कवि श्री जगदीश सिंह परमार का जन्म टीकमगढ़ में 9 जुलाई सन् 1948 को श्री गजराज सिंह के घर हुआ। इनकी माता का नाम श्रीमती कंचन कुँवर था। ये तीन भाइयों में सबसे छोटे हैं। श्री दिलीप सिंह व श्री हरवंश सिंह इनके अग्रज हैं। ये बचपन से ही हनुमान भक्ति में लीन रहने वाले हैं।
कवित्त – सुदामा दरिद्रत्ता
फूटौ घर माटी कौ बनी खपरैल एक,
छाव घास पात दुःख चुआना कौ न्यारौ है।
आँगन न पौर परे बैठें कहुँ ठौर नहीं,
टूटे बड़ैरे कहुँ थुम्मा सहारौ है।।
छानी सें पानी चुँअत चौमासैं भींत,
टूटे किवार एक फूटौ द्वारौ है।
राधे श्याम अंकित द्वारैं दीवाल पर,
हृदय सुदामा के बसो कृष्ण प्यारौ है।।
मिट्टी का फूटा घर जिसमें खपरैल है उसे घास व पत्रों से छाया गया है, जो वर्षा में चुचवाता है। न आँगन में और न ही पौर (आगे का कक्ष) में कहीं भी बैठने का स्थान सुरक्षित नहीं है। इस मकान का बड़ैरा (खपरैल की मुख्य लकड़ी) टूटी है जिसे खंभा का सहारा दिया गया है। छप्पर से पानी टपक रहा है तथा वर्षा में दीवालें गीली हो गई हैं। ऐसे मकान में एक फूटा दरवाजा है जिसपर टूटा किवाड़ लगा है। दरवाजे की दीवाल पर राधेश्याम लिखा गया है। इस तरह देखते हैं कि सुदामा के हृदय में प्यारा कृष्ण बसा हुआ है।
राली ज्वार समा कुटकी कोदों फिकार,
दाल चावल गेहूँ मिलत भैंट गृह ल्याऊत हैं।
चकिया सैं पीस चून कूँड़े में दुमड़ लेत,
फूटे घड़े सैं काम अपनौ चलाऊत हैं।।
बौंगी सी हँडिया एक टूटौ बीच देऊवा है,
टौंके तवा सैं चूल्हैं भोजन पकाऊत हैं।
पत्तल परोस भोजन लोटा पुरानौ एक,
तापर सुदामा भोग कृष्ण खौं लगाऊत हैं।
राली, ज्वार, समा, कुटकी, कोंदों, फिकार (मोटे व जंगली अन्नों के नाम) दाल-चावल तथा गेहूँ जो भी भिक्षा में मिलता है, सुदामा उसे घर लाते हैं। भिक्षा में मिले अनाज को उनकी पत्नी चक्की में पीस कर उसका आटा बना, उस आटा को कूंडे (पत्थर का बर्तन) में सानती हैं।
फूटे घड़े में पानी भरकर अपना काम निकालती हैं। जिस हँडिया के ओंठ टूटे हैं उनमें एक डेउवा (लकड़ी का चमड़ा) पड़ा है। छिद्र युक्त तवा पर चूल्हे से भोजन पकाती हैं। इस भोजन को पत्तलों पर परोसकर एक पुराने लोटा में पानी रखते हैं। इस प्रकार सुदामा खाना खाने के पूर्व श्रीकृष्ण को भोग लगाकर भोजन करते हैं।
सवैया
सोवत सुदामा तमाल तरैं दाबैं तन्दुल कांख पुटईया।
घास औ पात की सेज बनी बिछीं है न तापै फटी इक चिथईया।।
ओढ़ैं अगोछा पाँव सिकोड़ पहिनै लँगोटी फटी सी कथईया।
भक्षक कौ डर काउन कहुँ, जाके रक्षक श्री कृष्ण कन्हैया।।
सुदामा तमाल वृक्ष के नीचे काँख में चावल की पोटली दबाये हुए सो रहे हैं। घास व पत्रों को एकत्र कर उसे बिछाया और उसके ऊपर एक फटे चिथड़े कपड़े को बिछाया गया है। अंगोछा को ओढ़कर, पाँवों को सिकोड़े हुए फटी हुई लंगोटी पहने हुए सुदामा सो रहे हैं। जिसके रखवाले श्री कृष्ण हों उसको किसी भक्षक (जंगली पशुओं) का भय नहीं हो सकता है।
कवित्त (राम भरोसे काम)
काहू कहुँ भरोसौ निज धन बाहुबल कौ है,
काहू कहुँ शासक अरु जग का समाजा है।
काहूँ कहुँ मित्रों और परिवार कौ है,
बुद्धि ज्ञान वैभव मन्त्री और राजा है।।
साँचौ भरोसो करहु पूर्ण काम राम कौ,
राम गुन गावे कहुँ करियौ ना लाजा है।
‘जगदीश’ कौ भरोसौ जो राजौं के राजा हैं,
महाराजौं के महाराज श्री रामचन्द्र राजा हैं।
किसी को अपने धन तथा बाहुबल पर तथा किसी को राजा व समाज पर भरोसा होता है। किसी को मित्रों व परिवार पर भरोसा होता है। बुद्धि-ज्ञान मंत्री तथा वैभव राजा होता है। सच्चा भरोसा तो राम का करना चाहिए और राम के गुण गाने में कोई लज्जा नहीं होती है। कवि जगदीश कहते हैं कि मेरा भरोसा तो राजाओं के राजा एवं महाराजाओं के महाराज श्रीरामचन्द्र पर ही है।
गोपी प्रेम
छींकौ टोर दधि चोर चित्त चोर चीर चोर,
माखन चोर मोहन की मधुर मुस्कान है।
रास बिहारी श्याम रसिक बिहारी हैं,
राधा मन चन्द चकोर कृष्ण भगवान हैं।।
चिकतियाँ चतुर चित्त छलिया छबीले छैल,
सुनाउत वे मीठी मुरली की तान हैं।
कहहिं भक्त गोपियाँ बताब ‘जगदीश’ हम,
कृष्ण बिनु तनु में अब राखहिं कैसें प्रान हैं।।
सींका (दूध दही रखने का ऊँचाई पर रस्सी का बनाया गया) तोड़कर दही चुराने वाले, गोपियों के हृदय व चीर चुराने वाले तथा माखन चुराने वाले मोहन की मुस्कान मीठी है। कृष्ण रहस रचाने वाले तथा रसिकों के बीच रहने वाले हैं। राधा का मन चन्द्रमा और भगवान कृष्ण चकोर है। चतुराई से चितवन करके देखने वाले छल से सौन्दर्य के धनी छैला कृष्ण बाँसुरी की मधुर तान सुना रहे हैं। जगदीश कवि कहते हैं कि भक्त गोपियाँ कहती हैं कि तुम्हीं बताओ कि कृष्ण के बिना हम इस शरीर में प्राणों को कैसे रखें?
बंशी प्रभाव
कालिन्दी कूल कृष्ण वंशी बजाई जब,
तनु मनु सुध भूलि गोपि धाई धाम छोड़ि कैं।
घूँघट पट खोलैं लाज भूख प्यास भूलि गई,
ओढ़िनी पहिन धाई लंहगा कहुँ ओढ़ि कैं।।
पहाड़ पेड़ प्रेम मगन पंछी चनेवर बनै,
बछरन पय पान धेनु धाई नेह तोड़ कैं।
साधु हरि नाम जप रुके चन्द्र जमुन जल,
जगदीश कछु रस लिखत बंशी कौ निचौंड़ कैं।।
यमुना के तट पर कृष्ण ने जब बाँसुरी पर तान छेड़ी तो गोपियाँ अपने-अपने घरों को छोड़कर तन-मन की सुधि भूलकर दौड़ी। इन गोपियों में कुछ घूँघट का पट खोले हुए, भूख प्यास भूलकर, कुछ ओढ़नी पहनकर तथा लँहगा ओढ़े चली आई। पहाड़, प्रेम, पक्षी व नवजात पक्षी सभी प्रेम मगन हो गये हैं। बछड़ों को दूध पिला रही गायें भी नेह की डोर तोड़कर यमुना तट की ओर भागीं। साधुओं के हरि भजन रुक गए, चन्द्रमा भी यमुना जल में स्थिर हो गया। कवि जगदीश कहते हैं कि वे बाँसुरी के स्वरों का निचोड़ इस पंक्तियों में लिख रहे हैं।
श्री जगदीश सिंह परमार का जीवन परिचय
शोध एवं आलेख– डॉ. बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (मध्य प्रदेश)