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Bundelkhand Me Jaldharaon Ki Archan बुन्देलखंड में जलधाराओं की अर्चन-परम्परा

Bundelkhand Me Jaldharaon Ki Archan की परम्परा संस्कृत साहित्य से पल्लवित हुई है। विश्व की अन्य महत्वपूर्ण सभ्यताओं में भी जल के महत्व को स्वीकार किया गया है। मिश्र निवासियो ने अपनी नीलनदी को ‘हापी’ देवता के रूप में तथा सुमेरियन बेबोलियन ने दजला और फरात को पावन रूप में पूजा है

जगत के साथ जिस तरह जीवन का सम्बंध अनन्य भाव से जुड़ा है, उसी अनन्य-भाव की  तरह जीवन के लिये जल आवश्यक है । भूमण्डल, जल,थल ,नभ का  एकीकृत रूप है। जीवन का आरंभिक वर्गीकरण जलचर रूप में हुआ है। जल-तत्व की प्रधानता ही महाप्रलय की मान्यता के प्राचीन से प्राचीन धर्म दर्शनों के अंतर्गत् किसी न किसी रूप में उल्लेख उपलब्ध हैं।

जल प्लावन के पश्चात् ही सृष्टि रचना के आदि संदर्भ मिलते हैं। सष्टि-रचना ही जीवन और जगत् है, मनुष्य है, उसका आदिम रूप हैं और कबीलों का रहन-सहन है यही रहन-सहन सभ्यता का देहरी आदि है और आरंभ है। सम्पूर्ण विश्व में सभ्यतायें नदी-घाटियों में ही पल्लवित और पुष्पित हुई हैं। फली-फैली हैं और पतझर की भाँति धीरे-धीरे झर झरकर लुप्त हुई हैं।

जल-धारायें आकर्षक होती हैं। उनका आरंभिक कल-कल, छल-उल निनाद मुग्ध कर देता है तथा जल-धाराओं का वेग जल को निर्मलता प्रदान करता है, शुद्ध रखता है और यही निर्मलता उपयोगी होती है। जलधारा का समर्थ रूप ही सरिता है, नदी है, निरंतर गतिशील जलप्रवाह ही गंगा है, इस तीव्र गति वाले प्रवाह को अवरुद्ध करने की क्षमता तीनों लोकों में किसी के पास नहीं है।

गंगा शब्द ही श्रुति मधुर है, संगीत से परिपूर्ण है, परमानंददायक है। भारत की अन्य नदियों से गंगा का जल निर्मल है और निर्मल होने से ही पावन है। गगा की धारा का दर्शन आल्हाद प्रदान करता है, उसका जलपान करना तृप्तिदायक उसकी धारा में अवगाहन स्फूर्तिदायक है। ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण, ब्रह पद्मपुराण, विष्णुपुराण, मत्स्यपुराण, भागवत, मार्कण्डेय, अग्नि, वाराह आ आदि पुराणों में गंगा की पावनता का वर्णन है। आदि कवि वाल्मा संस्कृत के अन्य कवियों ने भी गंगा की निर्मलता का यशोगान किया मोद के साथ मंगलप्रदायिनी, कष्टों का हरण करने वाली तथा सन आदि कवि वाल्मीकि के साथ यशोगान किया है और उसे ला तथा समस्त सुख देने वाली माना है।

हिन्दी साहित्य में जल-धाराओं की अर्चना की परम्परा संस्कृत साहित्य से पल्लवित हुई है। विश्व की अन्य महत्वपूर्ण सभ्यताओं में भी जल के महत्व को स्वीकार किया गया है। मिश्र निवासियो ने अपनी नीलनदी को ‘हापी’ देवता के रूप में तथा सुमेरियन बेबोलियन ने दजला और फरात को पावन रूप में पूजा है।

पृथ्वी, आकाश, वायु, अग्नि और जल पंचतत्व हैं। इन पंचतत्वों का जीवन के साथ अनन्य संबंध है तथा इन तत्वों में जल को प्रधान तत्व स्वीकार किया गया है। इसी आधार पर जल को जीवन का पर्याय माना गया है। मानव सभ्यता के विकास के साथ कृषि का विकास हुआ और अन्न की उपज वर्षा पर निर्भर रही और वर्षा के लिये देवराज इन्द्र की आराधनायें की गई। भारतवर्ष में आसेतु हिमाचलम् नदियों का जाल है। इन नदियों में गंगा, यमुना, सिंधु, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा तथा कावेरी प्रमुख हैं, इसी से नित्य स्नान में भी इनका स्मरण पुण्यप्रद माना जाता है।

‘नदी’ शब्द स्वयं में अतिव्यापक भावबोधक है। विश्व के अनेक बड़े शहर, महानगर, नदियों के तटों पर बसे हुए हैं तथा उन स्थानों की संस्कृति भी समीपवर्ती नदी के नाम से ही जानी जाती है। इस तरह नदी संस्कृति की अमूल्य धरोहर के रूप में मानी जाती है। नदी और संस्कृति का निकटतम संबंध सनातन है, शाश्वत् है तथा संस्कृति सदैव धर्म के साथ जुड़ी है।

विश्व के अनेक पर्यटक स्थल, तीर्थ स्थल, नदियों के किनारे पर ही बनाये गये हैं। देवालयों की स्थापना भी नदी के तटों पर ही हुई है। नदी की कल-कल, छल-छल, की ध्वनि मनुष्य के मन, मस्तिष्क और हृदय में उल्लास, प्रफुल्लता एवं सुरम्यता का अमृत-सा घोल देती है।

विद्यापति, बीरबल, तानसेन, गंग, रहीम, पदमाकर, कुशलमिश्र, अखैराम, लोचनसिंह, भारतपाणि जीवनलाल नागर, पतितदास, रसिक सुंदर, बिहारीलाल अग्रवाल उदयकवि, नंदकिशोर मिश्र, कवि रामप्रसाद, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, अम्बाशंकर व्यास, कवि लछिराम, कालीदत्त नागर, दत्तद्विजेन्द्र, रत्नाकर, कवि वेणीमाधव, अक्षयवटमिश्र, तारपनि, जयमंगल प्रसाद, कवि भोलानाथ लाल ने हिन्दी साहित्य में संवत् 1407 वि० से संवत् 1913 वि० तक पावन जल-धारा के रूप में गंगापरक काव्य की परम्परा को निरंतर प्रवाहमान रखा और काव्य के साथ गंगाविषयक नाटकों की भी रचना हुई।

रसखान ने गंगाजल को संजीवनी के समान माना है। जलधाराओं की यह अर्चना संस्कृत से हिन्दी साहित्य में निरंतर प्रभावपूर्ण होकर आगे बढ़ी है। गंगा की जलधारा को हर गंगे के रूप में गंगा इस पावन जल-धारा की अंतर्गत जल-धाराओं के साथ-साथ संस्कृतियों का विकास हआ। हुये हैं, इतिहास ने करवटें ली हैं. बड़े-बड़े साम्राज्यों का उत्थान के साथ जुड़ा है।

इन नदियों के कछारों में विपुल अन्न उत्पाद है इस दृष्टि से गंगा-जमुना का दोआब अपनी पृथक महत्ता जल कई वर्षों तक सरक्षित रखने पर भी खराब नहीं होता। कार अजीर्ण, जीर्ण ज्वर और दमा जैसे रोंगो के रोगी गंगाजल होने का विश्वास लिये हुए हैं। जगत्गुरु शंकराचार्य ने गंगा ‘जनता के तापों का विनाश करने वाली’ माना है। ‘हर हर गंगे पावन जल की धारा का पर्याय हो गई है। इसी से इस पावन अर्चना का क्रम निरतर चलता रहा है। बुंदेलखंड के अंतर्गत अर्चना भी प्रभावपूर्ण ढंग से हुई है।

लाख का गंगा शतक – दतिया रियासत के अतंर्गत नदी  गांव के  निवासी कवि लाख का वास्तविक नाम लछमन था। कवि लाख तत्कालीन दतिया नरेश भवानीसिंह के सुराही-वरदार थे। उनके रचित श्रृंगार संबंधी छंद ‘रसालय’ में संग्रहीत हैं, जो अनुपलब्ध हैं। पिछले ‘बुंदेलखंड की पूर्व रिसायतों में पत्र-पांडुलिपियों का सर्वेक्षण करते समय कवि के गंगा विषयक 100 छंदों की अत्यंत जीर्ण पांडुलिपि सर्वेक्षण करने वाले दल को मिल गई थी, पूर्ण रूप से अपठनीय हैं। पाण्डलिपि हाथ के बने हुए कागज को चौघरिया करके काली स्याही से लिखी गई है। पहिले छंद में नरक के खाली होने का हेतु गंगा के प्रभाव को माना जाता है दूसरे छंद में चित्रगुप्त के कामकाज एवं लेखे-जोखे की व्यर्थता का हेतु भी गंगा का प्रभाव ही है –

गंगा के प्रभाव से पापियों की संख्या घट रही है, गंगा स्नान के बाद स्नान करने वाला शिव स्वरूप हो जाता है और पाप के पहाड़ भी छार-छार हो जाते हैं। गंगा की धारा में पापी निश्चित होकर ‘हेलुआ खेलने की मुद्रा में आ जाता है।
मौंट बाँध पापन की लौटत को पीछे नाहिं रिंगौहौ उताल
जैसे भागत भगेलुआ,
अमित अबार भई करत विचार चार मेरे रूज जालन कौ
और कौन झेलुआ,
रेत पग देत अघ ओघ गरकाव भये खगपति खात जैसे
हरष संपेलुआ
सुरसरधारा मिली आरा पाप काटन कौ खेल लेउ
लाख कवि आज खूब हेलुआ


गंगा के किनारे पहुँचने पर पाप घास की गंजी का भाँति जल जाते हैं और शरीर निर्मल हो जाता है। यमराज का कलेजा गंगा की जल-धारा की ध्वनि सुनकर छर-छर हो जाता है –
अगम अपार कट निकसी पहारन कौं पौन तें प्रचंड गौन
करै, जल तेजी है।
बौही जल बुंद मिले संकर दियाल होत तोर जोर भारी कर
फोर धरा सेजौ है।।
तारो कवि लाख काजै और जग जीवन को संचूह विरच
तुमें याही हित भेजी है।
गाज गाज गंगा महि दीरघ अवाजन सों जांजौ कर डारौ
जमराज कौ करैजौ है।।


गंगा के नीर की पावनता, धार की धवलता, अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष की प्राप्ति, चूहा-छदर, झींगुर-बिल्ली और दीमक का उद्धार, लाख कवि ने आत्मीयता से अपने छंदों में अनुबंधित किये हैं। गंगा उद्धार करने में किसी तरह का भेद-भाव नहीं रखती। गंगा सबकी है जो थे, जो है, और जो होंगे। गंगा किसी एक की नहीं हो सकती। गंगा मैया हो गईं। उनका यश महिमण्डल में व्याप्त है, उनका स्मरण कायर, क्रूर, कलंकी और कुरोगी का भी उद्वार कर देता है। भागीरथी की यश-पताका सर्वत्र फहरा रही है और उसकी धार पापों को काटने में छैनी का काम करती है।

तोमें तन भंजवे कों दरद के गंजवे कों करत पयान जाइ
पथिक सुरौका है।
तीर गये नीर लगै पापन की झीर भगै बाज की झप
सौ जैसे भगे डौका है।।
कल मल खोई डार बस्नपदी धार माझ चार फल दैन
पायौ लाख कवि मौका है।
अधम उधारवे कों जनम सुधारवें को भव पार कीवे
काज गंगा जग नौका है।।

लाख कवि के गंगा विषयक इन छंदों की भाषा तात्पर्य को सहज बन है, मुहावरे लोक-जीवन के अनुभवों से सम्पृक्त है और भाव अनूठे हैं। भावना को साकार कर देने में सक्षम मनकापुर-गोडा (उ०प्र०) निवासी सतीश आर्य के इन छंदों में गंगा मैया की छटा जितनी नवीन है, उतनी ही अनूठी है।

भूपति के सुत साठ हजारक, तारन का चलि आवत गंगा।
चाँदनी रात झरै मनो व्योम से दूध की धार बहावति गंगा।।
ऊँच औ नीच कै रीति न मानत जाति कै भीति ढहावति गंगा।
राम औ केवट का अपने तट, भेद भुलाई मिलावति गंगा।।
लागै गंवारिन सी कबहूँ, मनो बैठि कै पाती बचावति गंगा।
रोज लहासि जरै तट पै, जग के सब पाप पचावति गंगा।।
छाती पै यान चलै दिन रात, तबौ न गुहार मचावति गंगा।
लोग कहै सब मैली भई, तबहूँ सरगै पहुँचावति गंगा।।

चंबल की गंध – बुंदेलखंड में बहने वाली नदियों में चंबल, क्वांरी, सिंध, . महुअर, पहूज, बेतवा धसान, केन, नर्मदा और यमुना प्रमुख हैं। इन नदियों में यमुना ब्रजभूमि की जीवनधारा है। कृष्ण धारा के कवियों की सदेह भावना है। चम्बल का स्वरूप इन सब नदियों से अलग है। डाकू समस्या ने चम्बल घाटी को आंतक का पर्याय बना दिया है।

चंबल संघर्ष का अर्थ है। चम्बल ओज का रूप है. चंबल आवेश है आर चम्बल विकास भी है। इसी धरातल को स्पर्श करते हए प्रहलाद भक्त न ‘चंबल की गंध’ खंडकाव्य की रचना की है, इसमें पूर्वाभास अवतरण,वाय, संस्कृति, प्रकृति, शौर्य, अवमूल्यन और अभिलाषा शीर्षकों को वर्णन का अध्याय बनाया गया है।

विन्ध्याचल मेखला से धार बही प्यार भरी,
शांति दूत सलिला की मंदमंद चाल है।
लेकर अफीम गंध आयी मंदसौर पास,
वारि बिदुं शोभा सिंधु लगै ज्या प्रवाल है।
मीरा भक्त आँसुओं को, अंजुरी में लेने हेतु,
पहुँची जो राजस्थान डाली गल माल है।
लौटी मध्य देश पुनि करती निनाद घोर,
प्रमुदित मोद भरी होती सुविशाल है।

कारी कारी भारी प्यारी उपजाऊ अन्न खानि,
भुरभुरी सी भक्त मूडा और लाल लाल है।
पथरीली ककरीली जलोढ़ वर्ग क्षार युत,
ऊँचौ ठौर किंतु चना होत हर साल है।
बालुई सो चिकनी सी पीरा है दुमट मेल,
सरसों अकूत होय क्षेत्र माला माल है।
जन्मभूमि पाय आत्म सुख मिले आदमी को,
चम्बल की माटी मेरे माथे का गुलाल है।।


चंबल की गंध में 136 छंदों के अंतर्गत इस अंचल की संस्कृति, शौर्य, इतिहास और प्रकृति को समर्थ स्वर प्रदान किये गये हैं। घनश्याम भारती ने चम्बल अंचल के साहस और पराक्रम को बाँधते हुए यहाँ की मिट्टी की महिमा का बखान इस प्रकार किया है ।


साहस पराक्रम औ आनबान जैसे गुण,
माटी में यहाँ की थे जो घुले खुद आय हैं।
चाहे जो भी माने कोई मैं तो ये कहूँगा भाई,
घाटी का नहीं है ये तो माटी का प्रताप है।।


राजाराम कटारे ने अपने छंदों में ऐसी ही अभिलाषा को निबद्ध किया है –
मान अपमान होनी और अनहोनी सब,
जो भी हुआ ठीक हुआ मत पछताओ तुम। ।
वीरों की पसविनी हे चम्बल भवानी सुन,
दुनियाँ की दुखदायी बातें न लगाओ तुम।
भूल चूक जो भी हुई उसको माँ भूल जाओ
किंतु मेरी एक याचना को ना भुलाओ तुम।
चम्बल का शेर, शेर न्याय और नीति का हो,
अब की भवानी मैया ऐसा शेर जाओ तुम।


बेतबा की महिमा का वर्णन शिवांनद मिश्र ‘बुदेला ने जिस अनो और नवीन प्रतीकों के माध्यम से किया है, वह कौशल और वे प्रतीक विश्लेषण चाहते हैं। 


इन्द्र खिसकाय जब गयौ तौ बुंदेलन पै,
बोलौ फल चिखवाय दे हैं बलंवती को।
वरुण को रोकौ बूंद न गिरै जुझौती बीच,
मघा असलेखा जोर रोको गजदंती कौ।।
कुँआ ताल सूख गये झुरस से रूख गये,
जप तप दान से न फिरोमन अड़ती को।
फोर के पहार बाँध तालन के फोर,
बनचीर नीर उमड़ परौ तौ वेदवन्ती कौ।।


x x x x x x

धाई घुघकार धार मालवे में बेतवा की,
तीन लोक में न जायै, कोऊ रूकबैया है।
भेड़न की हेड़ चली आवै जिमि लोटन कि
धरती पै चन्द्रमा कौं ढूँढत जुनैया है।।
सुनकें अगस्त ने  पिये हैं सब सागर सो,
उफनी जा कोऊ विन्ध्याचल की तलैया है।
प्यासिन के लाने पसुआय चली बेतबा कि
डिड़क के भगत बछेरू ढिंग गैया है।।


बुदेलखंड की माटी को अपनी धाराओं से सरसब्ज बनाने वाली जलधाराओं का स्मरण द्वारिका प्रसाद मिश्र द्वारिकेश ने भी किया है –
चम्बलटॉस हाँसहुलसी जेहिं सविध उढाउत सारी,
केनधसान जामने पैसुनि गएँ हार पहराउत ।
सुघर उजागर भूम भरौ सतगुन गुन रज पानी में,
बन्दौ वर बुंदेलखंड बुंदेलखंड बानी में।।


अक्षर अनन्य ने सनकुआं और सिंध के सौंदर्य को अपनी रचना में समेटा है।
सिन्ध नदी वन दंडक सौ सनकादि सौ क्षेत्र सदाजलगाजै
कासी सौ बास घने मठ संभुके, साधु समाज जै बोल सदा जै।।

 

मुंशी अजमेरी भी सेंवढ़ा-सिंध और सनकुआँ पर मुग्ध रहे हैं। वासुदेव गोस्वामी, रामसेवक गंधी, ब्रजेश और हरिकेश ने भी सिंध की महिमा गाई है। पहूज के जल की महिमा को रामचरण हयारण मित्र ने इस छंद में गुंफित किया है।


कूलन फूल पलास रहे यहाँ, साध समाधि रहे मुनि ज्ञानी।
पावन अंचल में अनगौरी, रही खुल खेल विनोद झुलानी।।
मित्र प्रसिद्ध दसों दिसि में, यहाँ ब्रह्मजु देव महावर दानी।
कंचन काया मिली उसी को जिसने पिया पुण्य पहूज का पानी।

बुंदेलखंड में जलधाराओं की अर्चना का क्रम वर्तमान तक प्रभावी रूप में चल रहा है। ‘पानीपानीदार है’ में डॉ० सीताकिशोर के चम्बल जीवन को उजागर करने वाले 700 दोहे हैं और इन दोहों में चम्बल, क्वांरी, बेतवा, सिंध, पहूज, यमुना और धसान के आसपास के जन-जीवन के संघर्ष सम्मिलित हैं, इस प्रकार बुंदेलखंड में जल-धाराओं की अर्चना केवल शुचिता और निर्मलंता की परिधि में ही सीमित नहीं है। इस परिधि में संघर्ष, वर्ग-भेद, शोषण, रोजी-रोटी के प्रश्न भी प्रभावी ढंग से आ गये हैं –
क्वांरी कल से अनमनी चामिल बदन मलीन।
कै गोदी सूनी भई, कै सेंदुर छबि हीन।।


घासीराम व्यास की आत्मीयता इन जल-धाराओं में छलकती है –
मुन पहूज सिंध बेतवा धसान केन,
मंदाकनी पयस्विनी प्रेम पाय घूमी है।।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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