पितृपक्ष में आश्विन कृष्णपक्ष माह की अष्टमी को महालक्ष्मी देवी का पूजन होता है । Mahalaxmi Devi की इस पूजा व्रत को सुहागवती स्त्रियाँ अखण्ड सुहाग, धन धान्य, सुख-समृद्धि की सोलह गाँठें होती हैं। भाद्र शुक्ल अष्टमी से इस अनुष्ठान का कामना से करती हैं। इसकी पूजा में गड़ा लिया जाता है, जिसमें आरम्भ होता है ।
इस दिन स्त्रियाँ पास के नदी या तालाब पर नहाने जाती हैं। अपने सिर पर चालीस लोटे पानी डालती हैं और दूब सहित सोलह अंजलि से सूर्य को अर्घ्य देती हैं – इसे सोरा ढारना कहते हैं। घर आकर पंडित से गड़ा लेती है । इस गड़े की नित्य पूजा होती है। आश्विन कृष्ण अष्टमी को महापूजा होती है। इस दिन भी सिर से स्नान कर सोरा ढारे जाते हैं । इस व्रत के सम्बन्ध में सोलह की संख्या का बड़ा महत्त्व है ।
इसमें पपरिया, गुजियाँ, सुरा के कोरे पसारे जाते हैं । इस पूजा में सुरा (आटे में गुड़ मिलाकर गड़ा कर गोल मठरी की तरह बनाते हैं) बनाना अनिवार्य होता है। महालक्ष्मी के लिए बेसन- मैदे के नख से शिख तक के सोलह प्रकार के आभूषण बनाये जाते हैं। आटे के सोलह दीपक जलाये जाते हैं, पुरोहित पूजा करवाकर सोलह सोरा पूजा करने वाली स्त्रियों के आँचल में देता है। चालीस सुरा पंडित को दिये जाते हैं। इस व्रत पर सोलह बोल की कहानी सोलह बार कही जाती है, जो इस प्रकार है-
आमौती दामौती रानी पोला परपाटन गाँव,
मगर सेन राजा, बम्मन बरुआ कहें कहानी,
सुनो हो महालक्ष्मी रानी,
हमसे काते तुमसों सुनते सोरा बोल की एक कानिया ।