कवि पद्माकर का मूल नाम प्यारेलाल है Kavi Padmakar का जन्म सम्वत् 1810 विक्रमी में सागर नगर में हुआ। इनके पिता श्री मोहनलाल भ सागर के शासक रघुनाथ राव के आश्रित थे। इनका जन्म स्थान बांदा भी माना जाता है। सम्वत् 1830 विक्रमी में नोने अर्जुन सिंह ने इन्हें अपना दीक्षा गुरु बनाया। वे हिम्मत बहादुर के दरबार में भी रहे।
बनगांव के युद्ध में उनके साथ थे। युद्ध का वर्णन हिम्मत बहादुर विरदावली में है। सम्वत् 1890 वि. में उनका शरीरान्त गंगा तट पर कानपुर में हुआ। उनके काव्य में रूप और यौवन के मनोहारी चित्र अंकित हैं। नायिका के शारीरिक सौन्दर्य के चित्रांकन है। वे रस सिद्ध कवि हैं। उनके कविता में जीवन की सक्रियता एवं यथार्थता है।
ईश्वर पचीसी में संसार की असारता का चित्रण है। उनके काव्य में वीर और श्रृंगार रस का अद्भुत समन्वय है। प्रतापशाह विरदावली, हिम्मत बहादुर विरदावली, अर्जुनरायसा व्यक्तिरक ऐतिहासिक काव्य ग्रन्थ है। रामरसायन अन्तिम ग्रन्थ है।
Kavi Padmakar हिन्दी साहित्य के श्रृंगार, वीर एवं भक्ति भाव कविता के लिए प्रसिद्ध है। प्रकृति का वर्णन निरपेक्ष है। श्रृंगार काव्य के वे अग्रगण्य कवि हैं। सागर के सूबेदार रघुना राव ने पद्माकर की कविता की सराहना करते हुए एक लाख रुपये का नकद पुरस्कार दिया था। वे लाव-लश्कर के साथ यात्रा करते थे। उनकी कविता रीतिकालीन युग श्रृंगार तथा विलासिता की अभिव्यक्ति करती है।
उन्होंने बुन्देली शब्दों की व्यापक काव्य के साथ इस प्रकार संयुक्त किया है कि वे उनमें विलीन हो गये हैं। इनकी भाषा ही इन्हें बुन्देलखण्ड तथा बुन्देली दोनों का श्रेष्ठ कवि घोषित करती है। तुलसी, केशव, पद्माकर, गंगाधर लाल, बिहारी। गई लिखी मधुरिमा जाकी वही ईसुरी न्यारी।। रहे स्वतन्त्र मंदिर हिन्दी की जा हिन्दी को धारे। रे मन चल बुन्देल भारती की आरती उतारे।।
तुलसी कवि केशवदास हुए, अरु आदि कवि इसी भूमि में आये। गुप्त, बिहारी यहां जन्मे, चतुरेश, रमेश, ने छन्द रचाए।। भूषण की जब डोली उठी तब दत्र ने कांधे दै मान बढ़ाए। तुलसी ने घिसे जब चन्दन तो श्रीराम ने माथे में खौर लगाए।।