नर्मदा यात्रा का एक पड़ाव Dhunadhar – Bhedaghat वह जल-प्रपात जहाँ नर्मदा के नये-नये अचरज रचे हैं । जहाँ सत्य तरल होकर बूँद-बूँद में बँट रहा है । जहाँ झर-झर झरती बूँदियों की गोराई एवं लुनाई मिलकर प्रबल सम्मोहन और विराट सौन्दर्य सिरजती हैं ।
मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर से दक्षिण-पश्चिम में 21 किलोमीटर दूर । धरती के हरे दुपट्टे में ढँका संगमरमरी सौन्दर्य । किनारे पर चौसठ योगिनी मंदिर। मंदिर के भीतर नंदी पर सवार शिव पार्वती की प्रतिमाएँ । नर्मदा के पत्थरों-रेत पर बनी छोटी-छोटी झोपड़ियाँ । बीच में से पतली संकरी गली । गली के दोनों ओर की टापरियों में लकड़ी के पटिये रखकर बनाया गया तीर्थ-स्थल की दुकानों का स्वरूप।
उन दुकानों- जैसी दुकानों पर बैठी सरस्वती, लक्ष्मी, गणेश, गौरी-शंकर, राधा-कृष्ण, शिव लिंग की संगमगरमरी मूर्तियाँ। साथ ही जीवन का शृंगार करने वाले बेडौल पत्थरों के सुघढ़ आभूषण। इतने सारे भगवानों और मनुष्य की सूरत को संवार देने की कूबत रखने वाले अनेक पत्थरों के उपकरणों को बनाते हुए, बेचते हुए नर्मदा तीरी लोग।
उम्र के अलग-अलग साँचे में ढले चेहरे – हीन – चेहरे । बाहर से आये पर्यटकों के चेहरों को तौलती हुई आँखें । मूर्तियों का भाव – मोलकर बिखरे जीवन को दोनों हाथों को समेटती सूरतें । पीछे दक्षिण तरफ सतपुड़ा की ऊँची-ऊँची अचल पहाड़ियाँ । बहुत नजदीक से गिरती, पड़ती, उठती, झुठलाती, शांत बहती नरबदा ।’आओ बाबू! सरसुती, लच्छमी, गनेस, गौरा-संकर, किसन भगवान लै जाओ।’
एक छोटी दुकान पर बैठी बारह – पन्द्रह बरस की बच्ची ने मुझे पुकारते हुए कहा। पत्थरों का छोटा मंच बनाकर उस पर लकड़ी का एक पटिया रखा था और उस पर दस-पन्द्रह विभिन्न आकृतियों की मूर्तियाँ जमीं हुई थीं। ऊपर जंगली घास की बनी छपरी, लकड़ी के पतले चार खम्भों पर टिकी थी। उसकी चितकबरी छाया में धूल जमें गुलदाउदी के फूल-सरीखी लड़की अपनी मेहनत को आकार दे रही थी । एक संगमरमर के सफेद झक पत्थर के टुकड़े पर वह लोहे की सलाई से कुछ उकेरे रही थी । मैंने रूककर पूछा- ‘सरस्वती की
मूर्ति कितने की है ?’
‘ चालीस रूप्पया की । ‘
‘तीस में आ सकती है क्या? ‘
‘नई बाबूज! मूर्ति बड़ी है और अपसूरत भी । जाहे बनाबे में बड़ी मेहनत लगी है ।’
‘अच्छा, लाओ पैंतीस लगा दो ।’
अच्छी बात है, लै जाओ बाबू, तुमरे हाथ की बोनी सही । ‘
‘अरे दिन के बारह बज रहे हैं, अभी तक बोनी नहीं हुई? झूठ बोलती हो ।’
‘नई, मैं झूठ नई बोल रई । नरबदा मैया के किनारे बैठ के कोई कैसे झूठ बोल सकत है ? ‘ ‘यह तुम क्या बना रही हो ?’ ‘लच्छमी जी की मूरती ?’ ‘तुम्हारा नाम ?’ ‘सरसुती।’
‘सब मूर्तियाँ तुमने ही बनायी ?’
‘नई, मैं मोटे-मोटे हाथ-पाँव बना देत हूँ । बाकी सब हमरे बब्बा करत है।’
‘तुम्हारे बब्बा कहाँ गये ?’
‘पहाड़ पे पत्थर लैबे ।’
मैं पैंतीस रूपये में सरस्वती की मूर्ति ले लेता हूँ । सोचता हूँ यह सरस्वती होकर लक्ष्मी बना रही है।
आगे बढ़ता हूँ । सामने है- भेड़ा-घाट का वह जल-प्रपात जहाँ नर्मदा के नये-नये अचरज रचे हैं । जहाँ सत्य तरल होकर बूँद-बूँद में बँट रहा है । जहाँ झर-झर झरती बूँदियों की गोराई एवं लुनाई मिलकर प्रबल सम्मोहन और विराट सौन्दर्य सिरजती हैं । जहाँ लहर- लहर पर तैरता शिव किनारों को, धवल शिलाखण्डों को, उन पर खड़े मनुष्यों को और मनुष्य के अस्तित्व को जिंदा रखने वाली धूल-धूसरित प्रकृति को रह-रहकर छू रहा है ।
जहाँ अनादि काल से रेवा का जल ऊँचाई से नीचे की ओर उतर रहा है। पृथ्वी के गर्भ में जाकर वापस सतह पर प्रकट होकर उत्सव रच रहा है। संगमरमरी स्पर्शों के बीच ठुमुक- ठुमक कर प्रवाहित होता धरती पर जीवन-रेख खींच रहा है । मैं इस जल-महोत्सव-स्थल के एकदम सामने वाले पथरीले टीले पर बैठ जाता हूँ।
एक अजीब सम्मोहन में आँखें फँस जाती हैं। पूरी देह वशीकरण में बँध जाती है। कानों में वंशी -रव-सा घुलने लगता है । सबके साथ रहकर भी मेरी चेतना भीड़ से छिटककर उस जल-पात के सनातन – स्वर की भीड़, तान, लय, अलाप में डूब जाती है। इस स्वर में जीवन और जगत के छंदों की गुनगुनाहट थिरक रही है ।
ईश्वर धरती पर अवतरित होता है, तो उसे भी ऊँचे से नीचे की यात्रा करना पड़ती है। संसार को बनाते समय उसे स्वयं अनगिनत खण्ड-खण्ड होकर तत्त्वों, जीवों, पदार्थों कण-कण में समा जाना होता है। पुन: इन सबसे जुड़कर वह विश्व को अपना प्रतिरूप या समरूप की सत्ता देता है। वह खण्ड-खण्ड होकर भी अखण्ड है ।
सबके भीतर अलग-अलग होकर भी आत्म रूप में एक है। ब्रह्म धरती पर आकर और महान बन जाता है। उसकी इयत्ता और महत्ता में अकूत शक्ति और आकर्षण की श्रीवृद्धि होने लगती है। यही वह जीवन का मूल होते हुए जीवन का मालिक बन जाता है। जब-जब स्वर्ग से धरती पर ब्रह्म का अवतरण हुआ, तब-तब धरती के आँगन ने बधावा गाये हैं । ईश्वर का मान बढ़ा है। इसीलिए जल ऊपर से नीचे गिर रहा है। अनवरत गिर रहा है । शक्कर की चासनी सरीखा मीठा-मीठा गिर रहा है। गिरकर दूध का कुंड बन रहा है ।
उबलता हुआ दूध-कुंड । लेकिन यह दूध शीतल है। जीवनदायी है । आँखों को नम और मन को अपूर्व तृप्ति देने वाला है। इस दूध-धारा, अनूठे कुंड और वहाँ से एक नया संगीतमय संदेश लेकर बहती नर्मदा जीवन में एक बार भी देखने से जीवन सफल हो जाने की बिंदु के करीब अपने को खड़ा पाता है ।
यह जल बूँद-बूँद में विभाजित होकर फिर अखण्ड बन रह है । जन्म-मरण के श्वेत-श्याम पत्थरों के बीच जीवन (जल) बनकर अग्गम दिशा की ओर बढ़ रहा है । जब यह जल मैदान में पहुँचकर खेतों के अधरों को रसवंती मुस्कान देता है, तो अण्डज, पिण्डज, उदिभज सब इसकी पूजा करने लगते हैं। शरीर अंजुरी बन जाता है और देह-जनित अस्तित्व जल के इस शिवत्व पर श्रद्धा तथा प्रेम बनकर अर्घ्य स्वरूप चढ़ जाता है ।
‘अप एव ससर्जाद, तासु बीजमवासृजत्।’ (मनुस्मृति)
सर्वप्रथम विधाता ने जल बनाया फिर उसमें बीज छोड़ा, उससे ही सृष्टि का निर्माण हुआ। जल विधाता की पहली कृति है। उससे जीवन बना । जल का एक पर्याय जीवन भी है। परम चेता के सृजन में कला को पहली आकृति थी। बूँद में बेमिसाल मिश्रण शक्ति होती है । जल – बिंदुओं का स्वाभाविक सम्मिश्रण जलनिधि बनने का दमखम रखता है ।
बूँद की प्रकृति है – दुरककर दूसरी बूँद से जा मिलना और विराट तरल संसृति रच देना । बूँदों के सात्विक जुड़ाव के सुपरिणाम में गर्भ में मोती निपजते हैं । रत्न-गर्भी सिंधु को संसार रत्नाकर कह उठा । जल आकाश को भूमि से जोड़ता है । स्वयं नभ से खिसककर धरती से जुड़ता है । यह ज़मीन से ज़मीन को भी जोड़ता है । जलविहीन धरती फट जाती है । टुकड़ों-टुकड़ों में बँट जाती है। विभाजन की रेखाएँ उभर जाती हैं। सूखी ज़मीन जैसे ही गीली होती है, उसकी छाती की गुम हो जाती हैं। जमीन व्यापक बन जाती है । सोंधी बन जाती है।
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की हमारी अवधारणा’ हैं। मुझे बुंदेली लोकगीत याद आता है-
नरबदा
ऐसी बहे
ऐसी बहे रे, जैसे दूध की धार रे ।
कला की तासीर भी जुड़नशील होती है । वह जोड़ती है, तोड़ती नहीं । वह अंतरात्मा के उस कक्ष से निकलती है, जहाँ मनुष्य जाति, वर्ण, स्तर, धर्म से परे विशुद्ध मानव होता है । कलाकार वस्तु को तीसरी आँख से देखता है। वह अपनी-अपनी प्रतिभा के प्रकाश में संसार की तहों में घुसता है और उसमें गड्डमड्ड पड़े लावण्य को अनन्त संभावनाओं के साथ पेश करता है। यह वह जगह है जहाँ कलाकार का दृष्टि-बोध और वस्तु का भीतरी मधुरस घुलता है, तथा मूर्ति, चित्र, साहित्य, संगीत, अभिनय और नृत्य के नये-नये साँचों में कला ढलने लगती है ।
दुनिया और खूबसूरत हो जाती है । विश्वकार पहला और सबसे बड़ा कलाकार है। ईश्वर और मनुष्य की कला में फर्क यह है कि उसकी कला निरंतर गतिमान है । सदैव उससे कुछ न कुछ नया बनता रहता है और दुनिया को नित्य नूतनता की टेक मिलती रहती है । मनुष्य की कला एक बार बनकर, बस बनी रहती है । कविता, मूर्ति, चित्र एक बार रचकर छोड़ दिया जाने पर उसमें स्वयं – स्वतः कोई नया रचाव नहीं होगा । उससे बेहतर बनाने के लिए आदमी को दूसरी रचना करनी होगी ।
इतिहास लिखती भेड़ाघाट की इन धौली चट्टानों पर खड़े होकर मैं एक साथ कला की तीन धाराओं से धुँआधार में दृष्टि स्नान करता हूँ । जल की यह धार प्रथम मौलिक रचना है। जल से उद्भूत जीव- सृष्टि दूसरी धारा है । जीवों द्वारा वस्तुओं एवं तत्त्वों पर अपनी तीसरी आँख से सुन्दरता की रेख-रेख उकेर देना, बूँद से समुद्र बनने का दावा करने वाली विरल किन्तु अक्षुण्ण तीसरी धारा है।
कीरति भनिति भूति भल सोई । सुरसरि सम सब कहँ हित होई ॥
रचना की उदात्त भूमिका एवं उपादेयता उसके कल्याणकारी स्वरूप में ही है। सत्य की ताकत और सुन्दरता का प्रतिफलन वसुधा पर लोकहित में है। लोक मंगल में है। प्रकृति के अणु – अणु की इतिश्री दान में है । प्रकृति अनवरत देती है। निरंतर त्यागती है । जन-जन में अविराम मंगल कुंकुम छिड़कती है। भागीरथी ब्रह्मा के कमंडल से, शिव के मस्तक से, हिमालय से नीचे उतरती है। नर्मदा अमरकंटक से निकलकर भेड़ाघाट में प्रपात बनाती है।
दोनों निम्नगा हैं । भरे बादल आकाश से धरती पर बुंदनिया बरसाते हैं । वृक्ष फलों से लदकर नीचे की ओर झुकता है । फल शाखा से टूटकर भूमि पर गिरता है। फूल खिलकर, मुरझाकर भू-लुंठित होकर, बीज रूप में शेष रहकर ही जीवन का उत्सर्ग मानता है । रवि रश्मियों की गरमाहट एवं चन्द्रमा की किरणों की नरमाहट को जमीन पर विचरकर ही बड़प्पन मिलता है
पहाड़ों पर से पत्थर लुढ़ककर, कलात्मक हाथों में सजकर मूर्ति बनता है । जल की तरह, निर्मल फूल की तरह सौरभित व्यक्ति भी घमंड के सिंहासन से उतरकर जनमानस में खड़ा होता है । वह सबके बीच रहकर ही सबका अपना बनता है।
कला का विशिष्ट और सार्थक रूप यही है । इसीलिए तुलसी ने कृति के सर्वोत्तम उदाहरण के रूप में शिवत्व पूरित गंगा को रखा। शंकर की जटा से उतरकर गंगा धरती पर आयी है। नर्मदा भी शिव के औदार्य से मंडित है। मेकल शैल-सुता के जन्म से संबंधित कथाओं में से एक यह भी है कि वह अमर (महादेव) कण्ठ से निकली है ।
नीलकण्ठ के नीले कण्ठ से निकली है नर्मदा । भोले बाबा के जहर को गले में रोककर उसकी ज्वलनशीलता खत्म करने में कितनी मशक्कत करनी पड़ी होगी ? कितने दिन बाबा कावरे – बावरे घूमें होंगे ? कितने उजरे- आँधरे दिन-रात के आयामों पर नटराज ने समाधिस्थ होकर आत्मसंघर्ष किया होगा ? शिव ने विष पचा- पचाकर अखिल कल्याणमय रूप पा लिया। अपनी सीधाई और निस्पृहता से गरल की तिक्त नीलिमा को निस्प्रभावी बना डाला। यह शंकर जैसे कल्याण – साधक के ही बूते की बात थी। अन्यथा ऐसा बैंडा काम कौन करता?
संसार के सबसे बड़े माहुर को, युग की जबरदस्त तीखी कटुता को शिव ने मथ – मथकर कला के जन्म का संवेदना बिन्दु बना डाला । विषपायी के उसी कण्ठ से निकली है- कला की अमृतधारा। भेड़ाघाट की दूधधारा । रसों की सहस्त्रधारा । आम्रकूट की नर्म धारा। जन-जन के सूखे गलों की तृप्ति धारा । पथ के पत्थरों को भिगोती अभिषेक धारा। घाट-घाट पर धूमधड़ाका करती उत्सव – धारा । विन्ध्य – सतपुड़ा के बीहड़ों में उछलती- कूदती विजय – धारा । जम्मू- द्वीप के मध्यप्रदेश की जीवन-धारा। शिव की हर्ष – धारा । नर्मदा की लहर-लहर खुशहाली के छन्द लिखती है, जिसकी बूँद-बूँद में शिव का शिवत्व घुला हुआ है-
‘नर्म (हर्षम्) ददाति इति नर्मदा ।’
धुँआधार में सूर्य जब इस अनवरत गिरती रेवा की धारा को डरते- डरते छूने की कोशिश करता है तब सात रंग उभर आते हैं। कितने-कितने इन्द्रधनुष बनते-बिगड़ते हैं । जीवन की छिन बनती, छिन मिटती इच्छाओं की तरह । नर्मदा आगे बढ़ती है तो संगमरमर की गलियों से लहराती आगे बढ़ती है। धुँआधार के बाद नर्मदा छिप-सी जाती है। खड़े होकर आर-पार सफेद पत्थरों के और कुछ नहीं दिखता। नर्मदा शांत हो जाती है ।
चुप-चुप सी । दोनों ओर सफेद पत्थरों के पहाड़ ऐसा लगता है कि धुँआधार में गिरती नर्मदा को धरती माँ दोनों को सहला रही हो । अपनी गोरी-गोरी हथेलियों से उसके गालों को सहलरा रही है । उसे समझा रही हो। नर्मदा उन हथेलियों से अपने को बार-बार रगड़ती है । बीच से बहती है । स्थिर होती है । सुस्ताती है । अपनी चपलता में गंभीरता को गुनती है। संगमरमर से बने धरती के उस धवल आँचल में मेकलसुता ममता का स्वाद चखती है।
संगमरमर तो संगमरमर है । धरती के कठोरतम की कोमलता प्रतीति है – स्फटिक पत्थर । धरा ने अपने अन्दर का जो सौन्दर्य रस था – उसे ठोस रूप देकर अपनी सतह पर धर दिया हो । या द्वापर संस्कृति में खाने के बाद बगराया हुआ नवनीत इकट्ठा होकर ठोस हो गया हो। (इस धरती पर युग कई बार एक के बाद एक आये हैं) या भारतीय मन की उज्जवलता रेवा के जल में पैर डुबोकर अपने समय की तिक्तता का शमन कर रही हो । या कपास के बड़े-बड़े ऊँचे-ऊँचे ढेर लगे हों तथा नर्मदा तथा कपास दोनों मिलकर नग्न मानवता का ढाक-टोप करने की जुगत कर रहे हों ।
कोमल जल, कठोर किन्तु सुन्दर पत्थर के पहाड़ों में से बह रहा है । भेड़ाघाट क्षेत्र में नर्मदा कितने-कितने कौतुक करती है। नर्मदा के फैले जल पर छोटी-सी नाव में बैठकर आदमी को एकदम अपनी लघुता का भान होता है। हे प्रभु! तेरा रचा हुआ यह संसार-समुद्र कितना बड़ा है और उसमें तैरती मेरी – जीवन – तरणी कितनी छोटी है। फिर नाव है कि तैरती रहती है। चलती रहती है । इतना बड़ा संसार है।
उसके छोटे से भाग भेड़ाघाट में संगमरमर की बस्ती है, इसमें से छरहरे बदन की कन्या-सी रेवा किलक भरती, गूँजती, गंभीर होती, भोली- सी, बिछलती, ठुमकती, कुलाचें भरती रहती है । इस तरह का स्थान पूरे विश्व में और कहीं नहीं है, जहाँ कोई नदी संगमरमर के पहाड़ों के बीच से बहती हो ।
नाव में आधार है। नाव के बाहर नर्मदा है। नर्मदा में सफेद पत्थरों के ऊँचे पहाड़ों में धँसते जाइए, नर्मदा गहरी और गहरी होती चली जाती है । नाव घाट से धुँआधार तरफ अथाह की थाह लेती नर्मदा न जाने जीवन-जगत के कितने गूढ़ रहस्यों को रचती है। नाव में बैठे अनुमाने कि नीचे नर्मदा धरती के गर्भ को छू रही है और उन मक्खनी प्रस्तर पहाड़ों की दूरबीन से ऊपर देंखे तो लगता है नर्मदा अपने अदृश्य हाथों से आकाश की ऊँचाई भी नाप रही है।
धरती-आकाश के बीच एक कुँआरी नदी है। जन्म और मृत्यु। प्रकृति और पुरुष के बीच आत्मा कुँआरी है । इस कुँआरेपन को बचाने के लिए नर्मदा पहाड़ों से गुजरती है । पत्थरों को काटती है । शिलाखण्डों को तराशती है। नरम जल पत्थरों पर निशान छोड़ देता है। नर्मदा संघर्ष करती है । नर्मदा का संघर्ष कलाकार का संघर्ष है। भारतीय किसान का संघर्ष है। अपने संघर्ष के सुफल नर्मदा देती ही देती है । किसान की तरह । कलाकार की तरह। नर्मदा अपनी कला का सर्वोत्तम रूप बताती है ।
भूल-भुलैया में और बन्दर कूदनी में। भूल-भुलैया ऐसी कि पता ही न चले नर्मदा किधर से आ रही है? और बन्दर कूदनी में दोनों कगारे इतने पास-पास कि बंदर छलांग लगाये और इस पार से उस पार । आगे स्वर्ग द्वारी है। प्रकृति की समृद्ध हरियाली के बीच संगमरमरी सौन्दर्य स्वर्ग की कल्पना को साकार करता है। बंदर कूदनी से लेकर भूल-भुलैया तक रेवा अपनी जल की, लहरों की कूँचियों से मानव, हाथी, बंदर, ऋषि, शिष्य, दो बालक आदि के अलग- अलग चित्र उकेरती है।
पत्थरों पर उभरी रेखाएँ इन आकृतियों का भान कराती हैं। नर्मदा इन उजले पत्थरों पर एक संसार सिरजती है । सम्पूर्ण संसार। अपने इस रचे संसार के बीच में से अमरकंठी रेवा हुमसती बह रही है। बिना थके, बिना उदास हुए यह बहती – बहती हजारों-हजारों वनस्पतियों की हरियाली और करोड़ों लोगों में आस्था बन लहराती है । यह किनारों की फसलों की मार्फत दानों में दूध भरती है और आदमी को बेटे की तरह पालती है। रेवा बहते-बहते, जूझते – जूझते सबको भरते – भरते नरबदा मैया बन जाती है।
साफ जाहिर है जिसके हृदय में हर्ष की फुरफुरी उठेगी, वही अपनी क्रियाओं से दूसरों को हर्षित करेगा । जिसका मन सूखी धरती को खुशी के कणों से भिगो देने के लिए आमादा होगा, वही तो बुझे-बुझे नेत्रों में स्फूर्ति जगाएगा। विषण्ण चेहरों पर चमक लाएगा। उछलेगा, कूदेगा, नाचेगा, झूमेगा और अपने साथ ही सबमें ऐसा करने की कौंध पैदा कर देगा। शिव कन्या भी ऐसा ही करती है। ‘रेवते इति रेवा’ ।
रेवा का अर्थ है- उछलने वाली । उछलने, कूदने वाली रेवा ने अमरकंठ से लेकर सिन्धु के देश तक धरती के पत्थरदार पन्नों पर पुलकावलि के छन्द लिखें हैं । निर्जनों एवं बीहड़ों को अनुबंध लिखे हैं। मैदान की अपेक्षा अधिकतम रास्ता पर्वतीय तय करने के बावजूद जल की महिमा, धारा का सौंदर्य और जीवन की मस्ती को छुट्टे हाथों से लोगों को लुटाया है।
संस्कृति की आदिम लय यहाँ अभी जिन्दा है। इसीलिए तो ‘नरबदा मैया की जय’ और ‘मैया अमरकण्ठ वाली की जय’ के जयकारों से इसके तटबंध सजे हैं। जय-जयकार उसकी होती है, जो झंझटों, झंझावातों और संघर्षों में से साबुत निकलकर काल की छाती पर ध्वजा फहराता है। जो निरभिमान होकर स्वाभिमान पूर्वक जगत के फफोलेदार तलुओं में ठंडक बनकर लिपट जाता है । प्रलयकारी शिव इसी अर्थ में ‘महादेव’ हैं।
जबरदस्त उथल-पुथल के बाद गले से फूटी शिव की कला, रेवा की दूध-सी धवल जलधार बनकर बह रही है। नर्मदा ने पग-पग पर अपने मार्ग को कलात्मकता दी है। उसकी अक्खड़ सृजनशीलता का सर्वोत्तम उदाहरण ‘धुँआधार’ की मनोरमता है । धुँआधार में गिरती जलधाराओं ने पत्थरों को काटकर, तराशकर कला कृतियों से खचाखच भरा संग्रहालय बनाया है। नर्मदा के जल पर बैठा पत्थर – पत्थर बटुक की तरह नदी की भागवत-कथा बाँच रहा है । इस सनातन नदी की देखा-देखी रेवा तटवासी, कला-सृजक नदी की संस्कृति की बेडौल पत्थरों पर उकेर उकेर कर जीवन के नये आयाम खोज रहे हैं।
नर्मदा की गिरती तीन धाराओं, दूधिया, कुण्ड, बहते फेनिल नीर में से उबरकर अपनी औकात के तट पर आ टिकता हूँ । पाता हूँ कि नरबदा मैया ने फुहारों से आशीर्वाद देकर मुझे आपादमस्तक नम कर दिया है । ब्रह्म से नदी (जल), नदी से जीव और जीव से जीवन की अनवरता को शाश्वत रखने की सहज साध में नर्मदा स्वयं एक संस्कृति बन गयी है ।
लौटते में देखता हूँ कि जहाँ से मैंने सरस्वती की मूर्ति ली थी, दूकान पर उसी जगह लक्ष्मी जी की मूर्ति बैठ गयी है। बाहरी लोग अपनी-अपनी तिकड़म से लक्ष्मी को खरीदने की फिराक में आ-जा रहे हैं । रूखे गालों और पपड़ाये होठों वाली वह बच्ची अपनी पानीदार आँखों में चौकन्नी है। जिन्दगी के न जाने किस मोड़ से आज तक उसका बब्बा फटी मिरजई पहने बूढ़ी आँखों में चिंगारी लिये अनगढ़ पत्थरों को मूर्तियों में बदल रहा है।
शोध एवं आलेख -डॉ श्रीराम परिहार