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Kaudi Vali Rani कौड़ी वाली रानी-बुन्देलखण्ड की लोक कथा 

एक-एक कौड़ी जोड़कर खजाना भरने वाली रानी को  Kaudi Vali Rani कहा जाने लगा । एक-एक कौड़ी जोड़कर इतनी बड़ी रियासत को चलाना हिम्मत की बात हैं। किसी देश के राजा और रानी में सदा अनबन रहा करती थी। इसका कारण यह था कि हर मामले में रानी अपनी स्वतंत्र सम्मति दिया करती थी। राजा उसको पसन्द नहीं करता था। वह चाहता था कि जैसे वह कहे, वैसे ही रानी अपनी राय दे। कई बार झगड़ा हुआ परन्तु रानी अपनी आदत से बाज न आई।

राजा ने सोचा कि यह अब ऐसे मानने-वाली नहीं। इसके लिये कोई दूसरा ही उपाय करना पड़ेगा, सो वह इसके लिये अवसर की खोज में रहने लगा। राज्य की हालत दिन-पर-दिन खराब होती जा रही थी। खजाने में एक भी पैसा नहीं रहता था। राजा हठी और खुशामद-पसन्द था। इससे कोई अच्छी  सलाह देने का साहस नहीं करता था। मंत्री बेचारे डरते थे। इसी विषय को लेकर एक दिन राजा और रानी में बात चल पड़ी।

राजा कहता था कि इतनी बड़ी रियासत का प्रबन्ध करने के बाद खजाने में रुपया बच कैसे सकता है ? रानी कहती थी कि एक-एक कौड़ी जोड़कर खजाना भरा जा सकता है। आप तो इतनी बड़ी रियासत के मालिक हैं। आपके खजाने में रुपया न बचेगा तो किसके यहाँ बचेगा?

राजा ने सोचा कि रानी को सजा देने का यह अच्छा  अवसर है। उसने रानी से कहा कि चलो, तुम्हें घुमा लायें। रानी चलने को तैयार हो गई। रानी ने जो साड़ी पहिनी, उसके छोर में चुपके से राजा ने एक कौड़ी बाँध दी। रानी पालकी पर सवार हुई और राजा घोड़े पर। जब वे एक जंगल में पहुँचे तो राजा शिकार के बहाने आगे बढ़ गये।

रानी और उसकी दासी पालकी से उतरकर इधर-उधर घूमने लगी। इसी समय कहार खाली पालकी लेकर भाग गए। जब रानी ने लौटकर देखा कि पालकी गायब है और राजा भी वापिस नहीं लौटे तो उसका माथा ठनका और जब उसने साड़ी के छोर में बंधी हुई कौड़ी देखी तो उसे निश्चय हो गया कि यह उसे दंड मिला है। बेचारी बहुत रोई-धोई, पर दासी को छोड़ उसे धीरज बंधाने के लिये वहाँ कौन था? दासी ने कहा-‘महारानी, अब पास के गाँव चलना चाहिये।’ परन्तु रानी उस जगह से कहीं भी जाने को तैयार नहीं हुई। दोनों ने मिलकर रहने लायक एक घास-फूस की झोपड़ी तैयार की और वहीं रात बिताई।

रानी थी बड़ी हिम्मतवाली। रात को पड़े-पड़े उसने सोचा कि कुछ भी हो अब मैं राजा का सहारा न लूँगी। सवेरे उठते ही उसने साड़ी में बंधी हुई कौड़ी निकालकर दासी को दी और कहा कि पास के गाँव से इसके चने ले आ। दासी कौड़ी लेकर गाँव में गई वहाँ उसे बड़ी मुश्किल से कौड़ी के चने मिले। उन्हें लेकर वह रानी के पास आई। रानी ने कुछ दाने तो दासी को दिये और कुछ स्वयं खाए। कुछ बचाकर वहीं जमीन पर बिखेर दिए। जंगल तो था ही, थोड़ी देर में मोर-चुगने आ गये। चने चुगकर मोर तो चले गये; लेकिन उनके कुछ पंख पड़े रह गये।

रानी ने उन्हें इकट्ठा कर एक पंखा बनाया और दासी के हाथ बेचने के लिये बाजार भेजा। पंखा चार पैसे में बिका। रानी ने दो पैसे के चने मंगाये और दो बचाकर रखे। पहले दिन की तरह उसने कुछ चने तो दासी को दिये, कुछ स्वयं खाये और कुछ मोरों को। दाने चुग कर और कुछ पंख छोड़ कर मोर चले गये। आज रानी ने उन पंखों से कई तरह की चीजें  तैयार कीं। दासी को उन्हें देकर बोली- देख, इन चीजों को एक रूपये से कम में मत बेचना।

दासी बाजार में फिरते-फिरते थक गई, लेकिन एक रूपये में कोई उन चीजों को लेता ही न था। धीरे-धीरे संध्या हो आई। नगर के राजा का नियम था कि जो चीज कोई न खरीदता था, शाम को उसे राजा खरीद लेता था। इसलिये राजा के सिपाही शाम को दासी को राजा के पास ले गये। राजा ने एक रूपया देकर उन चीजों को खरीद लिया।

अब क्या था? रानी तरह-तरह की चीजें बनाती। उनके खूब दाम मिल जाते। बढ़िया चीज बनाकर रानी दासी से कहती कि देख, आज एक सोने के टके से कम में इन्हें मत बेचना और दासी सोने के टके में ही बेचकर आती या तो बाजार में कोई आदमी खरीद लेता, नहीं तो शाम को राजा से उनके दाम मिल जाते। लेकिन रानी ने अपना खर्च नहीं बढ़ाया। बहुत थोड़ा खर्च करती। बाकी बचाती।

धीरे-धीरे जब रानी के पास काफी पैसा बच गया तो उसने एक अच्छा -सा महल बनवाने का विचार किया। मजदूर लग गये और महल की तैयारी होने लगी। उधर राजा को भी कुछ दिनों में सुबुद्धि आई। उसका खजाना हमेशा खाली रहने लगा और कभी-कभी उसे इतनी तंगी होती कि वह परेशानी में पड़ जाता। उसके चारों ओर ऐसे लोग बढ़ने लगे जो दिन-रात उसे लूटने की ही चिन्ता में रहते थे। मुसीबत पर मुसीबत अब आने लगी तो राजा का ध्यान उधर गया। उसे बड़ा दुःख हुआ कि उन्होंने नेक सलाह देने वाली रानी को खो दिया।

उसने रानी को चलकर ढूँढने का विचार किया और एक दिन घोड़े पर सवार होकर उसी जंगल की ओर चल दिया, जिसमें रानी का महल बन रहा था।  महल को देखकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। जब वह रानी को छोड़ने आया था तब तो वहाँ महल क्या, एक झोपड़ी भी नहीं थी। राजा ने कहा- हो न हो, रानी ने ही यह सब किया है। महल पर अब भी लाग लगी थी। रानी से मिलने का और कोई उपाय न देख राजा मजदूरों में काम करने लगा।

शाम को जब मजदूरी लेने के लिये सब मजदूर इकट्ठे हुये तो उनके बीच खड़े राजा को रानी ने तुरन्त पहचान लिया। उसने दासी से कहा कि देख, वह जो नया मजदूर है, उसे पैसे मत देना और मेरे पास लिवा लाना। दासी ने ऐसा ही किया। राजा जब महल में आए तो रानी उनके पैरों पर गिर पड़ी। राजा ने भी अपनी रानी को पहचान लिया और प्रेमपूर्वक उठा लिया। अपने दुष्कर्म पर उसे बड़ी लज्जा आई।

राजा कुछ दिन वहीं रहा। फिर उसने रानी से वापिस चलने के लिये आग्रह किया। परन्तु रानी किसी भी तरह चलने के लिये राजी न हुई। निराश होकर राजा चला आया। रानी ‘कौड़ी वाली रानी’ के नाम से मशहूर होकर वहीं रहने लगी। राजा को जब किसी बात से सलाह लेने की जरूरत पड़ती तो वह वहीं जाकर सलाह ले आता।

बुन्देली लोक कथा परंपरा 

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