बुन्देलखंड अंचल में शक्तिपूजा बहुत प्राचीन है, जिसके प्रमाण आज भी मौजूद हैं। भूदेवी भुइयाँरानी, चौंसठ योगिनी, जगदम्बी, काली और चंडिका देवियों की शक्ति-पूजा का उत्कर्ष था। इनके गीत Gathao Par Adharit Lokkavya थे। इन देवी गीतों की रचना आदिकाल में होने लगी थी।
देवी गीत- शक्तिपूजा गीतों का रचना-काल
इन गीतों में अलग-अलग देवी की गाथा और उसके शक्ति के बारे Gathao Par Adharit Lokkavya का सृजन हो चुका था। भुइयाँरानी या भियाँरानी की पूजा भूदेवी की ही पूजा है। चन्देलयुग में शाक्तमत का खूब प्रसार था।
भेड़ाघाट (जबलपुर) का चौंसठ योगिनी का मन्दिर, खजुराहो का चौंसठ योगिनी और जगदम्बी का मन्दिर, कालिंजर दुर्ग के पाँचवें द्वार पर काली और चंडिका की मूर्तियाँ, चन्देलों की राजधानी महोबा में हर दिशा पर प्रतिष्ठित चंडिका के मन्दिर या मूर्तियों आदि से पता चलता है कि इस युग में शक्ति-पूजा का उत्कर्ष था।
खजुराहो के लक्ष्मण मन्दिर में ब्रह्मा और महेश के साथ विष्णु के स्थान पर लक्ष्मी की मूर्ति उत्कीर्ण है, जिससे देवी के महत्त्व का पता चलता है। शक्ति-पूजा से प्रेरणा पाकर देवी गीतों की रचना सहज स्वाभाविक थी। चन्देलों और देवी गीत के सम्बन्ध के दो उदाहरण प्रस्तुत हैं, जिनसे स्पष्ट है कि देवी गीतों की रचना आदिकाल में होने लगी थी। पहला उदाहरण है मिर्जापुर तरफ के आदिवासियों का, जो मोरपंख हाथ में लिए जवारों के जुलूस में आगे-आगे गाते हैं।
बन केदली से सजइ हँथिनियाँ, आल्हा भयल असवार होमाऽऽऽ इ।
इक पर लादै धुजा (नारियल), एक पर लादै निसान होमाऽऽऽ इ।।
‘आल्हा गाथा’ के रचना-काल से दो सौ वर्ष पूर्व यानी कि 10वीं शती के अन्तिम चरण में देवीगीतों की रचना प्रारम्भ हुई थी। गायन का समय क्वाँर और चैत की नौदेवियों में देवी गीतों के गायन की कोई सीमा नहीं रहती। प्रतिदिन जवारों के सामने स्त्री -पुरुष गीत गाते हैं। दोनों महीनों के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को दौना और खप्परों में जौ बोये जाते हैं, फिर होम और नारियल आदि से पूजा होती है और गीत गाए जाते हैं। पंचमी, अष्टमी को आरती के बाद गीत-गायन चलता है। देवी जू के सिरै आने पर भाव आते हैं।
नवमी को जवारे सामूहिक रूप में गांव-शहर के प्रमुख मार्गों पर जाते हुए नदी या सरोवर में पहुँचते हैं। नगरवासी उनके आगमन के पहले मार्ग को सिंचित कर पवित्र करते हैं और उनकी पूजा कर भभूत का प्रसाद लेते हैं। जवारे खोंटे जाते हैं, फिर जल में सिराए जाते हैं। पवित्रा जवारों को अपने सम्बन्धियों को ही नहीं, पुरा-पड़ोसियों को भी वितरित करना मांगलिक समझा जाता है।
जवारे के दिवाले होते हैं, जहाँ वर्ष भर पूजा-रचा होती रहती है। ये दिवाले अलग घर में या कमरे में प्रतिष्ठित किए जाते हैं। देवी की लोकमूर्ति, साँगें, ढाल, कँटीला, साँकर, खड़ाऊँ आदि से सुशोभित इन दिवालों की सबसे बड़ी सम्पदा श्रद्धा है। मनौती मानने पर साँग, गाल, गले और जीभ में छिदवाते हैं। ढाल एक लकड़ी का लम्बा लट्ठा है, जिसके सिर से लगी लकड़ी पर दो तलवारें लटकती रहती हैं और जो मन्त्र के प्रभाव से आगे-पीछे होता है। दो मंत्रज्ञों के मन्त्र-संघर्ष का चमत्कार जवारे के जुलूस का आकर्षण है।
लोहे की साँकर आग में तपाए जाने पर जब लाल हो जाती है, तब उसे हाथ से सूँटते हैं। लकड़ी की खड़ाऊँ पर लगी नुकीली कीलों की परवाह न करते हुए उन्हें पहनकर चलना भी दैवी चमत्कार है। पहले जवारों के साथ अखाड़े भी चलते थे, जिनमे शस्त्रों की प्रतियोगिता और पटा-बनैती होती थी, लेकिन अब उनका चाव घट गया है। जवारे तो आदिकाल से अब तक अपनी परम्परा सुरक्षित रखे हुए हैं और देवीगीतों का गायन भी बराबर होता रहता है।
किसी भी उत्सव और उछाह के आरम्भ में देवीगीतों से वन्दना करना लोक में शुभ समझा जाता है। जन्म, विवाह आदि संस्कारों का प्रारम्भ भी देवीगीतों से होता है। चेचक निकलने पर अथवा मनौती मानने पर देवी-पूजा और देवी-गीत अनिवार्य-से हैं। इस प्रकार देवीगीतों की गूँज हर मौसम में गूँजती रहती हैं।
देवीगीतों की समृद्धि और वर्गीकरण
देवीगीत तीन रूपों में मिलते हैं।
1 – साखी, जिसे देवी जू की साखी कहते हैं।
2 – गीत, जो विभिन्न लयों और रसों में प्राप्त हैं।
3 – आख्यानक गीत या गाथा, जो किसी आख्यान या कथा को केन्द्र में रखकर रचा गया है।
ये तीनों रूप आदिकाल से लेकर अभी तक प्रचलित हैं। रूपान्तरण होने पर काल-निर्धारण कठिन हो जाता है। देवी जू की साखी दिवारी और फाग (सखयाऊ) की परम्परा में बहुत प्राचीन है। अब भी कहीं-कहीं गाई जाती हैं, पर उनका प्रचलन बहुत कम हो गया है। आदिकाल में साखियों की संख्या अधिक थी और उनमें अधिकांश ओजपरक थीं।
विजातीय आक्रमणों से लिखित सामग्री तो नष्ट हो गई, जिससे उनके उपलब्ध होने का प्रश्न ही नहीं है। मौखिक परम्परा में साखियों की जगह गीतों ने ले ली है और उनका एकदम अभाव हो गया। नौदेवी के समय मरई माता की साखी गाई जाती हैं। सम्भव है कि अंचल की विशिष्ट लोकदेवियों की साखियाँ रची गई हों।
आख्यानक देवीगीत दो प्रकार के हैं। एक वे गीत हैं, जिनमें आख्यानक रंग भर है और दूसरे वे, जो पौराणिक या कल्पनात्मक कथानक के आधार पर रचे गए हैं। आख्यानक गीत ही विस्तार पाकर गाथा का रूप धारण कर लेते हैं। देवीपरक गाथाओं में सुरहिन, दानौ, धाँदू और राजा भोज की गाथाएँ प्रमुख रूप में लोकप्रिय हैं।
देवीगीतों की विशेषतायें
देवीगीतों की विशेषताओं को दो वर्गों में रखा जा सकता है। एक में विषयवस्तु का विवेचन और उसकी विशेष दिशाओं का संकेत तथा दूसरे में शैली या शिल्पगत विशेषतायें और लोककाव्य को उसका योगदान।
देवीगीतों की वस्तुगत विशेषतायें
मुक्तक गीतों में देवी की स्तुति; गुणों और पराक्रम की प्रशस्ति; उनके स्थान, बनक, शोभा का वर्णन; उद्यान, पुष्पों, माली के उल्लेख आदि प्रमुख विषय हैं जो देवी को केन्द्र में रखकर महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। दूसरी तरफ भक्त की स्थिति, उसके अभाव और वांछित वरदानों का विवरण रहता है। तीसरी तरफ कुछ गीतों में सरल और सुबोध प्रतीकों द्वारा आध्यात्मिक चिन्तन या रहस्यमयता संकेतित है। रहस्यमय गीतों में दार्शनिकता का लोकरूप ही मिलता है।
उड़ चल परबतवारे सुअना, घर अँगना न सुहाय मोरी माँय।
कै उड़ चल भइया बाग बगीचा, कै बिन्ध्याचल डाँग हो माँय
इन पंक्तियों में पर्वत के उच्च शिखरवाला सुअना (तोता) जीव का लोकप्रतीक है और घर-आँगन का। बाग-बगीचा और विन्ध्याचल की डाँग (बन) माया के बन्धनों से मुक्त लोक का संकेत देते हैं। इस प्रकार इन पंक्तियों में जहाँ संसार के मायाजाल से ऊबने का भाव है, वहाँ जगत्, जीव और विराग सम्बन्धी लोकसहज वैचारिकता है।
देवीगीतों में बेला, चमेली, रूचकेवरे, लाल अनार, चम्पा, चन्दन आदि की बहार है। ऐसा प्रतीत होता है कि देवी को प्रकृति से अत्यधिक प्रेम हैं। खासतौर से एकान्त में पुष्पित गन्धयुक्त प्रकृति में देवी का वास है। उसका मढ़ या मढ़िया बेला-चमेली से आच्छादित है, उसकी चुनरिया फूलों के रंग से रंजित है और उसके भक्त सुगन्धित फूलों से उसे सुशोभित करते हैं।
वस्तुतः यह देवी का कोमल नारीत्व है, जिसका चित्रण बार-बार हुआ है। घोर जंगल, सिंह पर सवारी और भयंकर दानव का संहार आदि देवी का कठोर नारीत्व है। नारीत्व के इसी समन्वित रूप का आदर्श अवतरण देवी हैं। भक्ति का लोकरूप ही इन गीतों में मिलता है। धुजा-नारियल, पान-बताशा और पत्र-पुष्प से ही देवी प्रसन्न हो जाती हैं। किसी भी गीत में मदिरा, पशुबलि और नरबलि का उल्लेख नहीं है।
आख्यानक गीतों और गाथाओं में भक्ति बहुत कठिन है। धाँदू और जगदेव अपने सिर उतारकर देवी को भेंट कर देते हैं। देवी की परीक्षा बहुत कठिन है, लेकिन उसमें उत्तीर्ण होकर व्यक्ति अमरत्व प्राप्त कर लेता है। भक्त के हित के लिए देवी दानव (असुर) का संहार करती है। अपने पराक्रमी और लोकरक्षक रूप में वह युगचेतना से जुड़कर लोक का नेतृत्व अपने हाथ में ले लेती है।
‘दानौ की गाथा’ में नरायन (भगवान) दानौ (दानव) के संहार के लिए देवी दुर्गा को पाती भेजकर बुलाते हैं, जिससे देवी का महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है। ‘सुरहिन की गाथा’ नीतिपरक है। उसमें सत्य की निष्ठा विजयी होती है। बछड़ा यह कहता है कि उसे देवी माता ने सीख दी है और सिंह देवी की सवारी है, इस कारण से भी सिंह उसे नहीं मारता। इस गाथा में देवी की भूमिका उतनी प्रभावी नहीं है, जितनी सत्य की।
‘सुरहिन की गाथा’ दानौ, जगदेव और धाँदू की गाथाओं से पुरानी है। उसकी वस्तु ढाँचे में पंचतन्त्र की कथा जैसी है और परिणाम में जातक की तरह। गाय-बछड़े और सिंह के संवाद पंचतन्त्र की शैली का अनुसरण करते हैं और नैतिकता या नीति-कथन भी पंचतन्त्रा की कथा जैसा है, परन्तु सिंह जैसे हिंसक की क्षमा पर जातक का प्रभाव प्रतीत होता है। सुरहिन गोमाता है और सिंह देवी की सवारी, इसलिए वह देवीगीतों में ले ली गई है।
बछड़े को देवी की सीख का ऋणी बताया गया है। साथ ही गीत की लय भी देवीगीत की है। सिंह की उदारता और क्षमा देवी की उदारता और क्षमा को चौगुना बढ़ा देती है। फिर सुरहिन ने देवी के चन्दन बिरछा को चरकर अपराध किया था और सिंह ने उसे देख लिया था। देवी के स्थान पर सिंह का सजा देने का कार्य हर दृष्टि से उचित है।
एक तो सिंह की प्रकृति हिंसक है, दूसरे वह इस स्थिति में देवी का प्रतिनिधि है। देवी अन्तर्यामी है, गाय जैसे निरीह पशु को कैसे दंडित करती। इसलिए सिंह का चयन लोककवि की प्रतिभा का परिचायक है। सिंह की हिंसक प्रवृत्ति उसका जातीय गुण है, लेकिन क्षमा करना देवी के सिंह विशेष का ही अर्जित गुण है।
‘दानौ की गाथा’ का प्रेरणस्रोत पौराणिक कथा है। शिवपुराण के अनुसार दुर्गम असुर का संहार करने के लिए देवताओं ने देवी से प्रार्थना की थी और दुर्गा का अवतरण हुआ था। प्रस्तुत गाथा में देवताओं के देव नारायण पाती से सन्देश भेजकर दुर्गा का आह्नवान करते हैं। दुर्गा सिंह की खोज करती हैं।
जब नहीं मिलता, तब स्वयं जाती हैं। डमरू के बजने पर दो-दो सिंह आ जाते हैं। देवी का पूरा दल चलता है। साथ में डूँड़ा नादिया पर महादेव, गरुड़ पर भगवान (नरायन) और अन्य देव चलते हैं, पर दानौ की गर्जना से भयभीत होकर सभी देव-महादेव भाग जाते हैं।
दुर्गा ने त्रिशूल चलाया और उसके आघात से दानौ के लहू की जितनी बूँदें गिरीं, उतने दानव प्रकट हो गए। इस पर दुर्गा ने अपने अंग के मैल से पुतरी बनाकर चौंसठ योगिनी खड़ी कर दीं, जो लहू की बूँदों को अपने खप्परों में ले सकें।
अन्त में देवी की खड्ग के एक घात से दानौ का वध हो गया। इस गाथा में सीधी-सादी कथा है, जिसे एक दीर्घ गीत का शीर्षक देना उचित है। गाथा में युद्धादि के विस्तृत वर्णन होते हैं,पर इसमें घटना या वर्णन का उतना विस्तार नहीं है।
सुरहिन गऊ के गोबर से ढिक देकर लीपना, गजमोतिन के चौक पूरना, कंचन कलश रखना आदि लोकसंस्कृति की पहचान खड़ी करते हैं। कहीं-कहीं सटीक उपमान-संयोजन से अर्थ की गरिमा बढ़ी है, जैसे
‘रइयत तो तोरी ऐसें कै राखों जैसे चोलन में पलोटें पान हो माँय।’
इस अंचल में पान की उपज बहुत होती है। पान चुलिया में रखे जाते हैं, लेकिन उन्हें सड़ने से बचाने के लिए बार-बार पलटना पड़ता है। इस रूप में हर पान की व्यक्तिगत देखरेख करनी पड़ती है। यही देखभाल प्रजा के लिए जरूरी है।
धाँदू माता-पिता, बहन-भाई किसी से भी नहीं मिलता और नदी पारकर देवी के पास जाता है। देवी पूछती है कि वह इतने दीर्घकाल के बाद आकर भेंट में क्या लाया है। धाँदू धुजा-नारियल आदि अर्पित कर देता है, पर देवी स्वीकार नहीं करतीं। इस पर धाँदू स्नानादि के बाद चन्दन-खौर लगाकर अपना माथा (सिर) उतार देता है।
उसका शरीर नदी में डाल दिया जाता है, पर उसे कोई नहीं खाता। न तो वह सूखता है, न कुम्हलाता है। अन्त में, लँगुरा के कहने पर देवी उँगली चीरकर इमरत (अमृत) छिड़कती है, जिससे धाँदू जीवित हो जाता है और उठकर देवी के चरण पकड़ लेता है
‘अब न चरन छुटाव मोरी माया हों चरनन की धूर हो माँय।’
देवीगीतों की शैलीगत विशेषतायें
देवीगीतों विशेषतया देवीगाथाओं की भाषा में काफी पुरानापन है। घरयाउर, बरयानो, लंगुरा, दलपंगुरा, अखड़ातूर, सतनद, कदलीबन, माथौ देना या उतारना, घैंटी, चरेरे, पौंड़न बाव आदि शब्द और इक बन चाली, दुज बन चाली, तिज बन पौंची जाय, पाँच पैंड़ आँगूँ लओ आदि प्रयोग उसकी प्राचीनता के साक्षी हैं।
सभी गीत अभिधात्मक हैं, पर बीच-बीच में अलंकारादि अपने-आप आ गए हैं। ऐसें जर गओ जैसे करइया तेल, कदली बन की घनी भँवरियाँ, मन मैले होंय, भइया दाँयनी बाँह आदि में अलंकृत सौन्दर्य आ गया है। कदली, बन परबतवारे सुअना, घर-अँगना जैसे प्रतीक भी सहज रूप में आ गए हैं।
सांस्कृतिक शब्दावली जैसे कँचन की रैन, गज-मुतियन के चौक पुराये, कंचन कलस धराये, दूदा पखारे पाँव, चन्दन, चौकी, बजर किवार आदि इन गीतों में सांस्कृतिक वातावरण उत्पन्न करने में सहायक है। कहीं-कहीं लोकसौन्दर्य के सहज आलेखन भी उभर आए हैं।
हार पैर ठाँड़ी भयी माया धरनी सहै न भार हो माँय।
घरियक भार सहो मोरी धरनी आदौ धरौं उतार हो माँय।।
मुक्तक गीतों में प्रश्नोत्तर शैली और पुनरावृत्ति की भरमार है। आख्यानक गीतों और गाथाओं में भी प्रश्नोत्तर शैली से विवरण और पुनरावृत्ति से कथा को अग्रसर करने की युक्ति अपनाई गई है। उनकी कथायोजना सीधी है और नदी की तरह प्रवाहपूर्ण है। बीच-बीच में संवादात्मक प्रयोग नाटकीयता लाने में समर्थ हुए हैं। पात्रों का चित्राण लोकतूलिका से ही हुआ है।
सभी में गेयता की प्रधानता है। मधुर लय की रमणीयता और ओजमयी स्वर-लहरी की गतिशीलता दोनों मिलकर देवी गायकी को एक निराला रूप प्रदान करती है। उसके साथ नारी रूप में पुरुष नृत्य करने लगते हैं, जिसे देवी-नृत्य कहा जा सकता है। देवीगीतों की लोकधुन आदिकाल में इतनी प्रचलित हुई कि आल्हा गाथा भी उसी में रची गई। इस रूप में देवीगीत बुन्देली लोककाव्य के विकास में विशेष महत्त्व की भागीदारी का निर्वाह करते हैं।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल