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Joga  जोगा में नर्मदा की निर्मलता

नर्मदा के दक्षिण किनारे पर बसा मध्य प्रदेश के हरदा जिले का छोटा सा Joga  गाँव है। यह गाँव ढीमर जाति के नर्मदा तटवासियों का है । गाँव एकदम किनारे पर बसा है। जोगा में नर्मदा की निर्मलता एकदम शांत भाव को दरसाती है । कुल मिलाकर तीस-चालीस टापरे हैं। प्रत्येक टापरे से गरीबी झाँक रही है । नंग-धड़ंग बच्चे पीपल, महुआ की छाँह में खेल रहे हैं। कुछ बच्चे नर्मदा में सपड़ रहे हैं । सात-आठ साल के दो बच्चे एक डोंगी को खेते हुए नर्मदा जल पर खेल रहे हैं।

जेठ का महीना है। आकाश वर्षा – आगमन की सूचना गदबदाया हुआ है। बादल कभी झुण्ड में और कभी अकेले – अकेले नर्मदा की महायात्रा को देख लेते हैं। मैं श्रीराम परिहार और डॉ. धर्मेन्द्र पारे जोगा Joga के लिए रवाना होते हैं। हंडिया से बाईस किलोमीटर पश्चिम में कच्चे रास्ते से होकर जोगा तक जाया जाता है । रास्ते में दो-तीन वनग्राम पड़ते हैं । मृग नक्षत्र की ठण्डी हवा से वनस्पति में जीवन फूट आया है । चढ़ाव उतार एवं धूल भरे रास्ते से होकर हम जोगा पहुँचते हैं।

सामने जोगा का किला दिखाई देता है। जोगा में नर्मदा टापू बनाती है। ऊँचा टापू। द्वीप के दोनों तरफ से नर्मदा की धाराएँ बहती हैं। उत्तर तरफ नर्मदा का सारा प्रवाह है और द्वीप ‘दक्षिण बाजू की धारा पतली है । जो वैशाख-जेठ में सूख जाती है । इस ओर से जोगा के किले में पैदल जाया जा सकता है । रास्ते में कुछ-कुछ ललाई लिए हुए सफेद रंग के बड़े-छोटे पत्थर हैं। उन्हीं को पार करते हुए उन्हीं पर से किले तक पहुँचते हैं। यह द्वीप इसी तरह के पत्थरों को अपने पैरों की जमीन में बिछाये हुए है । पत्थरों के बीच- बीच में से दूब और हरी घास मुस्कुराती हुई पानी का स्वागत करती है ।

द्वीप छोटा है। पूरे द्वीप को घेरकर किला बना है । किला लाल रेतीले पत्थरों का बना है। इतिहास की अनगिनत क्रूरता और अहंकारता को अपने में दफन किये विषाद में मौन है। किला ठहरा हुआ है। नर्मदा पथिक की तरह चल रही है। किला इतिहास के मलवे पर खड़ा है । नर्मदा संस्कृति की धारा का अक्षय स्रोत है । किला धरती से आकाश की ओर उठा है। रेवा धरती से धरती की ओर दौड़ती है। वनपाखी दिगंतों तक इसके पानी की ठंडक को ले दौड़ते हैं ।

किला शून्य की ऊँचाई को नापने का थोथा दम्भ है, क्योंकि शून्य की ऊँचाई नहीं नापी जा सकती है। रेवा जीव मात्र की चेतना का धारा रूप में निरभिमान है । वह जीवों की पोची नाड़ियों में जीवन विधि के रक्त का भराव है। पेड़ों की जड़ों में हरितिमा का संचार है । धरती के पत्थर, मिट्टी, तृण की फुरक है। यह शिवकन्या रेवा हमारी परम्परा के सांस्कृतिक विकास की जलधारा है। पता नहीं यह किला किसने बनवाया था ?

यहाँ के लोग कहते हैं कि यह आल्हा-ऊदल योद्धाओं ने बनवाया था । योद्धा से जोद्धा और जोधा फिर शायद जोगा हो गया हो । इतिहासकार डॉ. सुरेश मिश्र के अनुसार इसका निर्माण मुगलकाल में हुआ है और यह ज्यादा पुराना किला नहीं है । इसकी दीवारें, बुर्ज सब अभी भी अनटूटे हैं । खण्डहर नहीं हुए हैं । किला छोटा है लेकिन सामरिक दृष्टि से एकदम सुरक्षित है। नर्मदा स्वयं इसकी सुरक्षा खाईं और सुरक्षा कवच बनी हुई है । किले के भीतर ज्यादा कुछ नहीं है ।

महल रनिवास सरीखा कुछ नहीं है । शायद पहले रहे हों, बाद में मिट्टी भर गयी हो । कहीं दरार नहीं। कहीं खिसलन नहीं । किले के अन्दर से ही एक सीढ़ीदार मार्ग है जो सीधे नर्मदा जल में उतरता है । इस मार्ग से नर्मदा का पानी किले में रहने वाले लोगों के लिए लाया जाता होगा । किले के पश्चिमी द्वार से किले में प्रवेश करना सुगम और सुरक्षित है। पूरब का द्वार सकरा है और इसमें मिट्टी भर गयी है। इसलिए इसमें आने-जाने में बड़ी अड़चन तो है ही, खतरा भी।

असावधानी हुई और पाँव फिसला कि सैकड़ों फुट नीचे गिरते हुए सीधे नर्मदा में जल-समाधि लग जाना है । यहाँ नर्मदा की गहराई और काला पानी देखकर आदमी की हिरनी काँप जाती है । जिस टापू पर किला बना है, वह बहुत ऊँचा है । पर नीचे से देखें तो इस पर खड़ा हुआ आदमी बहुत छोटा नजर आता है। धरती की ऊँचाई के सामने आदमी वैसे भी बौना है। नर्मदा पूर्व से बहती आती है और पश्चिम की ओर चली जाती है। बीच में है यह टापू ।

इस ऊँचे द्वीप पहाड़ पर से पूर्व की ओर नजर फेकें तो नर्मदा का नैसर्गिक सौन्दर्य बहुत दूर तक बिछा हुआ दिखाई देता है। काला साँवला जल, बीच-बीच में झाऊ की झाड़ियाँ, वन जामुनों के झुरमुट और रेवा की कई-कई धाराओं में बँटी सुषमा मन को बाँध लेती है ।

आँखें अटक जाती हैं उस प्रकृत सुषमा पर । क्षितिज छूती सुन्दरता बहती नजर आती है। लगता है पूरब के क्षितिज से सुन्दरता का झरना बहता चला आ रहा है। मन करता है यहीं बैठे रहो और माँ की ममतालु छवि को देखते रहो। बहुत शांति है यहाँ । ऐसी निश्चल शांति कि जिससे मुनष्य को समझने और स्वयं के बारे में सलाह देने के रास्ते खुलते हैं। हालांकि ऐसा थोड़े समय ही लगता है । हमारे सरीखे लोगों का दुनियादारी क्या पीछा छोड़ती है ? ‘गृह कारज नाना जंजाला, ते अति दुर्गम सैल विशाला ।

किले से नीचे उतरकर पूरब की तरफ नर्मदा के पानी के किनारे बैठने का अनुपम सुख है। किले की चढ़ाव उतार की थकान को यहाँ पानी में बहाकर पुन: ऊर्जावान बना जा सकता है। गर्मी में पानी इतना ठंडा और इतना स्वच्छ कि अपनी गरम और धूल धूसरित देह को उसमें डुबोने में संकोच होता है । इतनी पवित्र नर्मदा और इतना अपवित्र शरीर ।

यद्यपि जीवन अनमोल है। ईश्वर का अनुपम उपहार है । पर हमने इस शरीर में न जाने कितना कुछ अटरम-सटरम भर रखा है । सोच रखा है। मैंने नर्मदा का इतना साफ निर्मल पानी और कहीं नहीं देखा, जितना जोगा के किले के पूर्वी तट पर देखा । पता नहीं अमृत होता है या नहीं ? पर यह अंदाजा जरूर लगाया जा सकता है कि अमृत ऐसा ही कुछ नर्मदा जल सरीखा होता होगा।

जोगा घाट के उस पार फतेहगढ़ गाँव है । जंगल से घिरा हुआ नर्मदा किनारे का छोटा-सा गाँव है । फतेहगढ़ की तरफ उत्तरी क्षेत्र के सारे लोग नर्मदा स्नान के लिए आते हैं । मृत्यु के बाद अग्निदाह के लिए भी व्यक्ति को यहीं लाया जाता है। यह पाया गया कि अमरकण्टक से लेकर पूरे नर्मदा अंचल में अमावस्या को नर्मदा स्नान का विशेष महत्त्व है।

अमावस्या, सूर्य- चन्द्र ग्रहण, मकर संक्रांति, शिवरात्रि आदि तिथियों पर तो नर्मदा के सम्पूर्ण क्षेत्र में घाट, अड़घाट, वन, ग्राम, सभी जगह लोग – लुगाइयाँ श्रद्धा से नहाते हैं। इससे लोक-परलोक सुधरता है या नहीं, परन्तु लोगों को आत्मतोष और जीवन को नापने की संयमित ताकत जरूर मिलती है।

मुख्य है वह कर्म, जिससे जीवन को शक्ति का स्रोत मिले। फिर वह कर्म चाहे स्नान का हो, चाहे स्नान के बाद धूपबत्ती जलाकर नर्मदा जल के चरणों के पास खोंसकर हाथ जोड़ने का हो, या दाल-बाटी बनाकर तृप्त हो, पेट पर हाथ फेरने का हो, या नारियल फोड़कर खोपरे की एक चिटक नर्मदा जल में फेंककर दूसरी चिटक पेट में डालकर ‘नर्मदे हर’ बोलने का हो।

जोगा में नर्मदा के दोनों किनारों पर घनघोर जंगल है । दोनों किनारों के गाँवों के आसपास थोड़ी जगह में खेत हैं । जिनसे ग्रामवासी उदरपूर्ति हेतु अनाज पैदा करते हैं। नर्मदा में मछली मारना भी इनका मुख्य कार्य है । थोड़े बहुत ढोर-ढंगर पाल रखे हैं । इतना सघन वन होने पर भी उनके पास जानवर ज्यादा नहीं है। 

गर्मी में तो पूरे गाँव में दूध की सेल तक नहीं फूटती । दूध बड़ों को तो क्या बच्चों तक को देखने को नहीं मिलता। जोगा गाँव में आजादी के पचास साल बाद भी स्कूल नहीं है । शिक्षा ग्यारंटी योजना के तहत 1997 में पहली बार एक टापरी के आँगन में बच्चों को बैठाकर शिक्षा सरीखा कुछ परोसने का मन समझाने वाला प्रयास किया गया है ।

इस गाँव के खेत में नर्मदा किनारे होकर भी प्यासे हैं । गरीबी के कारण वर्षा के बाद फसलों को पानी देने के लिए ये वनवासी कोई साधन नहीं जुटा पाते हैं । परिणाम में कपास की हँसी घेटों में ही पिचक जाती है और जुवार के भुट्टे कूथते – कराँते थोड़े निकल आते हैं। जोगा के जंगल विन्ध्याचल की श्रेणियाँ हैं । इनमें खासकर उत्तरी क्षेत्र सुडौल और सीधे-सट्ट सागौन के पेड़ हैं कि नजर लग जाये । पर जंगल तो कट रहे हैं। इन जंगलों से बड़ी चालाकी से सागौन की लकड़ी गायब हो रही है। दूसरे पेड़ बच रहे हैं। ताकि जंगल भी दिखे और कीमती सागौन की लकड़ी बाहर हो जाये ।

बरसात में जब नर्मदा पूर होती है। अनमापी जलराशि आँखों में जल की अनन्तता का अंश आँजने लगती है । किले के चारों ओर पानी ही पानी हो जाता है। नर्मदा जोगा के किले को हाथों में उठा लेती है । लगता है जैसे माँ अहिल्या ने शिवलिंग को हाथों में उठा लिया हो । आज जोगा मरे हुए इतिहास का अवशेष भर रह गया है । हम उसकी अपराजेयता और नर्मदा जल की निर्मल स्मृति लिए हुए लौट आते हैं।

शोध एवं आलेख – डॉ. श्रीराम परिहार 

डॉ. श्रीराम परिहार का जीवन परिचय  

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