श्री मुकुन्द स्वामी कुछ समय तक अपने समर्थ गुरु स्वामी प्राणनाथ के पास पन्ना (म.प्र.) में रहे। यहाँ रहते हुए Mukund Swami ने कई पदों की रचना की। इस प्रकार बुन्देलखण्ड के एक बड़े भू-भाग में भक्तिपद लोक जीवन में गहरे तक रचे-बसे हैं। आपकी जन्म व मृत्यु तिथि का कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता परन्तु कहते हैं कि आपने मलीहाबाद में उसी स्थान पर जहाँ बैठकर वे भजन गाते थे, जीवित समाधि ली थी। इसका उल्लेख उनके इस दोहे में है…..।
‘श्रावण वदी शुभ दिन घड़ी, चतुरदशी गुरुवार।
आद्रा नक्षत्र दिन दुपहर, तजौ हेम कुंवरी संसार।।’
छ्न्दबद्ध काव्य रचनाकार श्री मुकुन्द स्वामी
मुकुन्द स्वामी गाँव के अनपढ़, सीधे-साधे व सरल हृदय इंसान थे। इनका असली नाम मनोहर मुकुन्द था। वे अवध में किसी एक छोटे से गाँव में अपने बड़े भाई के साथ रहते थे। साथ में बूढ़ी माँ और एक विधवा बहन भी थी।
मनोहर मुकुन्द बचपन से सहज, सरल और अन्तर्मुखी प्रवृत्ति के थे। जीव, जगत और परमात्मा से संबंधित कई प्रश्न उनके मन को बेचैन किये रहते थे। बहुत साधु, संतों और महात्माओं के पास गये परंतु कहीं मन को शांति न मिली। वे अपनी खोज में लगे हुए थे।
भाई ने कहा – विवाह कर लो। उन्होंने साफ मना कर दिया। और भाभी ने समझाया – संसार में रहकर इससे भागना क्यों? सब कुछ सहज स्वीकार करो। भाभी के कहने पर उन्होंने घर-गृहस्थी बसाई परंतु मन तो किसी और‘घर’ की तलाश में भटक रहा था। असमय भाई की मृत्यु हो गई तब पूरे परिवार का बोझ मनोहर मुकुन्द के सिर आ पड़ा।
भाभी को उन्होंने मातृवत आदर दिया। वे उनकी पहली गुरु हुई, जिन्होंने उन्हें संसार से पलायन नहीं, संसार में रहकर परमात्मा की सतत् खोज के लिए प्रेरित किया। कहते हैं, जहाँ चाह होती है वहाँ राह निकल ही आती है।
एक दिन कोई अपरिचित व्यक्ति उनसे मिलने घर आया। वे कहीं बाहर गये हुए थे। घर पर अकेली मनोहर मुकुन्द की माता जी थीं। जिन्होंने आगन्तुक की आवभगत की। उन्हें जलपान कराया। पूछने पर उस व्यक्ति ने अपना नाम प्राणनाथ बताया।
मनोहर मुकुन्द के आते ही मिलने के लिए भेजने को कहकर वे वहाँ से चले गये। जब मनोहर मुकुन्द घर आये तब उनकी माँ ने स्वामी प्राणनाथ के आगमन का समाचार बताया और यह भी कहा कि मिलने के लिए भेज देना, ऐसा उन्होंने आग्रह किया है।
स्वामी प्राणनाथ, यह नाम सुनते ही मनोहर मुकुन्द के भीतर कुछ घट गया। जैसे वीणा के तार झंकृत हो गये। जन्मों-जन्मों से बिछुड़ा हुआ कोई प्रिय द्वारपर मिलने आया और दुर्भाग्य से वे घर पर न थे। अब कहाँ ढूढ़ें उसे कोई रास्ता, ठिकाना, गांव का नाम कुछ भी तो बताकर वे नहीं गये। परन्तु उनसे मिलना जरूरी है। मनोहर मुकुन्द को लगा कि सिर्फ उन्हीं के पास उनके सारे प्रश्नों के जवाब हैं। उन्हीं के चरणों में बैठकर मन को शांति मिलेगी। इतने बड़े जगत में कहाँ ढूंढ़ें उन्हें?
भले ही पता न मालूम हो नाम तो मालूम है – स्वामी प्राणनाथ! पहले तो इतना भी ज्ञात न था। नाम से पूछते-पूछते ही वे खोज लेंगे अपने सत्गुरु को, इस विश्वास के साथ वे अपनी यात्रा पर निकल पड़े। बहुत खोजते, बहुत भटकते वे एक दिन पन्ना पहुँच गये। वहाँ स्वामी प्राणनाथ से उनकी पहली मुलाकात हुई। मानो बहुत दिनों बाद दो बिछुड़े प्रेमी मिले हों। स्वामी प्राणनाथ के सान्निध्य में रहते हुए उन्हें अपने आत्मस्वरूप की पहचान हुई। मन की सब शंकाएँ समाप्त हुई।
स्वामी प्राणनाथ ने उन्हें आत्मबोध कराया। यहाँ से मनोहर मुकुन्द, मुकुन्द स्वामी हुए। फिर वे हेमकुंवर सखि के रूप में श्रीकृष्ण की पराप्रेम लक्षणा भक्ति में लीन होते चले गये। वे जीवन पर्यन्त अपने गुरु स्वामी प्राणनाथ की सेवा में रहना चाहते थे।
परन्तु स्वामी प्राणनाथ की शिक्षा; जीवन की जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ने की नहीं, उन्हें साहसपूर्वक निभाने की है। इसलिए स्वामी प्राणनाथ ने उन्हें आदेश दिया कि अपने घर जाकर परिवार के प्रति अपने दायित्व को पूरा करते हुए उत्तर भारत में प्रेम लक्षणा भक्ति की रसधार बहाओ।
यहाँ से मुकुन्द स्वामी ‘अह्दी मुकुन्द’ कहलाये। अहदी का मतलब है, आज्ञानुवर्ती। गुरु ने आज्ञा दी और उन्होंने बिना कोई तर्क-वितर्क किये उनकी आज्ञा को तुरंत मान लिया इसलिए लोग उन्हें ‘अहदी मुकुन्द’ कहने लगे। वे स्वामी प्राणनाथ के आज्ञानुवर्ती होकर अपने गाँव आ गये।
मुकुन्द स्वामी के सौ पदों को पन्ना निवासी स्वर्गीय श्री ब्रजवासीलाल दुबे ने विभिन्न स्रोतों से संकलित कर उनका सरल अनुवाद कर पांडुलिपि तैयार की तथा इसे उनके पुत्र डॉ. अश्विनी कुमार दुबे पन्ना ने ‘हमारो तीरथ है ब्रह्मज्ञान’ नाम से श्री प्रकाशन, दुर्ग से प्रकाशित कराया है। इसमें से कुछ उन छंदों को उद्घृत किया जा रहा है। जो पन्ना के इर्द-गिर्द लोक कंठों में अभी भी पैठ बनाये हैं।
पद
ऊधो! कौन बात को कीजै गारा।। टेक।।
ना प्रभु जाति न पांति हमारी, न हरि हितु हमारा।। 1।।
हम अहीर वह यादव नन्दन, जानत जग-संसारा।
दिन दश प्रीति करि स्वारथ हित, सो हम बूझि विचारा।। 2।।
मात यशोदा पिता नन्दजी, तिन्हहुँ को निठुर बिसारा।
कहिये कहा तुम्हैं अब ऊधौ, देखा मता तुम्हारा।। 3।।
कुविजा कुटिल कंस की दासी, जिन टोना पढि़ डारा।
सुख लूटै लौड़ी डौड़ी दे, कहा हमारो चारा।। 4।।
योग युक्ति लाये तुम ऊधौ, ब्रज में आनि सँचारा।
सुनि बात अनसुनी भली थी, आनि जरे पर जारा।। 5।।
एक डाह उर शालै हमरा, दूजै लोन घाव में डारा।
दीन्हों घोरि गरल गोपिनको, आय मरे पर मारा।। 6।।
देखि दशा गोपिन की ऊधौ, नैनन नीर भरि डारा।
ऊधौ कहें धन्य ब्रज-गोपी, पिया परम अनुरागा।। 7।।
ऊधौ जानि करी गुरुगोपी, लै उपदेश सिधारा।
साँची प्रीति ‘मुकुन्द’ जहाँ है, तहँ छल बल सब हारा।। 8।।
ऊधौ! अब किस बात के लिए शिकायत करें? कृष्ण न तो हमारी जाति के हैं और न ही हमारे हितैषी हैं। कहाँ हम अहीर जाति के और कहाँ वे यदुवंश के नंदन, यह बात सारा संसार भली-भाँति जानता है। उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए दस दिनों की प्रीति हमसे लगाई थी, जिसे हमने अच्छी तरह बूझ लिया है। जान लिया है। यशोदा मैया और नन्द जी जैसे माता-पिता को निष्ठुर होकर उन्होंने भुला दिया है। ऊधौ, अब कहाँ तक कहें उनकी बातें ? तुम्हारे विचार भी आज हमने जान लिए।
कुब्जा नाम की कंस की दासी, जो अत्यंत कुटिल स्वभाव की है। उसने कृष्ण पर अपना जादू कर रखा है। वे उसी के वश में है। इस प्रकार वे सब प्रकार से सुख लूटते फिरते हैं, उनके सामने हमारा बस कहाँ चलेगा? ऊधौ, सुना है तुम ब्रज से योग-युक्ति लेकर आये हो, ब्रज वनिताओं को समझाने के लिए। न सुनी होती तो यह बात तो भली थी। तुम तो जले हुए स्थान को और जलाने आ गये। एक तो पहले से ही हमारा हृदय जला जा रहा था दूसरे तुमने ऊपर से नमक और डाल दिया।
गोपियों के हृदय में उमड़ता दुख रूपी गरल (जहर) जो अब शांत हो रहा था, उसे तुमने फिर से घोर दिया। इस प्रकार तुमने यहाँ आकर मरे हुए को पुनः मारने का कार्य किया है। गोपियों की यह दशा देखकर आँखों में आँसू भर आते हैं। ऊधौ कहते हैं, हे ब्रज की गोपियों ! तुम धन्य हो। तुम्हारा अपने प्रीतम के प्रति अनन्य प्रेम है। इस प्रकार सोच समझकर ऊधौ ने गोपियों को अपना गुरु बनाया और उनसे ज्ञान प्राप्त कर लौटे। ‘मुकुन्द स्वामी’ कहते हैं कि जहाँ सच्ची प्रीत है, वहां छल, बल और प्रपंच सब पराजित हो जाते हैं।
आली! हम न भये वृन्दावन के द्रुम।। टेक।।
हरसित विधि हरि हर ओसर, बहु कल्पित बहु कलप रही मन।। 1।।
जहँ श्रीकृष्ण सखिन साधन बलिता, विहरत वृन्दावन।
पुहुप पत्र द्रम डार लतन पर, उडि़ उडि़ पद रज परत सकल वन।। 2।।
ब्रज की रीति प्रीति लखि तीनहु पुर, इच्छत सुर नर देव सकल गन।
हम न भये ब्रज के जड़ जीवन, काहे को सुर पुर आनि धरे तन।। 3।।
धन्य गोकुल धन्य वृन्दावन, धन्य सों थिर-चर जीव सकल जन।
लखि ‘मुकुन्द’ लीला निज न्यारी, बारत तन मन प्रान सकल धन।। 4।।
हे सखि! अफसोस है कि हम वृन्दावन के पेड़-पौधे न हुए। जहाँ प्रसन्नता पूर्वक हरि अपनी गउओं के साथ विचरते हैं, ऐसी बहुत सी कल्पनाएँ करते हुए मन दुखी हो रहा है। जहाँ श्री कृष्ण सखियों के संग बलखाते हुए वृन्दावन में विचरते रहते हैं। वहाँ के फूलों, पत्तों, लताओं और वृक्षों पर नटखट कन्हैया के चरणों की रज उड़-उड़ कर पड़ती है। ब्रज की यह प्रेम पूर्ण रीति तीनों लोकों के वासी, सुर, नर और देव अपने समस्त गुणों के साथ देखने की प्रबल इच्छा रखते हैं।
अफसोस है कि हम ब्रज के जड़ पदार्थ तक न हुए। व्यर्थ ही यहाँ आकर नर तन धारण किया। गोकुल तथा वृन्दावन के सभी जड़, चेतन और सकल जन अत्यंत धन्यभागी हैं। ‘स्वामी मुकुन्द दास’ कहते हैं, जिन्होंने भी श्री कृष्ण की अद्भुत लीला देखी है, उन पर मेरा तन, मन, धन और प्राण सब कुछ न्यौछावर है।
आऊँगी मैं दही लैके भोर।। टेक।।
दीजै आज जान घर मोहन, नागर नन्दकिशोर।। 1।।
हम तौ आज सखिन संग आई, जिन कीजै झकझोर।
हौं उठि भोर सवारे अइहौं, प्रात समय इहि ठौर।। 2।।
हम गोकुल की ग्वालिनी, तु कपटी कठिन कठोर।
चरचि जायँगी चतुर ब्रजनारी, हुइ है नगरिया में शोर।। 3।।
बाढ़ो प्रेम प्रवाह अपार बल, चितवत नन्दकिशोर।
‘मुकुंद’ सखि रस-बस भइ ग्वालिन, छूटि दैके प्रान अकोर।।
कोई ग्वालिन, नटखट नंद किशोर से कहती है, मैं कल सुबह ही दही लेकर यहाँ आऊँगी। मुझे आज घर जाने दो। हम तो आज यों ही सखी-सहेलियों के संग यहाँ आ गई थीं। हमारे साथ कोई छीना-झपटी मत करना। मैं प्रातः उठकर सबेरे ही इस ओर आऊँगी। हम गोकुल की ग्वालिन हैं, हमारी बात का विश्वास करो।
तुम तो कठोर और कपटी हो। यहाँ रुकने से तमाम होशियारी के बाद भी ब्रजनारी चर्चित हो जायेगी और पूरे नगर में शोर हो जायेगा। परंतु उधर प्रेम प्रवाह बहुत बढ़ गया और नंद किशोर लगातार उस सखि को निहारते रहे। स्वामी मुकुन्द दास कहते हैं कि इस प्रकार वह सखि प्रेम रस के वशीभूत होकर प्राण अर्थात् सर्वस्व देकर ही छूट पाई।
हमारो दान दैबे, तुम खड़ी रहहु ब्रजनारी।। टेक।।
नित प्रति आनि दही तुम बेचै, जा ब्रज-गाँव मझारी।
को जाने कित जावो चली तुम, दान नित को मारो।। 1।।
ऐसी बात कहहु जिन मोहन, आवत जात सदाई।
कबहुं न दीन्हो दान दही को, तुम नई रीत संचारी।। 2।।
यौवन की रस माती ग्वालिन, कहै न बात सम्हारी।
सब दिन लिन्हों दान दही को, तुम नई बेचनहारी।। 3।।
हम जानी है तुम्हरे दिलकी, अब जो चाहत गिरिधारी।
तिन बातन से भेंट नहीं है, मैं बरसाने की नारी।। 4।।
जो तुम बसो गाँव बरसाने, तो तुम निपट गँवारी।
लैहों छीन सबै रस गोरस, लूटि लेऊँ यह सारी।। 5।।
लूटनहारे आज अनोखे, छैल भये गिरिधारी।
जाय कहौं मैं कंसराज सें, तुमहि बात बिंगारी।। 6।।
कंस कौ करौं विनाश क्षण में, यह कछु बात न भारी।
यह इतनो परताप लला को, चोरी करत चपारी।। 7।।
सब ग्वालिन मिलि हमहिं छुड़ायें, जब बाँधे महतारी।
लीला हेत उलूखल बाँधे, भक्ति हेत पग धारी।। 8।।
मसलि-मसलि भव-सागर तारों, दंत कथा विस्तारी।
इतनी सुनि नागरि हँसि के, लै गोरस कर-धारी।। 9।।
नागर नवल प्रेमसों लीन्हों, दोऊ कर-कमल पसारी।
जो यह शब्द सुनैं और गावैं, तात न तापन जारी।। 10।।
दास ‘मुकुन्द’ बिना जप योगे, मिले सो कुंज बिहारी।
हमारो दान दैबे, तुम खड़ी रहहु ब्रजनारी।। 11।।
नटखट कृष्ण गोपिकाओं से कहते हैं कि हमारा दान देने तक तुम यहीं खड़ी रहो। तुम सब प्रतिदिन ब्रज-गाँव के (मझारी-बीच में) बीच में आकर दहि बेचती हो। तुम हमारा हमेशा का दान मारकर जाने कहां चली जाती हो? तुम्हारा क्या भरोसा। गोपिकाएँ नाराज होकर कहती हैं हमने कभी भी किसी को दही का दान नहीं दिया।
तुम ये नई रीति चला रहे हो।’ नटखट कृष्ण प्रतिउत्तर में कहते हैं – ‘अरी ग्वालिनों, तुम अपने यौवन के मद में बात सम्हाल कर नहीं कर रही हो। हमने सब दिन यहाँ दही का दान लिया है। तुम कोई नई बेचनहारी हो ?
गोपिकाएँ कहती हैं – ‘हमने तुम्हारे हृदय की बात जान ली है। हे गिरधारी! अब जो तुम चाहते हो हम जान गये हैं। हमसे अभी तक तुम्हारी मुलाकात न हुई थी। मैं (राधा) बरसाने गाँव की रहने वाली हूँ। समझे।’ कृष्ण कहते हैं – ‘बरसाने गाँव की हो! तो सचमुच तुम निपट गंवार हो। मैं तुम्हारा सारा रस, दूध एवं दही आदि लूट लूँगा।’ राधा कहती है -आज अनोखे लूटनहार मिले हैं। इस लूट-पाट के लिए गिरधारी ही छैला हो गये।
मैं कंसराज से तुम्हारी शिकायत करूँगी कि पहले तुमने ही बात बिगाड़ी है।’’ कृष्ण कहते हैं – ‘यह तो कोई बड़ी बात नहीं है। मैं तो क्षण भर में कंस का विनाश कर दूँगा।’ गोपिकाएँ कहती हैं- ‘यदि इतना ही तुम्हारा प्रभाव है तो चोरी-चकारी क्यों करते फिरते हो? वो दिन भूल गये जब यशोदा मैया ने रस्सी से बांध दिया था, तब हम ग्वालिनों ने ही तुम्हें छुड़ाया था।’ कृष्ण कहते हैं- ‘वो तो लीला के लिए, खेल के लिए मुझे मैया ने उलूख से बांध दिया था और भक्ति के लिए मैं पग-पग चलकर उसे घसीटता रहा।
इस तरह मैंने कई लोगों को भवसागर से पार किया। इन कथाओं का बहुत विस्तार है। इतना सुनकर गोपिकाओं ने हँसते हुए मोहन को दान देने की बात कही। श्याम सुन्दर ने बड़े ही प्रेम से अंजुरी भर कर दूध पिया। जो कोई भी इन शब्दों को सुनेगा उसे किसी भी प्रकार का ताप न तपायेगा और न जलायेगा। स्वामी मुकुन्द दास जी कहते हैं कि मुझे तो बिना किसी योग और तप के श्री कुंजबिहारी मिल गये हैं।
वंशी ध्वनि प्राण हरे।। टेक।।
गोप बधू श्रवनन सुनि धाई, टोना सहज परे।। 1।।
बिसरी सुधि शरीर सजन पति, पिता पुत्र बिसरे।
लोक-लाज, कुल-कान बिसरि गई, रही श्याम रट रे।। 2।।
बस्तर त्यागि नगिन उठि धाईं, उलटे सिनगार करे।
चलि चलि गई जहां श्याम मनोहर, मुरली अधर-धरे।। 3।।
लियो है लगाय श्याम उर अपने, विविध विलास करे।
दास मुकुन्द पियै मिलीं प्यारी, बहुरि न आई घरे।। 4।।
मुकुन्द स्वामी कहते हैं, श्री कृष्ण की वंशी की ध्वनि, प्राण को हरने वाली है इस वंशी की ध्वनि को सुनकर ही गोप वधुएँ वैसे ही भागकर चली आई, जैसे उनपर कोई जादू छा गया हो। वंशी की ध्वनि सुनकर उन्हें अपने पिता, पुत्र, साजन और शरीर तक की सुधबुध न रही। लोक-लाज और कुल की मर्यादा को भूलकर वे श्याम-श्याम ही रटने लगीं। कोई उलटे साज-सिंगार करके और कोई अपने वस्त्रों को ही त्याग करके जहाँ श्याम सुन्दर अधरों पर मुरली धरे हुए हैं, वहाँ आ गई। सबने अपने श्याम सुन्दर को हृदय से लगाया और कई प्रकार से आनंद प्राप्त किया। स्वामी मुकुन्द दास कहते हैं कि इस प्रकार सबको अपने प्रिय पति मिल गये अतः वे पुनः लौटकर अपने घर नहीं आई।
वन से आवत धेनु चराये।। टेक।।
लीन्हें लाल ललित कर लकुटी, गौवन को गोहनाये।। 1।।
उडि़ उडि़ गोधुर परत बदन पर, सुन्दर परम सुहाये।
सुन्दर मुख पर रज लपटानी, कनक धूर छवि छाये।। 2।।
मोर मुकुट सिर कानन कुंडल, केशर खौर खेंचाये।
बैजंती उर माल विराजे, चन्दन अगर चढ़ाये।। 3।।
पीताम्बर फहरात बदन पर, सुन्दर परम सुहाये।
कटि पर लाल काछनी काछे, नटवर भेष बनाये।। 4।।
नाचत गावत मुरली बजावत, आनन्द उमंग बढ़ाये।
हलधर सहित ग्वाल सब संग लिये, हँसत खेल घर आये।। 5।।
कनक आरति साजि यशोमति, मोतिन थाल भराये।
दास ‘मुकुन्द’ जी को राज मिले हैं, ज्यों निर्धन धन पाये।। 6।।
श्रीकृष्ण वन से गायें चराकर लौट रहे हैं। हाथ में लाल रंग की सुन्दर, मनोहारी छड़ी लिए हुए हैं, जिससे गायों को हांकते हुए वे आ रहे हैं। गायों के चलने से धूल उड़ रही है। यह गौधूर श्याम सुन्दर के बदन पर पड़ रही है, जिससे वे और सुन्दर लग रहे हैं। श्री कृष्ण के सुन्दर मुखारबिंद पर लगी धूल, स्वर्ण रज के समान लग रही है। उनके सिर पर मोर पंख वाला मुकुट, कानों में कुण्डल और माथे पर केशर का तिलक (खौह तिलक) शोभायमान है।
बदन पर सुगन्धित चन्दनों का लेप किए हुए वे हृदय पर वैजन्ती की माला धारे हुए हैं। बदन पर लहराता हुआ पीले रंग का वस्त्र अत्यन्त शोभायमान है, वे कमर में सुन्दर लाल रंग का वस्त्र पहने हुए नृत्य मुद्रा बनाये हैं। इस प्रकार नाचते, गाते और मुरली बजाते हुए श्री कृष्ण आनंद एवं उमंग को नित्य बढ़ा रहे हैं। बड़े भाई हलधर और सब ग्वाल बालों को साथ लिए श्यामसुन्दर हँसते खेलते हुए घर आ गये हैं।
सोने के थाल में आरती सजाकर उसे मोतियों से भरकर यशोदा मैया द्वार पर खड़ी हैं। स्वामी मुकुन्द दास कहते हैं कि इस छवि की चरण रस पाकर उन्हें, निर्धन को धन के समान सब कुछ मिल गया है।
भयो मैं बाजीगर को बँदरा।। टेक।।
भवसागर में भूलि परौ मैं, विषय बड़ो अगरा।। 1।।
मैं नाचत प्रभु मोहिं नचावत, हुकुम धनी का जबरा।
आशा डोरि गुदी में बांधि, भरमि फिरौं सिगरा।। 2।।
मोह की ढाल क्रोध डुगडुगी, बाजत दोऊ तरा।
नाचत लोभी नचावत माया, मदन मन्द अँधरा।। 3।।
नाच्यौ जन्म जन्म मैं बहुविध, केहु न मुहिं अदरा।
सुख संगी मेरे बली संगाती, सबहुन मोहिं अदरा।। 4।।
नाच्यौ नाच मैं युग युग, भमि भमि बिगरा।
अब नहिं नाचि सकौं क्षण एकौ, दुखित मोर पगरा।। 5।।
अब हिय हारि शरन तेरी आयो, नाचि कूदि उबरा।
दास ‘मुकुन्द’ दीन होय भाषे, लेहु मोर मुजरा।। 6।।
मुकुन्द स्वामी कहते हैं कि मैं तो बाजीगर का बंदर हो गया हूँ। भवसागर में आकर मैं अपने मूल स्वरूप को भूल गया हूँ, यहाँ की विषय बाधा बड़ी गंभीर है। मैं नाच रहा हूँ और मेरे प्रभु मुझे नचा रहे हैं। धनी का हुकुम जबरदस्त है। आशा की डोर मेरी गुदी में बंधी है और भ्रमित-सा मैं चारों ओर घूम रहा हूँ। मोह की ढोल और क्रोध की डुगडुगी दोनों निर्मुक्त हो बज रहे हैं। लोभ नाच रहा है और माया उसे नचा रही है। कुबुद्धि के कारण काम अंधा हो गया है।
इस प्रकार मैं जन्म जन्मान्तर से कई प्रकार से नाच रहा हूँ। कोई भी आदर नहीं देता। जबकि इस माया में मेरे संगी साथी जो सुख-दुख महसूस करते हैं, वे सब लोग जरूर मुझे आदर प्रदान करते हैं। युगों-युगों से मैं नाच रहा हूँ। बार-बार घूमकर भ्रमित होकर मैं बिगड़ गया हूँ। लेकिन अब मैं एक क्षण के लिए भी नहीं नाच सकता। अब मेरे पैर दुखने लगे हैं। हे प्रभु! अपना हृदय हारकर अब मैं आपकी शरण में आ गया हूँ। सारी कूद-फांद से मैं ऊब गया हूँ। मैं आपका दास ‘मुकुन्द’ दीन हीन हो यह प्रार्थना कर रहा हूँ कि हे प्रभु ! मेरा प्रणाम स्वीकार करो।
अपने श्याम के गुन गाऊँ।। टेक।।
गुन गाऊँ चरन चित लाऊँ, बहुरि न भव-जल आऊँ।। 1।।
चुन चुन कलियाँ मैं सेज बिछाऊँ, बगलन फूल भराऊँ।।
सेज सुरंगी पर पिया को पौढ़ाऊँ, करसे बीड़ा आर गाऊँ।। 2 ।।
हेत करके तरवा सोहराऊँ, करसों बिजना डुलाऊँ।।
मीठी मीठी बात करत पिया हमसों, सुनि सुनि के सुख पाऊँ।। 3।।
कहत ‘मुकुन्द’ पिया मिलीं हमसों, हँसि हँसि कण्ठ लगाऊँ।। 4।।
मुकुन्द स्वामी कहते हैं कि मैं अपने श्याम (श्रीकृष्ण) के गुण गा रहा हूँ। प्रभु के गुण गाने के साथ ही उनके श्री चरणों को अपने चित्त में इस भाव के साथ धारण कर रहा हूँ कि हे धनी! पुनः इस भाव-सागर में न आना पड़े ऐसी कृपा करना। कलियों को चुनचुन कर मैंने अपने पिया के लिए सेज बिछाई और बगलों में तरह-तरह के फूल भरे। इस प्रकार की सुरंगी सेज पर पिया को बिठाया, तद्-उपरान्त पान-बीड़ा प्रभु को अरोगाया (खिलाया) बड़े प्रेम से प्रीतम के तरवा (पैरों) को सहलाया (दबाया) तथा हाथों से विजना (पंखा) डुलाया। बीच-बीच में पिया जी मीठी-मीठी बातें हमसे करते हैं, जिनको सुनकर मुझे अपार आनन्द की अनुभूति हो रही है। मुकुन्द स्वामी कहते हैं कि मुझ अंगना को मेरे प्रीतम मिले मैं बार-बार हँस-हँस के उनको कंठ लगा रही हूँ।
प्रीतम! प्रीत न करिये, प्रीत किये दुःख होये।
सुन मन कंथ सुजान सुमन होय, प्रेम के फंद न परिये।। 1।।
लोक वेद की राह कठिन है, कुल कलंक तें डरिये।
अरपै शीश प्रेम तब उपजै, जब कुल देह विसरिये।। 2।।
गुरु जन लाज कानि दुर्जन की, कहु कैसे निस्तरिये।
पिया मिलन को प्यारी तलफै, कैसे मित्र जुहरिये।। 3।।
पिया मिले तो जग रूठत है, जग मिले निदरिये।
ए दोनों दुःख आनि परे हैं, कहु कवनि भांति निरवरिये।। 4।।
जा तन लागे सोई तन जानै, दिल बीच बात विचरिये।
पीर पराई कोइ का जानै, कासो टेरि पुकरिये।। 5।।
प्रीत करो तो पूरि निबाहो, निमेष नेह ना टरिये।
जुग जुग होत दोऊ कुल निर्मल, प्रेम पंथ यों वरिये।। 6।।
प्रान जाय प्रन जान न दीजै, जो पिय मन न बिसरिये।
विघन अनेक परे झिर ऊपर, तो प्रिय मन उर धरिये।। 7।।
प्रेम पंथ बारीक बहुत हैं, समुझि बूझि पग धरिये।
ऊँची विकट सिलसिली घाटी, पगु धरते गिर परिये।। 8।।
देख सखि मन सूर सूरकी, सो गहि सुरति सम्हरिये।
सूरति सीढ़ी पाँव दिये जिन, संतन नेह निवरिये।। 9।।
होय सनेह नेह कर्म भ्रम तजिकै, मन वचनकर्म पिय बरिये।
रहस ‘मुकुन्द’ मिले पिय अपने, जग लज्या परिहरिये।। 10।।
प्रीतम, प्रीत मत कीजिए प्रीति का मार्ग बड़ा दुखदायी है। प्रेम करने में अपार दुख है। हे मन! तू तो इन्द्रियों का स्वामी सयाना और समझदार है। प्रेम के फंदे में मत पड़ जाना। सांसारिक एवं वैदिक मर्यादाओं का मार्ग बड़ा कठिन है। कुल कलंक से भी डरना पड़ता है किन्तु जो प्राणों का मोह त्यागकर शीश अर्पण को तैयार रहता है, जिसने अपने कुल की मर्यादा को छोड़कर अपने शरीर की सुधि भी बिसरा दी हो तब उसमें कहीं प्रेम प्रफुल्लित होता है।
प्रिया अपने प्रीतम से मिलने के लिए तड़फ (व्याकुल) रही है किन्तु बड़ों की मर्यादा तथा दुर्जनों की निगाह से कैसे बचकर प्रिय से मिले। प्रेम की स्थिति बड़ी विकट है यदि प्रिय से मिलते हैं तो संसार (जग) रूठता (नाराज) है और मिले बिना चैन नहीं है। ये दोनों प्रकार से दुख आड़े हैं इनसे कैसे पार पायें ?
जिसके शरीर में यह रोग (प्रेम) लगा है वही इसके दर्द को समझता है। थोड़ा आप दिल से विचार कीजिये कि दूसरे के दर्द को अन्य व्यक्ति क्या जानें? तथा दर्दी अपनी पीड़ा को किससे कहे? कौन सुनने वाला है ? यदि आपने प्रीत की है, तो उसे पूर्णतः पालन कीजिए एक क्षण के लिए भी प्रेम रंग में विलग न होइये।
प्रेम-मार्ग को इस दृढ़ता से वरण कीजिए कि युग-युगान्तर तक दोनों कुल का निर्मल यश कायम रहे। प्रीतम की छवि, उसकी याद बड़ी दृढ़ता एवं प्रण से हृदय में धारण कीजिए। भले ही अनेक विघ्न-बाधाएँ सिर पर पड़ें और अन्त में प्राण भी त्यागना पड़े, किन्तु प्रीतम की छवि न बिसरे। प्रेम-मार्ग बड़ा कठिन है।
बहुत सोच विचारकर इस पथ पर पग रखना चाहिए। प्रेम पंथ की घाटी ऊँची, चिकनी और ढलानवाली है। इस पर पैर रखने से पहिले ही गिरने का अंदेशा (डर) रहता है। हे सखि! मेरे मन को आठों याम प्रीतम की छवि की याद के अतिरिक्त कुछ नहीं सूझता। संतों की कृपा एवं प्रीतम की सुरति (याद) की सीढ़ी पर चढ़कर ही हम प्रीतम के पास पहुँचेंगे।
मन, वचन, कर्म से जो अपने प्रीतम का निछावर है जिस प्रेमी को ऐसा अनन्य माधुर्य प्रेम का रंग चढ़ गया है उसके सभी कर्म और सांसारिक भ्रम दूर हो जाते हैं। मुकुन्द स्वामी कहते हैं कि वह प्रेम दीवानी जग की सभी मर्यादाओं को तजकर अपने पिया से मिलती है।
ब्रज की रीत प्रीत गति न्यारी।। टेक।।
कहि न सकत महिमा गुन सेसहु, शारद सकुचि समझि पचिहारी।। 1।।
अगम निगम पढि़ थके अगोचर, गावत ग्रन्थन विविध विचारी।
पावत नहि परमारथ की गति, स्वारथ लागि सकल संसारी।।2।।
यह तो कथा पुनित पुरातन, प्रगट कही शुक व्यास पुकारी।
प्रेम भक्ति गोपिन की महिमा, लिखी भागवतिहिं अधिकारी।।3।।
राम अखंड सदा वृन्दावन, होत न भंग अभंग सुखकारी।
सो सुख विधि हरिहर नहिं जाने, सो ‘मकुन्द’ बिलसे ब्रज- नारी।। 4।।
(सभी छन्द डॉ. अश्विनी कुमार दुबे, पन्ना के सौजन्य से)
मकुन्द स्वामी कहते हैं कि मैं ब्रज का कैसे वर्णन करूँ ? ब्रज की रीति-रिवाज, रहन-सहन और प्रीति भी अनन्य अनुपम अलौकिक है वह त्रिलोक से भिन्न है। उसकी महिमा का वर्णन शेष शायी नारायण और शारदे भी करने में सकुचाती हैं। वेद और पुराणों ने उस परम तत्व (पूर्ण ब्रह्म) की बहुत खोज की, अंत में हार कर उसे अगम, निगम, अगोचर संज्ञा से अभिभूत कर दिया। यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मायावी स्वार्थ से आच्छादित है, उस पूर्ण ब्रह्म की गति को किसी ने भी नहीं जाना। यह कथा (ब्रज में गोपि कृष्ण का अवतरण) बड़ी पवित्र पुनीत और पुरातन है।
शुक और व्यास जैसे ऋषियों ने गोपियों की माधुर्यमयी अनन्य प्रेम भक्ति की महिमा का एक कण-मात्र ही भागवत में वर्णन किया है। गोपी कृष्ण प्रेम की महिमा तो अवर्णनीय है। सच्चिदानन्द पूर्ण ब्रह्म श्री कृष्ण रास बिहारी की रास क्रीड़ा इस क्षय संसार में भिन्न चैदह लोकों से परे अखंड (जो महाप्रलय में नष्ट न हो) वृन्दावन में सदा सर्वदा अविरल गति से आज भी हो रही है वह अखंड शाश्वत है उसका क्रम कभी नहीं टूटता। मुकुन्द स्वामी कहते हैं कि उस अखंड वृन्दावन की रास क्रीड़ा का रसानन्द ब्रज वनिताओं ने प्राप्त किया है, जिसे त्रिदेव; ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी नहीं जानते।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)