सुन्दरपुर मातौली के मलखान भइया कैं दस बारा नग भैंसन के पलेते। एक-एक भैंस एक-एक नाद भर दूद देत तीं। बड़ी भैंस में बढ़ी नाद भर दूद कड़त्तो जी सें बाको नांव Nadan Bhains हतो । ऐसई घर के लोग उ नाव नांदन भैंस धरे ते। ओई भैंस कौ परवार इत्तो बढ़ गओ तो कै भैंसन के दस बारा नग हो गए ते। अब दूद घी मठा की का करें । दूद दही घी उर मठा की कीच सीमची रत्ती घर में। उनके चराबे के लानें गाड़न चारों भूसा उर खरी की जरूरत परत ती ।
भैंसन की सार में गोबर की खचर सी रत्ती। मलखान भइया की दोई बउयें गोबर डार – डार कैं अदमरी हो जात तीं । कओं दिन-दिन भर गोबरई डारत रखें। खाबे पीबें तक कौ मौंका नई मिल पाऊतौ उनै । कन लगत कै वों सोनौ बरें जीसै कान छनें वे सौसत रत्ती कैवा भैंसार कौन काम की कैं हम गोबरई डार – डार कैं मरे जात दूद मठा तो ठीकई है हमाये हाँते तो गोबरई बनो रओ ।
कजन जे क्याऊ टर जाती तौं तनक जी खौं साता मिल जाती। ऐसी कानात कई जात कैं आँख फूटी उर पीर निजानी उर जासोऊ कई जात कै घरी भरकौ बुखासन सबदिन को आराम । ऐसई गोबर की हेलै ढोऊत – ढोऊत उने बरसौं कड़ गई ती। वे पूरी तराँ से पष्ट पर गई तीं । उर उन संगे फन पटक कैं रै गई तीं ।
वे दोई जनी हारी थकी दुगई में मन मारै बैठी तीं। उदना हरछठ कौ दिन हतो । खूबई दूद दही उर मठा की बिक्री भईती। ससुर उर सासनै। पईसन के ढेर लग गये तें उदना अकेलै बऊयें तौ इत्ती थक गई तीं कै पूजा करबै की हिम्मतई नई हो रई तीं। कुंजयानी दोई जनी डरी हती पौर में ।
इतेकई में एक बाबा दौरे में दच्छना लैबै आ धमको वे दोई जनी तनक कर्रो जिऊ कर कैंकन लगी कैं मराज हम औरे भारी संकट में हैं। मरे जात भैंसन कौ गोबर डार – डार कैं मराज ऐसो कोनऊ उपाय बताव जीसै जें भैंसे इतै सै टर जाबैं । बाबा जू बोले कै जा कौन बड़ी बात है ।
कओं तौ वे कालई सैं इतै से टर जैय उर फिरई बगर में आबे कौ नांव नई लैय । तुम उनकी थानन पै गोबर की छिटी पोतनी के ककरा उर मूँढ़ के टूटे बार डार आइयौ। उर बड़े भुसारे उने उल्टे मूसर उर मथानी सै हाँक कै गेवड़ौ नका आईयो । फिर लौटकै ऊ थान पै नई आय । उर तुमाव संकट अपने आप टर जैय उर फिर ई बगर में आवे नांव नई लैय।
वे उनकी थानन पै गोबर की छिटीपोतनी के ककरा उर मूँढ के टूटे बार डार आई । उर बडे भुन्सारे उने उल्टे मूसर उर मथानी से हाक कैं गेवड़ौ नका आई । और फिर वे लौट ऊथान पै नई आई। उर उनको संकट अपने आप टर गओ । वे भैंसे लौंट कै घरै नई आई ।
नांदन भैस अपने परिवार खौँ लैके जंगलई में बिलम गई । जब दिन बूढ़े भैंसे लौंट कै नई आई सोऊ घर में रोवा पोंकी मच गई। जंगल में भैंसन कौ ढुढ़ऊवा पर गओं। तोऊ पंथ नई परों। बऊअन सै गुस्सा में कतनत के आई उर बाबा के कये सै टोटका कर दओं पै अब उनई के मन में उर्दा मूँग से चुन लगें। भैंसन के बिना घर मे भाय – भाय सो लग रओ तो । न वे बोलै अबकी सै कये का छाती में गतकौ सौ देकै रे गई ।
चाय जा कैलो वे गुर भरो हँसिया होकै रै गई ना गुटकत बने उर ना उगलत बने। अबका करे सूनी सार देख कै भाँय – भाँय सौ लग रओ तो एकई दिना रो धोकै क पाव। उतेकई में बेऊ बाबा फिर कउ दोरे में आ गओ । बाब खौ देखतनई दोई बऊयें भीतर सै दौर परी उर ऊ बाबा सै कन लगी कै मराज हमाई गल्ती खौं माफ करियौ उदना गुस्सो में हमन खौं कै आई ती अकेलै अब भैंसन के बिना घर सूनौ – सूनौ हो गओ ।
पेट पालबे तो अब कछू बचोई नइया घर में। मराज हम तौ गोबर डारत रैय अब तौ आप कोनऊ ऐसौ उपाय बताव जीसै वे हमाई सबई भैंसे घरै वापिस आ जाबें । बाबाजी बोले जा कोनऊ बड़ी बात नइया । जाव अच्छी तरा सै थानन की सफाई करो। उतै अगरबत्ती लगाकै पूजा करो । उर फिर ग्योढ़े जाकै टेर लगाव-आव ओ नांदन आव। उनने उसऊ करौ। उननकी आवाज सुनकै वे जंगल से डिढ़कत आ गई। नांदन भैंस ने नाद भर दूद दओ परिवार के दिन फिर गये एसेई सबई के दिन फिर जावै ।
भावार्थ
सुंदरपुर मातौली नाम के ग्राम में एक मलखान नाम के यादव का परिवार निवास करता था। मलखान के घर में अनेक भैंसें पली थीं । उनकी एक – एक भैंस दस-दस किलो दूध दे थी। मलखान के दोनों लड़के भैंसों की सेवा खुशामद में लगे रहते थे । उन्हें बढ़िया घास-भूसा खिलाना, नहलाना, समय पर पानी पिलाना आदि का पूरा ध्यान रखते थे, जिसके कारण उनकी भैंसें खूब हृष्ट-पुष्ट थीं।
उनकी सबसे बड़ी भैंस का नाम ‘नाँदन भैंस था, क्योंकि वह एक बड़ी बाल्टी भर दूध देती थी। वे सारी भेंसें उसी की संतान थी, वह सभी भैंसों की माँ थी। सभी भैंसें एक साथ चरने और घूमने-फिरने के लिए जाया करती थी यादव जी के यहाँ दूध-दही और घी का तो भण्डार भरा ही रहता था और परिवार उनकी सेवा खुशामद में रात-दिन लगा रहता था।
मलखान जी के दोनों लड़के तो भैंसों को चराने खिलाने और घुमाने में लगे रहते थे और उनकी दोनों बहुएँ रात-दिन गोबर ही डालती रहती थीं । वे बेचारी न तो सुख से खा-पी पाती थीं और न आराम ही कर पाती थीं । वे रात-दिन उन भैंसों को ही कोसती रहती थीं। वे सोचती थीं कि न रहे बाँस और ना बजे बाँसुरी । अच्छा होता कि ये भैंसें कहीं टल जाये तो हमारे सिर का सारा बोझ उतर जाय और हम सुख-शांति से जी सकें। ऐसी ये कहावत ही सत्य है कि ‘ऐसा सोना किस काम का कि जिससे कान ही टूट जाय’ ।
वे भगवान से विनय करती रहती थीं कि ये भैंसें हमारे घर से चली जायें, हमें ऐसी धन माया की जरूरत नहीं हैं, जिसके कारण हम लोगों का जीना कठिन हो गया है। इसी तरह रोते-रोते एक दिन ‘हलषष्ठी’ का त्योहार आ गया। उस दिन महिलाएँ केवल भैंस के ही दूध-दही और मठा का ही उपयोग करती हैं। मलखान के यहाँ तो केवल भैंसों का ही दूध था। उस दिन उनकी खूब बिक्री हुई। रुपयों के ढेर लग गये । सास-ससुर बहुत प्रसन्न थे, किन्तु उनकी दोनों बहुएँ हारी थर्की एक कोने में पड़ी थीं ।
सास-ससुर की तो जेब गर्म हो रही थी, किन्तु बहुओं का संकट बढ़ता जा रहा था । उन्हें त्योहार की भी कोई सुधि नहीं थी । वे तो सोच रही थीं कि ये सारी भैंसें यहाँ से कहीं चली जायें तो हमारा सारा संकट टल जाय। इसी बीच में एक बाबा दक्षिणा लेने के लिए उनके द्वार पर आ गया । बहुएँ आटा लेकर दरवाजे पर पहुँची और उन्हें दक्षिणा देकर कहने लगीं कि महाराज हम बहुत परेशान हैं।
बाबाजी ने पूछा कि बेटियों तुम्हारा घर तो खूब भरा पूरा है। तुम्हें ऐसी कौन सी परेशानी आ गई। बहुएँ बोली कि महाराज हम इन भैंसों का गोबर डालते-डालते थक गये हैं । आप तो ऐसा कोई उपाय बताइये, जिससे ये सारी भैंसें यहाँ से चली जाय और फिर लौटकर न आयें।
बाबाजी बोले कि इसका उपाय बहुत साधारण है। तुम उनकी थान पर गोबर छिटी, पोतनी के कंकर और सिर के टूटे बाल डाल दो और बड़े सबेरे उल्टा मूसल और उल्टी मथानी से उन्हें जंगल की ओर रवाना कर दीजिए। फिर वे तुम्हारे घर लौट कर नहीं आयेंगी। इतना कहकर बाबाजी वहाँ से चले गये । बहुओं को तो अपना संकट टालने की पड़ी थी। उन्होंने बाबाजी के निर्देश का परिपालन किया। सबेरे सारे अपशकुन करके भैंसों को घर से बाहर निकाल दिया, फिर वे शाम को लौटकर नहीं आईं।
नांदन भैंस अपना परिवार लेकर घने जंगल मे छिप गई । बहुओं का संकट तो टल गया, किन्तु उनके सारे परिवार पर घोर संकट आ गया। शाम को जब भैंसें लौटकर नहीं पहुँची तो सारा परिवार चिंतित हो गया। उनकी सास टेर देकर रोने लगी । उनके ससुर और पति भैंसों को खोजने के लिए जंगल में भटकने लगे। भैंसों के बिना पूरा घर सूना हो गया, बहुएँ अपनी भूल पर पछताने लगीं । वे मन ही मन सोचने लगीं कि हमारी भैंसें वापिस आ जायें, हम तो उनका गोबर कूड़ा साफ करते रहेंगे, अब कभी ऐसी भूल नहीं करेंगे ।
इसी बीच में वही बाबाजी दक्षिणा लेने के लिए फिर द्वार पर आ गये और बहुओं को देखकर बोले कि बेटी अब तो तुम बहुत खुश होगी। तुम्हारा संकट तो टल ही गया होगा । बाबाजी को देखकर बहुएँ रोकर कहने लगीं कि महाराज हमसे बहुत बड़ी भूल हो गई है। भैंसों के बिना तो हमारा सारा घर सुनसान ही हो गया है। बाबाजी हम तो गोबर कूड़ा डालते रहेंगे । अब आप तो कोई ऐसा उपाय बताइये, जिससे हमारी भैंसें फिर से वापिस लौट आयें ।
बाबाजी बोले कि ये काम भी तुम्हारा पूरा हो जायेगा। तुम अच्छी तरह से भैंसों की थानों की सफाई करो, वहाँ अगरबत्ती जलाकर उनका आवाहन करो और फिर बाहर जाकर टेर लगाओ। तुम्हारी टेर सुनकर भैंसें जंगल से निकलकर दौड़ती हुईं तुम्हारे घर आ जायेंगी । इतना कहकर बाबाजी वहाँ से चले गये ।
दोनों बहुओं ने थानों की खूब सफाई की अगरबत्ती लगाकर पूजा की, फिर बाहर जाकर जोर से टेर लगाकर कहा कि ओ नांदन भैंस ! जल्दी आ जाओ । बहुओं की आवाज सुनकर सारी भैंसें दौड़ती हुई उनके घर पर आ गईं । खोई हुई भैंसों को देखकर सारे परिवार में खुशी की लहर दौड़ गई। बहुएँ अपनी भूल पर पछताने लगीं। प्यार की परिभाषा तो पशु-पक्षी भी जानते हैं। प्यार से तो पत्थर भी पिघल जाते है । ये हलषष्ठी व्रत की कथा है जो नाँदन भैंस की कथा के नाम से बुंदेलखण्ड में प्रचलित है ।