Bundelkhand Me Lokotsav की परंपरा बहुत प्राचीन हैं। चंदेल भुक्ति और मुक्ति के समन्वय में आस्था रखते थे, जिसके कारण वे लोकोत्सवों को प्रोत्साहन देने में अग्रणी रहे। प्रमाण के लिए दो उदाहरण सामने हैं। एक तो यह कि चंदेलों की राजधानी महोबा का नाम लोकोत्सवों की अधिकता के कारण महोत्सवनगर रखा गया था।
चंदेल-नरेश मदनवर्मन के राज्यकाल में बुन्देलखण्ड में वसंतोत्सव का विवरण जिन मण्डन के ’कुमारपाल प्रबंध‘ में मिलता है। वसंत और आन्दोलक रागों के गीत, दिव्य श्रृंगार में सजी स्त्रियाँ, आमोद-प्रमोद में मस्त आकर्षक युवक, मार्ग पर कपूर, अगरू कस्तूरी, कुंकुम, चंदन आदि सुगन्धित द्रव्यों का छिड़काव, प्रत्येक भवन में संगीत, हर मंदिर में देव-पूजन। घर-घर में सुंदर पकवान और भोजन के बाद ताम्बूल-सेवन।
कपूर और पुष्पों के चूर्ण से धूलिपवोत्सव। अपने मंत्री का विवरण सुनकर युद्ध के लिए गये गुजरातनरेश सिद्धराज का मन बदल गया था और उसने चंदेलों से संधि कर ली थी। कितना प्रभाव था उस वसन्तोत्सव का। चंदेलनरेश परमर्दिदेव के राज्यकाल में दिल्ली-सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने महोबा को रक्षाबंधन के पहले ही घेर लिया था। महारानी मल्हनादे ने कन्नौज में वास कर रहे आल्हा-ऊदल को लेने लोककवि जगनिक को भेजा था और माता देवलदे से महोबा की रक्षा के लिए विनती की थी।
जब रक्षाबंधन तक आल्हा-ऊदल नहीं आये, तब विवश होकर दूसरे दिन किले से सात सौ डोले निकल पड़े। एक-एक कजरियों का दोना, एक-एक तलवार और एक-एक जहर की पुड़िया रखे हुए। पीछे से आती चंदेली फौज। भयंकर युद्ध और कजरियाँ कीर्तिसागर के किनारे रुकी रहीं। अचानक योगी वेश में आल्हा-ऊदल और उनकी सेना युद्ध करने लगी।
कजरियाँ तालाब में खोंटी गयीं। बहिन चंद्रावली ने कजरियाँ ऊदल भैया को दीं। इसी इतिहास को सुरक्षित रखने के लिए यह कृषिपरक उत्सव भाई-बहिन के पवित्र प्रेम का प्रतीक भी बन गया। इस प्रकार इस युग में लोकोत्सव के बदलाव की महत्वपूर्ण दिशा खुली थी।
स्कंदपुराण (7 वीं शती के लगभग) में जगन्नाथ जी की रथयात्रा का विशद वर्णन मिलता है। स्पष्ट है कि पौराणिक काल में यात्रा-महोत्सव का प्रारम्भ हो गया था। इस प्रकार के लोकोत्सवों का उत्कर्ष चंदेल-काल में दिखाई पड़ता है। नाटककार भवभूति के नाटकों का मंचन भगवान् कालप्रियनाथयात्रा के महोत्सव में हुआ था। इस महोत्सव का अवशेष कालपी का सूर्यमेला है, जिसे आज भी जात्रा कहा जाता है।
चंदेलनरेश परमर्दिदेव के अमात्य और प्रसिद्ध नाटककार वत्सराज के ‘कर्पूरचरित भाण’ और ‘हास्यचूड़ामणि’ प्रहसन के प्रारम्भ में ही ‘नीलकण्ठयात्रामहोत्सव’ का उल्लेख आता है। ‘रुक्मिणीहरण’ में चक्रस्वामियात्रा पर अभिनय किये जाने का प्रमाण है। ‘रूपकषटकम्’ में मदिरामहोत्सव का उल्लेख पुराने ‘सुरापाननक्खत्त’ की याद दिलाता है।
खजुराहो के संवत् 1011 के शिलालेख से प्रकट है कि जब विष्णु मंदिर की प्रतिष्ठा हुई, तब महोत्सव सम्पन्न हुए थे और उनमें देवताओं ने भी भाग लिया था (एपिग्रेफिया इण्डिका, प्रथम, पृ. 129)। इसका अर्थ यह है कि देव-विग्रहों की प्रतिष्ठा के उपलक्ष्य में महोत्सवों का आयोजन होता था।
खजुराहो की मूर्तियों में भी लोकजीवन उभरा है, इस लिए उनमें लोकोत्सवों का अंकन भी स्वाभाविक है। उदाहरण के लिए, फाग के दृश्यों का अंकन विश्वनाथ मंदिर के गर्भगृह की परिक्रमा में पीछे की तरफ हुआ है, जिससे होली महोत्सव के लोकप्रिय होने का प्रमाण मिलता है।
इतिहासकार अलबेरूनी ने वसंतोत्सव, महानवमी को देवी का उत्सव, दीपावली, माघ-स्नान, दोला उत्सव, शिवरात्रि आदि का उल्लेख किया है। इसी तरह उपवास के दिनों में एकादशी, जन्माष्टमी, देवशयनी एकादशी, क्वाँर की अष्टमी प्रमुख हैं, जो आज भी मान्य हैं। केशवचंद्र मिश्र ने अपनी पुस्तक-’चंदेल और उनका राजत्व-काल‘ में वैशाख सुदी तीज को ’कृषि वर्ष‘, आषाढ़ सुदी ग्यारस को देवशयन, कार्तिक सुदी ग्यारस को देवउठनी उत्सवों का उल्लेख किया है।
इसी तरह चैत्र में झूला-हिंडोला, गौरी एवं काम की पूजा, नवरात्र, श्रीपंचमी एवं मदन-महोत्सव आदि अनेक व्रतों और उत्सवों का उल्लेख किया गया है। चंदेलनरेश अधिकतर शिवभक्त थे, अतएव शिवरात्रि एवं हरितालिका लोकोत्सव और व्रत की
प्रधानता थी। नौरता में गौरी की पूजा एक उत्सव का रूप धारण कर लेती है और स्कंद (दानव) की पूजा अपहरण एवं बालहत्या से रक्षा करती है। इस उत्सवी खेल में गायन, नर्तन और चित्रांकन से नवरात्रि जैसा लोकोत्सवी उद्वेलनवाला वातावरण बन जाता है। हमीरपुर गजेटियर के अनुसार गहरौली (राठ तहसील का एक कस्बा) में झिंझिया नाम का लोकोत्सवी मेला लगता है, जोकि नौरता का एक अंग ही है।
लोकोत्सवों में गीत, नृत्य, काव्यगोष्ठी और नाटकों का अभिनय होता था और उनके कारण ही लोकोत्सवी अनुभूति गहरी हो जाती थी। उत्सवों को स्त्रियाँ गवाक्षों से देखती थीं। उन अवसरों पर जगह-जगह मांगलिक प्रतीक अंकित या सज्जित किये जाते थे। मंगल कलश, स्वस्तिक और प्रकाशमान दीपों से हर घर पवित्र हो उठता था।
कमल की पंखुरियों का अंकन, गज, तुलसी और वटवृक्ष आदि के आलेखन उत्सवी श्रृंगार के अंग थे। इस दृष्टि से इस युग में लोकोत्सव बहुत महत्व के बन गये थे। उनके द्वारा भावात्मक, सांस्कृतिक और सामाजिक एकता का उद्देश्य पूरा होता था, जो उस समय की बहुत ही अनिवार्य आवश्यकता थी।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल