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ग्राम्य गरिमा- जागन लागीं हैं गाँव की गोरीं दुलैयां औ भागन लागी तरइंयाँ

ग्राम्य गरिमा

जागन लागीं हैं गाँव की गोरीं दुलैयां औ भागन लागी तरइंयाँ।
बोलन लागे हैं लाल शिखा के औ खोलन चोंच कों लागी चिरइयाँ।

आयो उजास अकाश पै थान पै देखो रँभान लगीं सगीं गइयाँ।
जैसहि आये दिनेश तौ गाँव के पेड़न की परीं पीरीं डरइयाँ।

आकाश में तारे डूबने लगे (प्रातःकाल की बेला का आगमन) और गाँव की सुन्दर नव वधुएँ जागकर उठने लगीं। मुर्गा बोलने लगा और चिड़िया मुँह खोलने लगीं। आकाश में प्रकाश दिखने लगा और थान (बंधने के स्थान) से गायें लगने के लिये रंभाने (चिल्लाने) लगीं। सूर्य भगवान का जैसे ही आकाश में आगमन हुआ गाँव के पेड़ों की डालों पर पीले रंग की आभा दिखाई देने लगीं।

कौनउँ गेह में बैलन के गले में घनी घंटियाँ बोलती हैं।
कौनउँ गेह में चार बजे चकियाँ अपने मुख खोलती हैं।

दोहनी के समै दूध के पात्र में दूध की धाराएं बोलती हैं।
और कहूँ कहूँ मंजु मथानी मठा मथिवे कों कलोलती हैं।

किसी घर में बैलों के गले बंधी हुई घंटियों की ध्वनि सुनाई देती है और किसी घर में प्रातः चार बजे से आटा-चक्की चलने लगतीं हैं। गायों-भैसों का दूध निकालने का समय होने पर दूध के पात्र में धार के गिरने से होने वाली मधुर ध्वनि सुनाई देती है और कहीं कहीं पर (कुछ घरों में) दही बिलोकर मट्ठा (छाछ) बनाने की क्रिया में पात्र के भीतर चलती मथानी से कल्लोने की मनोहर ध्वनि सुनाई देती है।

ढीलन ढोर किशोर चले कोउ सार उसार कौ फेंकत कूरा।
कोउ जयराम प्रणाम् करै अरु देखो बटोरत पुण्य कौ पूरा।

गइयन कों कोउ जात चरावन, शीष पै पाग कलाई में चूरा।
और बृज की रज सी मुख पै, यह धेनु के पाँव की पावन धूरा।

किशोर अवस्था के बालक जानवरों को छोड़ने के लिये चल दिये, कोई पशुशाला की सफाई करके कूड़ा-कचड़ा बाहर फेंकते हैं। कुछ लोग मंदिर जाकर भगवान को प्रणाम करते हुए पुण्य लाभ ले रहे हैं। कुछ लोग सिर पर पगड़ी और हाथ कलाई में सुन्दर कड़े (हाथ के आभूषण) पहिन कर गायों चराने के चल देते हैं और बृज-राज के समान पावन बुन्देलखण्ड की पावन धूल जो गायों के चरणों को छूकर निकल रही है वह इन गाय चराने वालों के मुख पर लग रही है।

छोटी सी है बखरी बखरी कों भरोसो है बख्खर के बल कौ।
हल कौ रहै साथ तौ भार विशाल किसान कों लागत है हलकौ।

कल कौ रखवारौ है रामधनी इतै कौनउँ काम नहीं छल कौ।
इनकों है सहारौ धरा कौ, समीर कौ, साँई कौ जाह्नवी के जल कौ।।

गाँव का एक छोटा सा परिवार है। उस परिवार के लोगों को अपने बख्खर की शक्ति से ही आशा बंधी है। यदि हल (भूमि जोतने का एक प्रसिद्ध उपकरण) का साथ ठीक से रहे तो किसान को जीवन का भार भी बहुत कम लगने लगता है। भविष्य की रक्षा के लिये ईश्वर साथ में है, ये लोग निश्छल मन के हैं और इनकी ईश्वर में पूरी आस्था है। इनका आश्रय यह धरती, यह हवा, गंगा जी का जल और परमात्मा है।

बोझ कों बाँधि धर्यो सिर पै, अरु काँख में दाबि चली चट छौनों।
छैल सों कै गई आतुर आवे की, नैंन सों मारि गई कछु टोनों।

चाल चलै कछु बोझ हलै चमकै हँसिया दुति देवै सलोनों।
मानहुँ बद्दल के दल बीच सों झाँकत दोज मयंक कौ कोंनों।

गाँव की गोरी ने गट्ठा बाँधकर वह बोझ (वजन) सिर पर रख लिया फिर तुरंत ही बगल में हाथ से अपने बच्चे को ले लिया। अपने प्रियतम से शीघ्र आने के लिए कहते हुए नयनों की बांकी दृष्टि से कुछ जादू सा कर दिया। उसके चलने पर सिर का भार हिलता है और उसमें लगा हुआ हंसिया सुन्दर दीप्ति दे देता है। घूँघट के बीच से दिखता उसका सुन्दर माथा ऐसा लगता है मानो बादलों के बीच से द्वितीया का चन्द्रमा झांक रहा हो।

थान पै डारि कें चारौ सुजान औ जानि कें साँझ सो आई घरै।
दीप उजारत डारि सनेह सनेह सों गेह में दीप्ति भरै।

दीपक एक प्रजारि प्रमोद पगी तुलसी घरूआ पै धरै।
अंचल ले कर सम्पुट में पिय के हित हेतु प्रणाम करै।

ग्रामीण सुन्दरी जानवरों को चारा डालकर एवं सायंकाल का समय देखकर वह तुरंत घर आ गई। तेल डालकर उसने दीपक जलाया और घर के भीतर प्रेम से उजेला कर दिया। एक दीपक जलाकर आनंद और श्रद्धा के साथ तुलसी जी के सामने रखती है और फिर अपनी साड़ी के आंचल को हाथ में मोड़कर अपने प्रियतम के हित के लिये तुलसी जी को प्रणाम किया।

खेत सों आयो किसान सो शान सें सान कें सद्य बना दइ सानी।
बैलन के हित पानी धर्यो पुनि आयो इतै जितै बैठी सयानी।

ज्यों पदचाप सुनी प्रिय की त्यों मयंकमुखी मुरि कैं मुस्क्यानी।
ब्यारी की त्यारी करी तबही अखियाँ जब भूखीं भुखानीं दिखानीं।

किसान अपने खेत से गर्व के साथ लौटा और तुरन्त ही उसने अच्छे से मिलाकर सानी (जानवर का भोजन) बना दी। उसके बाद अपने बैलों के लिये पानी रख दिया फिर उस तरफ आया जहाँ उसकी चतुर प्रेयसी बैठी हुई थी। जैसे ही प्रियतम के पैरों के चलने की आहट प्रिया ने सुनी तो उस चन्द्रमुखी ने पीछे मुड़कर देखा और मुस्कराई। फिर उसने आँखों में देखा कि प्रियतम की आँखें भूख की आकुलता प्रकट कर रही है तब उसने रात्रि के भोजन की तैयारी करना प्रारंभ किया।

पूस की रात में फूस के धाम में कामिनी हो गई तूल रजैया।
बंक निशंक ह्नै कंत के अंक में सोहत मानहु दोज जुनैया।

काम करै दिन रात जो खेत में रात में वाम सुकाम करैया।
भोर भयो पर्यंक सों हो गइ लाड़िली मानहु भोर तरैया।

शीत ऋतु में पौष माह की रात्रि है और फूस (चारे-कांस आदि) की मड़ैया (झोपड़ी) बनी है। इसमें प्रियतम के साथ नव यौवना आनंद विहार करते हुए रजाई का भी सुख दे रही है। प्रियतम की गोद में निडर मन से बैठी ऐसी शोभा पा रही है जैसे द्वितीया तिथि का चन्द्रमा हो। जो खेत में रात-दिन परिश्रम करता है उसे विश्राम के क्षण पत्नी के साथ रात्रि में ही मिल सकते हैं। प्रातः होते ही पलंग से हटकर वह प्रियतमा भोर के तारे की तरह हो गई।

गोरी ने पारो चँगेर में चेनुआ बैठ गई उत आम की छैंया।
छैल ने रोक दये हलबैल औ गैल पसेउ गिरै भुइँ-मैंया।

बालम कों लखि कें मुस्क्यात उतै झट दौरत आवत सैंया।
सो श्रम वक्ष पै आतुर ह्नै झट प्रीति नें डार दई गलबैंया।

सुन्दरी ने अपने छोटे बच्चे को चंगेर (बाँस का बना हुआ एक बर्तन) में लिटा दिया और स्वयं आम के वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गई। प्रियतम ने अपने हल-बैल छोड़कर रख दिये उसके शरीर का पसीना बहकर जमीन पर गिर रहा है। प्रियतम को उसने देखा कि वह हँसते हुए तुरन्त ही उसी की तरफ दौड़ता आ रहा है। आतुरता में आते हुए उसकी छाती पर श्रम बिन्दु झलक रहा था, तभी तुरन्त प्रिया ने प्रेम से गले में बाहें डाल दीं।

पौंछत स्वेद पियारी तथा श्रमहारी पियारी बयारी करै।
रोटी धरी पट सों पट पै चट सों चटनी की तैयारी करै।

भोजन बीच हँसै तरुणी अरु प्रीति की रीति नियारी करै।
छैल हँसै लखि दोउन कों उत छौना परो किलकारी करै।

प्रियतमा अपने प्रियवर का पसीना पोंछती है, थकान मिटाती है और रात्रि के भोजन की तैयारी भी करती जा रही है। उसने जल्दी से पट के ऊपर रोटी रखी फिर चटनी तैयार की। जब भोजन प्रियतम ने प्रारंभ कर दिये तो नवयौवना बीच-बीच में हँसती जाती है और प्रेम की कुछ क्रियायें भी साथ में होती जाती हैं, प्रियतम को भी हँसी आ रही है। इन दोनों की प्रसन्न मुद्रा को देखकर लेटा हुआ छोटा बालक भी किलक कर हँस रहा है।

देश की शान किसान ने भोजन पाय के जायके खेत निहारो।
और किसान की मानिनी नें हँस के हँसिया कर बीच सम्हारो।

मंत्र बिचारो है गो-तृण को सो लगी झट मेंड पै काटवे चारौ।
चूरा चुरीनन में अटकै खटकै स्वर मैन मरोरन बारौ।

देश का गौरव किसान भोजन करने के बाद तुरन्त अपने खेत को देखता है और उसकी प्रियतमा ने हँसकर अपने हाथ में हँसिया लिया फिर घास काटने का निश्चय करके तुरन्त खेत की मेंड़ पर पहुँची, चारा काटने लगी। घास काटते समय चूड़ियों के बीच पहिना हुआ चूरा चूड़ियों से टकराता है और उससे कामदेव की पीड़ा उत्पन्न करने वाली मोहक ध्वनि निकलती है।

एक मुठी में पुरी पुरी चारे की एक में नृत्य करै हँसिया।
गोरी के एक इशारे पै चारे बिचारे के प्रान हरै हँसिया।

कोमल हाथ के साथ में आयि कें पाप करै न डरै हँसिया।
गोरी हँसै हँसिया सठ पै लखि गोरी कों हास भरै हँसिया।

गाँव की उस सुन्दरी के एक हाथ में घास का गट्ठा बंधता जाता है और दूसरे हाथ में हंसिया नृत्य कर रहा है। सुन्दरी के संकेत मात्र से हंसिया चारे (घास) के प्राण ले लेता है। इन कोमल हाथों के सम्पर्क में आने पर हंसिये का डर समाप्त हो गया है, वह लगातार चारे के प्राण लेने का पाप करता जा रहा है। सुन्दरी दुष्ट हंसिया के कृत्य पर हँसती है और हंसिया सुन्दरी की हँसी को देखकर उसके मन की पूर्ति कर रहा है।

रचनाकार – पद्मश्री डॉ अवध किशोर जड़िया का जीवन परिचय

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