श्री कालिका प्रसाद जी ‘कमलेश’ का जन्म तत्कालीन रियासत बिजावर जो वर्तमान में जिला छतरपुर (म.प्र.) की तहसील है, में हुआ था Kalika Prasad Bhatt “Kamlesh” जी के शब्दों में कवित्त के माध्यम से उनका अपना परिचय ही बता देता है कि तरकस मे कितने तीर हैं।
संवत् उन्नीस सौ उनत्तर के कातिक में,
कृष्णपक्ष चौथ तिथि तुला के दिनेश है।
रात दस बजे शुभ गुरुवार भयौ जन्म,
नीको बुंदेलखंड बिजावर सुदेश है।
छोटइ से रंगो मन श्याम भक्ति भावना में,
काव्य बृज भाषा बीच झूमत हमेश है।
बुद्धि जो हमारी सतसंग से सम्हारी नित्य,
सुकवि बिहारी जी के भ्राता ‘कमलेश’ है।।
कवि कमलेश जी महाकवि बिहारी जी बिजावर के सहोदर लघु भ्राता व शिष्य है। महाकवि बिहारी जी की समाधि बिजावर जटाशंकर रोड पर है जहाँ अमावस्या व पूर्णमासी के दिन हजारों दर्शक श्रद्धालुजन दर्शनार्थ पहुँचते हैं, इन्हीं महाकवि बिहारी से काव्य शिक्षा व सत्संग प्राप्त कर ‘कमलेश जी’ ने हजारों गीत घनाक्षरी, सवैया छन्दों की रचना की, जो बुन्देलखंड में काफी लोकप्रिय है। आप राज्य सेवा में भी कार्यरत थे।
स्वतंत्रता के पश्चात् कमलेशजी का स्थानान्तरण छतरपुर हो गया। जहाँ आपने बिहारी संकीर्तन मंडल की स्थापना करके महाकवि बिहारी जी को मंडल के गुरुपद पर आसीन कर स्वयं संचालन किया। इस प्रकार दिन भर शासकीय कार्य के अतिरिक्त रात में 11 बजे तक कीर्तन मंडल का कार्य इनका नित्य नियम बन गया था। बिहारी जी के अन्य शिष्य श्री हरगोविन्द जी भी आपके साथ ही रहते थे। आपको बिहारी जयन्ती के अवसर पर बुन्देलखंड के प्रमुख साहित्यकारों व कवियों की उपस्थिति में आपकी रचना ‘जय किसान’ पर प्रशस्ति पत्र एवं पारितोषक प्रदान किया गया।
सवैया (वियोगनी)
घोरहि देत घना घन ये, सुनकें हम चोंक के आज डरे हैं।
चातक बोल कुबोल लगो, हिय घाव अनेकन ऐन करे है।।
को ‘कमलेश’ संभार करै, अब मेंन मरोर सें जात मरे हैं।
कैसौ करें घर माह रहें, पिय खेत पैजा ढवुवा में परे हैं।।
सघन मेघ भयंकर गर्जना कर रहे हैं जिसे सुनकर हमारा शरीर भय से हिल गया। चातक का बोलना भी बुरा लग रहा है। इन सबने हृदय को पीड़ा दी है। अब कामदेव की पीड़ा से मेरा बुरा हाल हो रहा है इससे मुझे कौन बचा सकता है ? मैं किस प्रकार घर में चैन से रह सकूँगी क्योंकि प्रियतम खेत पर बनी झोपड़ी में जाकर लेट गये है।
दादरा
सुनों मेरी गुइया अब का करिये।
श्याम घटा घन घोर लखकें मन मेरो अति डरिये।।
पिव पिव बोल पपीहा सुनकें धीर कौन विधि धरिये।
मो विरहिन अबला के ऊपर ये सब पेंड़ें परिये।।
प्रीतम बसें खेत ढबुवा में दुख कैसें यह हरिये।
मेंन वान ‘कमलेश’ चलावै बिना मौत के मरिये।।
हे सखी! बताइये क्या किया जाए ? इस समय भयंकर काले मेघों को देखकर मुझे बहुत डर लग रहा है। चातक के पिव-पिव के बोल सुनकर मेरा मन कैसे धैर्य धारण करे? मुझ विरहिणी स्त्री पर इतनी सभी विपत्तियाँ आ पड़ी हैं। प्रियतम खेत पर बनी झोपड़ी में सो गये अब मेरा यह कष्ट कैसे दूर हो सकेगा? कामदेव अपने बाणों के प्रहार से घायल कर रहा है, लगता है मृत्यु समय के पूर्व ही मरना पड़ेगा।
कवित्त
लोकन के लोक पति नंद के अजर मांह,
लीला तो कमाल करें माया मोह जाल पे।
झंगुली है पीत अंग कर में जड़ाऊ चूरा,
कंठ बीच शोभा दुति मोतिन की माल पै।।
कहें ‘कमलेश’ चाल नीकी है अनोखी शिशु,
नाचें पितबिम्ब देख नीके सुरताल पै।
श्यामलो सलोना नोंना जशुदा को छोना यह,
दोना के बचावे ये डिठोना लगो भाल पै।।
तीनों लोकों के स्वामी नन्द के आँगन में माया से मोहित कर बाल लीला कर रहे हैं। शरीर पर पीले रंग का झबला, हाथ में जड़े हुए चूरा (हाथ में पहनने के चूड़ी के आकार का आभूषण) और गले में आभायुक्त मोतियों की माला शोभा दे रही है। कवि कमलेश कहते हैं कि अनुपम शिशु का आँगन में चलना अच्छा लग रहा है। वे अपनी छाया देखकर तालबद्ध स्वर में उत्तम नाच कर रहे हैं। यशोदा जी ने इस सांवले सुन्दर पुत्र को नजर-दीठ से बचाने के लिये माथे पर काला डिठौना लगाया है।
दोहा
अजर बीच श्री नंद के, खेलत है नंदलाल।
दोना बचनें के लिये, दियो दिठोना भाल।।
श्री नन्द बाबा के आँगन में श्रीकृष्ण जी खेल रहे हैं उन्हें नजर-दीठ से बचाने के लिये माथे पर दिठौना लगा दिया गया है।
सवैया (संजोगनी)
श्याम घटा की छटा नभ में, अटा चड़ पेख के नाहि डरैं हो।
पी पिव बोल पपीहा भले, मिल जाय तो याहि को कंठ लगै हों।।
खेत से आ ‘कमलेश’ पिया, रतिराज कौ आज मजा हम लै हों।
प्रेम से नेंन की सेंन चला, सुख चेंन सें ऐन ही रेंन वितैहों।।
आकाश में काली बदली की शोभा छत के ऊपरी भाग पर चढ़कर प्रसन्नता से देखूँगी, मुझे अब डर नहीं लगेगा। पिव-पिव बोलता हुआ चातक अच्छा लगता है यदि वह मिल जाये तो मैं उसे गले लगा लूँगी। प्रियतम आज खेत से घर आ गये हैं। अब में कामक्रीड़ा का आनंद लूँगी। नेह भरे नयनों की चंचलता आज सार्थक होगी। आनंद और शांति से अच्छी तरह आज रात्रि व्यतीत करूँगी।
कवित्त (शरद पूर्णमासी)
आश्वन की पूनें लख गोपी मन दूनें भये,
आई सज साज वस्त्र भूषण नवीनों है।
संग में सहेली के उमंग भरी राधा चली,
प्यारे प्रेम भाव पेख वांह गल दीनों है।।
कहें ‘कमलेश’ आय नेह में प्रमोद बनें,
सनी श्याम रंग सवै आज श्याम चीनों है।
एक एक सखी साथ एक एक श्याम नचैं,
शरद जुन्हैया में कन्हैया रास कीनों है।।
अश्विन माह (क्वांर का महीना) की पूर्णिमा को देखकर गोपी (ग्वालिनी) के मन का उत्साह दो गुना हो गया। वह आज नवीन वस्त्र और आभूषणों से सज गई। अन्य सखियों को साथ लेकर उत्साह सहित राधा जी चल पड़ीं, स्नेह के भाव को देखकर एक दूसरे के गले में बाहें डाले हुए हैं।
कवि कमलेश कहते हैं कि स्नेहासिक्त सभी सखियाँ प्रमोदवन में आ गईं, सभी ने आज श्याम सुन्दर के स्वरूप को जाना और श्याम रंग में सराबोर हो गईं। श्री कृष्ण ने जितनी सखियाँ थीं उतने ही रूप बना लिये, एक-एक सखी के साथ एक-एक कृष्ण नाच रहे हैं। शरद पूर्णिमा की चाँदनी में इस प्रकार श्रीकृष्ण ने रास लीला सम्पन्न की।
सवैया
आज गई जमुना जल कों, नहि संग में कोइ रहै सखियां।
आय अचानक श्याम वहां, सिर धार मयूरन की पंखियां।।
प्रेम करो ‘कमलेश’ लला, कबहू नहि ऐसौ अलि लखियां।
मोय नही सुख सोंह सखी, जब दोय सें चार भई अखियां।।
मैं आज यमुना नदी में जल भरने गई थी, मेरे साथ में कोई सखी नहीं थी। सिर पर मोर पंख धारण किये हुए श्रीकृष्ण अचानक वहाँ आ गये। हे सखी! श्याम लला ने ऐसा प्रेम किया जैसा मैंने नहीं देखा था। मैं सौगंध खाकर तुमसे बताती हूँ कि जब दो से चार आँखें हुई तो मेरी अचेत अवस्था हो गई थी।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)