स्कंदगुप्त की मृत्यु के बाद हुणों का राजा तोरमाण एरन आ गया। उस समय एरन प्राँत स्कंदगुप्त के भाई-बंधुओं के हाथ में बुधगुप्त नाम के राजा के अधीन था। विस्तृत बुंदेलखंड मे Gupta Aur Hoon Samrajya फैला हुआ था सुरश्मिचंद्र नामक मांडलिक यमुना और नर्मदा के बीच के प्रांत का शासन करता था। सारा बुंदेलखंड इसी मांडलिक सुरश्मिचंद्र के अधीन था।
बुन्देलखण्ड मे गुप्त और हूण साम्राज्य
मगध देश में बड़े राजघरानों के खत्म हो जाने पर छोटे छोटे वैभवहीन राजा रह गए थे। इनमे से एक का विवाह नेपाल के लिच्छवि राजघराने में हो गया। इस राजा का नाम चंद्रगुप्त था। चंद्रगुप्त के पिता का नाम घटोत्कच था। परंतु गुप्त राजवंश का वैभव इसी समय से ही बढ़ने लगा। लिच्छवि राजवंश से संबंध होने से चंद्रगुप्त को बहुत सहायता मिली । चंद्रगुप्त ने महा- राजाधिराज का पद धारण किया और विक्रम संवत् 378 में गुप्त नामक संवत्सर का प्रचार किया।
चंद्रगुप्त का पुत्र समुद्रगुप्त अपने वंश का सबसे प्रतापी राजा हुआ । उसने चंद्रगुप्त मौर्य की तरह अपने राज्य की सीमा तिलंगाने तक फैलाने का काम किया और अनेक राजाओं को परास्त किया। उसने पद्मावती के राजा गणपति नाग को अपने अधिकार मे करके अपना मांडलिक बना लिया । इस समय पद्मावती से नाग राजाओं का राज्य था। वे सभी समुद्रगुप्त के अधिकार मे आ गए।
मालवा को भी समुद्रगुप्त ने अपने अधिकार में कर लिया था। इस समय मालवा में कोई खास राजा राज्य नहीं करता था । वरन् वहाँ पर फिर से गणतंत्र राज्य स्थापित हो गया था। झांसी और ग्वालियर फे बीच आभीर लोग रहते थे। इन्हें भी समुद्रगुप्त ने अपने अधिकार में कर लिया था । इस भाग को अहीरवाड़ा कहते हैं।
बघेलखंड के समीप कैमूर पर्वत के पास रहने वाले मुरुंड लोगों को समुद्रगुप्त ने अपने राज्य मे शामिल कर खड़परिखा जाति भी अपने अधीन कर ली थी। यह जाति दमोह जिले में रहती थी । समुद्रगुप्त के शिलालेख में ऐरीकेना प्रदेश का भी नाम है। यह सागर जिले का एरन ग्राम है। यहाँ के राजा से भी समुद्रगुप्त से युद्ध हुआ था और विजयश्री समुद्रगुप्त का ही मिली थी।
समुद्रगुप्त के मरने पर चंद्रगुप्त (द्वितीय) विक्रम सं० 431 मे गद्दी पर बैठा। इसने भी अपने राज्य की सीमा चारों ओर बढ़ाई। ‘चंद्रगुप्त के शिलालेख भिलसा के निकट उदयगिरि में मिले हैं। इलाहाबाद (प्रयाग) के पास गढ़वा और साँची में भी इस राजा के लेख मिले हैं। इससे जान पड़ता है कि सारा बुंदेलखंड इसी राज्य में था। जब समुद्रगुप्त दिग्विजय के लिए निकला तो वह सागर जिले से होता हुआ दक्षिण को गया था।
सागर जिला उसे बहुत ही प्रिय लगा , क्योंकि उसने बीना नदी के किनारे एरन में स्वभोग नगर बनाया था। हटा तहसील के सकार ग्राम में 24 सोने के सिक्के मिले थे । इन सिक्कों पर गुप्ततंशीय राजाओं के नाम अंकित हैं। 8 मुहरों पर महाराज समुद्रगु्त का नाम, 15 पर महा- राजाधिराज चंद्रगुप्त का नाम और एक पर स्कंदगुप्त का नाम खुदा है ।
चंद्रगुप्त के मरने पर कुमारगुप्त राजा हुआ। कुंमारगुप्त के शिलालेख कई स्थानों पर मिले हैं। दो गढ़वा नामक स्थान में, एक विलसद मे, एक मानकुँअर में, एक मथुरा में और एक मंडसर मालवा के पश्चिम भाग मे है। इससे कुमारगुप्त के राज्य का विस्तार जाना जाता है।
गढ़वा का शिलालेख 474 विक्रम-संवत् का है। कुमारगुप्त के पश्चात् स्कंदगुप्त राजा हुआ। स्क॑दगुप्त के शिलालेख भी कई स्थानों में पाए गए हैं। स्कंदगुप्त का राज्य भी उतना ही फैला था जितना कि समुद्रगुप्त का था और बुंदेलखंड अवश्य ही उसके राज्य के अंतर्गत था।
स्कंदगुप्त के शिलालेखें में हूण लोगों का नाम आया है और एक लेख मे लिखा है कि स्कंदगुप्त ने हुण लोगों को हराया। परंतु स्कंदगुप्त के पश्चात गुप्तवंश का पतन आरंभ हो गया। स्कंदगुप्त के पश्चात् उसके भाई पुरूगुप्त फिर उसके लड़के नरसिंहगुप्त और फिर उसके लड़के कुमार गुप्त दूसरे ने राज्य किया । इसके पश्चात् जान पड़ता है कि यह वंश समाप्त हो गया |
हुणों के आक्रमण स्कंदगुप्त के समय से ही आरंभ हो गए थे । स्कंदगुप्त ने हूणों के आगे बढने से रोकने का प्रयत्न किया था परंतु इसके बावज़ूद हुण लोग भारत में घुस आए। स्कंदगुप्त की मृत्यु के बाद हुणों का राजा तोरमाण एरन से आ गया। उस समय एरन प्राँत स्कंदगुप्त के भाई-बंदों के हाथ में बुधगुप्त नाम के राजा के अधीन था। परंतु बुधगुप्त स्वयं राज- काज नही देखता था और उसकी ओर से सुरश्मिचंद्र नामक मांडलिक यमुना और नर्मदा के बीच के प्रांत का शासन करता था।
सारा बुंदेलखंड इसी मांडलिक सुरश्मिचंद्र के अधीन था। सुरश्मिचंद्र की ओर से एरन का राज्य चलाने के लिये मैत्रायणीय शाखा के ब्राह्मण मातृविष्णु और धान्यविष्णु नियुक्त थे। इन्हीं के समय में तोरमाण ने विक्रम संवत् 542 मे अपना आधिपत्य बुंदेलखंड पर जमाया। एरन के वराह के बक्षस्थल में इसका उल्लेख अभी तक विद्यमान है, परंतु जान पड़ता है कि हूणों का राज्य स्थायी रूप से इस ओर नहीं जमा ।
एरन में एक बड़ा स्तंभ है जो लगभग 38 फूट ऊंचा है और जिस पर 54 फुट ऊँची दो मूर्तियाँ बनी हैं। इस स्तंभ पर एक लेख भी है। इस लेख में पहले गरुड़वाहनवाले तथा समुद्र में रहने वाले विष्णु की वंदना है। फिर यह लिखा है कि यह लेख बुधगुप्त के राज्य काल में मैत्नायणीय शाखा वाले ब्राम्हण मातृविष्णु और धान्यविष्णु ने अपने माता-पिता के सुख के लिये लिखवाया। इसी स्तंभ के निकट वाराह अवतार का मंदिर है। इसमें वाराह अवतार की एक विशाल मूर्ति है।
यह मूर्ति मातृविष्णु के छोटे भाई धान्यविष्णु की बनवाई हुई है। वाराह के वक्षस्थल पर भी एक लेख है। इस लेख में पहले वाराह भगवान् की स्तुति है। फिर उसमें लिखा है कि यह मंदिर तोरामण के राज्य के पहले बष में मैत्नायणीय शाखावाले ब्राम्हण धान्यविष्णु ने बनवाया। इन दो महत्त्वपूर्ण वस्तुओं के सिवाय यहाँ और भी कई दर्शनीय मंदिर और मूर्तियां हैं। मातृविष्णु के स्त॑भ में गुप्त संवत भी दिया हुआ है। उसी से यह जाना जाता है कि एरन के वाराह मंदिर का समय वि० स० ५४२ था।
इस समय तेरमाण ने अपना आधिपत्य बुंदेलखंड पर कर लिया था। स्तंभ से ज्ञात होता है कि मातृविष्णु गुप्त लोगों के अधीन था। परंतु उसका भाई धान्यविष्णु तोरमाण हूण का आधिपत्य स्वीकार करके उसके अधीन हो गया था। इन हूणों से गुप्तवंशीय राजाओं का भी इसी एरन में युद्ध हुआ था। यह बात एरन के सती के चौरे से ज्ञात होती है! इस चौरे पर लिखा है कि भानुगुप्त के साथ सरभ राजा का दामाद गोपराज आया था। वह यहाँ मारा गया और उसकी पत्नी ( सरभ राजा की कन्या ) सती हो गई थी।
हूण राजाओं में केवल दो राजाओं के नाम मिले हैं। पहले तोरमाण और दूसरा नाम मिहिरकुल का है। यह नाम मंडसर और ग्वालियर के शिलालेखो में मिला है। ग्वालियर के शिलालेखो मे मिहिरकुल के राज-काज का संवत् दिया है, पर मंडसर का लेख वि० सं०589 का है।
इस लेख से यह ज्ञात होता है कि इसे यशोधर्मन ने हराया था। यह भी मालूम होता है कि यशोधर्मन के पिता विष्णुअधर्मन ने अपना राज्य स्थापित कर महाराजाधिराज की पदवी धारण की थी । इससे जान पड़ता है कि हूणों का राज्य ४० वर्ष से झधिक नहीं रह सका।
इसी बीच मे यशोधर्मन ने इसे नष्ठ कर दिया। यशोधर्मन की राजधानी मंडसर में थी और वह सारे उत्तर का शासक था। उसने मगध के राजा से भी मैत्री कर ली थी। इतिहासकार कहते हैं कि इसका राज्य हिमालय से लेकर दक्षिण में द्रावनकोर तक फैल गया था। इससे यह प्रतीत होता है कि इसका राज्य बुन्देलखंड में अवश्य ही रहा होगा।
खेह (उचेहरा के पास) में परिब्राजक महाराज हस्तिन और उसके पुत्र शंखशोभा के कई ताम्रपत्र मिले हैं। इनमे गुप्तसंवत् और वार्हस्पृत वर्ष अलग अलग दिए हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि परिब्राजक महाराज दस्तिन भी गुप्तों के मांडलिक राजा थे ।
भभूरा ग्राम में एक यष्टि ( यज्ञस्तंभ ) मिला है। उसमें परिब्राजक महाराज हस्तिन के पुत्र शंखशोभा और राजा सर्वनाथ के नाम आए हैं। परिब्राजक महाराज तो खोह के राजा थे और सर्वनाथ कारीतलाई में राज्य करते थे। ये दोनों समकालीन हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि कारीतलाई का राजा भी गुप्तों का मांडलिक राजा था।
दमोह जिले के वटियागढ़ ग्राम मे गुलाम नसीरुद्दीन महमूद के समय का एक शिलालेख वि० सं० 1385 का मिला है। इसे चेदि देश के सूबेदार जालाल खोजा ने लिखवाया था। यह सूबेदार खड़परिका नामक जाति का सूबेदार भी था। इस जाति का उल्लेख हर्षणा कवि-रचित समुद्रगुप्त के इलाहाबाद वाले शिलालेख मे है। इस जाति ने समुद्रगुप्त से युद्ध किया था।
यदि संबत् 1385 वाली खड़परिका जाति ही समुद्रगुप्त के शिलालेख की खड़्परिका है ते ऐसा कहना अनुचित न होगा कि यह भी बुंदेलखंड के दक्षिणी भाग ( जंगल ) मे रहने वाली एक प्रभावशालिनी स्वतंत्र जाति थी। इसी से यह अनेक राजकीय उलट-फेर होने पर भी लभग 900 वर्षों तक अपना अस्तित्व बनाए रही | शिलालेखो में विक्रम संवत् 1385 लिखा है इससे यह लेख गुलामवंश के बदले तुगलक वंश का हो सकता है, क्योंकि गयासुद्दीन तुगलक के लड़के मुहम्मद दूसरे का राज्य काल इसी संवत् के आस-पास रहा है।
इस समय मे शिल्पविद्या की बहुत उन्नति हुईं। इस समय के बने मंदिर, स्तंभ और मूर्तियं शिल्पोन्नति की साक्षी हैं। जाति-भेद इस समय बढ़ गया था। इसके पहले जितनी स्वतंत्रता जातीय विषयों में थी उतनी अब नही रही थी। इस समय जातियों की संख्या भी बहुत बढ़ गई थी। भिन्न भिन्न जातियों के मेल से कई जातियाँ बन गई थीं और कई जातियाँ व्यवसाय के अनुसार भी बन चुकी थीं। इससे इनके संयम भी दृढ़ दो गए थे।
राजा अपनी सेना के जोर से चाहे जो कुछ कर सकते थे। इसी कारण कई उदाहरण ऐसे मिलते हैं जहाँ बलशाली मंत्रियों ने राज्य अपने अधिकार में कर अपनी इच्छानुसार नीति में फेर-बदल कर दिए। इन राजाओं की ओर से प्रांतों के जो शासक होते थे उनको बड़े बड़े अधिकार रहते थे। यमुना से नर्मदा तक के मध्य- प्रांत के शासक सुरश्मिचंद्र और एरन के शासक मातृविष्णु के उदाहरण सामने हैं।
‘संभवतः इसी वंश में जुझौति देश का ब्राम्हण राजा भी पैदा हुआ हो । ये राजकर्मचारी केंद्रस्थ शासकों के कमजोर होते ही स्वयं स्वतंत्र हो जाते थे। ग्राम-संस्थाएँ प्राचीन प्रथा के अनुसार ही अपने मुखिया के अधिकार में थीं और न्यायालय भी उसी प्रकार रहे होंगे जैसे कि मौर्य काल में थे।
संदर्भ-आधार
बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास – गोरेलाल तिवारी