Chol Kalin Shasan Vyavastha में एक सुविस्तृत अधिकारी तंत्र था जिसमें विभिन्न दर्जे के पदाधिकारी होते थे। केन्द्रीय अधिकारियों की कई श्रेणियां होती थी। सबसे ऊपर की श्रेणी को ‘पेरून्दनम’ तथा नीचे की श्रेणी को ‘शिरूदनम्’ कहा जाता था। लेखों में कुछ उच्चाधिकारियों के ‘उछन्कूट्टम’ कहा गया है जिसका अर्थ है-सदा राजा के पास रहने वाला अधिकारी। उनका कार्य सम्बन्धित विभागों के कर्मचारियों को राज्य की नीति बताना तथा राजा को प्रान्तों की आवश्कता से अवगत कराना था।
Chola Period Rule System
राज्य के प्रबन्ध में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। पदाधिकारियों को नकद वेतन के स्थान पर भूमिखण्ड दिये जाते थे। चोल लेखों से प्राधिकारियों की कार्यप्रणाली पर प्रकाश पड़ता है। और पता चलता है कि सम्राट जब किसी विषय पर निर्णय देता था तो उससे सम्बन्धित सभी अधिकारी उपस्थित रहते थे। सर्वप्रथम “औले’’ नामक पदाधिकारी राजा के आदेश का कच्चा मसौदा तैयार करता था। इसकी जांच “औलेनायगम्’’ नामक वरिष्ठ पदाधिकारी द्वारा तैयार की जाती थी। तत्पश्चात् इन आदेशों को अस्थायी पंजियों में लिपिबद्ध कर संबन्धित विभाग तक पहुँचा दिया जाता था।
स्थानीय प्रशासन
प्रशासन की सुविधा के लिए विशाल चोल साम्राज्य छः प्रान्तों में विभाजित था। प्रान्त को “मण्डलम’’ कहा जाता था जिसका शासन एक वायसराय के हाथ में होता था। इस पद पर प्रायः राजकुमारों की ही नियुक्ति की जाती थी, किन्तु कभी-कभी इस पद पर वरिष्ठ पदाधिकारियों अथवा पराजित किये गए राजाओं की भी नियुक्ति की जाती थी। “मण्डलम्’’ के शासकों के पास अपनी सेना तथा न्यायालय होते थे। कालांतर में यह पद अनुवांशिक हो गया।
प्रत्येक ‘मण्डलम्’ में केन्द्रीय सरकार का एक प्रतिनिधि रहता था जो मण्डलीय शासक के गतिविधियों पर दृष्टि रखता था। ‘मण्डलम्’ का विभाजन कई ‘कोट्टम’ अथवा ‘वलनाडु’ में हुआ था जो आजकल की कमिश्नरियों के बराबर होते थे। प्रत्येक ‘कोट्टम’ में कई जिले होते थे। जिले की संज्ञा ‘नाडु’ थी। ’नाडु’ की सभी को ‘नाट्टार’ कहा जाता था। जिसमें सभी गांव तथा नगरों के प्रतिनिधि होते थे। इसका मुख्या कार्य भू-राजस्व का प्रबन्ध करना था।
इसे किसी भू-राजस्व में छूट दिलाने का भी अधिकार था। ‘नाडु’ अपने नाम से दान देते तथा ‘अक्षयनिधियां’ प्राप्त करते थे। ‘नाट्टार’ को भूमि का वर्गीकरण करने तथा तदनुसार राजस्व निर्धारित करने का भी काम सौंपा गया था। इसे किसी भू-राजस्व में छूट दिलाने का भी अधिकार था। कभी-कभी यह मंदिर का प्रबन्ध भी करती थी। कुलोतुंग के शासनकाल के दसवें वर्ष पुरमलेनाडु के नाट्टार ने तीर्थमलै मंदिर (सेलम जिला) का प्रबन्ध देखने के लिए पुजारियों की नियुक्ति की थी।
करिकाल कालीन जंबै लेख से पता चलता है कि वाणगप्पाडि के नाडु को वालैयूरनक्कर योगवाणर के मंदिर का प्रबन्ध सौंपा गया था। कुछ स्थानों में हम नाट्टार को अन्य संघटनों तथा राजकीय पदाधिकारियों के साथ मिलकर न्याय प्रशासन एवं अन्य कार्यों में सहयोग करते हुए पाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि शांति व्यवस्था कायम करने अथवा भूमि का प्रबन्ध करने के उद्देश्य से विभिन्न नाडुओं को मिलाकर संगठन बनाए जाते थे।
कुलोतुंग तृतीय के समय में तिरूवारंगलुम मंदिर के एक लेख में सम्पूर्ण नाडु के एक संगठन का उल्लेख मिलता है। राजराज प्रथम के एक लेख में 12 नाडुओं की सभा की चर्चा है। नाडु के खर्च के लिए ’नाडुविनियोगम्’ नामक कर लिया जाता था, नाडु के अन्तर्गत अनेक ग्राम संघ थे जिन्हें ’कुर्रम’ कहा जाता था, व्यापारिक नगरों में ’नगरम्’ नामक व्यापारियों की एक सभा होती थी।
व्यापारियों की संस्थाओं (श्रेणियों) को सरकार की ओर से मान्यता प्राप्त थी। उनके पास अपनी सेना भी थी जिससे वे अपनी सुरक्षा भी करते थे। बड़े नगरों में अलग कुर्रम गठित किये जाते थे। जिन्हें ‘तनियूर’ अथवा ‘तंकुर्रम’ कहा जाता था। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम सभा होती थी।
ग्राम-शासन
चोल शासन की सबसे उल्लेखनीय विशेषता वह असाधारण शक्ति तथा क्षमता है जो स्वायत्त शासी ग्रामीण संस्थाओं के संचालन में परिलक्षित होती हैं। वस्तुतः स्वायत्त शासन पूर्णतया ग्रामों में ही क्रियान्वित किया गया। उत्तरमेरूर से प्राप्त 919 तथा 929 ई. के दो लेखों के आधार पर हम ग्राम सभा की कार्यकारिणी समिति की कार्य-प्रणाली का विस्तृत विवरण प्राप्त करते है। प्रत्येक ग्राम में अपनी सभा होती थी जो प्रायः केन्द्रीय नियंत्रण से मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से ग्राम शासन का संचालन करती थी। उस उद्देश्य से उसे व्यापक अधिकार प्राप्त थे।
उर
नीलकंठ शास्त्री के अनुसार इससे तात्पर्य ‘पुर’ से है जो गांव और नगर दोनों के लिए प्रयुक्त होता था। कुछ लेखों में ‘ऊराय-इशैन्दु-उरोम’ अर्थात ग्रामवासी उर के रूप में मिले, उल्लेखित मिलता है। इससे सूचित होता है कि उर की बैठकों में सभी ग्रामवासी सम्मिलित होते थे और यह सामान्य मनुष्यों की संख्या थी। उर की कार्य-समिति को आलुंगणम (शासक-गण) अथवा ‘गणम’ कहा जाता था।
समिति के सदस्यों की संख्या अथवा उनके चुनाव की विधि के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं मिलती। ऐसा लगता है कि कुछ सभाओं के लिए एक ही कार्य समिति होती थी जो सभी विषयों की देख-रेख करने के लिए उत्तरदायी थे क्योंकि कुछ कार्य समितियों में हम विद्वान ब्राह्मणों को भी सदस्य के रूप में देखते हैं। कहीं-कहीं एक ही ग्राम में दो उर संगठन भी कार्य करते थे।
1227 ई. में शात्तमंगलम में दो उर थे-पहला हिन्दू देवदान भाग के निवासियों का तथा दूसरा जैन पल्लिच्चन्देम लोगों का। दोनों ने मिलकर कुछ भूमि एक तालाब तथा पुष्पवाटिका के लिए दान में दिया तथा उसे करमुक्त घोषित कर दिया। 1245 ई. में ’उत्तरकुर्रम’ तथा अमणकुंडि नामक ग्रामों में दो-दो उर कार्य कर रहे थे।
सभा या महासभा
अग्रहार ग्रामों में मुख्यतः विद्वान ब्राह्मण निवास करते थे। इनमें शासन के लिए ’महाजन’ नामक संस्था थी। जिसमें ब्राह्मणों के प्रतिनिधि शामिल थे। तोंडमण्डलम् तथा चोलमण्डलम् के लेखों से अग्रहार के विषय में सूचना मिलती है। इनसे स्पष्ट है कि कांची तथा मद्रास क्षेत्रों में ऐसी कई सभायें थी। सभा मुख्यतः अपनी समितियों के माध्यम से कार्य करती थी। इन्हें ‘वारियम’ कहा गया है। इस शब्द का अर्थ स्पष्ट नहीं है।
तमिल में इसका अर्थ आय तथा कन्नड़ में ’कड़ी माँग’ है। नीलकंठ शास्त्री इसे संस्कृत ’वार्य’ का तमिलरूप मानते हैं जिसका अर्थ है चुना हुआ। एक लेख में सभा की कार्यसमिति को ‘वरणम्’ कहा गया है। सभा द्वारा किसी कार्य विशेष के लिए नियुक्त व्यक्तियों को ’वारियर’ कहा जाता था। स्पष्ट है कि ‘वारियम’ को कोई न कोई विशेष कार्य सौंपा जाता था। कहीं मंदिर का प्रबन्ध करने तथा कहीं देवदान भूमि का प्रमाणिक विवरण देने और उसकी सीमा लिखने का कार्य ‘वारियम’ को दिया गया है।
तोंडमण्डलम तथा चोलमण्डलम् के लेखों से अग्रहार के विषय में सूचना मिलती है। इससे स्पष्ट है कि कांची तथ मद्रास क्षेत्रों में ऐसी कई सभायें थी। कभी-कभी ये दोनों ही संस्थाएं एक ही ग्राम में कार्य करती थी जिन स्थानों में पहले से कोई बस्ती होती थी तथा वे बाद में ब्राह्मणों को दान में दे दिये जाते थे वहां ’उर’ तथा ’सभा’ साथ-साथ कार्य करती थी।
ऐसे गांवों के मूल निवासी ‘उर’ में मिलते थे जबकि नावागंतुक ब्राह्मण अपनी सभा गठित कर लेते थे। ग्राम सभा के सदस्यों की संख्या भिन्न-भिन्न स्थानों पर अलग-अलग होती थी। कहीं-कहीं सभी व्यस्क पुरूष इसके सदस्य होते थे जबकि कुछ स्थानों में यह एक निवार्चित संस्था थी, ऐसी स्थिति में इसके सदस्यों का चुनाव ग्राम वासियों द्वारा किया जाता था तथा सदस्यों के लिए कुछ निर्धारित योग्यताएं भी होती थी।
ग्राम सभा की बैठकें प्रायः मंदिरों एवं मण्डपों में होती थी, बैठक के लिए निर्धारित स्थान को ’ब्रह्मस्थान’ कहा जाता था। कभी-कभी गांव के बाहर वृक्षों के नीचे अथवा किसी तालाब के तट पर भी ग्रामसभा की बैठकें होती थी। इस बैठक के लिए लोगों को ढोल पीटकर आहूत किया जाता था। प्रत्येक सभा अथवा महासभा के अन्तर्गत कई सीमितियां होती थी जिन्हें ‘वारियम’ कहा जाता था। ये समितियां अलग-अलग कहा जाता था। ये समितियां अलम-अलग विभागों का काम देखती थी।
उत्तरमेरूर से प्राप्त परान्तक प्रथमकालीन दो अभिलेखों से समिति के सदस्यों के निर्वाचन के सम्बन्ध में भी कुछ सूचनाएं दी गई हैं। तदानुसार समिति के सदस्यों को चुनने के लिए तीस वार्डों (कुटुम्बस) में बांटा जाता था। ग्राम के लोग जो 35 से 70 वर्ष की आयु के होते थे जिनके पास 1/4 वेलि अर्थात डेढ़ एकड़ भूमि होती थी जो एक वेद तथा उसके भाष्य के ज्ञाता थे और जिनके पास निजी आवास होता था वे ही समिति के सदस्य निर्वाचित हो सकते थे।
अपराधी चरित्रहीन समिति की आय व्यय में घोटाला करने वाला तथा शूद्रों के सम्पर्क से दूषित हुआ व्यक्ति समिति का सदस्य नहीं बन सकता था। प्रत्येक वार्ड से एक व्यक्ति का चुनाव लॉट्री निकालकर (कुडुवौले पद्धति) किया जाता था। प्रत्येक उम्मीदवार का नाम अलग-अलग पत्रों पर लिखकर एक बर्तन में रखा जाता था और उसे हिलाकर मिला दिया जाता था। तत्पश्चात् किसी अबोध बच्चे से एक पत्र उठाने को कहा जाता था, वह जिस व्यक्ति नाम पर पत्र उठा लेता था वह समिति का सदस्य चयनित हो जाता था।
इस प्रकार कुल 30 व्यक्ति चुने जाते थे जिन्हें विभिन्न समितियों में रखा जाता था इनमें से 12 सदस्य जो वयोवृद्ध विद्वान एवं उद्यान तथा तटाक् समितियों में कार्य कर चुके होते थे। वार्षिक समिति में 12 उद्यान समिति में तथा 6 तटाक् समिति में रखे जाते थे। समिति के सदस्य 360 दिनों तक अपने पद पर बने रहते थे, शेष 5 दिनों में अपना हिसाब-किताब प्रस्तुत करते थे तत्पश्चात् वे अवकाश ग्रहण करते थे। यदि कोई सदस्य किसी अपराध का दोषी होता था तो उसे तत्काल पद से बाहर कर दिया जाता था।
अवकाश ग्रहण करने के पश्चात् समिति नियुक्त करने के लिए बारह विभागों के न्याय निरीक्षण की समिति के सदस्य की मध्यस्थ की सहायता से बैठक बुलाकर चुनाव करते थे। एक वर्ष बाद पुनः मतदान होता था। ऐसी व्यवस्था थी कि केवल वह व्यक्ति जो पिछले तीन वर्षों से किसी समिति का सदस्य नहीं रहा है, ही नया सदस्य चुना जाय। इस प्रकार प्रत्येक ग्रामवासी को समिति का सदस्य बनने का अवसर मिल जाता था।
इसके अलावा एक सामान्य समिति होती थी। जिसका कार्य सभी समितियों के कार्यों की देख-रेख करना होता था। इस समिति का एक सदस्य पहले किसी समिति के सदस्य जो पर्याप्त अनुभवी होता था, उसे ही बनाया जाता था। ग्रामसभा को राज्य के प्रायः सभी अधिकार मिले हुये थे। गांव की न्याय व्यवस्था से लेकर वित्तीय कार्यों जैसे बैंक, धन, भूमि तथा धान्य के रूप में जमा करती तथा फिर ब्याज पर उन्हें लौटा देती थी।
गांव की सभी अक्षयनिधियां ग्रामसभा के अधीन होती थी। सभा की ग्रामवासियों पर कर लगाने, वसूलने तथा उनसे बेगार लेने का भी अधिकार था। शिक्षण संस्थानों, मंदिरों व दानगृहों का प्रबन्ध, पीने के पानी, उपवनों, सिंचाई तथा आवागमन के साधनों की व्यवस्था, ग्रामवासियों के स्वास्थ्य, जीवन एवं सम्पत्ति की रक्षा करना तथा अकाल एवं संकट के समय ग्रामवासियों की उदारपूर्वक मदद करना इसके मुख्य कार्य थे।
इस प्रकार ग्रामसभा के अधिकार विस्तृत एवं व्यापक थे। केन्द्रीय सरकार को वार्षिक कर देना उनकी प्रमुख जिम्मेदारी थी। ग्राम सभा में ’मध्यस्थ’ नामक वेतनभोगी कर्मचारी होते थे जिनके माध्यम से उसके निर्णय कार्यान्वित किये जाते थे। उन्हें प्रतिदिन चार नाली धान, प्रतिवर्ष सात कलंजु सोना तथा एक जोड़ा वस्त्र दिया जाता था। जबतक ग्रामसभा अपने कर्तव्यों का पालन करती रहती तथा राज्य को नियमित कर पहुंचाती रहती, राज्य उसके शासन में हस्तक्षेप नहीं करता था।
ऐसे उदाहरण मिलते हैं। जब दो सभाओं में परस्पर विवाद की स्थिति में उन्होंने ही मध्यस्थता के लिए तीसरी सभा को मामला सौंपा तथा राज्य को सूचना नहीं दी, इससे स्पष्ट है कि ग्राम सभायें अपना कार्य करने के लिए स्वतंत्र होती थी, किन्तु ऐसे भी उदाहरण मिले हैं जिसमें राज्य का हस्तक्षेप रहा हो उदाहरण के लिए परवर्ती चोल युग में जब सभा के सदस्यों की आपसी गुटबन्दी तथा अर्न्तकलह से अव्यवस्था उत्पन्न हुई तो राजा ने अपने अधिकारियों की सूचना पर सभा में सुधार के लिए आदेश निर्गत किये।
ग्रामसभा के आय-व्यय का निरीक्षण समय-समय पर केन्द्रीय पदाधिकारी किया करते थे। इन कार्यों में सहायता देने वाले कर्मचारियों का वर्ग ’आयगार’ कहलाता था। यदि राज्य कोई ऐसा नियम बनाता जो किसी ग्राम की स्थिति को प्रभावित करता तो वह नियम ग्राम सभा की स्वीकृति से ही होता था। ग्राम सामान्य कार्यों मे नियुक्त कर्मचारियों के अतिरिक्त विशेष क्षेत्रों में शांति व्यवस्था कायम करने के लिए सरदरों या शक्तिशाली सामंत नियुक्त किये जाते थे तथा इन्हें ’पडिकावलकूलि’ नामक अलग कर दिया जाता था। इस प्रकार समस्त साम्राज्य में ग्राम संस्थाओं का विस्तार था।
अन्य समुदाय तथा निगम
ग्राम सभा के अतिरिक्त गांव में कई समुदाय और निगम होते थे जो सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक प्रकृति के थे। इनका अधिकार क्षेत्र किसी विशेष कार्य तक ही सीमित था। उदाहरण के लिए किसी मंदिर का प्रबन्ध देखने या संचालन हेतु समुदाय गठित किये जाते थे, इन समुदायों के सदस्य सभा के भी सदस्य थे। धार्मिक समुदायों की संख्या अधिक थी।
’मूलपरूडैयार’ नामक धार्मिक संगठन का उल्लेख मिलता है जिसका मुख्य कार्य मंदिर प्रबन्ध करना था। प्रत्येक गांव शेरियों (पुरवा या पल्ली), सड़कों और खण्डों में विभाजित किया गया था जो विभिन्न कार्य करते थे जैसे मंदिर प्रबन्ध कार्य आदि। नगरों में व्यापारियों के विभिन्न संगठन थे। ‘बाणांज’ शब्द का उल्लेख अनेक लेखों में मिलता है जो व्यापारियों के एक व्यापक संगठन का सूचक है।
‘नागरम्’ भी व्यापारिक क्षेत्र को कहा जाता था जिसका मुख्य कार्य व्यापार-व्यवसाय प्रोत्साहन था, तमिल देश में ‘बाणन्ज’ व्यापारियों की बस्तियों को ’वीर पत्तन’ कहा जाता था। इस प्रकार यह समुदाय आपसी सद्भाव पर आधारित थे। धर्म तथा प्राचीन परम्परायें इन्हें जोड़ने का कार्य करती थी। वस्तुतः चोल काल की सर्वाधिक महत्वपूर्ण इकाई स्थानीय प्रशासन थी जो गांव, नगर तथा मण्डल द्वारा संचालित थी। इन्हें अपने कार्यों में इतना अधिक स्वायत्ता प्राप्त थी कि उच्चस्तरीय प्रशासनिक व राजनैतिक परिवर्तनों से अप्रभावित थी। ग्राम राजनैतिक व आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर थे।
न्याय व्यवस्था
चोल साम्राज्य में न्याय के लिए नियमित न्यायालय का गठन किया था। लेखों में ‘धर्मासन’ तथा ’धर्मासन-भट्ट का उल्लेख मिलता है। धर्मासन से तात्पर्य सम्राट के न्यायालय से है। न्यायालय के पंडितों को ‘धर्मभट्ट’ कहा गया है। जिनकी परामर्श से विवादों का निर्णय लिया जाता था। अपराधों के सामान्यतः जुर्माने अदा किये जाते थे। नरवध तथा हत्या के लिए व्यवस्था थी कि अपराधी को मृत्युदण्ड के साथ ही साथ उसकी सम्पत्ति भी जब्त कर ली जाती थी।
तेरहवी शताब्दी के चीनी लेखक चाऊ-जू-कुआ ने चोलदण्ड व्यवस्था का वर्णन करते हुए बताया है कि अग्नि तथा जल द्वारा दिव्य परीक्षाओं का भी विधान था। पशुओं की चोरी के अपराध में व्यक्ति की सम्पत्ति जब्त कर मंदिर को दिये जाने के उदाहरण मिलते हैं। इस प्रकार चोल न्याय-प्रशासन सुसंगठित एवं निष्पक्ष था।
भूमि तथा राजस्व
चोल राज्य की आय का प्रमुख साधन भूमिकर था। भूमिकर ग्राम सभायें एकत्र करके सरकारी खजाने में जमा करती थी। इसके लिए शासक भूमि की माप कराया करते थे तथा उसकी उत्पादकतानुसार पर कर निर्धारण करते थे। यह आधे से लेकर चौथाई भाग तक होता था। राजराज प्रथम तथा कुलोत्तुंग प्रथम के समय में क्रमशः एक और दो बार भूमि की माप कराई गयी थी।
प्रत्येक ग्राम तथा नगर में रहने के स्थान, मंदिर, तालाब, कारीगर, आवास, श्मशान आदि सभी प्रकार के करों से मुक्त थे। कृषकों को यह सुविधा थी कि वे भूमिकर नकद अथवा द्रव्य के रूप में चुकायें, चोलों के स्वर्ण सिक्के ‘कलंजु’ या ‘पोन्’ कहे जाते थे। भूमि की बारह से अधिक किस्मों का उल्लेख मिलता है। राजस्व विभाग की पंजिका को ‘वरित्पोत्तगककणक्क’ कहा जाता था जिसमें सभी प्रकार के भूमि के ब्योरे रखे जाते थे।
इसके प्रमुख अधिकारी ‘वरित्पोत्तागकक’ कहलाते थे जो अपने-अपने अधिकार क्षेत्र के आय-व्यय का हिसाब रखते थे। भू-स्वामी के भूमिकर अदा न करने पर कुछ समय बाद उसकी भूमि दूसरे के हाथ बेच दी जाती थी। चोल इतिहास के परवर्ती युग में केन्द्रीय शक्ति के निर्बल होने पर स्थानीय पदाधिकारी के मनमाने ढंग से प्रजा का उत्पीड़न होने लगे थे। जिससे जनता के विद्रोह के उदाहरण भी मिलते हैं। राजराज तृतीय तथा कुलोत्तुंग प्रथम के काल में इस प्रकार के विद्रोह किये गये।
अन्य कर
भूमिकर के अतिरिक्त व्यापारिक वस्तुओं, विभिन्न व्यवसायों, खानों, वनों, उत्सवों आदि पर भी कर लगते थे। नगरों में बेची जाने वाली वस्तुओं पर कर वसूल करने का काम ’नगरम्’ द्वारा किया जाता था। तट्टोपाट्टम (स्वर्णकारों), नमक (उप्पायम्), दुकानों (इंगाडिपाट्टम) आदि मुख्य करों का उल्लेख मिलता है। राज्य की आय का व्यय अधिकारीतंत्र, निर्माण कार्यों, दान, यज्ञ महोत्सव आदि पर होता था।
सैन्य संगठन
चोल राजाओं ने एक विशाल सेना का निर्माण किया था। उसके पास अश्व, गज एवं पैदल सैनिकों के साथ ही साथ एक अत्यन्त शक्तिशाली नौसेना भी थी, इसी नौसेना की सहायता से उन्होंने श्रीविजय, सिंहल, मालदीव आदि द्वीपों की विजय की थी। चोल शासक स्वयं कुशल योद्धा थे और वे अधिकतर व्यक्तिगत रूप से युद्धों भाग लिया करते थे, सेना के कई दल थे लेखों में बडपेर्र (पद्धति सैनिक), बिल्लिगल (धर्नुधारी सैनिक) आदि का उल्लेख मितला है।
कुछ सैनिक सम्राट की सेवा में निरंतर उपस्थित रहते थे तथा उसकी रक्षा के लिए अपने प्राण तक न्योछावर कर सकते थे। ऐसे सैनिकों को ’वैलेक्कारर’ कहा गया है। सैनिक सेवाओं के बदले में राजस्व का एक भाग अथवा भूमि देने की प्रथा थी। चोल सैनिक अत्यधिक अनुशासित एवं प्रशिक्षित होते थे। साथ ही साथ क्रूर तथा निर्दयी भी होते थे। विजय पाने के बाद शत्रुओं की हत्या कर देते थे। पाण्ड्य तथा पश्चिमी चालुक्य राज्यों में उनका व्यवहार इसी प्रकार रहा।