Homeबुन्देलखण्ड के साहित्यकारDr. Madan Gopal Shukla  डॉ. मदन गोपाल शुक्ला "मदन अली"

Dr. Madan Gopal Shukla  डॉ. मदन गोपाल शुक्ला “मदन अली”

डॉ. मदन गोपाल  शुक्ला ‘मदन अली’ का  जन्म दिसम्बर 1908 में छतरपुर में हुआ। आपके पिताश्री का नाम पं. परमानंद जी है। पं. परमानंद जी Dr. Madan Gopal Shukla    के जन्म के बाद ही संन्यासी हो गये थे। छः माह के बाद माता जी ने भी शरीर छोड़ दिया था। अतः लालन-पालन प्रारंभ में नाना-नानी के घर (नौगाँव के अग्निहोत्री परिवार) में हुआ। 7-8 वर्ष की आयु के बाद अपनी नानी की बहिन के पास रहे।

संयोग श्रृँगार सुमन… डॉ. मदन गोपाल  शुक्ला ‘मदन अली’

डॉ. मदन गोपाल  शुक्ला ‘मदन अली’ की शिक्षा-दीक्षा छतरपुर में ही हुई। अध्यापक के पद पर नियुक्ति हो जाने पर महाराजपुर, राजनगर और लौड़ी ( लवकुश नगर ) में क्रमशः कार्यरत रहे। डॉ. सेन के सान्निध्य में आने पर कम्पाउण्डर की ट्रेनिंग की और कम्पाउण्डर के पद पर नियुक्ति पा ली किन्तु वह भी छोड़ दी और अपना स्वयं का चिकित्सा कार्य प्रारंभ किया, जिसमें पर्याप्त यश प्राप्त किया। आपको साहित्य के प्रति रुचि प्रारंभ से ही रही।

छतरपुर में सैर-गायन के अखाड़े होते थे। Dr. Madan Gopal Shukla उसमें कवि के रूप में प्रतिष्ठित थे। आप पं. परमानंद पाण्डे के पक्ष वाले थे। विषय के अनुकूल तुरन्त रचना करने की क्षमता आपमें थी। श्रृँगार के अतिरिक्त आपने हनुमान जी के ‘चरित्र-वर्णन’ की सैरें भी लिखीं हैं। बाद में आपकी रुचि भक्ति भावना से अधिक जुड़ गई और आपने विनय-पद और चेतावनी के पदों की रचना की। आप सखी सम्प्रदाय के उपासक थे। अतः आपने अपना उपनाम मदन अली’ निश्चित कर लिया था। बाद की रचनाओं में यही उपनाम आया है। आपने 2 फरवरी 2005 को शरीर छोड़ दिया है।

प्रकाशित रचना – भावनार्चन

अप्रकाशित रचना – 100 छंद उनके पुत्र श्री जयजयराम शुक्ल के पास सुरक्षित हैं। इसके अतिरिक्त बहुत से कवित्त, सैरें आदि फुटकर रचनायें गायकों के बस्तों अथवा लोक कंठ में सुरक्षित हैं।

सुरतिया विसर न पावै मोर।
निशि वासर पद पद्यन में रति यही विनय कर जोर।
प्रभु सर्वज्ञ समर्थ सभी विधि मैं मति कौ अति थोर।।

शरणागत सुख सुनि गुनि, प्रमुदित थकि आयो तुम दोर।
मदन अली प्रभु त्राहि पुकारत तकि तकि करुना कोर।।

हे प्रभु! मेरी सुध भूल न जाना। दिन-रात चरण कमलों में मेरा मन लगा रहे- यही मेरी प्रार्थना है। आप सब कुछ जानते हो और सभी प्रकार समर्थ हो जबकि मेरी बुद्धि बहुत कम है। शरण में पहुँचने के आनंद जानकर और समझकर मैं प्रसन्न हुआ तभी हारकर आपके द्वार पर आया हूँ। आपकी करुण-कृपा की आशा करते हुए मदन कवि कहते हैं कि- हे प्रभु! मेरी रक्षा करो। मन क्यों सावधान नहीं होते।

तुमको हम समुझाय बुढ़ाये तऊ खात रये गोते।
नादानी न करो संग में नहि पड़ जैहौ थोते।

क्षण भंगुर सब काम जगत के समझ गये यदि होते।
मदन अली प्रभु शरण नाम के बन जाते तुम गोते।।

हे मन! तू सचेत क्यों नहीं हो रहा है? तुम्हें समझाते हुए मेरी उम्र बीत गई, मैं वृद्धावस्था को प्राप्त हो गया हूँ फिर भी तुम संसार सागर में धोखा खा रहे हो। अब बेसमझी अपने साथ न करो अन्यथा खाली पड़ जाओगे। संसार के सभी काम कुछ क्षणों के हैं’ यह बात यदि तुम्हारी समझ आ गई होती तो मदन कवि कहते हैं कि तुम प्रभु के नाम की शरण के आनंद सागर में डुबकी लगा रहे होते।

सैर
दोहा- नीके कें बैनी बना, कर कजरारे नैन।
निर्मल दर्पन हाथ लै, निरख भरत हिय चैन।।

सोरठा – निरख भरत हिय चैन मदन’, प्रभा युत गौर तन।
नबल नागरी ऐन सज श्रृंगारत निज बदन।।

छंद – निज बदन पर सजि सारि सुन्दर स्याम रंग मन भावनी।
नीके उरोजन कसत कंचुकि बहुरि बहुरि फसावनी।

नग जरित ऐरन श्रवन सजि दे बिन्दु भाल रिझावनी।
नोने नितंबन पर पहिन करधनी ललित लुभावनी।।

नीरज से कोमल करन कंकण मुंदरि आद सुहावनी।
नग जरित गर गुलुबंद हंसुलि जंजीर मोति गुथावनी।।

नख लाल यावक पदन भूषन ललित दुति दरसावनी।
नहि कहत शोभा बनत मनु ऊषा ढपी निशि भावनी।।

सैर – निज केलि भवन सजय्यौ गई छैल मन छलन,
नायक प्रवीण स्वागत हित उठि मिल्यो गलन,

निःशंक अंक अंगन दोउ भरत चुल बुलन,
नहिं देत छुवन छाती क्यों छैल छल बलन।। 1।। टेक।।

नहिं बनत कहत हाव भाव पलंग तक चलन,
नहिं गज गति कर समसर वह चाल अल बलन,

नीके कपोल चूंमत नहि नहि कहत झलन,
नहिं देत छुवन छाती……….।। 2।।

नागरि समेत मुदित बैठि पलंग लस ललन,
नहिं तृप्ति हिये बांही गल मेलि हिल मिलन,

नहिं बिलम लगी लोटत पर्यंक तल बलन,
नहिं देत छुवन छाती…….।। 3।।

नय नाहि चूंम नागर कर गई कुच दलन,
ना गहो उरज प्रिय पिय कह प्रेम युत मलन,

नायक सुहेत गुन कर भर भाव हिय भलन,
नहिं देत छुवन छाती………..।। 4।।

नोखो सुस्वाद अधरामृत लेत कल बलन,
नाना किलोल केलि करत कोक कल कलन,

नजरत निमग्न आनंद अध खुले चख दलन,
नहिं देत छुवन छाती…….।। 5।।
(गायक – श्री जानकी प्रसाद खरया)

अच्छी तरह से बालों की चोटी बनाकर नायिका आँखों में काजल लगाती है फिर स्वच्छ दर्पण हाथ में लेकर अपना चेहरा देखती है और मन में सुख पाती है। नव यौवना अपना मुँह दर्पन में देखकर सुखी होती है और आभायुक्त गौर वर्ण के सुन्दर शरीर को श्रृँगार करके खूब सजाती है। वह अपने तन पर मनचाही सुन्दर काले रंग की सारी सजाती है (पहिनती है)। अपने कुचों को चोली में अच्छी तरह कसने के लिये बार-बार बांधती है।

रत्न से जड़ा हुआ ऐरन (कर्णफूल अथवा कान का आभूषण) कान में पहनती है, माथे पर मनमोहक बिन्दी रखती है और सुडौल नितम्बों पर मनोहर रिझावनी करधनी पहनती है। कमल से कोमल हाथों में कंकण और मुंदरी आदि सुशोभित है। गले में रत्न जड़ित गुलबंद (गले का एक गहना), हंसली (खंगौरिया, गले का आभूषण) और मोती पिरोकर बनी जंजीर शोभा पा रही है। लाल नाखूनों का आभूषणों से ढका सा होने के कारण मनोहर चमक की शोभा का वर्णन करते नहीं बनता ऐसा लगता है मानो विभावरी के बीतने पर शेष छाया ऊषा पर आच्छादित हो

अपने क्रीड़ा-भवन में नायक के मन को छलने के लिये इस तरह सजी हुई चतुर नायिका स्वागत के लिये उठी और नायक के गले लग गई। निडर मन से दोनों एक दूसरे को अपनी बाहों में चंचलता से भर लेते हैं। क्या कारण है कि वह नायक को धोखे से भी अपनी छाती (स्तन) को नहीं छूने देती? पलंग तक पहुँचने के भावों की विविधता का वर्णन नहीं करते बनता, वह चाल ऐसी मद भरी थी कि हाथी की गति भी बराबरी नहीं कर सकती। वह अच्छी तरह से गालों का चुम्बन लेती है और बीच-बीच में रति क्रीड़ा के लिये बार-बार मना भी करती जाती है।

प्रियतम को झुकाकर नायिका ने चूम लिया और चतुराई से छाती को दबवा भी लिया, फिर नेह सहित प्रियतम से उन्हें न पकड़ने का आग्रह करती है। नायक हितकर विचार करते हुए भाव विभोर हो जाता है। अधरामृत के रसपान का अनोखा आस्वादन वह विविध मुद्राओं से करती है। अनेक प्रकार से मन में उमंग भरे हुए कोक-युक्तियों सहित काम-क्रीड़ा कर रही है। फिर अर्ध निमीलित आँखों से नायक की आनंदमग्न मुद्रा को देख भी रही है।

दोहा – नवल नागिरी आगरी मदन’ माधुरी ऐन।
नाह चाह कर राह में निकस चली रस लेन।।

सोरठा – निकस चली रस लेन काम बिबस वह कामिनी।
नभ दिनकर कर ऐन प्रखर दोष हरि सन सनी।।

छंद – नीक मग तट तटसु छाहन तर चली तट तरु बरन।
निर्मल सरित वर बहत कल कल नार हिय आनंद भरन।।

नख सिख सुभावन अंग अंग अनंग मय है त्रिसित मन।
नहिं बिलम कर तट पर उतर कर करत मनसा जल पियन।।

सैर – नीको क्या नीर निर्मल कल कल कहो मगन,
नब कर कर कर साफ चह्यो नीर ज्यों पियन,

नेगर कर मुख अंजुलि त्यों चकित चौकि मन,
ना पिये नीर डर डर भर भर के अंजुलिन।। 1।। टेक।।

नैना विशाल लाल भाल बिन्दु भ्रू लसन,
नाहों मीन हिरन खंजन कंज इन्दु धनु करन,

नहिं गुणत लखत छाया यों कहत महिन मन,
ना पिये नीर डर डर………..।। 2।।

नासा कपोल बोल लोल अधर दुति दसन,
नत शुक पिक झुक सेब बिम्बा नार बीज गन,

नहि धरत धीर हिय में छिन छिन लगी कहिन,
ना पिये नीर डर डर……….।। 3।।

नीको मुखारबिन्दु इंदु चिबुक बिन्दु धरन,
निशिकर न होय सुत युत च्युत लखत मम करन,

नीरज पै या मधुकर सज गजब गुजारन,
ना पिये नीर डर डार…………।। 4।।
(गायक- श्री जानकी प्रसाद खरया)

अधिकाधिक माधुर्य गुण से युक्त एक नव यौवना रस पान की आकांक्षा लिये प्रेमी की चाह में रास्ते पर निकल पड़ी है। उस समय आकाश में सिंह राशि के सूर्य की अति प्रखरता (तीव्रता) होते हुए भी वह सुन्दरी काम के वशीभूत होकर रस की इच्छा से बाहर निकल कर चल पड़ी। वह नदी के किनारे के उत्तम वृक्षों की छाया के सहारे अच्छे मार्ग से चली जा रही है। श्रेष्ठ नदी का स्वच्छ जल अव्यक्त मधुर ध्वनि के साथ बहता हुआ उस नायिका के हृदय को आनंदित कर रहा है।

नख से शिख तक अर्थात् ऊपर से नीचे तक के उसके सभी मनोरम अंगों में कामरस झलक रहा था किन्तु मन में रस की प्यास थी। वह वहाँ नदी तट पर रुकते हुए नीचे उतरकर जल पीने की इच्छा नहीं करती। कितना अच्छा स्वच्छ जल संगीतमयी ध्वनि से बहता हुआ मन को आनंदित कर रहा है। नायिका ने जैसे ही झुककर पानी को हाथ से हिलाकर साफ करते हुए पीने की इच्छा की और अंजली मुख के पास लाई वैसे ही उसका मन आश्चर्य से चौंक गया। वह अंजली बार-बार भरती है किन्तु डर के कारण जल नहीं पीती।

मछली, मृग, खंजन और कमल के लक्षण गुणों से कहीं अधिक उसके विशाल नेत्रों की विलक्षणता है। माथे पर बिन्दी चन्द्रमा से और भौहों की वक्रता धनुष से भी अधिक सुन्दर लग रही है। गुणियों का मन इन उपमाओं को छोटा पाता है। नायिका की नाक के बांकपन को देख तोता, बोली की मिठास सुनकर कोयल, कपोलों की लालिमा के समक्ष सेव, अधरों की लाली के सामने बिंब फल और दंत पंक्ति की आभा के सामने अनार के बीज लज्जित होते हैं।

उसके हृदय में अब धैर्य नहीं रुक रहा, ऐसा वह प्रतिक्षण कहने लगी है। चन्द्रमा के समान सुन्दर आनन की ठोड़ी पर रखा बिंदु (गोल काला टीका) को देख भ्रम होता है कि कहीं अपने पुत्र बुध के साथ शशि तो नहीं है अथवा कमल के ऊपर भ्रमर सजा हुआ है जो देखने वालों पर गजब ढा रहा है।

दोहा – केलि खेलि रंगरेलि कर हेलि मेलि अंग अंग।
छरे छबीले छैल दोऊ सोबत भरे उमंग।।

सोरठा – सोबत भरे उमंग रंग महिल रंग रस रसे।
नीद भंग इक संग लागे करन किलोलि पुनि।।

सैर – पुनि पुनि लगाय हिय सों हिये उजर उठीली।

लिपटत ललित लता सी रस रसिक रसीली।

चुम्बित कपोल गोल लोल लसन हँसीली।

टेक – देती न अधर रस बस क्यों छैल छबीली।।

सोलह सिंगार सुंदर कंचुकी कसीली।
बारह आभूषणन युत पर्यंक सजीली।

नायक प्रवीन प्यारो प्रिय प्रीति रमीली।
देती न अधर रस बस…………….।।2।।

सकुचन कुचन कुचेलन कर भाव भरीली।
नाना सुकोक फंदन फरफंद फसीली।

लिपटन उठन सुबैठन झुक झूम लसीली।
देती न अधर रस बस …………….।।3।।

दोऊ ओर मदन जोर जंग भोंरनसीली।
मनमानी कर दोउन पिय लखी उजेली।

उठ चले पीय गुनि मिसु तिय रंग रंगीली।
देती न अधर रस बस …………….।।4।।
(सौजन्य : श्री जयजयराम शुक्ला)

छरहरे सुन्दर शरीर वाले नायक-नायिका आमोद-प्रमोद और कामकेलि का रस लेने के उपरान्त अंग-अंग का आलिंगन किये हुए आल्हादित मन से सोये हुए हैं। जब दोनों (नायक-नायिका) मन में उमंग लिये सो रहे थे तभी रंग महल में आमोद-प्रमोद का रंग बरसने लगा जिससे दोनों की एक साथ नींद खुल गई।

वे पुनः आनंद-विहार करने लगे। हृदय में यौवन की उमंग भरे हुए नव यौवना नायक को बार-बार छाती से चिपकाती है। कामरस से युक्त सुन्दर लता सी वह नायक से लिपट जाती है। गोल-गोल चंचल शोभायुक्त गालों का हँसकर चुम्बन देती है। फिर वह नव यौवना केवल अधर-रस का पान नायक को क्यों नहीं करने देती?

वह सोलह श्रृँगार किये है, सुन्दर चोली कसी हुई है और बारहों आभूषणों से सजी वह पलंग पर बैठी है। नायक को प्रेम करती है और उसे प्रेम रस में डुबा लेने में प्रवीण है। कुचमर्दन की केलि में संकोच सहित मोहक भावों से भर जाती है।

रतिशास्त्र की विविध कलाओं के क्रियान्वयन में निपुण सुन्दरी नायक के संग आलिंगन के साथ ही अनंक आसनों में केलि करती है। नायक एवं नायिका दोनों के मन में मदन की उमंग है और इनकी क्रीड़ायें एक चक्र में चल रहीं हैं। मन की चाह दोनों ने पूरी कर ली तभी प्रियतम ने प्रातःकाल का प्रकाश होते देखा। कुछ विचार के साथ आनंद की अनुरागिनी प्रिया से कुछ बहाना करके उठकर चल देता है।

दोहा – भाल इंदु बिच बिन्दु दे बीरी रुचिर रचाय।
दर्पण में शशि मुख निरख निरख हिये हरषाय।।

सोरठा – निरख हिये हरषाय चहूं दिश चौंक चितै चितै।
अंग अंग छबि छहराय ‘‘मदन’’ सुयोवन नित नयो।।

सैर – नित नयो बनाय यौवन मन मोरौ मथतीं।
मथतीं क्यों हाव भावन क्यों चावन ढुरतीं।

ढुरतीं तौ ढुरौ बिलकुल क्यों मनसा करतीं।
करतीं क्यों बात रस की क्यों बेबस करतीं।। टेक।।

करतीं क्यों यार ऐसो क्यों मुसका परतीं।
परतीं क्यों प्रेम फंदन फिर नाहक डरतीं।

डरती क्यों सकुच लाजन क्यों हिम्मत करतीं।
करतीं क्यों बात रस की………….।। 2।।

करतीं क्यों यार धोकौ दे दिल को हरतीं।
हरतीं क्यों इस तरह सें दिल विरथा लड़तीं।

लड़तीं क्यों नैन सैनन सों घायल करतीं।
करती क्यों बात रस की……………….।। 3।।

करतीं क्यों रोस रस में क्यों रुख्या परतीं।
परती क्यों प्रेम पथ में जब पथिकन डरतीं।

डरतीं सनेह भरतीं मिसु देखो करतीं।
करती क्यों बात रस की………………..।। 4।।
(गायक-श्री जानकी प्रसाद खरया की मूल पाण्डुलिपि से)

चन्द्रमा के समान माथे पर बिंदी लगाकर और मिस्सी रचाकर नायिका दर्पण में अपना चंद्रमुख देख-देखकर प्रसन्न होती है। दर्पण में मुख की शोभा देखकर हृदय में हर्षित होती है और चारों ओर देख-देखकर वह किसी भय के कारण काँप जाती है।

नित्य नवीन यौवन वाली उस नायिका के अंग-अंग से मानो शोभा चारों ओर फैल रही है। नित्य नये यौवन से युक्त सुंदरी मेरे मन का मंथन करती है। हाव-भाव से मन का मंथन कर अनुराग भरे भावों से क्यों अनुरक्त होती हो? अनुरक्त होना है तो भले हो जाओ किन्तु मन से कामना क्यों करती हो और प्रेम-रस की बात करके मुझे बिवस क्यों कर देती हो? धोखा देकर तुम प्रेमी के दिल का क्यों हरण कर लेती हो?

क्यों व्यर्थ में दिल को लड़ाती हो? दिल लड़ाने के साथ ही नयनों के इशारों से प्रेमी को क्यों घायल करती हो? ऐसा क्यों करती हो? देखते ही क्यों मुस्करा देती हो? प्रेम के जाल में क्यों जानकर फंसती हो? और बाद में डरती क्यों हो? क्यों डरती हो? फिर संकोच और लज्जा के साथ क्यों साहस करती हो?

प्रेम रस के बीच क्रोध क्यों करती हो और कभी-कभी तुम्हारे व्यवहार में रूखापन क्यों आ जाता है? तुम जब पथिकों से डरती हो फिर प्रेम के मार्ग में क्यों आती हो? डरती भी हो, हृदय में प्रेम भी रखती हो और किसी न किसी बहाने प्रेम भरी आँखों से देखा भी करती हो।

दोहा – नवल नारि रंग रस भरी सजि सिंगार सुख दैन।
नायक युत पर्यंक पर लोटत लूटत चैन।।

सोरठा – नाहिन कछु संकोच नहिं डर ‘‘मदन’’ बिलास तन।
नाहिन कछु रिस लोच नहिं नहिं कहत स्वभाव सन।।

सैर – नभ शशि प्रकास पूरन तन रहन देय ना।
निशि अर्ध भौंन आंगन दोउ और कोउ ना।।

नेगर सटाय अम्बुज मुख मिलन देय ना।
नीके के कपोलन मुख क्यें लगन देय ना।।टेक।।

नीके लगाय हिय पिय सुख सेय हेय ना।
नौने मदन निरोने दोउ मलत मैल ना।

नाना सुहाव भावन युत चितै कहै ना।
नीके के कपोलन मुख…………….।।2।।

नीबी के खोल बोलत बहिलोल बोल ना।
नाना किलोल केलि कलित हेलि खेल ना।।

निर्मल बयरि बसंती चैन लैन देय ना।।
नीके के कपोलन मुख क्यों…………..।।3।।

न डरत देन चुम्बन रस अधर भेद ना।
निरशंक दशन नोकन मुद भरत करत ना।

नागरि परम सयानी कल परन देय ना।
नीके के कपोलन मुख क्यों……………।।4।।

(उपर्युक्त सभी सैर गायक श्री जानकी प्रसाद खरया के पुत्र श्री रामशरण खरया के सौजन्य से)

आनंद सम्मोहिता नव यौवना सुखदायी श्रृँगार करके आनंद लेने हेतु नायक के साथ पलंग पर लेटी है। उसके मन में कोई संकोच नहीं है, दैहिक सुख भोग का भी उसे डर नहीं है, रोष के आँसू भी नहीं है, केवल स्वभाववश ‘नहि’-‘नहि’ कह रही है। आकाश के चन्द्रमा का प्रकाश पूरी देह पर नहीं पड़ने दे रही, आधी रात्रि के इस समय में भवन के आँगन में उन दोनों के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है फिर भी वह पास ले जाकर अपने मुख कमल को मिलने नहीं देती और अच्छी तरह से गालों को मुख से क्यों लगने नहीं देती ?

प्रियतम को अच्छी तरह हृदय से लगाकर सुख भोग करने में उसे कोई लज्जा नहीं है, दोनों कुचों का मर्दन कराने में उसे कोई मालिन्य नहीं है। विविध मधुर भावों से युक्त वह देखती है परन्तु कहती कुछ नहीं। नीवी (कमर के वस्त्र बांधने की डोरी) को खोलते समय वह पहेली की तरह कुछ बोल बोलती है। विविध आनंददायी क्रीड़ाओं सहित आलिंगन करती है किन्तु पावन-स्वच्छ बसंती पवन सुख नहीं लेने देती। अधरों से अधरों को मिलाने और चुम्बन-रस का पान कराने में वह नहीं डरती, संशय विहीन मन से दाँतों की नुकीली नोकों से दबाकर वह हर्षित होती है, फिर नाहीं करती है। नायिका बहुत चतुर है वह नायक को चैन नहीं लेने देती।

बुन्देलखण्ड के साहित्यकार 

शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)

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