बुन्देलखण्ड का यह एक कारूणिक कथानक है। इसमें बुंदेली संस्कृति का त्याग, तपस्या और बलिदान दिखाई देता है। इस प्रकार का उच्चादर्श अन्यत्र दुर्लभ है। Hardol ko Sako में देवर-भाभी का प्रेम, माता और पुत्र की भाँति पवित्र रूप में प्रदर्शित किया गया है। हरदौल अपनी आन-बान और मर्यादा की रक्षा के लिए हँसते-हँसते विष मिश्रित भोजन करके प्राण त्याग देते हैं।
बुन्देलखण्ड की लोक-गाथा दीवान हरदौल कौ साकौ
बुन्देलखण्ड की संस्कृति का जीता जागता उदाहरण कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह इतनी अधिक लोकप्रिय और प्रभावर्पूण गाथा है कि सुनते ही लोग रो पड़ते हैं। नारियाँ राजा जुझार सिंह को कोसने लगती हैं…!
जे भैया भैया खौं मारें, तिनपै गाज पर जइयो।
नजरिया के सामनें, तुम हरदम लाला रइयौ।
यह लोक गाथा आज भी बुन्देलखण्ड के लोगों को उत्तम चरित्र का पाठ पढ़ाती हैं। आज बुन्देलखण्ड में ही नहीं, बल्कि भारत के गाँव-गाँव में हरदौल के मंदिर और चबूतरे बने हुए हैं। यहाँ की जनता उनकी देवता की तरह पूजा करती है। वैसे लोकगाथा ऐतिहासिक ही है।
जुझार सिंह, हरदौल, पार्वती और हैदर खाँ आदि सभी ऐतिहासिक पात्र हैं। हरदौल का भांजी के प्रति अत्याधिक स्नेह रहा है। यह धारणा सत्य हो सकती है, किन्तु प्रेत के रूप में विवाह में सम्मिलित होने की घटना काल्पनिक ही है। प्रायः बुन्देलखण्ड में इस प्रकार की काल्पनिक घटनाएँ गढ़ने की प्रथा है, जिससे गाथा में रोचकता का समावेश हो जाता है।
जुझारसिंह और हरदौल वीरसिंह बुंदेला के पुत्र थे। वीरसिंह के तीन विवाह हुए थे। पहला विवाह श्याम सिंह धंधेरे की पुत्री अमृत कुँवरि के साथ हुआ था, जिनसे जुझार सिंह, पहाड़सिंह, नरसिंह, तुलसीदास, बेनीदास नाम के पाँच पुत्र उत्पन्न हुए थे।
दूसरा विवाह प्रभारसिंह की कन्या गुमान कुँवरि के साथ हुआ था, जिनके चार पुत्र और एक कन्या हुई, जिनमें हरदौल और कुंजावति का नाम प्रमुख था। वीरसिंह ने अपने पुत्रों को अलग-अलग जागीरें दे रखी थीं, जिनमें हरदौल को बड़ागाँव, भगवानदास को दतिया, चंद्रमान को जैतपुर और कोंच की जागीर दी गई थी।
वीरसिंह की मृत्यु के बाद ओरछा का राज्य जुझार सिंह को दे दिया गया और हरदौल को दीवान बना दिया गया। दीवान हरदौल प्रजाप्रिय होने के साथ ही धर्मपालक भी थे, जिसके कारण जुझारसिंह की रानी पार्वती उन्हें पुत्रवत् प्रेम करतीं थीं। लाला हरदौल रानी को माता के समान सम्मान देते थे। बुन्देलखण्ड में हरदौल के सम्बन्ध में एक जनश्रुति प्रचलित है, जिसका उल्लेख इतिहास में स्पष्ट नहीं है।
अधिकांश विद्वान हैदर खाँ तलवार बाज की घटना को विष देने का मूलाधार मानते हैं, जबकि इतिहास में हैदर खाँ की घटना का कोई उल्लेख नहीं है। हो सकता है कि देवर-भाभी के घनिष्ठ प्रेम को देखकर जुझार सिंह ने संदेह किया हो या कुछ इर्ष्यालू दुष्ट लोगों ने उल्टी-सीधी मिलाकर जुझारसिंह के कान भरे हों। कुछ भी हो किन्तु विष देने की घटना ऐतिहासिक है। ये सारी की सारी लोक प्रचलित गाथा काल्पनिक और असत्य नहीं हो सकती।
बुन्देलखण्ड में ‘हरदौल साके’ से संबंधित अनेक लोकगीत प्रचलित हैं, जिनमें बुन्देलखण्ड के लोगों की ज़बान पर यह गीत सर्वाधिक झंकृत होता रहता है। वे अकेली भाभी पार्वती के ही लाला नहीं थे, वे सारे बुन्देलखण्ड के ही लाला हैं।
नजरिया के सामनें,
तुम हरदम लाला रइयौ,
जैसी लाला की है प्रीत,
तैसी सब दुनिया की रीत,
तनकउ करी नईं अनरीत,
जैसी लाला नाय निभाई, एसई सदा निभइयौ।
नजरिया के सामनें तुम, हरदम लाला रइयौ।
न्योंतों करन खबासन आई,
दीनी लाला खौं दरसाई,
तुमरी रोवत है भौजाई,
काउ विधर्मी ने दयो सिखायों, चित्त में एक न दइयौ।
नजरिया के सामनें तुम, हरदम लाला रइयौ।
बहिनी नौंनी रच जिवनारी,
जी में साग परें अतकारी,
शक्कर घी गुर और खटारी,
जे मोये लाला प्रानन प्यारे, इनखौं विष जिन दइयौ।
नजरिया के सामनें तुम, हरदम लाला रइयौ।
छींकत भई है आय अबारी
कुसगुन भये भीतर सैं
भारी कैसें परसैं विष की थारी
भौंजी गिरी मोरछा खाकैं, प्यारे प्रान बचइयौ।
नजरिया के सामनें तुम, हरदम लाला रइयौ।
पति की आज्ञानुसार महारानी पार्वती विष मिश्रित भोजन तैयार कर लेती हैं, किन्तु थाली परसते समय मूर्छित हो जाती हैं। उनके समक्ष विषम परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है। अंत में थार परस ही देती हैं। विष मिश्रित भोजन करते ही उनके प्राण पखेरू उड़ जाते हैं। अपने भाई की मृत्यु का समाचार सुनकर उनकी बहिन कुंजावती सिर पटक-पटककर रोने लगती हैं…
कुंजा हाल सुनें-सुन सोई,
तुरतई मूँढ़ पटक कैं रोई,
आप न आय उतैं सैं कोई,
भइया विष कौ कोर न छिइयौ, जो भइया सैं कइयौ।
नजरिया के सामनें तुम, हरदम लाला रइयौ।
हरदौल की मृत्यु का समाचार पाते ही उनकी सारी सेना और उनके पालतू पशुओं ने एक ही साथ प्राण त्याग दिये..
फौज भीर सब संगै आनें,
लवा कबूतर तीतुर जानें,
सुवना नें तज दिये पिरानें,
अपुन चले अब तीन लोक खौं, खबर हमाई लइयौ।
नजरिया के सामनें तुम, हरदम लाला रइयौ।
अचानक हरदौल की भांजी के शुभ विवाह का अवसर आ जाता है। लाला हरदौल की ओर से दहेज के रूप में सामग्री भेजी जाने लगी। गाड़ियों में भर-भरकर सामान जाने लगा।
तुरतईं गाड़ी साठ मंगाई,
शक्कर घी गुर और खटाई,
संगै सब सामान भराई,
जीतन पैजें गाजैं पर गई, मरतन काज बनइयौ।
नजरिया के सामनें तुम, हरदम लाला रइयौ।
सामग्री के साथ लाला का आगमन हो गया। समाचार मिलते ही सारे नगर में खलबली मच गई। बहिन कुंजा, भैया से भेंट करने के लिए दौड़ पड़ी।
जब लाला की भई अबाई,
खलबल मची नगर में भाई,
बहिनी भेंट करन को आई,
खंभा फटो तेज के मारैं, नयन न भीर दिखइयौ।
नजरिया के सामनें तुम, हरदम लाला रइयौ।
लोक में ऐसी किंवदन्ती है कि हरदौल प्रेत के रूप में शादी में पधारे थे। लाला ने टीका किया था और पंगत में घी परोसने का काम किया था। कल्पना ही सही, किन्तु हरदौल का अपनी बहिन के प्रति बहुत लगाव था। गाथा को कोरी कल्पना नहीं कहा जा सकता?
टीका करन लगे हैं लाला,
दीनी कंठनि मोतिन माला,
सिर पै पगड़ी और दुशाला,
ऐसों दूला बिरजन बिरजो, पलक ओट जिन रइयौ।
नजरिया के सामनें तुम, हरदम लाला रइयौ।
बुन्देलखण्ड के प्राचीन और नवीन कवियों ने इस कारुणिक कथानक को काव्य स्वरूप प्रदान किया है। कविवर बोधा ने रानी पार्वती की दीन दशा का चित्रण करते हुए लिखा है…
ग्रीष्म सी तन में लसैं, असुवन में बरसात।
रानी मधु रितु के सरिस, पीरी परी दिखात।
ग्रीष्म सी बनीं सुनकैं पिय की, गई सूखि कैं पान की बीरी।
कान्त गई तन की कुम्हला, अति हो गई इंद्रनि की गति धीरी।
धीरज खोय गयो हिय सौं, गिरि भूमि परी अति हो गई सीरी।
देखति-देखति बोधा जुझार के, रानी बसंत सी हो गई पीरी।
रानी की दुविधार्पूण स्थिति को देखकर राजा जुझार सिंह ने रानी को ललकारते हुए कहा। भैयालाल व्यास के शब्दों में…
यदि साँचो धरम पतिव्रत है, तो तोय परीक्षा दैनें हैं।
हरदौल लला खौं बिष के भोजन, अपनें हाँतन दैनें हैं।
सुनकैं रानी हो गई सुन्न, झकझोर झमा सो आन लगो।
धरती घूमत सी दिखन लगी, नभ टूटत सों दरसान लगो।
कानन में जैसों सीसों पिघला कैं, भर दओ हो काहू नें।
हिरदे में उथल-पुथल मच गई, सारौं शरीर झुलसान लगो।
पिंजरा में जैसें बंद सुआ, बिन पंखन के घबरान लगो।
आँखन की पुतरी अधर टंगी, असुवन सें हो गई जोत मंद।
तालू सैं चिपकी जीभ और, ओंठन के तारे भये बंद।
सावन भादों सी लगी झरी, अँसुवन सें आँचर गीलो भओ।
कचनार कली सी रानी हरदी, जैसों रंग पीरौ हो गओ।
कुछ समय पश्चात् थोड़ा सा धैर्य बटोरकर रानी ने हाथ जोड़कर अपने पति से कहा…
हाय दई कैसी कहा, होनी होत दिखात।
कही भ्रात सों भ्रात नें, विष दैबे की बात।
धीरि-धरि बोली हू उठि पिय सों नवाय शीश।
जानकैं अजान बन, कुमति कमइयौ ना।
सुमति सुजान गुनवान हों बुंदेला वीर।
सूर-सूर्य वंश खौं कलंक लगइयौ ना।
बोधा कवि लाला हरदौल सों भ्रात।
ताहि विष दैबे की, कुटेक अजमइयौ ना।
चुगल चबाइन के परि कैं कुचक्र माहि।
चनन के धोकैं कउं मिर्चे चबइयौ ना।।
इसी भाव को अमर लोक गायक भगवती शरण ‘दास’ ने अपने एक लोकगीत में व्यक्त किया है…
निरदोषी हरदौल लाला खौं, बिष भोजन करवावत काय।
प्रीतम पाप कमाउत काय।
चुगल चबाइन की बातन में, जान बूझकैं आवत काय।
आज अपनेई हाँतन से अपनी, भुजा कटाउत काय।
पुत्र समान लला हैं मोरे, ताहि कलंक लगाउत काय।
शत्रु गर्व गारन कुलतारन, बिना मौत मरवाउत काय।
‘दास’ कहैं पतिव्रता धर्म खौं, जा किरया अजमाउत काय।
रानी दुविधा में पड़कर सोचने लगती हैं…!
पति की कही करों तो देवर, बिना मौत जाबैं मारौ।
जो पति की आज्ञा न पालों, धरम बिगर जाबैं सारौ।
इतै जाव तौ कुआं, उतै जाव पुखरी कौ दल-दल भारौ।
करों प्रभु अब निनवारौ।।
रानी के अंतिम निर्णय का वर्णनकरते हुए बुन्देलखण्ड के सुप्रसिद्ध कवि घनश्याम दास जी पांडेय लिखते हैं…
पति आज्ञा सिर पर धरी, पतिव्रता सी नार।
विषमय देवर के लिए, भोजन कर तैयार।
कूट-कूट कालकूट कंद औ कचैड़ियों में।
मालपुवा मोदक में माहुर मिलाया था।
सागों औ शक्कर में सान दिया शंखिया।
पूड़ी पय पापड़ों में पन्नगी पिलाया था।
‘विप्र’ घनश्याम बालूसाई में बच्छ नाग।
हलुबे में हरताल हल्दिया हिलाया था।
सेवों में सिंगिया अमृतियों में अही फेन।
गंगा जल के गढुबे में गरल गलाया था।
अंत में लोक कवि दास ने उनकी मृत्यु का वर्णन करते हुए लिखा है…
घर-घर में हो गओ शोर, लला हरदौल मरे विष खाकैं।
छायो शोर ओरछा भीतर,
मर गये सुनतन नौकर चाकर, मर गओ मैंतर जूठन खाकर,
मर गओ श्वान शिकारी संगै, रये सब रूदन मचा कैं।
मरे संग साथी बलवान,
तोता मैना तज दये प्रान, प्रजा लगी हिय में बिलखान,
गज घोड़ा मर गयों थान पै, गइयाँ मरी रंभा कैं।
भावज सिर धुन-धुर पछताबैं,
नरपति जुझार सिंह दुख पाबैं, बाहर आबैं भीतर जाबैं
अपनी करनी पै पछताबैं
जुगयानें सइयाँ दरवाजें, दई फिर चिता लगा कैं।
लाला चिता सेज पै सो गये,
जग में बीज सुजस के बो गये, मन कौ मैल भ्रात कौं धो गये,
‘दास’ कहें दई पंच नकरिया, उनके गुन-गन गाकैं।
घर-घर में हो गओ शोर, लला हरदौल मरे विष खाकैं।
हरदौल बुन्देलखण्ड की एक अमरगाथा है। वैवाहिक अवसरों पर हरदौल के गीतों का सर्वाधिक गायन किया जाता है।
डारे पार पै डेरा, दिमान बाबा बड़े अलबेला।
दरस खौं भरों है मेला।
पान बताशा के भोग लगाए,
डार गरे में सेला।
दिमान बाबा बड़े अलबेला।
सबकी विपत में हैं रखवारे,
करबें नईं तनकउ झेला।
दरस खौं मेलों है मेला।
लाला हरदौल बुंदेली मर्यादा और आन-बान की जीती जागती प्रतिमा थे। उनका त्याग और बलिदान अनुकरणीय है।
संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)