता से पूर्व कोल एवं अन्य मूल आदिम जातियों का निवास स्थान नर्मदापुर रहा है।
आदमगढ़ की पहाड़ियों पर बने भित्ति चित्रों से मानव सभ्यता के इतिहास का अनुमान लगाया जाए तो यह नगर प्राचीनकाल से मानव का निवास स्थान रहा है। बदलती हुई सभ्यता और सुसंस्कृत होते मानव की विकास यात्रा का स्पष्ट साक्ष्य नगर के पास है। पौराणिक ग्रंथ नर्मदापुराण भी इसी भू-भाग पर हुई मानव संतति के विकास का रेखांकन करता है।
ईसा पूर्व चौथी शताब्दी तक नंद और मौर्य वंशों का राज्य नर्मदापुर तक फैला हुआ था। इसके बाद अलग-अलग छोटे-छोटे राजवंश के आधिपत्य इस जिले का बड़ा भूभाग रहा। 13वीं शताब्दी के आसपास यह परमारों के पास रहा। बाहरी आक्रमणों के तेज होने के साथ ही स्वतंत्र मालवा राज्य की गद्दी पर हुशंगशाह सन् 1406 में बैठा। शक्तिशाली गोंड राजाओं से रक्षा के लिए उसने नर्मदा किनारे एक किले का निर्माण किया । जिसके खण्डहर अभी भी हैं। इसके शासनाधीन रहने एवं हुशंगशाह के नाम पर ही इस नगर का नाम नर्मदापुर से होशंगाबाद हो गया।
16वीं शताब्दी के मध्य यह मुगलों का शासन क्षेत्र रहा। 18वीं शताब्दी में मुगलों की शक्ति क्षीण होने के साथ ही इसपर मराठों का शासन हो गया । भोंसले ने अपने राज्य की रक्षा के लिए सन् 1810 में अंग्रेजों से सैन्य सहायता ली। अंग्रेजों के बढ़ते प्रभाव एवं शक्ति के सामने कुछ समय बाद भोंसले को भी घुटने टेकने पड़े। सन् 1817 में हुई संधि के मुताबिक यह नगर और क्षेत्र एक बड़े भू-भाग सहित अंग्रेजों के अस्तित्व में आ गया। 1947 से यह स्वतंत्र भारत का महत्त्वपूर्ण नगर और सुप्रसिद्ध तीर्थ है।
होशंगाबाद का नाम नर्मदापुर था । इस संबंध में डॉ. धर्मेन्द्र प्रसाद की पुस्तक ‘नर्मदापुर के पुरावशेष’ की प्रस्तावना के आरंभ में लिखा है- ‘चौदहवीं शती के अन्त तक होशंगाबाद की ख्याति नर्मदापुर के नाम से थी। डॉ. जॉन फुलफेश फ्लीट भारतीय अभिलेख विभाग के प्रथम निदेशक थे। उन्होंने भोपाल से प्राप्त एक ताम्रपत्र के आधार पर नर्मदापुर की पहचान वर्तमान होशंगाबाद नगर से की है । यह ताम्रपत्र परमार राजा उदयवर्मा का है । इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि परमारकाल में अर्थात् 8वीं से 14वीं शती तक नर्मदापुर नाम प्रचलन में था । ‘
होशंगाबाद पचमढ़ी से उत्तर में लगभग 45 किलोमीटर दूर नर्मदा के रमणीक तट पर स्थित है। नगर से तीन किलोमीटर पर होशंगाबाद – इटारसी सड़क किनारे एक छोटी-सी पत्थरों की पहाड़ी है । इसे आदमगढ़ कहते हैं । इसके एकदम पास से ही दिल्ली – मद्रास रेल मार्ग निकलता है। पहाड़ी के मंदिर में शिवलिंग काले पत्थर का बना हुआ है । सो इसे कालेमुखी शिव कहते हैं। लोक गुणधर्म और बाहरी वेशभूषा के आधार पर नामकरण करने में देर नहीं करता। वह ईश्वर की भी छाप रख देता है। लोक अपने आप में एक देवता है।
इस मंदिर के पास राम मंदिर है और पास में ही सर्वाधिक पुराना जगदीश मंदिर है । खेड़ापति हनुमान का मंदिर भी पास में ही है। कहते हैं यह स्थान होशंगाबाद जब छोटा गाँव/नगर रहा होगा, तब । आगे हरिगोपाल का मंदिर है। और यहाँ सेठानी घाट का पश्चिमी भाग समाप्त हो जाता है। उसके बाद जमीन है । मिट्टी है । थोड़ा आगे मंगलवारा घाट है। यहाँ शिव और हनुमान के मंदिर बने हुए हैं । इसके थोड़ा ऊपर पुराने किले के खण्डहर दिखाई देते हैं। पास में ही मामा-भांजे की प्रसिद्ध मजार है । और निचरोस में दत्तात्रेय का मंदिर है। एक बहुत ही आकर्षक शिव मंदिर का निर्माण भी हुआ है। जिसे कुछ वर्ष पूर्व लंगड़े बाबा ने बनवाया है।
निचले हिस्से में मजदूर पत्थर तोड़ते रहते हैं । आदमगढ़ पहाड़ी पर लगभग दो दर्जन से अधिक श्रृंखलाबद्ध शिलाश्रयों का निसृत सौन्दर्य वर्णनातीत है । इन चित्रों में मनुष्य की आदिम अवस्था और प्राकृतिक संसर्ग चित्रित है। इनका निर्माण प्राकृतिक ढंग से ही हुआ है । इनके रंग भी प्राकृतिक ही हैं। प्रकृति की वस्तुओं से ही रंगों का निर्माण किया है।
इनमें हाथी-घोड़े, महिष, मयूर, वनदेवी, शिकार को जाते मनुष्य, अश्वारोही, यक्षी चित्र, युद्धरत मानव, जिर्राफ बारहसिंघा आदि के चित्र हैं । ये शिलाश्रय मानव सभ्यता के चरण और इतिहास के पूरे युग विशेष का संकेत देते हैं । इनके रंगों और आकृतियों से हजारों साल पुराने मनुष्य की कहानी सुनी जा सकती है। ये चित्र पत्थरों पर उकेरी आकृतियों में मनुष्य की अमिट धरोहर हैं ।
नर्मदा के घाटों पर स्नान अपने आप में एक उत्सव होता है । आज भी पूरा क्षेत्र नर्मदा के प्रति अगाध श्रद्धा से भरा हुआ है । मध्यप्रदेश के कई जिलों एवं देश-विदेश के अनेक यात्री यहाँ स्नान करने आते हैं। भीड़ का अपना आनन्द है। भीड़ का यह अनुशासित उत्सव सक्रांति पर्व और हर अमावस्या को देखते ही बनता है। जाति, धर्म, वर्ण, संप्रदाय मिलकर सब मनुष्य हो जाते हैं।
नर्मदा किनारे घाट के आसपास की खाली जगहें बैलगाड़ियों से भर जाती हैं। हरेक बैलगाड़ी के पास आँच में सौंधी – सौंधी दाल-बाटी बनती रहती है। दरस, परस, स्नान, पान और भोजन मिलकर एक अपूर्व तृप्ति देते हैं। हमारी अरदास ऊपर उठती है। सावन मास में तो पूरे महीने स्नान होता है । अभी भी कई लोगों का नियम है- नर्मदा में प्रतिदिन स्नान करना । कई लोगों की पूरी जिन्दगी नर्मदा में प्रतिदिन स्नान करते गुजर गयी। नर्मदा ने लोगों को आस्था दी । जीवन के प्रति अगाध निष्ठा दी और संघर्ष क्षमता दी।
सेठानी घाट पर समय-समय पर नर्मदा जयंती के अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ करते हैं । कभी-कभी व्याख्यानमाला और कवि सम्मेलन भी शब्द की सत्ता और सार्थकता को अभिव्यक्ति देते देखे सुने जा सकते हैं।
रक्षा-बंधन के दूसरे दिन इस क्षेत्र में भुजरिया का त्यौहार बड़े आनन्दोल्लास से मनाया जाता है । उन भुजरिया (गेहूँ के आठ-दस दिन के पौधे) को सिराने का जो दृश्य घाट पर उपस्थित होता है; उसमें आधुनिकता और पुरातनता एकमेव होकर जीवन के सुख की कामना मात्र रह जाती है। अनन्त चतुर्दशी पर गणेश प्रतिमा का और दुर्गानवमी पर दुर्गा – प्रतिमा का विसर्जन घाट को नयी रौनक से मंडित कर जाता है ।
लोग स्नान करते हैं। पर्व आते हैं। जाते हैं। भुजरिया ठंडे होते हैं । प्रतिमाएँ जल में समाधिस्थ हो जाती हैं। उस पार विन्ध्याचल अचल खड़ा है। नर्मदा में नाव तैर रही है। जो बालिका पहले तैरने का अभ्यास कर रही थी; अब वह तैरना सीख गयी है । पश्चिम के सूरज की किरणों ने नर्मदा-जल में सोना घोल दिया है। नर्मदा बह रही है। नीलकंठ उस पार से जंगल की ओर से उड़ता हुआ आकर घाट पर बने नर्मदा मंदिर के शिखर पर बैठ गया है ।
शोध एवं आलेख- डॉ. श्रीराम परिहार