Jetha  जेठा

जेठा के बापू की मौत बीते साल जाड़े में ठंड लगने से हुई थी। लोग बताते हैं कि उस रात जितनी ज्यादा ठंड बाहर थी, अंदर उतनी ही ज्यादा Jetha के बापू की देह तप रही थी। जेठा बालपन त्याग किशोर वय में दाखिल हो चुका था। माँ-बापू का तो वह दुलारा था ही, अपने दादा-दादी की आँखों का तारा भी था।

इकलौता होने के कारण घर में मिले अधिक लाड-दुलार-प्यार ने उसे बिगाड़ा तो नहीं था, पर वह हठी हो गया था और अपने से ठीक छह माह छोटे काका के हाथों दादी के द्वारा एक सादे उत्सव में उसकी माँ के सिर पर चुनरी उढ़वा देना। इस रस्म के सही मायने का पता लग जाने के बाद से ही वह चिड़चिड़ा भी हो चला था। काका के प्रति जितना प्रेम-अनुराग उसके दिल में भरा पड़ा था। इस चुनरी-रस्म ने रिता डाला था।

काका और वह साथ सोते-जागते, खेलते-पढ़ते और न जाने साथ-साथ कितनी शैतानियां करते। अवकाश के दिनों में दोस्तों के साथ दिन भर धमा-चौकड़ी मचाते, गाँव भर के बच्चों के संग घूमते-फिरते, सैर-सपाटा करते। जंगल में जाते, तो नदी में डुबकी लगाते। पहाड़ पर चढ़ते और नई-नई चुलें (गुफाएँ) ढूँढ़ते। कल्पनाएँ करते, आदिमानव जैसी हरकतें करते, नए-नए खेलों का आविष्कार करते। एक चट्टान से दूसरी चट्टान पर ऐसे छलाँग लगाते जैसे वे सब के सब बन्दर हों।

काका भतीजा का गाँव के दोस्तों के बीच भरपूर रौब गालिब था, पर इधर जब से चूनर वाली रस्म हुई है, तब से दादी ने काका को जेठा से अलग कर दिया था। काका अब रात जेठा के साथ न सोकर उसकी माँ के साथ सोने लग गया था। माँ के साथ सोने की होड़ उसने भी लगाई, पर उसे अकेले ही सोना पड़ता था। जेठा के किशोर मन में यह समझ नहीं आता था कि बचपन से वह माँ के साथ सोता आया था, बड़ा होने पर काका के साथ। अब ऐसा क्या हो गया है, जो उसे माँ के साथ सोने नहीं दिया जा रहा है, उल्टे काका को माँ के बिस्तर में जबरन सोने के लिए डाँट-फटकार से लेकर पिटाई भी दादी की सहनी पड़ रही थी। सामाजिक रीति-रिवाजों से अनभिज्ञ कुछ समझ नहीं पा रहे थे दोनों किशोर।

काका को छुटपन की याद आती, जब जेठा और वह दोनों भौजी के पास ही सोते थे और भौजी दोनों को अपने आंचल का अमृत पिलाती-दुलारती और लोरी सुनाते हुए सुलाती थीं। माँ की लंबी बीमारी के चलते उसने महीनों भौजी के मातृत्व का स्नेह-अमृत जेठा के संग साझा किया था। अब वह अबोध शिशु नहीं रहा, बड़ा हो गया था। भौजी संग सोते उसे शर्म महसूस होती थी। भौजी को भौजी कहने पर माँ की डाँट सुननी पड़ती थी। माँ कहती, ‘‘बहू को भौजी न कहा कर अब वह तेरी जोरू है, नाम लिया कर, मालती कहा कर।’’

काका सोचता, ‘वह भौजी का नाम कैसे ले सकता है भला? बचपन से भौजी कहने की आदत एकाएक कैसे छूट सकती है?’ किशोर वय काका की कुछ समझ में नहीं आता। उसकी सोने की इच्छा तो जेठा के साथ ही होती थी। कुछ रातों में तो वह भौजी के बिस्तर में कुछ देर सोने का बहाना करता। आँखें बंद किये पड़ा रहता, फिर भौजी के सो जाने के बाद वह जेठा के पास आ जाता। जेठा भी उसे जागते मिलता और जैसे ही काका वहाँ आ जाता, दोनों को जल्दी ही नींद आ जाती।

एक रात ऐसे ही काका जेठा के साथ चिपका गहरी नींद में सो रहा था कि जैसे बादल फटा हो। दादी ने दनादन कई झापड़ काका के दोनों गालों पर जड़ दिए। दादी का एक झापड़ काका की दोनों आँखों पर पड़ा। काका को रात के अँधेरे में दिन के तारे दिखने लगे थे। इसके पहले कि वह कुछ समझता-सँभलता दादी ने काका का कान उमेठा और कान पकड़े-पकड़े उसे भौजी के कमरे में ढकेल बाहर से कुंडी लगा दी, फिर जो एक बार मालती के कमरे की बाहर से कुंडी लगनी शुरू हुई, तो फिर आगे बंद नहीं हुई। हाँ! एक बार केवल एक बार रात में जेठा ने रात के सन्नाटे में माँ के कमरे की कुंडी खोल दी थी, पर दादी को एरो मिल गया, फिर क्या था दादी के हाथों जेठा खूब पीटा गया और तभी से जेठा दादी के साथ और काका भौजी के साथ सोने लगे।

यह सिलसिला चलता रहा। जेठा और काका ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया और दोनों को एक दूसरे के बिना रात में नींद आने लगी। दिन भर दोनों साथ ही स्कूल जाते। घर आते खेलते-कूदते और रात नियत स्थान पर सो जाते। वक्त बीतने लगा। समयानुसार जेठा और काका की मसें भीगने लगीं, दोनों की मूँछों के रोएं अब हल्के स्याह हो आए थे। आवाज की मधुरता लुप्त हो चुकी थी। स्वर में भारीपन आ गया था। कद खजूर की तरह एकाएक बढ़ चला था। भागने में वह दोनों नंबर वन थे, तो अन्य खेलकूद में भी वे दोनों अव्वल रहते।

काका को मित्रों की चुहलबाजी, उनके द्वारा भौजी संग सोने के किस्से सुनाने की जिद-आग्रह उसके गाल लाल कर देते, कनपटी की नसें तन जातीं। दूसरे ही पल विचार आता, ‘‘भौजी का दूध पीकर वह और जेठा बड़े हुए हैं, यह कैसा रिश्ता माँ ने बना दिया है?’’ माँ के आतंक के सामने वह भौजी को मालती कहने लग गया था पर एकांत में भौजी ही कहता।

मालती उसकी दशा समझ हँस देती, तो वह देर तक असमंजस में पड़ शरमाया रहता, उसकी भौजी से ऑंखें मिलाने की हिम्मत नहीं होती। मित्रों की सारी कही बातें याद आते ही उसे पाप बोध होने लग जाता। अब वह भौजी के बिस्तर में न लेट नीचे फर्श पर अपना बिछावन बिछा लेता और सो जाता। पहले भौजी उसे देखती, तरस खाती और अपने बगल में लेटे रहने देती। खुद दूसरी ओर करवट ले लेती या स्वयं ही जमीन पर दरी बिछा सो जाती।

पूरे घर में दादी की तानाशाही थी। जेठा को अपनी माँ के साथ काका का सोना कतई नहीं सुहाता था। काका और माँ के रिश्तो की चर्चा करते दो-तीन साथियों को वह ढंग से पीट भी चुका था, जिससे उसके सामने अब काका और उसकी माँ के बारे में कोई कुछ बोलने का साहस नहीं उठा पाता था, पर जेठा को लगता रहता था कि उसके सारे दोस्त उसके पास आने पर उससे झगड़े से बचने के लिये चुप्पी लगा जाते हैं, परंतु उसके पीठ पीछे सारे के सारे मित्र चटखारे जरूर लगाते होंगे। यह सब सोच जेठा परेशान हो जाता और फिर चिढ़कर किसी से भी जरा-जरा सी बात पर झगड़ पड़ता था।

काका भी कई बार जेठा के इस गुस्से का शिकार हो चुका था। काका स्वयं को निर्दोष समझता था, पर जेठा के क्रोध की वजह को भी समझता था और अपनी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं देता था। यद्यपि वह रिश्ते में जेठा का पहले काका तो था ही अब उसका पिता भी बन चुका था, पर वह जेठा का उससे उम्र में कुछ माह बड़ा होने के कारण बचपन से ही वह अपने भतीजे जेठा को अपने से बड़ा और उससे भी बढ़कर वह उसे अपना परम मित्र मानता था।

मालती किसी भी सूरत में अपने पुत्र समान देवर को पति के रूप में स्वीकार कर पाने की मन:स्थिति में नहीं थी। सासू माँ के द्वारा लाख समझाने के बावजूद मालती की आत्मा को यह गँवारा नहीं था, जो सासू माँ चाहती थीं। सोलह बरस की थी, मालती, जब पहली बार वह इस घर में ब्याह कर आई थी। उम्र में पाँच वर्ष बड़े पति के प्रेम में वह ऐसी मग्न हुई कि उसे अपना नया घर, नया जीवन स्वर्ग समान लगने लगा था। ब्याह के दूसरे ही वर्ष उसने एक सुंदर और स्वस्थ शिशु को जन्म दिया।

उसके पुत्र जन्म के छह माह बाद ही उसकी सासू माँ ने भी पुत्र जन्मा। सासू माँ की अधिक उम्र होने के कारण उनका आँचल से दूध निकलना बंद हो गया। इस वजह से वह अपने पुत्र जेठा के साथ अपने शिशु-देवर को स्तनपान कराने लगी। दोनों शिशु रूप में उसके साथ खेलते-सोते और भूख लगने पर मालती दोनों को स्तनपान कराकर तृप्त करती। भाभी माँ के रूप में उसके देवर ने सदैव उसका सम्मान किया। दुर्भाग्यवश मात्र बारह वर्ष के दांपत्य जीवन का साथ देते मालती के पति का देहांत हो गया।

मालती के सिर पर मानो पहाड़ टूट पड़ा हो। मालती सारा जीवन अपने प्रिय पति की सुखद यादों के सहारे बिता देने का दृढ़-संकल्प कर चुकी थी, पर सासू माँ ने समाज में स्वीकृत चुनरी ओढ़ाने की रस्म का वास्ता देते उसके लाख मना करने के बावजूद रस्म अदायगी बताकर पुत्र समान देवर से चुनरी उढ़वा दी। अब उसका देवर उसका पति बन चुका था, जो उससे उम्र में लगभग सत्रह वर्ष छोटा था मालती ने सासू माँ के कहने पर न चाहते हुए भी यह रिश्ता स्वीकार कर लिया, परन्तु उसे निभा पाने में वह स्वयं को इस रिश्ते में कतई असमर्थ पाती थी।

दिनों-दिन सासू माँ की जोर-जबरदस्ती से मालती हलकान थी। पुत्र जेठा के काका को वह भी काका का ही सम्बोधन देती थी। काका एकांत में भी उसके प्रति मर्यादित रहता और पूर्ववत उसे भौजी का ही सम्बोधन देता। सासू माँ के सामने वह उसे मालती कहकर ही संबोधित करता था।

दिन-महीना-साल गुजर गया। काका व जेठा दोनों अब बारहवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। काका अब सत्रह वर्षीय सुंदर, सजीला नवयुवक हो चुका था। बेटे और देवर के बीच के संबंधों को मालती बखूबी समझती बूझती थी। सासू माँ के दुराग्रह पूर्ण निर्णय को वह हमेशा गलत समझती रही। वह स्वयं को तैयार नहीं कर पा रही थी कि,  ‘उसने माँ के रूप में अपने पुत्र के समान मानते हुए अपने पुत्र के हिस्से का दूध पिलाया है, वही अब पति रूप में उसके साथ दैहिक रूप से जुड़े।’

एक रात मित्रों के द्वारा काका को जमकर ताड़ी पिलाई गई और उसके दिलो-दिमाग में यह बात अच्छे से बैठा दी कि, ‘मालती तेरी भौजी पहले थी। अब वह तेरी ब्याहता है, तेरी लुगाई है। वह भी अभी महज पैंतीस साल की है। उसका भी युवा शरीर है, उसे भी किसी पुरुष की आवश्यकता महसूस होती होगी। तू नाहक शर्म कर रहा है। आगे बढ़, वह तुझे पति के रूप में अवश्य थाम लेगी, अपना लेगी। उसका भी मन होता होगा, तेरे साथ का। वह स्त्री है, ‘संकोच करती हैं स्त्रियाँ! पुरुष को ही पहल करनी होती है।’

काका के मन-मस्तिष्क में बार-बार मित्रों की बातें उथल-पुथल मचा रही थीं। देर शाम घर आने पर उसे पता चला कि जेठा उसकी माँ को लेकर उसके ननिहाल से अचानक आ गए बुलावे के कारण चला गया है। घर में वह और भौजी, भौजी नहीं उसकी लुगाई, उसकी मालती और वह है बस। आज वह स्वयं को सिद्ध करेगा। काका ने भोजन परोसती मालती के यौवन को निहारते मन ही मन निश्चय किया।

आज वह मालती को पत्नी के में रूप में देख रहा था। भोजन कर लेने के बाद वह सोने के लिए चला गया। आज उसने अपने बिस्तर फर्श पर नहीं लगाए और पलंग पर जाकर लेट गया।  ताड़ी के नशे में होने के कारण काका की आँख जल्दी लग गई। घर के काम समेटने के बाद मालती अपने शयनकक्ष में आई। पलंग पर काका को सोया देख उसने अपना बिस्तर फर्श पर बिछा लिया। मालती का थका-माँदा शरीर बिछावन पाते ही गहरी नींद में चला गया।

देर रात काका की आँख खुली। उसके मन-मस्तिष्क में पुनः मित्रों के लादे विचार उथल-पुथल मचाने लगे। वह लघुशंका के लिए बिस्तर से उठा, तो देखता है, भौजी फर्श पर गहरी नींद में सो रही हैं। बे-खबरी में मालती के वस्त्र अस्त-व्यस्त थे। ‘गौरवर्ण सुंदर देहयष्टि वाली यह स्त्री अब उसकी भौजी नहीं है। अब वह उसकी जोरू है।’ मित्रों के कहे शब्दों का समर्थन पा युवा खून यौवन की उत्तेजना में उबलने लगा।

सीधी शांत सो रही मालती के उन्नत वक्ष उसे रोक नहीं पाए और वह उत्तेजित हो मालती के ऊपर आ गया। एकाएक हुई इस क्रिया से मालती की नींद उचट गई। पल भर में उसे काका के द्वारा की जा रही हरकतों का भान हो आया। मन-वचन-कर्म से अपने पति को याद करते हुए मालती ने काका को अपने शरीर से परे धकेल दिया, पर उत्तेजित काका ने उसके शरीर पर घात-प्रतिघात करते हुए उसे दबोचने का पुनः प्रयास किया। काका एक ही बात बोल रहा था कि, “तुम अब मेरी केवल ब्याहता पत्नी हो, भौजी नहीं।”

मालती ने अपने शरीर की सारी शक्ति समेटते हुए काका के गाल पर भरपूर झापड़ जड़ दिया। तेज थप्पड़ पड़ते ही काका के होश ठिकाने आ गए। काका को स्वयं से ग्लानि हुई और वह वहां से उठकर पलंग पर बैठ गया। मालती ने अपने कपड़े ठीक किये।

“काका! तुम्हें मैंने अपने आँचल का दूध पिलाया है। तुम मेरे पति कभी नहीं हो सकते हो। तुम्हारे स्वर्गीय अग्रज ही मेरे मन-वचन-कर्म से सदैव पति रूप में रहेंगे। मुझे तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं। आज से मैं तुम्हें अपने इस रिश्ते से मुक्त करती हूँ। तुम चाहो तो मेरे देवर के रूप में सदैव बने रह सकते हो।’’

काका मालती के चरणों में झुक गया। मालती के चरण स्पर्श करते हुए वह बोला, ‘‘मुझे क्षमा कर दीजिये। आप मेरी भौजी थीं, भौजी हो और भौजी ही रहोगी। मैं आजीवन आपको अपनी भौजी ही मानता रहूँगा।’’  कुछ क्षण खड़े रहने के बाद काका कमरे से बाहर निकल गया। मालती की डबडबा आईं आँखों से स्वर्गवासी पति की याद में आँसू की कुछ बूँदे छलक गईं।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

कथाकार – महेन्द्र भीष्म

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