Homeबुन्देलखण्ड के साहित्यकारLaxmi Prasad Shukla ‘Vatsa’ लक्ष्मी प्रसाद शुक्ल ‘वत्स’

Laxmi Prasad Shukla ‘Vatsa’ लक्ष्मी प्रसाद शुक्ल ‘वत्स’

कवि Laxmi Prasad Shukla ‘Vatsa का जन्म बैकुण्ठ चतुर्थी विक्रमी संवत् 1972 तदनुसार 16 नवम्बर सन् 1915 ई. को तत्कालीन समथर राज्य के ग्राम सेसा में पंडित रघुवीर सहाय शुक्ल के घर हुआ। आपने अर्थशास्त्र तथा भूगोल विषय में एम.ए. तथा एल.टी तक शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद समथर राज्य में अध्यापक नियुक्त हुए।

कुछ दिनों अध्यापकीय करने के बाद वहीं तहसीलदार बनाये गए। समथर नरेश द्वारा ‘राजकवि’ का पद देकर सम्मानित किया गया। समथर राज्य के उत्तरप्रदेश में विलीन होने पर सीपरी बाजार, झाँसी के सरस्वती इण्टर कालेज में प्रवक्ता बने तथा उप प्रधानाचार्य होकर 30 जून 1978 को सेवा निवृत्त हुए। वत्स जी बचपन से ही कवितायें लिखने लगे थे।

राजकवि’ समथर…  श्री लक्ष्मी प्रसाद शुक्ल ‘वत्स’

श्री लक्ष्मी प्रसाद शुक्लवत्स’ ने बुन्देली तथा खड़ी बोली में कवितायें लिखीं। सन् 1936 से आपने अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों में कविता पाठ किया। आकाशवाणी लखनऊ तथा छतरपुर से कई बार काव्य पाठ किया। आपको तत्कालीन छतरपुर, पन्ना, बिजावर, मैहर आदि राज्यों द्वारा सम्मानित किया गया तदन्तर बुन्देलखण्ड शोध संस्थानबुन्देलखण्ड साहित्य कला परिषद् द्वारा सम्मानित किया गया।

श्री लक्ष्मी प्रसाद शुक्ल वत्स’ की बुन्देली कविताओं के संग्रह बुन्देली’ तथा ‘खण्ड बुन्देलाएवं खड़ी बोली के काव्य संग्रह श्यामसुधा’ तथा राम महिमा प्रकाशित हैं। इन्होंने अपनी कविताओं में बुन्देलखण्ड के ग्रामीण अंचलों के अभावग्रस्त जीवन का चित्रण मुहावरेदार भाषा में किया है। आपका परलोकगमन 22 सितम्बर 1998 को हुआ। इनके तीन पुत्र श्री माधुरीशरण, श्री हरशरण तथा श्री महावीरशरण झाँसी में निवास करते हैं। संझले पुत्र श्री हरशरण पिता की साहित्यिक धरोहर को सहेजने का प्रयास कर रहे हैं।

चौकड़ियाँ

नावचार को घूँघट डारें, पौर दुआरौ झारें।
नोंनी लग रइं न्योरीं न्योरीं, टरकत आवें द्वारें।।

ऐरो सुन चौंकी हिन्नी-सीं, रै गइं निगा पसारें।
हमें देख मुस्का गइं, चट फिर दैलइं दोउ किवारें।।

नायिका नाममात्र के लिए सिर पर घूँघट डालकर (केवल दिखाने के लिये घूँघट के नाम पर सिर पर धोती डाले हुए) बाहरी बैठक का कमरा और दरवाजे की सफाई (झाड़ू लगा) कर रही हैं। झुके-झुके धीरे-धीरे द्वार की ओर लाती हुई वह बहुत सुन्दर लग रही है। किसी ध्वनि की भनक से वह हरिणी (मृग की मादा) के समान चौंक कर आँखें फैलाये हुए देखने लगती है। नायक कहता है कि वह मुझे देखकर मुस्करा देती है (मंदहास कर देती है) और तुरन्त दोनों किवाड़ (फाटक) बंद कर लेती है।

कंठा कठुला हिय में हूलें, मिचकिन झूला झूलें।
जैसी जैसी पैग बढ़त जयँ, तैसीं तैसीं फूलें।।

झांका लगो सटक गइ सारी, ओढ़ न पायँ दुकूलें।
डुलें गेंद से भरे जुबनवाँ, चढ़ी सरग पै ऊलें।।

नायिका झूला के पैग बढ़ाकर झूल रही है उसके गले का कठुला (माला की तरह गोल गले का आभूषण) हृदय में टीस उत्पन्न कर रहा है। क्रमशः बढ़ाते हुए पैगों से झूले की उछाल बढ़ती है और उसी क्रम में हवा के भरने से फूलती-सी जाती है तभी हवा का एक झोंका लगने से साड़ी सरक जाती है और सारी का छोर ढंक नहीं पाती जिससे दोनों स्तन गेंद की तरह तने हुए हिल रहे हैं और वह ऊँचाई की उछाल में प्रसन्न हो रही है।

चढ़ गइं नदी कगारें गुइयाँ, खाबें टोर मकुइयाँ।
खटा चीपरौ स्वाद मिलै, मुस्का जय मीठी मुइयाँ।।

रिरको पाँव, लुड़क गइं, उरझीं रै गइं रूख डरैयाँ।
की रडुवा के भाग्गन बच गइं, आज मरत सें टुइयाँ।।

मकुइयां (छोटा काला जंगली फल जो कटीली झाड़ी पर लगता है। तोड़कर खाने की इच्छा से नायिका नदी के ऊँचे किनारे (टीले) पर चढ़ गई। खट्टा-कसैला सा मकुइयां के रस का स्वाद मिले और माधुर्यपूर्ण चेहरे पर मुस्कान आ जाय। तभी पाँव फिसल गया और वह गिर गई किन्तु पेड़ों की डालों में उलझ जाने के कारण नीचे गिरने से बच गई। कवि कहता है कि वह नायिका किस रडुआ (अविवाहित अधिक उम्र का पुरुष) के भाग्य से इस दुर्घटना में भी मरते-मरते बच गई?

बखरी में स्यों मूड़ उगारें, बैठीं बार समारें।
टाँगन पै तखता देखत जँय, रुच-रुच पटियाँ पारें।।

गोलइं लटें लचें लमछारीं, ज्यों तीखें तरवारें।
की कौ आज करेजो काटन, कों कररइं सिंगारें।।

नायिका आँगन में पूरा सिर खोले बैठी हुई अपने बालों की सम्हाल कर रही है। अपने पैर फैला कर शीशा रखकर उसमें देखते हुए कंघी से बालों की मांग आदि बड़े मनोयोग से बना रही है। गोल, लम्बी, चिकनी और लहरातीं बालों की लटें लगती है मानो धारदार तलवारें हों। कवि कहता है कि नायिका आज किसका कलेजा काटने को यह श्रृँगार कर रही है?

पाँवन भओ महाउर भारूँ, डग मग बढ़ें अगारूँ।
कोर कजर दे जियरा ले लओ, बचो कहा जो बारूँ।

ऐसी नोंनी निगत देखतइ जावें लगे पिछारूँ।
ऐसी धना जो मिल जायँ, राजइं राई नोंन उतारूँ।।

नायिका इतनी कोमल है कि महावर लग जाने से ही उसके पैरों में भार बढ़ गया। आगे चलने में उसके पैर डगमगाने लगे हैं। उसकी आँखों के कटीले काजल ने मेरा हृदय ही ले लिया, अब मेरे पास कुछ नहीं बचा, मैं उस पर क्या निछावर कर दूँ ? उसकी सुन्दर चाल देखकर लगता है कि पीछे-पीछे चला जाय। नायक कहता है कि ऐसी सुन्दरी मिल जाय तो नित्य नजर उतारकर सुरक्षित रखूँ।

चुप्पइं-चुप्पइं बढ़ें अंगारूं, चौकत जयँ भै भारूँ।
भओ झुलपटो कितै चल दइं जे, चोरन की उनहारूँ।।

आगें बढ़ती जाँय, मुरक कें हेरत जाँय पिछारूँ।
लयें टुइयाँ सी जान कहा करबे पै भइं उतारूँ।।

धीरे-धीरे चुपचाप आगे बढ़ती जाती हैं भय के कारण बीच-बीच में चौंकती भी है। सायंकाल का अंधेरा होने लगा है वह चोरों के समान कहाँ जा रही है? आगे चलते हुए पलटकर पीछे की ओर देख लेती है। कोमलांगी प्रिय प्राणों वाली अब क्या करने का निश्चय कर चुकी है?

चाँउर सदां पुरानो ल्यावे, चुरतन में सैलावे।
पउवा भर की खीर रँधै, सींकन टठिया भर जावे।।

गुर की डार डिंगरिया जो बिन दाँतन हू कौ खावे।
दस दिन माँह सेठ सी ताकी तोंद पसरतइ आवे।।

चावल सदैव पुराना ही लेना चाहिये जो पकाने पर बहुत हो जाता है। एक पाव की खीर पकाने पर कई थालियाँ भर जाती हैं। यदि उसमें गुड़ के टुकड़े करके डाल दिये जाय तो बिना दांतों वाला व्यक्ति भी खा लेता है। ऐसी खीर खाने वाले का दस दिन में ही सेठ की तरह पेट बड़ा होता चला जाता है।

नँदनन्दन देख कें ग्वाल हंसें,
हँस गोपियाँ नाचें झला के झला।

यह देख उमा से उमेश कहें,
अब को कहि है तुमसें अबला।।

विधि को जो विधान सो मेटती हो,
अबला तुम जानतीं ऐसी कला।

जसुदा ने तौ रात में जाइ लली,
पर भोर बना दियो देखो लला।।

नन्द के पुत्र श्री कृष्ण के दर्शन करके सभी ग्वाल-बाल हँस रहे हैं। हँसते हुए गोपियाँ झुँड के झुँड होकर नाच रही हैं। यह सब आनंद देखकर शिवजी पार्वती जी से कहते हैं कि नारियों को अब अबला कौन कह सकता है ? तुम सभी नारियों को विधाता (ब्रह्मा) के विधान को मिटाने की युक्ति भी आती है। रात्रि में यशोदा जी ने पुत्री को जन्म दिया था किन्तु प्रातः होते ही उसे पुत्र बना दिया।

चोरी करी दधि माखन की,
घर में घुसकें घटफोरी करी है।

मैं भरके जल ज्योंही चली मग,
छेड़ त्योंही बरजोरी करी है।।

कैसें जसोदा रहों तोरे गाँव,
कि कान्ह ने ऐसी छिछोरी करी है।

घाल गुलेल को फोर दी गागर,
गैल गली हँस होरी करी है।।

ग्वालिन कहती है कि कृष्ण के घर में प्रवेश करके दही और मक्खन की चोरी की और घड़े आदि बर्तन भी तोड़ डाले। मैं जल भरकर जैसे ही रास्ते में चली कि तभी कृष्ण ने मेरे साथ छेड़-छाड़ की और जबरदस्ती की। हे यशोदा! मैं तेरे गाँव में भला कैसे रह सकूँगी? तेरा पुत्र कन्हैया ऐसी ओछी करतूतें करता है। एक दिन गुलेल (तिकोनी लकड़ी में बंधी रबड़ से बना पत्थर मारने का एक उपकरण) से पत्थर मारकर मेरी गागर तोड़ दी और मार्ग में हंसी-ठिठोली का होली जैसा व्यौहार करता है।

सुमन सुगंध संग झूला की झकोर देख,
मधु मकरन्द प्यास जागी भृंग भृंग में।

मनु मुग्ध होके गोपियाँ भी गीत गाने लगीं,
माधुरी मधुर मुस्काई नृग नृग में।।

जुगल किशोर छवि देख मुग्ध हुए जीव,
थिर हुयी चपल चितौन मृग मृग में।

सौम्यता के रूप श्याम श्यामा संग झूलैयों कि,
झूला की झकोर झूम झूले दृग दृग में।।

फूलों की सुगंध के साथ झूले की लहर देखकर अमृत से पुष्प-रस के लिये भौरों के मन में प्यास जागृत हो गई है। गोपियाँ मानो मोहित होकर गीतों का गान करने लगी और जन जन में कोमल माधुर्य मुस्करा उठा। राधा-कृष्ण की शोभा को देखकर जीवधारी मोहित हो गये। हिरनों की चंचल चितवन स्थिर हो गई। सौम्यता के स्वरूप राधा-कृष्ण के झूलने पर झूले की लहरान प्रत्येक दर्शक की आँखों में झूलने लगी।

मोह लिया मन मोहन ने सखि,
मेरौ छली से यों पालो पड़ो है।

कैसे कलंक से हाय बचूँ,
कुलकान को लूटबे को ही खड़ो है।

पाछें फिरौं ऊ माखन चोर के,
जो हँस हेर के चित्त चढ़ो है।

हेरत सहज चुरा लओ चित्त,
कि माखन चोर हिये में अड़ो है।

हे सखि! मनमोहन कृष्ण जैसे धोखेबाज (कपटी) से संयोगवश मिलना हुआ और उसने मेरे मन को मोहित कर लिया है। कुल की मर्यादा को लूटने के लिये कृष्ण खड़ा हुआ है। मैं कैसे इस बदनामी से अपने को बचाऊँ? जिस माखनचोर ने मुस्कान के साथ देखकर हृदय में स्थान बना लिया उसके पीछे-पीछे मैं घूम रही हूँ। उस कृष्ण ने सहजता से देखकर ही मन को चुरा लिया है वही माखनचोर हृदय में बस गया है।

चोरों की भाँति ही जन्म लियो,
हरि चोरी से नन्द किशोर बने हैं।

चोरी करी मधु माखन की,
दधि चोरी से ही सहजोर बने हैं।

चोरी ही चोरी छिछोर हुये यों,
कि चीर चुरा रसखोर बने हैं।

भोरी सी राधिका यों भरमाइ,
कि चित्त चुरा चितचोर बने हैं।।

श्रीकृष्ण ने चोरों की तरह ही कारागार में जन्म लिया और चोरी से ही वे नन्द बाबा के घर आकर उनके पुत्र बन गये। उन्होंने मधुर मक्खन को गोपियों के घर से चुराया और दही की चोरी करके ही वे बलवान बन गये। बार-बार चोरी करने से वे ओछे बन गये और गोपियों के वस्त्र चुराने पर रसग्राही बन गये। भोली भाली राधिका को धोखा देकर उसके मन की चोरी करके चितचोर बन गये।

गोरी गोरी गोपियों के चमकें यों चन्द्र मुख,
चाँदनी ज्यों चैंत की चमकती दिगन्त है।

केशव के कंज के समान श्याम अंग पर,
राधिका की दृष्टि भृंग बन विलसंत है।।

राधिका गोपियों के संग रास रचा नाचें कान्ह,
मुरली की धुन कोकिला सी किलकन्त है।

पतझर होगा कहीं किन्तु रास रंग भरे,
यमुना के तीर पै बसन्त ही बसन्त है।।

गोरे रंग की सुन्दर गोपियों के चन्द्रमुख ऐसे चमक रहे हैं जैसे चैत्र माह में चाँदनी सभी दिशाओं में प्रकाश फैलाती है। कृष्ण के कमल के समान सांवले शरीर पर राधिका जी की दृष्टि भौंरा बनकर विलास कर रही है। राधा और गोपियों के साथ कृष्ण रास लीला करते हुए नाच रहे हैं, उनकी मुरली की ध्वनि कोयल के समान किलकारी भर रही है। पतझड़ की ऋतु का प्रभाव अन्य स्थान पर संभव है किन्तु रासलीला स्थल यमुना नदी के किनारे बसंत ही बिखरा हुआ है।

आज गुपाल ने खेली ज्यों फाग,
अनोखी त्यों चाल चली छल छंद की।

मूठ गुलाल की मारी ज्यों ही,
डारी दीठ में दीठ त्यों प्रेम के फंद की।।

मैं तो यों हाल विहाल हुयी,
कि रही सुध देह न गेह अलिन्द की।।

हूल सी लागी वो धूल गुलाल की,
तीर सी लागी वो दीठ गुविन्द की।।

श्रीकृष्ण ने आज फाग के खेल में धोखेबाजी की एक विलक्षण युक्ति का प्रयोग किया, जैसे ही गुलाल मुट्ठी में भरकर मेरे ऊपर फेंकी उसी के साथ नजर से नजर मिलाई और प्रेम का जाल डाल दिया। मैं व्याकुल हो गई, मुझे अपने शरीर का भी होश नहीं रहा और यह भी भूल गई कि मैं घर के बाहर खड़ी हूँ। वह गुलाल की धूल मुझे भाले सी लगी और गोविन्द की नजर तो तीर की तरह हृदय में चोट कर गई। खेलत फाग अनहोनी भयी सखी, रंग सुरंग यों कान्ह बिखेरो।

ओंचक मारी जो मूठ गुलाल की,
तीखे नैनन त्यों हँस हेरो।।

साँवरे लाल को साँवरो रूप,
वो देखत हाय भयो चित चेरो।

लाल जो कैसो गुलाल हतो,
जाने साँवर रँगो मन मेरो।।

श्री कृष्ण के फाग खेलते हुए एक अनहोनी घटना (जैसी कभी पहले घटित नहीं हुयी) घट गई। श्री कृष्ण ने लाल रंग डाल दिया फिर अचानक मुट्ठी में गुलाल भरकर मार दी फिर आँखें पास में लाकर मुस्काते हुए मुझे देखा, काले कन्हैया के सलोने रूप को देखते ही मेरा मन उनका दास बन गया। हे कृष्ण! यह कैसी गुलाल थी जिसने लाल की जगह मेरा मन सांवले रंग में रंग दिया।

गैयाँ चरावत रये वन में,
रणनीति कौ पाठ न नेक विचारो।

रास रचावत रये यमुना तट,
अस्म कला पै भी ध्यान न धारो।।

कौन सौ दूध जसोदा पिवाओ,
ओ राधे ने कौन सौ मंत्र उचारो।

कंज करों से ही कृष्ण कन्हैया ने,
काल सो कंस कढ़ोर के मारो।।

श्रीकृष्ण बचपन से वन में जाकर गायों को चराते रहे, उन्होंने कभी युद्ध की नीति-रीति का अध्ययन नहीं किया। यमुना नदी के किनारे गोपियों संग रास क्रीड़ा करते रहे, कभी अस्त्र-शस्त्र के प्रयोग का कौशल नहीं सीखा। फिर यशोदा माता के दूध में ऐसी क्या विशेषता थी अथवा राधिका जी ने ऐसा कौन सा मंत्र श्री कृष्ण को सिखा दिया कि काल के समान बलवान कंस को उन्होंने घसीट-घसीट कर मार डाला।

ज्यों ही सुनी श्याम लौटे नहीं,
गिरी गाज सी त्यों जसुदा जननी पै।

मीन बिना जल ज्यों तड़पें,
ब्रज गोपियाँ यों तड़पे तटनी पै।।

प्राण से कान्ह को यों लै गयो,
मनु व्रज गिरो ब्रज की अवनी पै।

क्रूर से क्रूर भी देखे परन्तु,
अक्रूर सौ क्रूर न देखो कहूँ पै।।

यशोदा जी ने जैसे ही सुना कि श्रीकृष्ण वापिस नहीं आये उनपर बिजली सी गिर गई और जल के अभाव में जैसे मछली तड़पती है वैसे ही ब्रज की गोपियाँ नदी पर बैठी वियोग की दशा में छटपटा रही हैं। प्राणों से प्रिय कृष्ण को अक्रूर मानो ब्रज की धरा पर वज्रपात कर दिया गया हो। कठोर से कठोर व्यक्तियों को देखा है परन्तु अक्रूर की तरह का कठोर हृदय वाला कोई नहीं है।

श्याम वियोगिनी राधा फिरै,
मनु कुंज कछार की भाँबरी हो गयी।

आह कराह करे ध्वनि यों,
मनु श्याम के ओंठ की बाँसुरी हो गयी।।

अश्रु की धार झरे दृग यों,
मनु श्याम घटा वन बाँवरी हो गयी।

काजल नैन कौ ऐसो बहो,
वह श्याम समान ही साँवरी हो गयी।।

श्री कृष्ण के वियोग में राधा यमुना के तट पर, गलियों में अथवा वन की लता वृक्षों से घिरे स्थानों पर ऐसे चक्कर लगा रहीं जैसे वहाँ के भँवर में फंस गई हो। मुँह के कराहने की ध्वनि ऐसी लगती है कि मानो श्री कृष्ण के होठों पर रखी वंशी बन गई हो। आँखों से आँसुओं की ऐसी धार बह रही है मानो काली घटा बनकर वह पागल हो गई है। आंखों का काजल इस तरह बह गया वह सांवले कृष्ण की तरह ही काली हो गई।

सुन कोयल कूक उमंग उठी,
रसिकों में किलोल कौ दौर भयो है।

लतिकायें रसाल से जा लिपटीं,
मंजरी पै मिलिन्द कौ झौंर भयो है।

तितली सुमनों सँग नाच उठी,
रसरंग भरो हर ठौर भयो है।

ऋतु राज के आवत ही प्यार जगो,
पल में जग और कौ और भयो है।

कोयल का कूकना सुनकर रसिक जनों के मन में उत्साह आ गया और काम-क्रीड़ायें चलने लगीं। लतायें रसयुक्त वृक्षों से लिपट गई। मंजरी के ऊपर भौरों के झुंड दिखने लगे हैं। तितलियाँ फूलों के साथ नाचने लगी है और सभी स्थानों पर आनंद की उमंग आ गई। ऋतुराज बसंत के आते ही नेह की जागृति हो गई और सारा संसार क्षण भर में बदल कर नवीन बन गया।

राम लला लेने को ही कुँअर गणेश रानी,
अवध में आयीं रामनौमी की बधाई में।

मैया सरयू ने दिये बाल रूप राम उन्हें,
लेके राम आयी वह मधु अँगनाइ में।।

बाल राम अवध में न देख सके शिवजी तो,
कहा यों भुसुण्ड चलो बेतवा अथाइ में।

बनो है बुन्देलखण्ड अब तो अवध जहाँ,
राम लला खेलें ओरछा की अमराई में।।
(हरशरण शुक्ला, झाँसी के सौजन्य से)

रामचन्द्र जी को लेने के लिये महारानी गणेश कुँवरि राम नवमी को राम जन्म के उत्सव में अयोध्या आईं। सरयू माता ने उन्हें बालरूप राम दिये जिन्हें लेकर वह ओरछा आ गईं। शिवजी ने बालरूप श्रीराम को अयोध्या में न पाया तो कागभुसुण्ड जी से कहने लगे कि बेतवा के किनारे पर स्थित ओरछा चलो अब बुन्देलखण्ड का यह ओरछा अयोध्या बन गया है। वहाँ की अमराई में रामलला अपनी क्रीड़ायें कर रहे हैं।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)

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