Mai माई

 ‘‘Mai ! ऐसी क्या मजबूरी है, जो इस उम्र में तुम्हें चोरी करने के लिये मजबूर होना पड़ रहा है?’’  मैं वृद्धा माई का हाथ यदि मजबूती से न पकड़े होता तो वह भरभराकर वहीं जीने में ढह जाती। मैं उसे सहारा देते अपनी बेंच की ओर ले आया। पानी पिलाते मैंने पूछा, ‘‘भूखी हो माई?’’  उँगली से उसने इशारा किया दो दिन से !!!

ट्रेन के आने में विलंब था, कारण रेलवे का आधुनिकीकरण और अनुरक्षण अर्थात विकास-कार्य। विकसित होने के पूर्व का विकास-काल आने वाले कल के लिए अच्छा होता है, जो वर्तमान की कठिनाइयों को पैदा करता ही है। विलम्बित होती जा रही ट्रेन की खीझ मैंने रेलवे में कार्यरत अपने इंजीनियर मित्र रघुराज पर फोन से उतारी। स्वभाव से अति विनम्र मित्र दिलासा देता हुआ बोला, ‘हो रहे विकास-कार्यों के बाद का सुख देखिएगा। बहुत-सी सुविधाओं के साथ ट्रेनों के आवागमन में गुणात्मक सुधार होने से यात्रा सरल व सुगम होगी।’

‘कहाँ जा रहे हो और कब वापसी है?’ की औपचारिक वार्ता के साथ फोन भंग हुआ। मैंने रेलवे प्लेटफार्म की बेंच पर ही अपना सूटकेस व भोजन सामग्री से भरा थैला रख दिया, जिसमें मधु ने बेटी पूजा के लिए नाना प्रकार की खाद्य सामग्री उसके नाश्ते के लिए रख दी थीं। पूजा की मनपसंद बेसन, अजवाइन व हींग से बनी खरखरी नमकीन ‘बिसनोटियाँ’ भी काफी मात्रा में मधु ने रख छोड़ी थीं।

मैं अपने मोबाइल पर अपडेट देखते हुए समय व्यतीत करने लगा। मोबाइल से मैं जल्दी ही बोर होने लगा कारण कोई खास अपडेट नहीं था। न तो कोई मजेदार चुटकुला और न ही कोई वीडियो अभी तक किसी ने पोस्ट किया था। मैंने नेट बंदकर मोबाइल जेब के हवाले किया, फिर थैले में रखी पानी की बोतल से पानी पीने के बाद मैं बेंच के ऊपर लगे पंखे की शीतल हवा से झपकने लगा। मुझे नींद में दिवास्वप्न-सा हुआ कि कोई महिला मेरा थैला उठाकर लिए जा रही है। क्षणिक स्वप्न से तंद्रा टूटी। आँखें खोली। अरे! वाकई सूटकेस के पास से थैला गायब था। मैंने भौंचक्क यहाँ-वहाँ दृष्टि दौड़ाई। प्लेटफॉर्म पर ज्यादा भीड़ नहीं थी, आखिर पल-भर में भारी भरकम थैला कौन उठा ले गया?

रेलवे पुल के जीने की धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ती एक महिला की पीठ पर थैला लदा दिख गया। मैं पलक झपकते जीने की ओर बढ़ा। तीन-चार सीढियाँ एक साथ लाँघते मैं उस चोरनी के सामने था। क्रोध भरे आवेश के साथ मैंने उसका कंधा झिंझोड़ा। वह एक उम्रदराज वृद्धा थी। मेरा दाहिना हाथ हवा में ही रुक गया। मन में एकाएक प्रश्न उठा, ‘इतनी उम्रदराज औरत और ऐसी हरकत?’ मैंने उससे पूछा, ‘‘तुम्हें चोरी करते शर्म नहीं आयी…क्या समझ के मेरा थैला उठा लायी थी?’’

वृद्धा ने थैला सीढ़ी पर रख दिया था और मौन ही मुझे कातर भाव से देखते हुए उसने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए, मानो कह रही हो, ‘गलती हुई अब जाने भी दो।’ वृद्धा की कातर सजल हो आईं आँखों के सामने मेरा गुस्सा पहले ही तिरोहित हो चुका था। मुझे लगा ‘हो सकता है उसने थैला गलती से उठा लिया हो।’

बात आई गई-सी हो गई। वह वृद्धा धीरे-धीरे जीने की शेष सीढ़ियाँ चढ़ने लग गई और मैं अपना थैला थामे मौन अपनी बेंच पर आ बैठा। एक उचटती-सी दृष्टि मैंने जीने को ओर डाली, मंथर गति से सीढ़ियाँ चढ़ती वृद्धा की पीठ देखते मुझसे रहा नहीं गया। हृदय के किसी कोने में सोई संवेदना उसकी क्षमा-याचना और प्रायश्चित के भाव लिए सजल नेत्रों के स्मरण आते ही जाग्रत हो चुकी थी।

प्रश्न अपनी जगह यथावत था,  ‘आखिर ऐसी क्या वजह थी, जो उसे इस उम्र में चोरी करनी पड़ रही है और चोरी पकड़े जाने के बाद के अपमान को सहन कर ले जाने की स्थिति के लिए उसने स्वयं को कैसे तैयार किया होगा?’  ऐसे कई प्रश्न मेरे मन-मष्तिष्क में कौंध गए। मुझसे रहा नहीं गया और कुछ क्षणों बाद ही मैं पुनः जीने की सीढ़ी चढ़ती हुई उस वृद्धा के सन्मुख जा खड़ा हुआ।

वृद्धा ने पुनः अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए कातर दृष्टि से मुझे देखा। उसकी मौन वाणी मुझे सुनाई दी, ‘गलती हो गई साहब! क्षमा कीजिए, मुझ असहाय पर दया कीजिए और जाने दीजिए।’ मैंने वृद्धा के जुड़े हाथ थाम लिए, ‘‘माई! ऐसी क्या मजबूरी है, जो इस उम्र में तुम्हें चोरी करने के लिये मजबूर होना पड़ रहा है?’’ मैं वृद्धा का हाथ यदि मजबूती से न पकड़े होता तो वह भरभराकर वहीं जीने में ढह जाती। मैं उसे सहारा देते अपनी बेंच की ओर ले आया। पानी पिलाते मैंने पूछा, ‘‘भूखी हो माई?’’ उँगली से उसने दो दिन का इशारा किया।

‘ओह!’ मुझसे रहा नहीं गया मैंने वृद्धा का सिर अपने सीने से पल-भर को लगाया और अपना टिफिन खोल कर उसके सामने रख दिया। भूखी माई ने आलू की सूखी सब्जी और पूड़ियाँ मन से खाईं, इस बीच मैं दो चाय बनवा लाया। भोजन से तृप्त व्यक्ति का चेहरा अलग ही आभास देने लग जाता है। ऊर्जा से भरपूर बूढ़ी माई ने अपनी दोनों हथेलियों से मेरी बलैया लीं, मेरे सिर पर हाथ रखते वह बोली,  ‘‘बेटा! खूब खुश रहो। भगवान तुम्हारा और तुम्हारे घर-परिवार, बाल-बच्चों का भला करे।’’

माई की मर्दानी आवाज ने मुझे सोचने पर विवश किया, मँझोला कद, कुछ थुलथुल-सी काठी, दाएँ गाल पर बड़ा-सा मस्सा, जिसमें तीन-चार लंबे श्वेत बाल, तन पर ब्लाऊज-साड़ी धारण किए क्या यह वृद्ध माई स्त्री भेष में  किन्नर हैं? वृद्ध माई बोले जा रही थी, ‘‘बेटा! मैं वक्त की मारी एक किन्नर हूँ।

होश सँभालने से लेकर आज तक उँगलियों में गिने जाने वाले आप जैसे कुछ परोपकारियों को छोड़ मुझे कहीं इज्जत-सम्मान तो दूर की बात हमेशा अपमान और दुत्कार मिला। घर-परिवार और समाज से शोषित, प्रताड़ित, तिरष्कृत और बहिष्कृत रही हूँ। मुझे हर किसी से हमेशा उपेक्षा ही मिली है।’’ मर्दानी आवाज और बोलने के हाव-भाव से वृद्ध माई का किन्नर रूप अब स्वतः ही स्पष्ट हो रहा था।

‘‘अब ज्यादा क्या कहूँ बेटा! मुझे गैरों से ज्यादा हमारे अपनों ने ही, अपनी ही बिरादरी वालों ने ठगा और इस हाल में ला दिया। आज जब भूख सहन न हुई तो जीवन में पहली बार चोरी की और पकड़ी गई। वह तो आप जैसे नेक-दिल इंसान का सामान था कोई और होता तो…’’ माई का गला रुँध गया, आँखों से जलधार बह निकली। रुँधे गले वह बोली, ‘‘क्या सोच में पड़ गए भैया! चलती हूँ ,भगवान आपको, आपके बाल-बच्चों को खुश रखे।’’ माई ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठाए और चलने को उद्दत हुई।

‘‘माई,… कहाँ जाना है तुम्हें? कहाँ रहती हो? कैसे रहती हो?  तुम्हारा क्या अतीत रहा है,  मुझे इस सबसे कोई सरोकार नहीं है और अब मैं यह भी जानता हूँ कि तुम एक किन्नर हो, फिर भी मुझे तुमसे एक बात कहनी है, चाहो तो अब तुम अपना शेष जीवन हमारे साथ, हमारे परिवार की वरिष्ठ सदस्य की हैसियत से व्यतीत कर सकती हो।’’ मैंने माई की दोनों हथेलियाँ मजबूती से थामी हुई थी। किन्नर माई की आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे। वह भाव-विह्वल हो मुझसे लिपट गई।

मैं अपने पूर्व-निर्धारित कार्यों के निष्पादन के उपरांत बनारस से दो दिन के बाद वापस आ गया था। माई मुझे पहले से तयशुदा स्थान पर मेरी प्रतीक्षा करते मिल गई थीं। ने मधु को फोन द्वारा  पहले ही सारे घटनाक्रम से अवगत करा दिया था। बेटी पूजा ने भी मेरे निर्णय का स्वागत किया। माई को हमारे घर मे आये, आज लगभग पाँच वर्ष हो रहे हैं। माई को परिवार में बुजुर्ग की हैसियत प्राप्त है। घर, परिवार व परिचित लोग ‘माई’ का संबोधन देते और उनसे आशीष ग्रहण करते। घर के लगभग सारे काम माई से पूछ कर होते।

नातन धर्म की मान्यतानुसार दैवीय आभा मण्डल किन्नर के साथ रहता है, वे किसी को श्राप नहीं देते, वे केवल और केवल आशीष देना जानते हैं। दूसरों के सुख में खुश होकर नाचते-गाते-बजाते हैं। अपने दुःख को कभी किसी के समक्ष अनावश्यक रूप से व्यक्त भी नहीं करते। उनके अंदर भी मानवीय गुण होते हैं, वे भी समाज के लिए कुछ करने का जज्बा रखते हैं । प्रत्येक किन्नर का अपना एक अतीत होता है, उसका स्वयं का झेला संघर्ष होता है। परिवार से विस्थापन का दंश सर्वप्रथम उन्हें ही भुगतना होता है।

माई का भी अपना अतीत था। मधु को एक बार माई ने बताया कि, ‘‘जब वह छोटी थी तब ‘नदिया के पार’ फिल्म आई थी। वह भी फिल्म की नायिका जैसी उछल-कूद करने वाली, भरपूर शरारती थी। माता-पिता ने फिल्म देखने के बाद उसका नाम फिल्म की नायिका के नाम पर ‘गुंजा’ रख दिया था। कम उम्र में ही उसका विवाह हो गया था।

विवाह के बाद उसे पता चला कि वह न नर है न नारी, बल्कि वह एक किन्नर है। पहली शादी छूटी, फिर दूसरी बार ऐसे ही बिठा दी गई, तीसरी बार बेची गई। अंततः उसे किन्नरों का डेरा अपने लिए सही ठौर लगा। बाद का जीवन किन्नर समाज में रहकर बधाई में जाकर, किन्नर गुरुओं की सेवा-टहल में रहते कट गया, पर बुढ़ापा आते ही वह डेरे पर बोझ समझी जाने लगी और एक दिन बहुत बीमार होने पर उसे शहर लाकर एक सरकारी अस्पताल में भर्ती करा कर डेरे के कारिंदे रफूचक्कर हो गए। अस्पताल में वह मरते-मरते बची। अस्पताल से बाहर आते ही उसकी नारकीय जिंदगी शुरू हो गई। कुछ अच्छे कर्म किए थे, शायद जो उस दिन स्टेशन में भैया मिल गए थे।’’

किन्नर माई आज हमारे साथ बहुत खुश हैं। जब से माई हमारे परिवार में सम्मिलित हुई हैं, तभी से ईश्वर की असीम अनुकंपा हम पर बरस रही है। सनातनी परंपरा के अनुपालन में यह विश्वास दृढ़ है कि दैवीय शक्ति से सुशोभित किन्नर का आशीर्वाद फलदायी होता है, जो किसी-किसी को कभी-कभार मिलता है, जबकि मुझे और मेरे परिवार में तो यह कृपा किन्नर माई से प्रतिदिन, प्रति-पल मिल रही थी। मेरी पदोन्नति, बेटी का न्यायिक सेवा में चयन और अच्छे वर से विवाह। ऐसा मेरा विश्वास है कि यह सभी सुफल ‘किन्नर माई’ के होते सुलभ हुए थे।

मैं अनाथालय में पला-बढ़ा हूँ। मैंने कभी अपने माँ-बाप को नहीं देखा, उनकी कोई छवि-स्मृति मेरे मानस पटल पर नहीं है, पर हाँ! इधर एक विश्वास पनपा है, दोनों की प्रतिमूर्ति मुझे ‘किन्नर माई’ में झलकती है।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

महेंद्र भीष्म

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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