महाराजा छत्रसाल जब तक जीवित रहे तब तक येन केन प्रकारेण वह बुंदेलखंड की रक्षा करते रहे बुंदेलखंड में एकता – अखंडता बनाए रखने में सहायक रहे। महाराज छत्रसाल की मृत्यु के पश्चात उनका ही राज छिन्न-भिन्न होने लगा था। Chhtrasaal Ke Bad Bundelkhand के अन्य छोटे-छोटे राज्य आपस में फिर से लड़ने लगे थे।
महाराज छत्रसाल की मृत्यु विक्रम संवत् 1788 मे जेठ बदी 3 बुधवार तारीख 19मई सन् 1731 को हुआ था। महाराज छत्रसाल के बहुत से पुत्र थे, परंतु महाराज के आदेशानुसार सब राज्य के अधिकारी नही हुए। महाराज छत्रसाल की मृत्यु के समय बाजीराव पेशवा भी पन्ना पहुँच गए थे। इनको महाराज छत्रसाल ने अपने राज्य का तीसरा भाग देने का वचन दिया था। शेष दो भाग हृदयशाह और जगतराज को मिले ।
महाराज छत्रसाल के पुत्रों के नाम – (1)हृदयशाह (हिरदेसाह) (2) जगतराज (3)पदमसिंह (4)भारतीचंद (5)हमीर (6)माधोसिह (7)देवीसिह (8) खानजू (9) भगवंतराय (10) मरजादसिंह (11)तेजसिंह (12 )शंभुसिंह (13) दुरजन सिंह (14) गोविंद सिंह (15) केशवराय (16) घीरजमल (17)सालंम सिंह (18) अर्जुन सिंह (19)करनजू (20)चतुर्भुज (21)नोनेदीवान (22) कुंअर (23) अनूप सिंह (24)दलपतराय(25) किसनसिंह (26) मानसिंह (27)राजाराम (28)अनुरुद्धसिह (29)शिवसिंह (30)खानजहान (31)नवल सिंह (32)अनंत सिंह (33)केसरीसिंह (34)उदेत सिंह (35)हिम्मतसिंह (36)मानशाह (37)पूरनमल (38)दरयावसिंह (39)गंधर्व सिंह (40) श्यामसिंह (41)बरजोर सिंह (42) खूबसिंह (43)उगरसिंह (44) विशंभरसिंह (45) पहलवान सिंह (46) बलवंत सिंह (47) हनुमंत सिंह (48)मुकुंद सिंह (49) शमशेर बहादुर (50)रानासिंह (51) उमरावसिंह (52) मोदसिंह (53)दिनडूला (54)गाजीसिंह (55)मोहन सिंह (56) भीम सिंह (57) दलसिंह (58)देवीसिंह (59) सावंत सिंह (60) अंगदसिंह (61) रायचंद (62)जुरावनसिंह (63) फूलसिंह (64) अचल सिंह (65) खेलसिंह (66)पर्वत सिंह , (67) सहाय सिंह (68) मिर्जा राजा ।
हृदयशाह को पन्ना, मऊ, गढ़ाकोटा, कालिंजर, शाहगढ़ और इनके आस पास का इलाका मिला । हृंदयशाह के राज्य की आमदनी उस समय 42 लाख रुपए की थी। जगतराज़ को राज्य का दूसरा भाग मिला जिसकी वार्षिक आय उस समय 36 लाख रुपए थी। जगतराज के हिस्से मे जैतपुर, अजयगढ़, चरखारी, विजावर, सरीला, भूरागढ़ और बॉदा आए । राज्य का तीसरा भाग बाजीराब पेशवा को मिला ।
महाराज हृदयशाह महाराज छत्रसाल की राजधानी के शासक थे। इन्होंने महाराज छत्रसाल की सेज के निकट एक समाधि बनवाई। यहाँ पर एक पुजारी भी नियुक्त किया और उसके खर्चे के लिये सिंगरावन नाम का एक गाँव लगा दिया। यह गाँव अब छतरपुर राज्य में है। हृदयशाह गढ़ाकोटा को बहुत चाहते थे। जब महाराज छत्रसाल राज्य करते थे तब हृदयशाह गढ़ाकोटा के किले पर नियुक्त थे।
गढ़ाकोटा के निकट का ग्राम हृदयनगर महाराज हृदयशाह का ही बसाया हुआ है। इन्होंने रीवॉ के बधेल राजा अनिरुद्धसिंह के पुत्र अवधूतसिंह पर वि सं० 1768 मे चढ़ाई की थी किंतु राजा बहुत छोटा था इससे अपने मामा के पास प्रतापगढ़ (अवध) भाग गया। अंत मे बहादुरशाह से फरियाद की गई। उसने हृदयशाह का लिखा। इस पर हृदयशाह ने रीवाँ तो छोड़ दिया, पर वीरसिंहपुर ले ही लिया । यह आजकल पन्ना राज्य में है ।
महाराज हृदयशाह का देहांत विक्रम संवत् 1766 में हुआ। इनके 9 पुत्र थे। सबसे बड़े पुत्र का नाम सभासिंह था। सभासिंह ही हृदयशाह के पश्चात् राज्य के अधिकारी हुए। परंतु सभासिंह के छोटे भाई पृथ्वीराज, बाजीराव पेशवा के पास गए और उन्होंने राज्य का भाग लेने के लिये पेशवा से सहायता माँगी। पेशवा ने पृथ्वीराज को सहायता दी और सभासिंह ने विवश होकर शाहगढ़ का इलाका और गढ़ाकोटा पृथ्वीराज को दे दिया।
पृथ्वीराज ने बाजीराव पेशवा का सहायता देने के बदले में चौथ देने का वचन दे दिया। इस प्रकार राजघरानों में अब लड़ाइयाँ होने लगीं और राजकुमार राज्य को अपनी संपत्ति समझकर उसमें अपना हिस्सा लेने और उसके लिये भाइयों से युद्ध करने को उद्यत हो गए। हिंदू राज्य स्थापित करने के जो आदर्श महाराज छत्रसाल के समान पुरुषों के थे उसे भूलकर बुंदेले और मराठे दोनों ही अपने स्वार्थ के लिये लड़ने लगे। मुसलमानें की शक्ति बहुत कमजोर होने पर वे फिर प्रबल नहीं हो सके, परंतु इस आपसी झगड़ों का फायदा अँगरेजों ने उठा लिया।
सभासिंह वि० सं० 1804 में मरे। इनके समय में हीरे की खानें खोदी जाने लगी थीं । सभासिंह के अमानसिंह, हिंदूपत और खेतसिंह ये तीन पुत्र थे। अमानसिंह बढ़े पुत्र न थे, परंतु सभासिंह इनसे बहुत प्रसन्न रहते थे क्यों कि ये बहुत योग्य थे। प्रजा भी अमानसिंह से बहुत प्रसन्न थी । इनकी उदारता बुंदेलखंड में विख्यात है ।
विक्रम संवत् 1814 में हिंदूपत ने राज्य के लोभ से अमानसिंह को मरवा डाला और वह राजगदी पर बैठ गया । हिंदूपत इमारतों और महलों के बड़े शौकीन थे। राजगढ़ तथा छतरपुर के महल इनके ही बनवाए हुए हैं।
हिंदूपत के तीन पुत्र थे जिनके नाम अनिरुद्धसिंह, धौकल सिंह और सरमेदसिंह थे। सरमेदसिंह बड़े थे और गद्दी के हकदार थे, परंतु हिंदूपत सरमेदर्सिंह को गद्दी का हकदार बनाना नहीं चाहते थे। अनिरुद्धसिंह से वे प्रसन्न थे। इस कारण हिंदूपत ने अनिरुद्धसिंह को युवराज, बेनी हजूरी को दीवान और कायमजी चौबे को कालिंजर का शासक नियुक्त कर दिया। हिंदूपत का देहांत विक्रम संवत् 1834 में हुआ । बेनी हजूरी का मैहर की जागीर दी गई थी ।
हिंदूपत के पश्चात् अनिरुद्धसिंह राजा हुए। इनके समय मे राज्य का सब काम बेनी हजूरी और कायमजी चौबे ही करते थे कायमजी चोबे का दूसरा नाम खेमराज चौवे भी है। कुछ दिनो के पश्चात् कायमजी चौबे और बेनी हजूरी से तकरार हो गई। अनिरुद्धसिंह बेनी हजूरी को बहुत मानते थे, इसलिये कायमजी चोबे ने सरमेदसिंह को उसकाया। बेनी हजूरी ने भी यह मैका हाथ से जाने न दिया और वह मैहर की जागीर दबा बैठा | अनिरुद्धसिंह वि० सं० 1836 मे मरे ।
सरमेदसिंह ने कायमजी चौबे के कथनानुसार जैतपुर जाकर खुमानसिंह से सहायता मॉगी और खुमानसिंह के सेनापति अर्जुन सिंह पँवार ने छतरपुर के निकट गठेवरा के मैदान मे अनिरुद्ध सिंह को हराया । इस युद्ध मे बेनी हजूरी मारा गया। इधर अनिरुद्धसिंह का भी देहांत हो गया था। इससे वि० सं० 1737 मे सरमेदसिंद नाम मात्र के लिये राजगद्दी पर बैठे।
इन्होंने 4 वर्ष तक राज्य की बागडोर अपने हाथ में रखी । वि० सं० 1842 मे धौकल सिंह राजा हुए। इन्होंने 13 वर्ष राज्य किया। ऐसे ही आपसी झगढ़ों के कारण बुंदेलखंड मे राज्य-व्यवस्था बिगड़ती गई और डाकू लोग जहाँ-तहाँ लूट मार करने लगे। कायसजी चौबे के पश्चात् कालिंजर का किला उनके लड़के रामकिसुन चौबे के अधिकार में आया ।
इधर तो वुंदेला राजाओं में गृह-युद्ध चल रहा था उधर हिम्मतबहाहुर ने आलीबहादुर को साथ लेकर वि. सं. 1846 में बुंदेलखंड पर आक्रमण कर दिया और वह राजाओं को अपने अधीन कर सनदें देने लगा। धौकलसिंह के मरने पर वि. सं. 1855 मे उनके पुत्र किशोरसिंह राजा हुए। इनके समय में पन्ना रियासत के कई जागीरदार स्वतंत्र राजा बन बैठे।
राजा किशोरसिंह को जानवर पालने और शिकार का बड़ा शाौक था। अंग्रेजों की कंपनी के शासक लार्ड डलहौजी जब इनसे मिलने आए तब ये अपने साथ दो शेर लेकर उनसे मिलने गए थे। इनको देखकर लार्ड डलहौजी उठकर चले गए और इनसे न मिले। किशोरसिंह ने इंद्रदमन नामक तालाब बनवाया और चित्रकूट में नवल किशोरजी की स्थापना की । इनको अंग्रेज सरकार ने वि. सं. 1864 और 1868 में राज्य की अलग अलग सनदें दीं ।
किशोरसिंह के पश्चात हरिवंशराय राजगद्दी पर बैठे । इनका राज्य-काल वि० सं० 1867 से आरंभ होता है। हरिवंशराय ने राज्य बहुत बुद्धिमत्ता से किया। इनके समय में राज्य की आमदनी खूब बढ़ी । इनका राज्य 9 वर्ष तक रहा ।हरिवंशराय के कोई पुत्र नही था। इस कारण इनके पश्चात् इनके छोटे भाई नृपतिसिंह राजगद्दी पर बैठे। इनका राज्यकाल वि० सं० 1406 से आरंभ होता है। इनके समय में सिपाही -विद्रोह हुआ।
छतरपुर पहले पन्ना राज्य के अधीन था। परंतु जब सरमेदरसिंह और उनके भाई के झगड़े चल रहे थे उसी समय छतरपुर एक अलग स्वतंत्र राज्य बन गया । कुंअर सोनेसाह पँवार सरमेदसिंद के सेनापति थे। ये पवायां ( ग्वालियर रियासत ) के पुन्यपाल पँवार के वंशज हैं। कुंअर सोंनेसाह के पिता का नाम जैतसिंह था।
सरमेदसिंह ने इन्हें चार लाख की जागीर दी थी जिसमें छतरपुर भी था। सोनेसाह वि० सं० 1840 में सरमेदसिंह के सेनापति हुए थे। इनके मरने पर इनके बड़े पुत्र प्रतापसिंहजू देव ने वि० सें० 1883 मे अपना राज्याभिषेक छतरपुर में कराया और वे स्वतंत्र राजा बन गए। प्रतापसिंह का देहांत वि० सं० 1911 मे हुआ। इनके पश्चात् इनके दत्तक पुत्र जगतराज राजगद्दी पर बैठे। सन् सत्तावन का गदर इनके समय मे ही हुआ।
महाराज छत्रसाल के दूसरे पुत्र जगतरान को बॉदा,, भूरागढ़, चरखारी, अजयगढ़, बिजावर और सरीला के परगने मिले थे। इनके समय मे मुहम्मद खाँ बंगश ने फिर से जैतपुर पर आक्रमण किया। दलेल खाँ नामक सरदार बंगश की सेना के साथ था। जगत राज को मराठों ने सहायता दी और जगतराज ने दलेल खाँ को युद्ध में हरा दिया । वह युद्ध में मारा गया।
दलेलखाँ की धीरता बुंदेलखंड में आज तक प्रसिद्ध है। उसकी हार के बाद बंगश भी हार मानकर लौट गया ।जगतराज के 17 पुत्र थे। सबसे बड़े पुत्र का नाम दिवान सेनापति था । इनसे महाराज जगतराज प्रसन्न नही थे। इसलिये कीरतराज को जगतराज ने युवराज बनाया । परंतु जिस समय जगतराज की मृत्यु हुई उस समय इनके तीसरे पुत्र पहाडसिंह ही इनके पास थे ।
जगतराज की मृत्यु मऊ में संवत् 1814 में पूस बदी 7 गुरुवार ता० 14-12-1872 को हुईं। पहाडसिंह ने स्वयं राजा बनना चाहा। इसलिये पहाडसिंह जगतराज की मृत देह को पालकी में रखकर जैतपुर लाए और सब लोगों से यह कह दिया कि जगतराज बीमार हैं, मरे नहीं हैं। पहाडसिंह ने ऐसा प्रबंध किया कि जगतराज की म्रत देह के पास कोई न जाने पाये ।
धीरे धीरे पहाडसिंह ने सब राज-कर्मचारियों को अपनी ओर मिला लिया और जब देखा कि जैतपुर पर उनका पूरा अधिकार हो गया है तब जगतराज के मरने की बात सबको सुनाई । कीरतसिंह की मृत्यु इसके पहले ही हो चुकी थी । कीरतसिंह के दो लड़के थे। उनके नाम गुमानसिंह पर खुमानसिंह थे । इन्होंने जगतराज की मृत्यु का समाचार अजयगढ़ में पाया।
इनके पिता कीरत सिंह को जगतराज ने युवराज बनाया था, इसलिये खुमानसिंह और गुमानसिंह ने राज्य पर दावा किया। इनके पास लालदिवान नाम का एक चतुर सेनापति था। लालदिवान को पहाडसिंह ने हरा दिया। परंतु फिर भी खुमानसिंह और गुमानसिंह ने लड़ने का प्रयत्न नही छोड़ा और वे दोनों सदा पहाड़सिंह को तंग करते रहे। बुंदेलों की वही विशाल शक्ति, जो पहले मुगलों के प्रबल राज्य को नाश करने में लगी थी, अब आपसी युद्धों में स्वयं उन्हीं के नाश के लिये खर्च होने लगी ।
विक्रम संवत् 1822 मे पहाडसिंह महोबे में बीमार हो गए । इनकी बीमारी कठिन थी और बीमारी की ही दशा मे पहाड़ सिंह महोबे से कुलपहाड़ गए। उन्होंने अपने वंशजों के भावी युद्ध को बचाने के लिये गुमानसिंह और खुमानसिंह को समझा लेना उचित समझा। इस उद्देश्य से उन्होंने गुमानसिंह और खुमान सिंह को अपने पास बुला लिया। फिर इन्होंने एक लाख बासठ हजार की आमदनी की रियासत ख़ुमानसिंद को और तेरह लाख पचास हजार की रियासत अपने पुत्र गजसिंह को दी।
पहाड़सिंह के पुत्र गजसिंह को जेतपुर की रियासत और खुमानसिंह को चरखारी का राज्य मिला । गुमानसिंह को भी पहाडसिंह ने सवा नौ लाख आय की रियासत दी। इस भाग मे बॉदा पर अजयगढ़ के परगने आए। जैतपुर के राजा जगतराज के तीसरे पुत्र का नाम वीरसिंह था। गुमानसिंह ने अपने काका वीरसिंह को अपने राज्य में बुला लिया और उन्हें मबई के पास 85 हजार की जागीर दी।
परंतु धीरसिंहदेव ने और भी राज्य माँगा । गुमानसिंह ने अपने काका की प्रार्थना स्वीकार करके वि० सं० 1826 मे बिजावर का परगना और भी जागीर में दिया । यहां पर वीरसिंह ने अपनी एक अलग रियासत कायम कर ली। जब आली बहादुर ने इस पर चढ़ाई की तब वीरसिंह ने इसका आधिपत्य न माना। इससे दोनों मे युद्ध छिड़ गया ।
इस युद्ध मे वीरसिंह चरखारी के पास मारा गया। पीछे से राजा हिम्मतबहादुर ने मध्यस्थता करके दोनों में सुलह करवा दी । वीरसिंह के पश्चात् वि० सं० 1840 में इनके पुत्र केसरीसिंह राजा हुए। इन्हें वि० सं 1856 में अलीबहादुर ने सनद दी । परंतु अँगरेजी राजसत्ता स्थापित होने के समय राजा केसरीसिंह और चरखारी के राजा विजयबहादुर तथा छतरपुर के राजा कुंअर सोनेशाह के बीच सरहदी झगड़े लगे हुए थे।