उत्तरप्रदेश के झाँसी जनपद के मऊरानीपुर नगर में स्वर्गीय पं. बल्देव प्रसाद धमैनियाँ और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती सरजूबाई के घर मे 1 अगस्त सन् 1928 को जिस बालक ने जन्म लिया वह बुन्देली का सशक्त हस्ताक्षर Pandit Jaitram Dhamainiya ‘Jait’ है। आपके बारे में कहा जाता है कि अल्पायु से ही आप काव्य सृजन करने लगे थे।
कवित्त (पावस)
सिंधु मांह मुक्ता स्वाति बिंदु के बनावे सदा,
हंसन चुनावे भलो भूतल कौ भेदी है।
‘जैत’ गरुड़गामी के बाहन के भोजनार्थ,
व्याल प्रगटावे दिव्य वसुधा कुरेदी है।।
नंदी गण भोले कौ देखकें कुटुम्ब बहु,
हरी हरी घास चरवे की छूट दे दी है।
मानौ त्रिदेवन के वाहन कों चरावे हेतु,
राजा ऋतुराज कौ पावस बरेदी है।।
(सौजन्य – श्री वीरेन्द्र शर्मा ‘कौशिक’, मऊरानीपुर)
समुद्र में स्वाति बूंद से सदैव मोती बनाता है और उन मोतियों को हंसों को चुगने के लिये देता है। वह धरातल का भेद जानने वाला है। जैत कवि कहते हैं कि भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ के भोजन हेतु सर्पों को प्रकट करने के लिये अलौकिक धरती को खुरचा (ऊपरी पर्त को हटाना) है।
भोले शंकर के वाहन नंदीगण ने बड़े परिवार (कुल) के लिये हरा चारा खाने (चरने) के लिये स्वतन्त्रता दे दी है। ऐसा प्रतीत होता है कि तीनों देवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) के वाहनों को राजा ऋतुराज (बसंत) का पावस बरेदी (चौपाये चराने वाला) बना हुआ है।
वारिधि वरिष्ठ पुत्र वारिद तिहारौ नाम,
मानसून वाले मानसूनता लिए रहौ।
सिंधुसुत इन्दु यहाँ डारत सुधा के बुंद,
पानीदार पानी जौ अपनौ पिं यें रहौ।।
‘जैत कवि’ आए हौ दुखाऔ ना किसी कौ दिल,
विश्व प्रतिपाल छूट इतनी दियें रहौ।
जैसें रामकृष्ण चन्द्र नाम कौ लियें हैं साथ,
मेरे नभचन्द्र कौ उजारौ कियें रहौ।।
(सौजन्य – श्री वीरेन्द्र शर्मा ‘कौशिक’, मऊरानीपुर)
तुम समुद्र के श्रेष्ठ पुत्र हो तुम्हारा नाम बादल है। तुम मानसून लाने वाले हो, अतः उस अस्मिता को बनाये रखो। समुद्र का पुत्र चन्द्रमा यहाँ अमृत की बूँदें डालता है किन्तु आत्माभिमानी अपने पानी से ही संतुष्ट रहता है। जैत कवि कहते हैं कि तुम यहाँ आये हो किसी को पीड़ा न दो। समस्त जगत के पालन-पोषण करने वाले हो तुम इतनी छूट दिये रहना कि जिस प्रकार राम कृष्ण चन्द्र के नाम का साथ लिये अर्थात् आश्रय लिये हैं तो मेरे आकाश के चन्द्रमा का प्रकाश करते रहना।
सुनकें मरोरदार मोरनी के तीखे बोल,
चटुल चकोरी के पंख फरकन लगे।
पूरवी दिशा सें जो सांवले उठे थे घन,
‘जैत’ शशि आनन की ओर सरकन लगे।।
उपमा में कहौं कौन जैखो विलोको हृदय,
उलटे क्रम शुक्ल पक्ष नैन परखन लगे।
चन्द्र गगनांगन में मेघों की मची धूम,
श्याम अभिराम घनश्याम बरसन लगे।।
(सौजन्य – श्री वीरेन्द्र शर्मा ‘कौशिक’, मऊरानीपुर)
मोरनी की उमंग भरी चटकीली बोली सुनकर चकोरी के पंखों में फड़फड़ाहट आ गई अर्थात् उत्साह आ गया। पूर्व की दिशा में जो काले-काले बादल घिरे थे वे चन्द्रमुख की ओर खिसकने लगे। कवि कहता है कि जैसा दृश्य मैंने देखा है उसकी कौन-सी उपमा दूँ।
शुक्ल पक्ष का चन्द्रमा विपरीत क्रम में चलता दिखा अर्थात् चन्द्रमा बढ़ने के स्थान पर घटने लगा, उसे मेघों ने आच्छादित कर लिया और आकाश रूपी आँगन में मेघों के समूह घिर आये। सुन्दर श्यामलता छा गई और बादलों से पानी बरसने लगा। यहाँ कवि भक्ति के भाव में श्री कृष्ण और राधिका जी के मिलन की अभिव्यक्ति करना चाहता है।
दिल में अंदेसो न संदेसो मिलो बूँदन सें,
देख कें बादर लाल मोरन मती भई।
दीन प्रति पालक पुकारें और पुछारें करें,
पाकें घनश्याम नाम कैसी गति भई।।
‘जैत’ कवि रोको बहु वरजो इसारन सें,
पंखन उठाय न एक जती भई।
मेरे जान अम्बर अखाड़े में युद्ध माह,
मेघ गए जूझ कैंधों दामिनी सती भई।।
(सौजन्य – श्री वीरेन्द्र शर्मा ‘कौशिक’, मऊरानीपुर)
मन में कोई संदेह नहीं है, बूंदों ने यह संदेश दिया है। बादलों को लाल देखकर मन के विचारों में बदलाव आया। जिन्हें सब दीन प्रतिपालक कहते और आदर देते हैं और घनश्याम जैसा सम्मानजनक नाम पाया है। उसकी कैसी गति हो गई? जैत कवि कहते हैं कि संकेतों से बहुत रोका गया किन्तु किसी का भी प्रयास सफल नहीं हुआ, आकाश के अखाड़े में युद्ध हुआ जिसमें मेघ मारे गये और बिजली सती हो गई।
बुन्देली गरिमा
हिन्दी हिन्द हिन्दुओं की रक्षक रही जो सदा,
भक्षक कुरीतियों की उपमा उजेली में।
और सब प्रांतन की भिन्न भिन्न भाषा भली,
दुहरी रसधारा इस भाषा अकेली में।।
‘जैत’ बीरता में वीर रस की पताका लिये,
सुभग श्रृंगार श्रेष्ठ बांचो अलबेली में।
चन्द्र सौ प्रकाश सुधा सिंधु सौ मिठास भरो,
विकास पुण्य प्रेम कौ भाषा बुंदेली कौ।।
(सौजन्य – श्री वीरेन्द्र शर्मा ‘कौशिक’, मऊरानीपुर)
भारत और भारतीय जनों के रक्षार्थ जिस प्रकार बुन्देली सपूतों का योगदान स्मरणीय है वैसे ही बुन्देली भाषा हिन्दी के लिये सहयोगिनी रही है। बुन्देली कुरीतियों को समाप्त कर अनुपम प्रकाश देने वाली है। अन्य प्रान्तों की सभी भाषायें अपने आप में निश्चित उत्तम है किन्तु दुहरी रसधार बहाने वाली यह अकेली भाषा है।
जैत कवि कहते हैं जहाँ वीरत्व के भाव की आवश्यकता है वहाँ वीर रस की पताका फहराने में सबसे आगे है और जहाँ श्रृँगारिक भावों के अनुपम आनंद की बात है वहाँ सुखद श्रृँगार रस का साहित्य पढ़ने को उपलब्ध है जिसमें अमृत सागर की मधुरता, चन्द्रमा की तरह शीतल प्रकाश विद्यमान है और सुकृत सनेह का विकसित रूप विद्यमान है।
मृदुल महान शब्द यमक श्लेष भरे,
अर्थ में अनोखे लगें भाव उर आनिये।
मुहरा सो मंजु-मंजु कंज सम जामें ‘जैत’,
ढेर के सुढेर मिलें मन के बखानिये।।
गंगाधर, काली कवि, ईसुरी, बिहारी, व्यास,
माहुर, घनश्याम के सुछन्द पहचानिये।
प्यारी बुंदेली बृज भाषा की सहेली सखी,
रस की अलबेली के रसीले छन्द छानिये।।
कोमल और सर्वश्रेष्ठ शब्दों में यमक और श्लेष की कलात्मकता से अर्थ में अनुपम भाव का आनंद हृदय को मिलता है। मनोहर लक्ष्य से बुन्देली के साहित्य में सुन्दर कमलों की तरह विविध भावों से भरी रचनायें करना सहज है। यहाँ गंगाधर, काली कवि, ईसुरी, बिहारी, व्यास, माहोर और घनश्याम कवियों की उत्तम रचनाओं को समझिये। प्रिय लगने वाली बुन्देली ब्रज भाषा की आत्मीय सखी है। इसकी अनोखी रसयुक्त सजधज से रचित मधुर रस भरे छन्दों का आनंद सभी को लेना चाहिए।
ब्रन्दा रख वृन्द पाय बृन्दावन नाम परो,
राम भक्त तुलसी यहाँ हुलसी अकेली के।
गोवर्धन वर्धन निर्धन कों देवें धन,
कामद हर्षवर्धन जीवन पहेली के।।
‘जैत’ दोऊ क्षेत्रन की एक राशि भाषा भली,
दोऊअन के आपस में भाव हैं सहेली के।
बृज में भक्ति भाव भर मंदिर सुहावें,
तो बसुधा बुंदेल पर किले हैं बुन्देली के।।
वहाँ तुलसी के पौधों का समूह में होने के कारण वृन्दावन नामकरण हुआ, यहाँ बुन्देलखण्ड में अकेली हुलसी के घर रामभक्त तुलसी ने जन्म लिया। वहाँ गोवर्धन पर्वत निर्धनों को धनवान बना देते हैं यहाँ कामदगिरि पर्वत जीवन की सभी उलझनों को सुलझाकर आनंद देने वाले हैं। जैत कवि कहते हैं कि ब्रज और बुन्देलखण्ड के क्षेत्रों की भाषा में एक सा रस समाहित है और दोनों भावों में मित्रता है; वे एक दूसरे की सहेली हैं। ब्रज में भक्ति भावों की उमंग से भरपूर मंदिर है तो बुन्देलखण्ड में वीरता के प्रतीक किले बने हुए हैं।
दर्शन करिबे की प्रबल उत्कण्ठा देख,
असीमित कों सीमित रूप धरने परो।
भक्त को भी भगवान की प्रतिष्ठा में, निष्ठा से,
अनन्य भक्ति साधन कौ भाव भरने परो।।
‘जैत’ कवि बुन्देलखण्ड क्षेत्र कौ है सन्त धन्य,
कलियुग में दो धरी त्रेता करनै परो।।
भाषा बुंदेली कौ केवल एक दोहा सुन,
बृज के बृजराज खों राम बनने परो।।
(सौजन्य – श्री वीरेन्द्र शर्मा ‘कौशिक’)
दर्शन करने की प्रबल उत्सुकता को देखकर सीमाओं से परे; निर्गुण निराकार ईश्वर को सीमित (साकार) रूप धारण करना पड़ा और भक्त को भी प्रभु की प्रतिष्ठा में साधनारत श्रद्धा से अनन्य भक्ति भाव से अर्चना करनी पड़ी। जैत कवि कहते हैं इस बुन्देल भूमि के संत पुरुष धन्य हैं जिनकी आराधना से कलियुग में भी दो घड़ी के लिये त्रेतायुग आ गया। बुन्देली भाषा के मात्र एक दोहे को सुनने पर ब्रज के श्री कृष्ण भगवान को श्री राम का रूप धारण करना पड़ा।
विरहा वृतन्त कौ भओ अन्त, आ गये कन्त बोली गोरी।
सब त्याग तंत्र, बस मूलमंत्र, करहौं बसन्त पूजा तोरी।।
कोयल दय ताप, रत पिय मिलाप, विरहन की ताप मैटत आये।
सांसी है छाप, तैरो प्रताप, ऋतुपति हैं आप, सुख उपजाये।।
किसलय दुकूल, मख उठे फूल, डारन के सूत्र हैं सरमाये।
वायु में झूल, करते अबेल, अब तक जेल में दुख पाये।।
अलियों के संग, भर-भर उमंग, रस रंग लुटा खेले होरी।
सब त्याग तंत्र, बस मूल मंत्र, करहौं बसन्त पूजा तोरी।।
सुन्दरी नायिका कहती है कि प्रियतम आ गये हैं अब विरह की चर्चा शान्त हो गई। सभी तन्त्रों को छोड़कर बस एक ही मूल मंत्र शेष है कि हे ऋतुराज बसंत! तेरी पूजा करूँगी। जो कोयल कष्ट दे रही थी अब प्रिय के मिलन पर वह संताप समाप्त हो चुका है। हे ऋतुपति बसंत, तेरी कृपा से सचमुच आनंद के दिन आ गये।
पौधों ने कोपलों के सुन्दर वस्त्रों को पहना हैं, फूलों के झुंड खिल गये हैं और वृक्षों के लटकते सूत्र मानो लज्जा से झुक रहे हैं। हवा में झूलते हुए अठखेलियाँ कर रहे हैं जो अभी तक कारागार में बंद थे उन्हें स्वतंत्रता मिल गई है। भ्रमरों के साथ उत्साहित होकर आनंद रस की वर्षा करते हुए होली खेल रहे हैं। सभी तन्त्रों को छोड़कर बस एक ही मूल मंत्र शेष है कि हे ऋतुराज बसंत! तेरी पूजा करूँगी।
फागुन के का गुन बखानें हम कौन कौन,
भौन भौन लागे हौन, दृश्य नए होरी पै।
कोउ लयै हजारा कोउ फुहारा लिए हांथन में,
फेंकत गुलाल लाल चन्द्रमुखी गोरी पै।।
‘जैत’ कवि नागर गागर में सागर भर,
कलम पिचकारी तै काव्य कला मोरी पै।
कवि बना श्याम और शब्द ग्वाल बाल बगे,
फाग खेलबे के हेतु कल्पना किशोरी पैं।
कवि कहता है कि मैं फागुन (बसंत) के किन-किन गुणों का वर्णन करूँ। प्रातः होते ही होली खेलने के नये दृश्य दिखाई देने लगे। कोई हजारा (पौधे सींचने का पात्र) हाथ में लेकर आ गया तो कोई फुहारा लिये हुए हैं। चन्द्रमा से मुखवाली सुन्दरी पर गुलाल फेंकी जा रही है।
जैत कवि कहते हैं कि कवि श्रेष्ठ ने गागर में सागर भरने के लिए भाव को लेकर कलम रूपी पिचकारी से कलात्मक काव्य का सृजन प्रारंभ कर दिया। इसमें कवि स्वयं श्रीकृष्ण बन गया और उसकी प्रयुक्त शब्दावली ग्वालबाल सखा बन गये। अब फाग खेलने के लिए कल्पना रूपी किशोरी जी (राधिका जी) बन गईं।
श्री जैतराम धमैनियाँ ‘जैत’ का जीवन परिचय
शोध एवं आलेख– डॉ. बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (मध्य प्रदेश)