महाकवि ईसुरी के फाग साहित्य में Isuri Ki Nayika Rajau को सर्वमान्य स्वीकारोक्ति प्राप्त है। रजऊ कौन है? ईसुरी से उनका ताल्लुकात क्या रहा है? इसके सम्बंध में साहित्यकार एकमत नहीं है। कोई कहता है कि धौर्रा के मुसाहिब ठाकुर जगत सिंह की बेटी का नाम रजऊ था, जिसके प्रेम प्रसंग में ईसुरी ने ठाकुर के यहाँ कामगारी की, मेलजोल के अवसर बढ़ाए और बढ़ गए चर्चाओं के दौर।
ये प्रेम प्रसंग इतने बढ़े कि ईसुरी को अपमानित होना पड़ा, शारीरिक प्रताड़ना और मानसिक वेदना भोगनी पड़ी और सहन करना पड़ी निष्कासन की पीड़ा। ईसुरी ने स्वयं एक फाग में कहा – ईसुरी न तो उस अपमान को कभी भूल पाए, न शारीरिक प्रताड़ना को और न ही रजऊ को। उन्होंने इस वेदना को भी अपनी फाग में व्यक्त किया है –
कैसे मिटें लगी के घाओ, ई की दवा बताओ ।
अधिकांश साहित्यकारों ने इसी रजऊ को ईसुरी की साहित्यिक नायिका की मान्यता दी है। कुछ साहित्यकारों ने माधौपुर निवासी प्रताप की पत्नी रज्जो को ईसुरी की नायिका प्रतिपादित किया है।
एक मत है कि जब ईसुरी पं. चतुर्भुज किलेदार की कामदारी के सिलसिले में बगौरा आकर रहने लगे थे। एक दिन फाग गाने जब वे माधौपुर गए तो वहाँ पर अकस्मात उनकी भेंट एक नवविवाहिता सुन्दरी से हो गई, जिसका पति छतरपुर में रहकर पढ़ाई कर रहा था और वह बाला अपनी सासु मां के साथ माधौपुर में रह रही थी।
लोगों का मत है कि यह रज्जो धौर्रा के मुसाहिब ठाकुर जगत सिंह की बेटी रज्जू ही थी, जिसका विवाह माधौपुर के प्रताप से हो गया था। किन्तु इसके कोई ठोस प्रमाण नहीं मिल सके, मात्र उड़ती हुई सी बातें ही हैं, जिन पर इस कथन की पुष्टि नहीं की जा सकती है।
ईसुरी रजऊ को सम्बोधित कर फागें कहते थे और उनकी मण्डली ढोलक, नगड़िया, झांझ, मंजीरा के साथ इन फागों को गाया करती थी। एक रात बड़ी विचित्र घटना घटी। ईसुरी की मण्डली फागें गा रही थी। श्रोताओं की भीड़ एकत्र थी। उस भीड़ को चीरती हुई एक बुढ़िया ईसुरी को गालियाँ बकती हुई आगे बढ़ी चली आ रही थी। वह अपने आपको असंयमित करती हुई चिल्ला रही थी –
‘ओ नास के मिटे फगवारे (ईसुरी)! लुच्चा, छिनट्टा, तेरी नास हो जाय, महामाई उठा लै जाय, तोखां अगली होरी न आबै।’ कहती हुई मंच पर चढ़ गई और ईसुरी का कुर्ता पकड़कर गला दबाने को उद्वत हुई। ‘अरे-अरे काकी…!’ ईसुरी ने उन्हें सम्भालने की कोशिश की, किन्तु वह बुढ़िया गालियाँ देती हुई ईसुरी के गालों पर तड़ातड़ चांटे जड़ने लगी।
लोग बीच-बचाव करने दौड़ पडे़ और पूछने लगे कारण। बुढ़िया आग बबूला होती हुई बोली –‘ठठरी के बंधे! हमारी बहू की जिन्दगानी बरबाद करने के लिए तुम जौ फगनौटा गा रए हो, का मिल जै हैं तुम्हें। तुमाई जीभ पै लूघरा धरें, तुमारी नास हो जाय, बर गए हरो तुमें शरम नईं आय।’
उपस्थित भीड़ स्तब्ध थी। किसी में साहस नहीं था कि कुछ हस्तक्षेप कर सके। धीरे पण्डा ने स्थिति को सम्भालने की कोशिश की, किन्तु काकी ने उन्हें भी चार-चबौदी सुना डाली। पिरभू नगडिया वाले ने काकी के हाथ जोडे़ और पाँवों में गिरकर क्षमा माँगते हुए बोला- ‘मोरी अच्छी काकी छिमा कर दो।’
बुढ़िया तो एक सांस में हजार गाली देती हुई हंगामा मचाने लगी। फगवारे अपना सामान समेटने लगे और श्रोता अपने-अपने घर को बढ़ चले। इस बुढ़िया की पुत्रवधू का नाम रज्जो था, जिसकी उम्र बीस वर्ष की थी और उसका पति छतरपुर में पढ़ाई करने के लिए गया था। रज्जो अत्यधिक सुन्दर थी।
चढ़ती जवानी, हँसता-मुस्कराता चेहरा बड़ा सुहावना लगता था। एक दिन ईसुरी कहीं जा रहे थे । रास्ते में पनिहारी कुआँ था। गली में पानी व कीचड़ था। न जाने कैसा उक्टा लगा और ईसुरी बुरी तरह से लड़खड़ाकर गिर पडे़। उसी समय रज्जो पानी भरने के लिए निकली हुई थी। ईसुरी को गिरा देख उसे हँसी आ गई, किन्तु उसने स्वयं को सम्भाला और कराहते हुए ईसुरी को उठाने दौड़ पड़ी।
ईसुरी को चबूतरे पर बैठाकर अपने घर को दौड़ी और जल्दी से कांसे के बेला में हल्दी पीसकर ले आई और ईसुरी के घुटने में पोतने लगी। ईसुरी उसके भोले चेहरे की सुन्दरता को देखते रह गए। वे लगी चोट भूलकर रज्जो को एकटक देखते रह गए। वे रज्जो को देखकर मुस्करा पडे़। रज्जो ने उन्हें मुस्कराते देखा तो उसके होश जागे और वह अपने घड़े उठाकर पानी लेने चल दी। ईसुरी उसकी ओर देखते रह गए।
सुन्दर मुखड़ा गालों पर गड्ढे पड़ते हुए काले घुँघराले बाल, जिन्हें तरीके से सम्भाल कर पटियाँ पारीं गईं थीं। मांग में सिंदूर भरा हुआ, कजरारी काली बड़ी-बड़ी आँखेँ, जिनमें बड़े सलीके से क़ाज़ल आंजा हुआ था। कलाइयों में सुर्ख लाल चूड़ियाँ जेवर सी दिखतीं। माथे पर सुन्दर लाल बिन्दी लगी हुई। नुकीली गोरी ठोड़ी पर गुदने का बूंदा रज्जो साक्षात् सुन्दरता की प्रतिमूर्ति नज़र आ रही थी।
मुस्कराता चेहरा, मजबूत बाँहें, पुष्ट और मांसल जांघें , पाँवों में पैजना जिनमें बजने वाले कंकड़ डले हुए थे। आल में पके रंग की धोती और हरे रंग की अंगिया पहने रज्जो उड़ती और हंसती हुई चली गई। ईसुरी जितने घायल गिरने से नहीं हुए थे, उतने रज्जो की हेरन-हंसन और इठलाती निगन से जैसे हो गये।
इस मत के मानने वालों के अनुसार ईसुरी रज्जो के दीवाने हो गए और उसकी एक झलक पाने के लिए लालायित रहने लगे। रज्जो अनजान थी और ईसुरी उससे मिलन की तड़पन में। जब वह कुआँ पर पानी भरने या कूडा-करकट घूरे में फेकने के लिए आती, तब ईसुरी उसकी एक झलक पाने को बाट जोहते रहते। इस मत की पुष्टि निम्न फाग से होती है –
भर लओ कितनी बेरा पानी, रजऊ न आज दिखानी।
कै हम बैठे पीठ करें ते, कै बिरियां नहिं जानी ।
कै हम गए ते बाग बगीचा, कै वे कढ़ी चिमानी।
ईसुर मन तक गए कुआं लो, लए लवन की खानी।
लोगों की ऐसी मान्यता है कि प्रताप की इसी रज्जो को ईसुरी ने रजऊ का नाम दे रखा था और वे उसी को सम्बोधित कर फागें लिखते थे। ईसुरी शादीशुदा थे। उनकी पत्नी राजाबेटी उनके साथ रहती थीं, किन्तु कभी-कभी वे अपने मायके भी चली जाया करती थीं। उनकी बेटियों के जन्म संस्कार लगभग सभी सींगौन में उनके पितृग्रह में हुए थे। अतः ईसुरी को अकेलापन यदाकदा मिल जाता था, जिसमें वे रजऊ का ध्यान कर लिया करते थे और उसे पाने-निहारने के लिए गलियों में घूमते-फिरते थे।
ईसुरी की मण्डली में एक साथी थे- प्रेमानन्द सूरे, जो अंधे थे, किन्तु जन्मांध नहीं। ईसुरी उनकी कुटिया में रजऊ की एक झलक पाने के लिए घंटों बैठे रहते थे। प्रेमानन्द सूरे के सम्बंध में जो उल्लेख मिलता है, वह चौंका देने वाला है। वह देशी फौज में सिपाही था। धुबेला महल में एक किसान की लड़की को कुछ लोग उठाकर ले आए।
प्रेमानन्द को जैसे ही जानकारी मिली, उसने कार्य पर उपस्थित रहते हुए भी विरोध किया। उसने किसानों से मिलकर उन्हें धुबेला महल को घेरने के लिए उकसाया। प्रेमानन्द का सुझाव काम कर गया । किसानों ने महल को घेर लिया। रियासत का मालिक घबरा गया। उसने किसानों से सुलह कर ली और वादा किया कि उठाई गई लड़की को वह विधि-विधान से पत्नी बनायेगा।
किसानों ने शर्त रखी की इस लड़की से जो पुत्र होगा, वह धुबेला रियासत का अगला वारिस एवं धुबेला महल का मालिक होगा। शासक ने यह शर्त भी मंजूर कर ली । किसानों का उस साल का लगान माफ कर दिया गया। किसान खुश हो गये। उस लड़की का महल में मंगल मुहूर्त अनुसार विवाह किया गया।
प्रेमानन्द सिपाही को रियासत की ओर से इनाम की घोषणा की गई, क्योंकि उसी ने किसानों के वर्चस्व की पहल की थी। इनाम के घात से धुबेला के महल के तैखाने में प्रेमानन्द को ले जाया गया और सांकलों से बांधकर आँखों में आग के दहकाए गए सूजे उतार दिए गए।
प्रेमानन्द के जीवन में अंधेरा छा गया। वह प्रेमानन्द माधौपुर में एक कुटिया में रह रहा था। वह फाग मण्डली में झींका बजाता था। ईसुरी उसी की कुटिया में बैठकर रज्जो को आते-जाते हुए देखा करते थे, निहारा करते थे। इस बात के मानने वालों का कहना है कि जब प्रताप की रज्जो पानी भरने या किसी अन्य काम से घर से निकलकर गलियों में आती थी, तो ईसुरी उसे सम्बोधित कर फाग कहा करते थे –
चलतीं कर खाले खौं मुइयां, रजऊ बसै लरकइयां।
हेरत जात उंगरियन में हो, तकती हो परछइयां।
लचकें तीन परें करिहा में, फरके डेरी बइयां।
हँसतन मुख से झरें फूल से, जे बागन में नइयां।
धन्न भाग वे संइयां ईसुर, जिनकी आंय मुनइयां।
बेचारी रज्जो शरमा कर सह जाती और अपने घर जाकर चुपचाप रह जाती। उसकी उदासी देख सास उससे उदासी का कारण पूछती, किन्तु वह कुछ न कहती। वह समझती थी कि यदि उसने शिकायत की तो अम्मा जाकर ईसुरी को चार बुरी-भली सुनायेंगी और हल्ला मच जायेगा गाँव भर में। किन्तु ईसुरी तो उसके दीवाने थे ही, जैसे ही वह फिर गलियों में आती दिखी तो उन्होंने फिर फाग कही-
घूंघट काए खोलती नइयां, दिखनौसू है मुइयां।
गोरे बदन गुलाबी नैना, बंग एकऊ नइयां।
चूमन गलुअन मन ललचावे, झपट उठालें कइयां।
ईसुर जिनकी आय दुलैया, बड़े भाग वे सईयां।
ईसुरी का रज्जो के प्रति इतना आकर्षित होना, उसके लिए तड़पना उसकी एक झलक पाने के लिए प्रेमानन्द सूरे की कोठरी में राह पर नज़र गड़ाए बैठे रहना, तात्कालिक परिस्थितियों और ईसुरी के वैवाहिक जीवन को देखते हुए गले से नहीं उतरता है। एक प्रसंग में तो इसी मत के मानने वालों ने स्वयं अपनी ही बात का खण्डन स्वयं ही कर दिया। उन्होंने स्वयं उल्लेखित किया है।
एक बार ईसुरी प्रेमानंद की कोठरी से निकले और रज्जो के घर की ओर चल दिए। उनके पाँव खुद-ब-खुद गली का मोड़ आते ही रुक गए। वे असमंजस की हालत में खड़े थे। उन्हें इस हालत में खड़े देख पिरभू बोला- ‘महराज भौजी के घर तरफ जाते-जाते अब लौट काए रए हो?’ ईसुरी ने जो उत्त्तर दिया, वह इस मत वालों के मुँह पर करारा थप्पड़ है-
‘पर स्त्री से मिलना व्यभिचार है, जब तक कि उससे माँ-बहन का नाता न हो। रज्जो से हमारा ऐसा कोई सम्बन्ध नहीं है।’
फिर सच्चाई क्या है? ये रजऊ कौन है? इस पहेली का उत्तर दे पाना आसान काम नहीं है। खास तौर से उन परिस्थितियों में जब एक ही नाम की दो नायिकाएँ, दो अलग-अलग गाँवों की हों। धौर्रा के ठाकुर जगत सिंह की बेटी रज्जो जिसके झूठे आरोप से बदनामी और शारीरिक प्रताड़ना का दंश झेलना पड़ा और दूसरी माधौपुर निवासी प्रताप की पत्नी जिसकी सास ने फागें सुनकर बखेड़ा खड़ा कर दिया था।
प्रताप भी पढ़ा-लिखा नवयुवक था। अगर ईसुरी उसकी पत्नी के लिए इतनी अश्लील फागें कहते थे तो क्या उसका खून नहीं खौलता? और वह भी फौज में नौकरी करता था। फिर प्रश्न उठता है कि क्या धौर्रा के माफीदार ठाकुर जगत सिंह की पुत्री रज्जो ही माधौपुर के प्रताप की पत्नी रज्जो है? क्या धौर्रा वाली रज्जो का विवाह माधौपुर के प्रताप से होकर वह माधौपुर आ गई थी?
यहाँ एक प्रश्न और उत्पन्न होता है कि ईसुरी बगौरा में बेगम की कामदारी करते थे और बगौरा में सपरिवार रहते थे तो माधौपुर की रज्जो की प्रतीक्षा में दिन रात लगे रहने वाली बात भी गले से नहीं उतरती है। ऐसे कोई भी प्रमाण नहीं मिले हैं।
बतौर शोधकर्ता डॉ मोहन तिवारी ‘आनंद’
मैंने धौर्रा, बगौरा, नगारा, लुगासी, महुआबाद ढिलापुर, सीगौन, मड़रका, मेंढ़की, धबार आदि ग्रामों का भ्रमण कर विषयांकित समस्या की वास्तविकता उकेरने के प्रयास किए, किन्तु किसी ने भी यह पुष्टि नहीं की कि धौर्रा की रज्जो और माधौपुर की रज्जो एक ही थीं, जिसके ईसुरी दीवाने हो गए थे।
एक बार तो स्वयं ईसुरी ने इसका खुलासा भी करने का प्रयास किया था जिसका उल्लेख करने के पूर्व बुन्देलखण्ड के रीति-रिवाजों का जिक्र करना जरूरी है। बुन्देलखण्ड में ठाकुरों (क्षत्रियों) को आम-बोलचाल में राजा और उनकी स्त्रियों या कुमारियों को रजऊ या रज्जू कहने का चलन है। भले ही वे राजा साहब कितने भी गरीब-कंगाल हों, दूसरों का हल हांक कर परिवार का पालन कर रहे हों, किन्तु उनकी पत्नियाँ उन्हें राजा नाम से ही सम्बोधित करती हैं। इसी तरह उनके पति उन्हें रज्जो, रजऊ या रज्जू कहेंगे।
बुन्देली राजपूताना घसियारी भी हो तो भी उसका पति अथवा प्रेमी उसे रज्जो, रजऊ या रज्जू ही कहेगा। किन्तु अपनी फागों की नायिका रजऊ के सम्बन्ध में जब उनसे ही लोगों ने पूछ लिया तो उन्होंने जो उत्तर दिया, उसी से इस समस्या का हल देखिये-
नईयां रजऊ काउ के घर में, विरथा कोउ भरमें।
सब में है और सब से न्यारी, सब ठौरन में मन में।
को कय अलख-खलक की बातें, लखी न जाय नजर में।
ईसुर गिरधर रयें राधे में, राधा रयें गिरधर में।
ईसुरी ने एक फाग में कहा है –
देखी रजऊ काउ ने नइयां, कौन वरन है मुइयां।
कां तो उनकी रहस-रहन है, कां दए जनम गुसइयां।
पैलउं भेंट हमईं सें ना भई,भरी कृपा हम पइयां।
ईसुर हमनें रजऊ की फागें,कर दई मुलकन मइयां।
इस कथन की पुष्टि एक फाग से और हो जाती है, जब वे अपनी पत्नी से कहते हैं-
मानस होने के नईं होने, रजऊ बोल लो नोंनें।
जियत-जियत लो सबके नाते,मरें घरी भर रौंने।
कितनी बेरां प्राण छोड़ दए,की के संगें कौने।
ईसुर हात लगे न हंड़िया,आवै सीत टटौनें।
यहाँ एक फाग का उल्लेख कर यह स्पष्ट करना है कि ईसुरी ने बुन्देलखण्ड में रजऊ शब्द अपनत्व और आदर का सूचक होने का प्रमाण माना है। एक समय वे एक गाँव से निकल रहे थे, शाम हो जाने के कारण रात्रि विश्राम करने की जरूरत पड़ी तो वे एक ठकुराइन के यहाँ गए और उनके घर के सामने लगे पेड़ के नीचे डेरा जमा कर एक फाग लिखकर ठकुराइन के पास भेजी। देखिए वह फाग –
नीके लागें दिव्य दुआरे, रानी रजऊ तुम्हारे।
आंगू कुआं बनी दालानें, देत पारुआ पारे।
साजे रूख देख के हमने, डेरा इतै उतारे।
ईसुर इतै अस्त भये सूरज, उतै पगन सौं हारे।
उपरोक्त फाग द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है कि ईसुरी की साहित्यिक नायिका न तो धौर्रा के ठाकुर जगतसिंह की बेटी रज्जो है और न माधौपुर के प्रताप की पत्नी रज्जो। कुछ लोगों ने इस समस्या की तह में टोह निकालने का उपक्रम किया और उन्होंने ईसुरी जी की अर्द्धांगिनी राजाबेटी को ही रजऊ कह डाला। किन्तु ईसुरी की उपरोक्त फाग से स्पष्ट है कि ईसुरी की साहित्यिक नायिका एक काल्पनिक पात्र है। वे अपनी कल्पना का नाम ‘रजऊ’ रखे थे और उसी की उपासना में लगे रहते थे।
शोध एवं आलेख-डॉ मोहन ‘आनंद’