बुन्देलखंड में कुछ ऐसी वीर बालाएँ अतरित हुई हैं, Mathurawali ko Rachhro की नायिका ने अपनी आन-बान-शान, मान-मर्यादा, अपने पातिव्रत धर्म और सतीत्व की रक्षा हेतु प्राण अर्पण कर दिये थे। उनमें से चंद्रावली और मथुरावाली का नाम विशेष उल्लेखनीय है। वीरांगना मथुरावली का आत्म बलिदान बुंदेली लोक साहित्य में विशेष स्मरणीय है।
बुन्देलखंड की लोक-गाथा मथुरावली कौ राछरौ
मध्य काल के मुगलों के अनाचार और निरंकुशता की स्थिति का चित्रण है। इनमें तत्कालीन पारिवारिक फूट और पारस्परिक ईष्या-द्वेष भी प्रदर्शित की गई है। मथुरावली के सगे चाचा ने मुगल शासक से साँठ-गाँठ करके मथुरावली के डोले को पकड़वा लिया था। मुगल शासक तो विलासी हुआ ही करते थे। वे उसे बीबी बनाकर काबुल ले जाना चाहता था।
मथुरावली के पिता, ससुर और भाइयों ने मुगल को अनेक प्रलोभन दिये, किन्तु वह उसे किसी भी तरह छोड़ने को तैयार नहीं हुआ। मथुरावली को अपनी आन-बान-शान और पातिव्रत का पूरा ध्यान था। उसने पानी का बहाना करके मुगल को तंबू के बाहर भेज दिया और अवसर पाकर तंबू में आग लगाकर प्राण त्याग दिये। भारतीय नारीत्व की परम्परा का इससे बढ़कर उदाहरण और क्या हो सकता है? गाथाकार ने गाथा के प्रारंभ में ही पारिवारिक फूट और ईर्ष्या-द्वेष की ओर संकेत किया है-
सगौरी काका बैरी भयौ, ल्याओं तुरकिया चढ़ाय। बंदी परी है मथुरावली।
इस भारत में जयचंद्र जैसे अनेक कुटुम्ब-द्रोही लोग पैदा हुए, जिनके कारण देश की पावनता में कलंक का काला दाग लगता आया है। बुंदेलखंड में इसी के आधार पर अनेक कहावतें भी प्रचलित हो गई हैं। जैसे- ‘घर के कुरवा से आँख फूटत’ या ‘घर कौ भेदी लंका ढाबैं।’ बीच मार्ग में उसके डोले को रोककर शिविर में रखवा दिया गया। वह अपने बंदी बनने का समाचार आसमान में उड़ती हुई चील के द्वारा प्रेषित करती है-
सरग उड़ती चिरहुली, आंधे सरग मड़राय।
जाय जौ कइयौ मोरे राजा ससुर सों। सास सौ कइयों समझाय।
बंदी परी है मथुरावली।
ससुर को पुत्र-वधू के बंदी होने का समाचार प्राप्त होते ही घबड़ाहट हो गई। वे विविध प्रकार के उपहार लेकर मुगल के समीप उपस्थित हुए-
ससुर मिलाऔ हो चले। लै चले हतिया हजार।
उपहार प्रस्तुत करके ससुर साहब ने मुगल से कहा-
लै रे मुगला के जे हतिया।
बहू तो छोड़ों मथुरावली।
किन्तु मुगल उनके हाथियों को अस्वीकार करते हुए कह उठता है-
तेरे हतियंन कौ मैं का करौं,
मेरे हैं गदहा हजार।
एक न छोड़ौ मथुरावली।
मुगल उसके आकर्षक सौंन्दर्य की प्रशंसा कर रहा है-
जाके लम्बे-लम्बे केश भोंहैं कटीली।
नैना रस भरे लै जा ऊं काबुल देश।
बीबी बनाऊं मथुरावली।
मथुरावली को तुर्क ने भेंट लेकर छोड़ने से मना कर दिया तो वे सेना को लेकर मुगल पर चढ़ आये, किन्तु उस शक्तिशाली मुगल का कुछ भी नहीं बिगाड़ सके और पराजित होकर लौट गया। मथुरावली ने अपने भाई को आश्वासन दिया कि -भैया आप निश्चिन्त होकर घर लौट जाइयेगा, मैं अपने कुल, खानदान और मर्यादा की रक्षा करूँगी। आप अनावश्यक खून नहीं बहाइयेगा-
बिरन मिलाऔ हो लै चलें, लै चले तेगा हजार।
बंदी परी है मथुरावली।
बहिन अपने भैया कौ समझाकर कहती है- जाऔ बिरन घर आपने,
राखोंगी पगड़ी की लाज। बंदी परी है मथुरावली।
मन में आत्म-बलिदान का दृढ़ संकल्प करते हुए मुगल के समक्ष प्यास का बहाना बनाकर मुगल से कहती है-
जारे मुगला पानी भरल्या। प्यासी मरें है मथुरावली।
मुगल मथुरावली की प्यार भरी बातें सुनकर लोटा लेकर शिविर के बाहर पानी भरने चला गया। इसी बीच में एकांत पाकर मथुरावली ने तम्बू में आग लगाई और खड़ी-खड़ी जलने लगी-
जोलौं मुगला पानी खौं गओ। तम्बू में दै लई आग।
ठाँढ़ी जरै मथुरावली।
मथुरावली अपने आत्म बलिदान का प्रसार-प्रचार करना चाह रही थी। जिससे समस्त नारी समाज को सतीत्व और पातिव्रत की शिक्षा प्राप्त हो सके। उसने ढोलिया को नाक की बेसर देकर मुनादी के लिए प्रोत्साहित किया-
नाक की बेसर ढोलिया तोय दूं।
ऊंचे चढ़ ढोल बजाऔ। ठाँढ़ी जरें मथुरावली।
आग के कारण मथुरावली के केश और अंग-प्रत्यंग सुलग रहे थे, वह निर्भीक होकर खड़ी-खड़ी जल रही थी-
अंग जरैं जैसे लाकड़ी, केस जरें जैसें घास। ठाँढ़ी जरें मथुरावली।
मथुरावली की मृत्यु का समाचार सुनकर उसके पतिदेव दुःखी होकर रोने लगे, किन्तु उसके भाई मान-मर्यादा की रक्षा के लिए आत्म-बलिदान की बात सुनकर प्रसन्न हुए-
रोय चले बाके बालमा, विहँस चले बाके वीर,
ठाँढ़ी जरें मथुरावली।
उसका भाई अपनी बहिन की प्रशंसा करते हुए प्रसन्न होकर कहने लगता है-
राखी बहना पगड़ी की लाज,
ठाँढ़ी जरें मथुरावली।
अपना बुन्देलखंड इस प्रकार की अमर-बलिदानी नारियों के त्याग और तपस्या के लिए प्रसिद्ध रहा है।
संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त