चैत और क्वाँर की नौदेवियों के प्रारम्भ में मिट्टी के घटों में जौ डालकर जवारे बोये जाते हैं और नौ दिनों तक उनका पूजन होता है। रात्रि को भजन होते हैं। सुहागिन स्त्रियाँ सज-धजकर आती हैं और Javara जवारों के दिवाले में नृत्य करती हैं। जिसके घर के खाली कमरे में जवारे रखे जाते हैं, उसे दिवाले के नाम से जाना जाता है।
दिवाला शब्द ’देवालय‘ का ही बना है, जो जवारों में देवी के वास की प्रतिष्ठा करता है। ये दिवाले मनौती मानकर ही रखे जाते हैं। संध्या को होम लगने के बाद स्त्रियाँ धोती, सलूका या पोलका तथा गहनों में कानों में कनफूल, गले में कठला या लल्लर, हाथों में चूड़ियाँ और पैरों में बाजने पैजना पहने सज-सँवरकर आती है, जवारों का पूजन करती हैं और नृत्य करती हैं।
नृत्य के बीच तालियाँ बजाती हैं और देवी की भक्ति में आह्लादित होकर बार-बार झुककर प्रणाम करती हैं। भजन में देवी गीत गाये जाते हैं, जो नृत्य के बोल होते हैं। लोकवाद्यों में ढोलक, नगड़िया, मंजीरा, झींका आदि स्त्रियाँ ही बजाती हैं। कई भक्तिपरक मुद्राओं में कटि को झुका दोनों हाथ जोड़ने से विनती करने की मुद्रा प्रमुख है।
नवें दिन संध्या को जवारे जुलूस में निकलते हैं, तब आगे पुरुषवर्ग देवी गीत गाता है और उनकी लय पर सिर पर जवारे रखे स्त्रियाँ गाती हुईं कभी सीधे चलती हैं, तो कभी नृत्य करते हुए। घटों को बिना हाथ लगाये साधकर वे झुककर नृत्य को मंद्र या द्रुत गति से करने में सफल होती हैं। इस नृत्य में पदचालन और आंगिक लोच की प्रधानता है। इसमें निम्न वर्ग की स्त्रियों की भागीदारी अधिक रहती है और उसमें काछी, कुर्मी, कोरी, ढीमर, बढ़ई, लुहार, नाई आदि आदि जातियाँ प्रमुख हैं।
कहीं-कहीं जवारा नृत्य केवल पुरुषों के द्वारा किया जाता है और उस नृत्य का आधार भी आनुष्ठानिक होता है। उसमें आदि शक्ति देवी दुर्गा या काली की भक्ति में आख्यानक या मुक्तक भजन गाये जाते हैं, जो नृत्य के बोल बनते हैं। इस नृत्य में आत्मिक, आध्यात्मिक और सामाजिक भावनाओं की पहचान मिलती है।
इस नृत्य की मौलिकता उसकी भक्तिभावना से जुड़ी नट और स्वाँग की कला में है। जवारे-विसर्जन के लिए नदी या तालाब तक नंगे पैर जाना पड़ता है। इतनी दूर नृत्य करना कठिन है, पर इतना निश्चित है कि नृत्य के भावात्मकता प्रधान होने से उसकी भाव-मुद्राएँ रोम-रोम को तृप्त कर देती हैं। अतएव यह आनुष्ठानिक नृत्य अपने में एकमात्र होने के कारण अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। खप्पर, बाना आदि लोकनृत्य इसी के अंग रूप में इसी का पूर्णता में सहायक हैं।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल
जवारा लोक नृत्य में जो तस्वीर आपने लगाई है,वो हमारी संस्था नृत्यकलागृह बाँदा की है।
मैं श्रद्धा निगम इस संस्था की संचालिका हूं।
आप मुझे धन्यवाद कह सकते है।मैं अनुरोध करूंगी कि कृपया इस छायाचित्र में क्रेडिट ज़रूर दे।
धन्यवाद
जी अवश्य ,आप अपना फोन नंबर भेजिए । बहुत बहुत धन्यवाद ।