Led Ki Fag लेद की फाग

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Led Ki Fag लेद की फाग
Led Ki Fag लेद की फाग

लेद गायकी 20 वीं शती के प्रथम चरण में दतिया की देन है। दतिया के प्रसिद्ध गायक कमला प्रसाद ने Led Ki Fag का आविष्कार किया था और कालका प्रसाद एवं ललन जू ने उसका समर्थन किया था। लोकगायकी की लेद शास्त्रीय लेद से सरल, सहज और छोटी है। लेद लोकसंगीत में दादरा-कहरवा में ढली है। उसमें एक टेक और चार अन्तरे होते हैं। लेद गायन में स्थायी और अन्तरे, दोनों दादरे में गाये जाते हैं। लेद का विस्तार नहीं किया जाता है।

कीसैं कइये जी के साके।
चाउन नयी बहार नये, झौंका रसभरी हवा के।
महुअन के बे फूल बोल बे, मीठी कोइलिया के।
टीलन के ककरा पथरा बे, डाँगन हरीतमा के।।

इसमे पहली पंक्ति स्थायी है और शेष अन्तरे। लेद का ठेका निम्नांकित है- (धिं नक ध् 51 तिं नक धा)। गीत को दादरा ताल और मध्य एवं द्रुत लय में गाया जाता है। लेद गायन दतिया, झाँसी, टीकमगढ़, सागर के जिलों में अधिक प्रचलित इस गीत में श्रृंगारप्रधान विषय ही प्रमुख रहते हैं। संगत के लिए पखावज और सारंगी लोकवाद्य हैं।

बुन्देलखण्ड की राई 

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल