Kalgi-Turra कलगी-तुर्रा

चंदेरी राज्य के संत तुकनगिरि (मध्यदेशीय तुकनगीर) और फकीर शाह अली के बीच लावनी में शक्ति और शिव के पक्ष लेकर दर्शनपरक संवाद या दंगल होता था। एक बार राजदरबार में दंगल हुआ, जिसमें चंदेरी-नरेश ने पहले को तुर्रा और दूसरे को कलगी देकर दोनों का सम्मान किया, तभी से Kalgi-Turra की फड़बाजी प्रारम्भ हुई।  

तुर्रा दल ब्रह्म और कलगी शक्ति या माया को श्रेष्ठ ठहराने का प्रयत्न करता है। कलगी पक्ष का तर्क है कि शक्ति को शिव की उत्पत्ति का कारण या शिव शक्ति के पुत्र हैं, जबकि तुर्रा पक्ष शक्ति को शिव को शिव की पत्नी मानता है। इसी को लेकर दोनों दलों में प्रतिस्पर्धा रहती है और कूट दार्शनिक प्रश्न उठाये जाते हैं। कलगी-तुर्रा की दार्शनिकता का आधार सिद्धों और नाथों का परवर्ती चिन्तन है और ग्वालियर में नाथों के गढ़ मौजूद थे।

इन प्रामाणिक साक्ष्यों से स्पष्ट है कि तुर्रा-कलगी का उद्भव और विकास सबसे पहले बुंदेलखण्ड में हुआ था। निश्चित है कि कलगी-तुर्रा शैली बुंदेलखण्ड से चलकर महाराष्ट्र, निमाड़, मालवा और राजस्थान पहुंची है।

कलगी-तुर्रा की गायकी का प्रारम्भ बुंदेलखण्ड में ही हुआ था। ख्याल की अपनी कुछ विशिष्ट तर्जें और धुनें होती हैं, जिनमें  बारीकियों का प्रयोग होता है, जैसे अधर, ककहरा, दोअंग, चौअंग, बेमात्रा आदि। फड़ में प्रयुक्त बहरों (लयों) को आधार दिया फारसी से आयी धुनों ने। बहर लंगड़ी, बहरतबील, बहर सिकस्ता, बहर खुर्द आदि विदेशी बहरें प्रतिष्ठित हुई।

बहर सिकस्ता
पपीहा पी-पी न बोल प्यारे, तू बोल जा सैयाँ के भवन में।
बिना पिया दरद कौन जाने, लगी है अगिया हमारे तन में।

बहर लाभका
भूषन द्वादश श्रृंगार कला, को सकै बरन बर नारी के।
लक्षण रस बस नंदलाल भये वशीकरण सुकुमारी के।

लावनी में गणेश-बंदना
जै एकदंत भगवंत भजत भय हारे।
जै गिरजानंदन विघन बिनासक बारे।
गनपत गनेस विघनेश नाम सुखदाई।
जै वक्रतुंड जै लम्बोदर छब छाई।…..

ख्याल गायन शैली का बुंदेलखण्ड में काफी प्रचलन हे। इसे विलंबित, मध्य और दु्रत, तीनों लयकारियों में गाते हैं। एक गायक ख्याल उठाता है और उस दल (तुर्रा या कलगी दल) के लोग उसे दुहराते हैं। ख्याल-गायन में चंग और मंजीरों की संगत रहती है। लावनी छः स्वरों में गाये जाने वाला गीत हैं । उसके स्वर प्रकार नी सा रे ग म प है, जिसमें गंधार कोमल है। ख्याल की फड़बाजी में  तुर्रा और कलगी, दोनों दलों के प्रश्नोत्तर शैली में संवाद रहते हैं। एक दल प्रश्न करता है, तो दूसरा दल उत्तर देता है। निर्णायक के रूप में एक या दो वृद्ध (ज्ञानवृद्ध) उस्ताद बैठते हैं।

ख्याल-लावनी-गायकों का गायन अधिकतर लोकरंजन के लिए होता था, इसी कारण उन्हें रियासतों का राज्याश्रय प्राप्त था। छतरपुर, चरखारी, बिजावर, अजयगढ़ आदि राज्यों के द्वारा उनकी प्रतिस्पर्धाएँ आयोजित की जाती थीं।

बुंदेली के ख्याल या लावनी की रचना और गायन के लिए छतरपुर में गंगाधर व्यास ने एक तुर्रा दल का गठन किया था, जिसमें दशानंद, भैरौं सिंह, कंधई, लछमन और रामदास दरजी प्रमुख गायक एवं रचनाकार थे। चरखारी नरेश गंगासिंह जू देव ने भी तुर्रा दल के एवज अली, शफदर अली उर्फ गणेश शंकर, सुदामा भैया, वंशगोपाल आदि को आश्रय दिया था। मऊरानीपुर में कलगी दल का

गठन हुआ, जिसमें  दुर्गा पुरोहित, गणपति प्रसाद चतुर्वेदी, घनश्याम दास पाण्डेय आदि थे। गुरसरॉय के सेठ भोगीलाल गुप्त ने बुंदेली एवं उर्दू में ख्यालों की रचना की थी। उनके कलगी दल में भाऊनारायण, पं. रामकृष्ण, रामचरणलाल कायस्थ, दंगली प्रसाद जैन ओर मोतीलाल हिंगवासिया थे।

कारसदेव को साकौ 

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

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