Homeबुन्देलखण्ड के साहित्यकारDr. Narayan Das Gupt ‘Kamlesh’ डॉ. नारायण दास गुप्त ‘कमलेश’

Dr. Narayan Das Gupt ‘Kamlesh’ डॉ. नारायण दास गुप्त ‘कमलेश’

कवि Dr. Narayan Das Gupt ‘Kamlesh’ का जन्म भिण्ड जिले के आलमपुर के एक वैश्य परिवार में 11 सितम्बर 1933 को हुआ। आपकी प्राथमिक शिक्षा आलमपुर में ही हुई। इसके अलावा एम.ए. हिन्दी तथा पीएच.डी. की डिग्री हासिल की। आपने आयुर्वेद वाचस्पति, आयुर्वेद रत्न तथा साहित्य रत्न की चिकित्सकीय उपाधियाँ हासिल की।

चिकित्सक, कवि, लेखक, पत्रकार एवं समाजसेवी

कवि डॉ. नारायण दास गुप्तकमलेश’ एक सफल चिकित्सक, कवि, लेखक, पत्रकार तथा समाजसेवी हैं। आपकी रचनायें विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित व पुरस्कृत हुई हैं। आकाशवाणी केन्द्र इन्दौर, भोपाल, ग्वालियर तथा छतरपुर से रचनाओं का समय-समय पर प्रसारण होता रहता है। गहोई बंधु (मासिक) तथा भारती (साप्ताहिक) का संपादन किया।

विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं में आपकी सम्बद्धता है। इनको जबलपुर, चित्रकूट, भोपाल, इन्दौर, सतना, समथर, सेंवढ़ा, भिण्ड, रौन तथा ग्वालियर की विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं ने सम्मानित भी किया है। आपकी दो कृतियाँ क्रमशः कवितायन’ तथा गुलगुच’ प्रकाशित हैं। मुक्तावली’, आ गया गाँव’ तथा ‘हम भारत के बाल’ अप्रकाशित रचनायें हैं। आप वर्तमान में भी सामुद्रिक शास्त्र व फोटोग्राफी के शौक के साथ साहित्य सृजन में संलग्न हैं।

विनायक वंदन

अधम महान मैं हों, अधम उघारन आप,
गुरु-पितु-मातु-तात आप, मैं तो चेरौ हों।
आरत-अनाथ, रत स्वारथ में आठों याम,
बुद्धि को मलीन-हीन, दीनता सें घेरौ हों।।
जीव को जहाज मझधार में फँसौ है आज
काहू कौ सहारौ नाँहि तेरी और हेरौ हौं।
गह कें गरीब हाथ मोय निरवारो नाथ,
दासन कौ दास एक तुच्छ दास तेरौ हों।।

मैं सबसे बड़ा पापी हूँ और आप पापियों को तारने वाले हो। आप गुरु, पिता, माता एवं बंधु हो, मैं तो आपका सेवक हूँ। मैं परेशान, बेसहारा तथा दिनरात स्वार्थ में संलग्न रहने वाला हूँ। मैं बुद्धिहीन हूँ जिससे गरीबी से ग्रस्त हूँ। मुझ जीव का जीवन रूपी जहाज आज संसार रूपी सागर की मंझधार में फँसा है और आपके सिवाय किसी का सहारा नहीं है इसीलिए सहायता कीजिए। मैं दासों का दास एक बहुत हीन तुम्हारा सेवक हूँ।

जी भर आज बसंत मनेंहों
विरहिन के मन सीरी समीरन नें,
सजनी सुन ताप बढ़ायौ।
ढायवे कों गढ़ मानिनी मान कौ,
तान कें काम कमान चढ़ायौ।।
हूक उठै दिन आवें वे याद,
जबै पिय के संग लाड़ लड़ायौ।
होबै बसंत सुहावन काहुकों
मो कों तो दुक्ख बढ़ावन आयो।।

शीतल हवाओं के प्रवाह ने विरहिन नायिका के विरह का ताप बढ़ा दिया है। रूठी हुई नायिका का मान रूपी किला ध्वस्त करने हेतु कामदेव ने धनुष चढ़ाकर प्रहार किया है। इससे उस विरहिन नायिका के हृदय में हूक उन दिनों को याद करते उठ रही है, जो प्रिय के नेह में बिताये थे। यह बसन्त किसी के लिए सुहावना व मनभावन होगा, मेरे लिए तो यह दुखों को बढ़ाने हेतु आया है।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)

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