कजलियाँ बुन्देलखण्ड का सांस्कृतिक पर्व है। Kajariyan ko Rachhro मे महोबा नरेश परमाल की राजकुमारी ‘चंद्रावली’ के कजलियों के उत्सव का वर्णन है। यह पारस्परिक प्रेम और अनुराग का प्रतीक है। लोग एक दूसरे को कजलियाँ देकर पारस्परिक प्रेम प्रदर्शित करते हैं।
बुन्देलखंड की लोक-गाथा कजरियँन कौ राछरौ
बुन्देलखण्ड के लोक-जीवन मे कजलियां आस्था और विश्वास का प्रतीक है। कजलियों की स्थिति को देखकर कृषि की सम्पन्नता और समृद्धि का अनुमान लगाया जा सकता है। कजलियों का जितना सांस्कृतिक महत्त्व है, उतना ही सामाजिक और वैज्ञानिक महत्त्व भी है।
बुन्देलखण्ड में इन्हें भुजरियाँ कहा जाता है। रक्षाबंधन के दूसरे दिन बहिन इन्हें अपने भाइयों और सगे संबंधियों को वितरित करती हैं। बहिनें अर्थात् बालिकाएँ बाजे-गाजे और धूम-धाम के सहित अपनी-अपनी कजलियों के खप्पर जलाशयों के किनारे ले जाकर खोंट-खोंटकर रख लेती हैं और शेष भाग जलाशयों में विसर्जित करके आनंदित होती हैं। फिर अपने भाइयों को वितरित करके प्रेम प्रदर्शित करती हैं।
यह बुन्देलखण्ड की सांस्कृतिक परम्परा सैकड़ों वर्ष से चली आ रही है। हालाँकि इस प्रथा का शुभारंभ महोबा नरेश परमाल की राजकुमारी ‘चंद्रावली’ के कजलियों के उत्सव से हुआ है। जगनिक कृत आल्हा खण्ड में बावन लड़ाईयों में भुजरियों की भी एक महत्त्वपूर्ण लड़ाई है।
राजकुमारी चन्द्रावली, महोबे के कीर्तिसागर में कजलियाँ विसर्जित करने के लिए जिद कर रही थीं। आल्हा- उदल किसी कारणवश रूठकर कन्नौज चले गये थे। महोबा को सूना जानकर पृथ्वीराज चैहान ने महोबे पर घेरा डाल लिया था। वह प्रतिशोध की भावना से प्रेरित होकर चंद्रावली का अपहरण करना चाहता था।
वह अपनी पुत्री के अपमान का बदला लेना चाहता था। परमाल को जब इसकी खबर मिली तो वे अपने को अकेला समझकर बहुत चिंतित हुए। आल्हा- उदल जैसे शूरवीरों को उसकी दुर्बुद्धि से महोबा छोड़कर कन्नौज में रहने को विवश होना पड़ा। अब दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान की मार से महोबा को कौन बचाये?
अंत में महारानी ने कविवर जगनिक के द्वारा आल्हा- उदल की माता के पास पत्र भेजकर लिखा कि बेटा तुम्हारे प्रिय महोबे पर घोर संकट आ गया है। अब इस नगर की लाज तुम्हारे हाथ में है। हमारी सारी गल्तियों को क्षमा करते हुए परमाल-वंश की मान-मर्यादा की रक्षा कीजिये।
संदेश पाते ही आल्हा- उदल कर्मभूमि की रक्षा करने हेतु शीघ्र ही महोबा पहुँच गये। वहाँ पृथ्वीराज चैहान की सेना महोबे को घेरे पड़ी थी। वह परमाल की बेटी चन्द्रावली का डोला सौंपने के लिए दबाव बनाये हुए था। इसी बीच में आल्हा- उदल योगी के वेश में युद्ध-भूमि में उपस्थित हुए। भीषण संग्राम हुआ। आल्हा- उदल ने अपनी तलवार के बल पर पृथ्वीराज की सेना को मार-मारकर खदेड़ दिया।
महोबे की सेना ने हारी हुई बाजी जीत ली। चंद्रावली अपने भैया आल्हा- उदल को योगी वेश में पहचान गई। समाचार पाते ही राजा परमाल फूले नहीं समाये और महाराज ने दोनों भाइयों को बधाई देते हुए गले से लगा लिया। बेटी चंद्रावली ने बड़ी शान शौकत, आन-बान और मर्यादा से कजलियों को कीर्तिसागर में विसर्जित किया।
उरई के शासक ‘माहिल’ (महीपाल) हालाँकि परमाल के राजमंत्री थे, किन्तु थे वे बड़े उपद्रवी और षड़यंत्रकारी व्यक्ति। वे कभी किसी का भला नहीं देख सकते थे। उन्हें हमेशा दूसरों का बुरा देखने में आनंद आता था। उन्होंने उल्टी-सीधी बातें कह सुनकर आल्हा- उदल और राजा परमाल में अनबन करा दी।
आल्हा- उदल, परमाल से रूठकर कन्नौज चले गये। अब महोबा अरक्षित हो गया। पृथ्वीराज चैहान तो पहले से ही जला-भुना बैठा था। परमाल से अपनी पुत्री के अपमान का बदला लेना चाहता था। वह शुभ अवसर की प्रतीक्षा में था। इस सारे भेद से ‘माहिल’ परिचित था।
माहिल को चंद्रावली के कजलियाँ पर्व का पता था। उसने पृथ्वीराज चैहान को पत्र लिखकर संदेश दिया कि आल्हा- उदल रूठकर कन्नौज चले गये हैं, जिससे महोबा सूना हो गया है। चंद्रावली कजलियां विसर्जित करने के लिए कीर्तिसागर के किनारे जायेगी। आप सेना का घेरा डालकर चन्द्रावली का अपहरण कर लेना-
महीपाल जुग पद्य लिख, चहूँ आन कहं सद्द।
दिखन कजरिया आव, मिस लैओ पकर करबद्द।
माहिल ने पत्र लिखकर पृथ्वीराज चैहान से कहा-
माहिल पत्री भेज लिखी चैहान को।
करहु कूच ततकालसु माडिम धाम को।।
श्रवन मास की पर्व आन छल किजिये।
दीन सुरच के हन्त राज कहँ दिजिये।।
महीपाल भूपत चरा पठवाइ,
इक्क अहन बिच सिबिर कराइ।
उतियु अहन बिच धाय न बिन्नव।
चैहान कह पत्री दिन्नव।
पृथ्वीराज चैहान ने पत्र पाकर उत्तर दिया-
सनद बंच समार धनी, गुरु कवि चंद सुनाय।
चरकों प्रति उत्तर लिखौ, मानस मंत्र झुकाय।
सब सामन्तन सैन सह, चहूँ आन नृप बुल्ल।
कीरत सर-कहँ चालिया, मम सुपिष्ट लग चल्ल।
सज्ज से सामंत सब, बज्जत घोर निसान।
दिखन कजरियां सम्मरिय, नगर महोत्सब जान।
पृथ्वीराज के आदेश से सेना सुसज्जित हो गई-
सजे संजबराय पुंडीर चंद्रम, सजे सूर नरसिंग मेथमं सुभद्रा।
सजे बिझुक्कु राजं सुतोभर प्रहार, सजे दाहिमा आतताई सुवीरं।
सजे निद्दु रायं सुधांसु सुधीरं। सजे बीर हरसिंग पज्जून रायं।
सजी सर्व सेना सजुथाम करायं।
सौ सावंत पृथ्वीराज के, लुख्ख लख्ख पै एका।
पाँच धवल चंदेल के, सौ सावंत पै एका।
ऐसी स्थिति देख देवल देव आल्हा को पत्र भेजकर बुलाया था। पत्र आल्हा को जगनिक ने दिया और सब कह सुनाया-
सुन जगनिक की बात, आल्हा बुल्लिय तब बानिय।
लुट्टि महोबो नगर कुट्टि, चंदेल गुमनिय।
आल्हा ने विचार किया-
बिना चूक परिमाल कियौ, हम देस निकारय।
काम आव दसराव सबै, नृप काम सुधारव।
पड़हार सैन आगे धरहु, चुगल चार हित काम सहा।
सावंत सुक्खम मुख लरहु, जुद्ध करहु चहुँ आन सहा।
जगनिक के बचन-
सुनि जगनिक यह बात बखानिय, हम तो राजा कछू न जानिय।
हम सिर बंध महोबो रव्यब, नृप चंदेल चुगल दिग दिप्पव।
महोबे की रक्षा हेतु देवलदे का आल्हा को पत्र मिलने पर वह महोबे की रक्षा और माता के वचन निभाने को तैयार किया।
आज अबेरा गढ़ महुबे पै, सो सब राखै भवानी लाज।
अंगुरी कट जाय छिंगुरी कट जाय,
कट जाय चार छितरियंन मांस।
टारे न टरबीं हम खेतन से, जौलों रहें देह में सांस।
उगत जुनैया के चल दैहैं, महुबे पौच भुक भुके जाय।
महोबे के रण स्थल Battle ground पर होने वाले युद्ध का वर्णन-
जुरे आय वीर दोइ सैंन बारे।
सुभर अव्य दृष्टम महा क्रुद्ध भारे।
चले तीर नेजा बंदूकैं बरच्छी।
पर फुट्ट न्यारे महातेज कच्छी।
पृथ्वीराज हनके सतम सूर धाये।
गई फौज चंदेल ने चल्ल खाई।
सबै सूर थक्के अचित्रं विचित्रं।
दयौ पील वैटन छिक्को ब्रह्म जित्तम।
बिचल चमू परमाल की, समर न आयस अंच।
ब्रह्मजित कुमार संग, रये सूर दस पंच।
इसके बाद आल्हा- उदल के योगियों के वेष में आकर जो भयानक युद्ध हुआ, उसका वर्णन करने से रोम-रोम खड़े हो जाते हैं-
चलो पिष्ट चहुँआन निस्सान बज्जे, मनो मेघ आसाड़ के नाद गज्जे।
इतै जोग सिंगी सुमुख्खम बजावैं, सुनें व्योम देवं सुमेघं लजाबैं।
तबै ब्रह्म जित्तं सुयं अश्व छिन्नों, चढ़ो लग्घु जोगी सुअंत साह-किन्नों।
तबैं हिरन गिन्नों बाज-बाजी सुपायो, करो खम्म जयकाल खौं जघ्घ ठायो।
तबै जोगि हत्तम मनुज असत्र लिन्नों, संत वीर के सीसी दो-दो सुकिन्नों।
भगी फौज पीथल्ल की जोगि जानं, गयो अश्व पेलत जहां चहूं आनं।
हनो राज पीलंगिरौभूम आये, पकर जोगि हन्तसुराजं उठाये।
तबै आय गुरू चन्द्रवानी उचारं, अहो जोगि ईसं सुराजै न भारं।
पृथ्वीराज चैहान युद्ध में आहत हो गये। चन्दबरदाई ने उनकी रक्षा की और उन्होंने योगियों के रण कौशल की प्रशंसा की।
तबै चन्द गुरू राय सन्मुख्ख आयं, भयौ राज मुरछा सुपीलं चढ़ायं।
कहै चंद जोगी बड़ौ जुघ्घ किन्नों, भगी फौज जो जन्नं चारं परिन्नों।
ये घमासान युद्ध कई दिनों तक चलता रहा। कभी दिल्ली की सेना और कभी महोबे की सेना की हार-जीत होती रही। धीरे-धीरे भाद्रपद कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा का शुभ अवसर आ गया। रानी मल्हना और चन्द्रावली के डोले सज-धजकर नर नारियों के दल-बल सहित कीरत सागर के किनारे पहुँचकर विधि-विधान से कजलियाँ विसर्जित की।
दोनों फौजों में घमासान युद्ध हुआ। योगी वेश में तलवार चलाते हुए आल्हा- दल ने पृथ्वीराज चैहान की सेना को महोबे के बाहर खदेड़ दिया। चंद्रावली का कजलियाँ महोत्सव विधिवत सम्पन्न हो गया और माहिल का सुनियोजित षडयंत्र विफल हो गया। पृथ्वीराज चैहान परास्त होकर बैठ गया।
राछरे का सामाजिक स्वरूप
कजलियों का यह सांस्कृतिक पर्व भाई-बहिन के प्रेम का प्रतीक है। रक्षाबंधन के पुण्य त्योहार से लगा हुआ पुण्य-पर्व है। इस त्योहार के कारण बहिने इस पर्व की महीनों से प्रतीक्षा करती रहती हैं। इस पर्व की परम्परा बहुत प्राचीन है। चंदेल-काल की बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में इस पर्व के संकेत ‘चन्द्रावली के राछरे’ या ‘आल्हा खण्ड’ की कजलियों की लड़ाई में दिखाई देते हैं।
आज भी बुंदेलखंड में प्रतिवर्ष भाद्रपद कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को यह पर्व आयोजित किया जाता है। सैकड़ों वर्ष के बाद आज भी महोबे में प्रतिवर्ष बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। इन पर्वों के कारण समाज में सांस्कृतिक जाग्रति उत्पन्न होती है। लोग मानवीय सम्बन्धों के मूल्य को भलीभाँति समझने लगते हैं। समाज में इन पुण्य-पर्वों का प्रसार-प्रचार करने से सांस्कृतिक चेतना जाग्रत होगी।
संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’