Homeबुन्देलखण्ड के साहित्यकारBundelkhand Ki Mahila Sahityakar बुन्देलखंड की महिला साहित्यकार

Bundelkhand Ki Mahila Sahityakar बुन्देलखंड की महिला साहित्यकार

जिस भू -भाग को बुन्देलखंड कहा जाता है और लोकभाषा को बंदेली कहा जाता है वह प्रागैतिहासिक काल में भी नही बंदेली का विकास तीन रूपों में हुआ है। 1 –  काव्य भाषा के रूप में के रूप में 2 – राजभाषा के रूप मे  3 – लोकभाषा के रूप में। बंदेलखंड में महिला साहित्यकारों की कभी कमी नहीं रही है। प्रत्येक काल मे Bundelkhand Ki Mahila Sahityakar एवं महिला काव्य रचनाकारों का प्रभाव रहा  है। महाराज इन्द्रजीत सिंह की प्रेयसी प्रवीण राय कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हैं। 16वीं शताब्दी से वर्तमान तक बुंदेलखंड की अनेक महिला साहित्यकारों का विवरण मिलता है।

बुंदेली को ब्रज की तरह काव्य भाषा के रूप में विकसित होने की नहीं मिल सका। किन्तु इसका विकास सर्वथा कभी रुका नहीं है। बुंदेलखंड के  अनेक राजाओं के दरबार में कवि रहे हैं। बुंदेलखंड में यह कवि परम्परा  16वीं  शताब्दी से रही है। बुंदेलखंड के प्रसिद्ध कवि आचार्य केशवदास महराज इन्द्रजीत सिंह के शासनकाल में थे। केशवदास जी के ‘वीरसिंह देव चरित बंदेली के प्रयोग हैं। ‘रामचन्द्रिका’ में भी बुंदेली का शब्द-भंडार है। बुंदेली को निरंतर 400 वर्ष पहले भी राजभाषा के रूप में प्रयुक्त होने का गौरव प्राप्त है।

प्रवीन राय
प्रवीन राय का जन्म और कविता काल 1630 वि0 और सं० 1660 वि. माना जाता है। ओरछा नरेशर के यहाँ राय प्रवीन, नवरंगराय, विचित्र नयना, तान तरंग, रंगराय और रंगमरति नामक 6 महिला प्रतिभायें थीं। राय प्रवीन उन सबमें सुन्दर और अच्छी कवियत्री थी। एक बार मुगल सम्राट अकबर ने प्रवीणराय के सौंदर्य पर मुग्ध होकर आगरा बुलवा लिया था। तब प्रवीनराय ने कहा था –

विनती राय प्रवीन की सुनिए शाह सुजान।
जूठी पातर भखत हैं, बारी, वायस, स्वान।।

यह दोहा सुनकर अकबर ने उसे सम्मान सहित ओरछा भेज दिया था। राय प्रवीन के कविता गुरू पं. केशवदास जी मिश्र थे। कवि प्रिया के रीतिग्रंथ की रचना उन्होंने प्रवीण राय के लिये ही की थी। प्रवीण राय के स्फुट काव्य उपलब्ध हैं।

सीतल समीर ढार, मंजन कै घनसार,
अमल अंगौछे मन से सुधारि हौं,
दैहौं ना पलक एक, लागन पलक पर,
मिलि अभिराम आछी, तपनि उतारिहौं।
कहत ‘प्रवीन राय’ आपनी न ठौर पाय,
सुन वाम नैन या वचन प्रतिपारिहौं,
जबहिं मिलेंगे मोहि इन्द्रजीत प्रान प्यारे,
दाहिनो नयन दि तो ही सौं निहारिहौं ।।

केशव पुत्र वधू-इनका जन्म सं. 1640 वि. और सं. 1670 वि. के लगभग माना जाता है। ये ओरछा में केशव की पुत्रवधू थी। इनके पति अच्छे वैद्य थे और उन्होंने ‘वैद्य मनोत्सव’ नामक ग्रंथ की रचना की थी। वे क्षय रोग से ग्रसित हो गये थे। उनके इलाज के लिए एक बकरा बँधा रहता था। एक दिन आँगन झाड़ते समय उनकी धर्मपत्नी के पैर पर बकरे ने पैर रख दिया तब उन्होंने अपने पति देव को सुनाते हुये बकरे को लक्ष्य करके कहा –

जैहै सबे सुधि भूल तबै,
चब मेंकहुँ दृष्टि दै मोर्ते चितै है,
भूमि में आँक बनावत मेंटत,
पोथी लॅए सबसे दिन जैहै,
दुहाई ककाजू की साँची कहौं,
गति पीतम की तुमहूँ कहँ दै है,
मानों तौ मानौं अबै अजिया सुत,
कै हौं ककाजू सों तोहिं पढ़े है।।
बुंदेली भाषा की संप्रेषणीयता इस छंद में देखते ही बनती है। वक्रता एवं लालित्य की छटा मनोहारी है।

रानी कमल कुँवरि
हिन्दी साहित्य की समृद्धि में बुंदेलखंड का विशेष योगदान रहा है। 16वीं शताब्दी से लेकर 19वीं शताब्दी तक का समय राजनीतिक अस्थिरता का समय था किन्तु इस काल में अभूतपूर्व साहित्य की सर्जना हुई। बुंदेलखंड की छोटी-छोटी रियासतों ने अपने यहाँ कवियों को आदर दिया।

ओरछा (टीकमगढ़) छतरपुर पन्ना, दतिया, चरखारी, विजावर, सरीला का नाम उल्लेखनीय है। इन राज्यों के राजा रानी तथा उनकी दासियाँ भी काव्य में अनुरक्त थीं। रानी वृषभान कुंवरि, खुमान कुंवरि, कमल कुंवरि द्वारा रचित साहित्य अनूठा है।

सरीला रियासत की रानी कमल कुँवरि को बुंदेलखंड की मीरा कहा जाता है। सरीला राज्य की स्थापना सं. 1812 वि. के लगभग महाराज छत्रसाल के वंशज अमान सिंह ने की। कमल कुंवरि का जन्म उदगवाँ ग्राम में हुआ था। इनका जन्म संवत् 190 वि. के लगभग हुआ था। इनके जीवन में कोई संतान नहीं थी। मुख्य रूप से उन्होंने बधाइयाँ लिखीं हैं। कमल कुंवरि के साहित्य ने बुंदेलखंड की नारियों को बहुत प्रभावित किया। इनकी सबसेछोटी रचना करुणा चौंतीसी है। यह ग्रंथ कुंडलिया छंद में लिखा गया है ।

प्रथम बधाई लाल की पुनः प्यारी की गाय
करुना चौंतीसी कही, गुर गोविंद मनाय
येक सहस नौं से बरस, सैतालिस गुरुवार
भादौं सुद  गनपत तिथी पूरी भई सुख सार।
जाके मुख से कैसहूँ निकसे राधा स्याम।
ताकौ पग की पावड़ी, मेरे तन की चाम।

प्रेमसखी:- प्रेमसखी का जन्म और कविता काल 1800वि. सं-1840 1840 वि.स. माना जाता है। (1) सिखनख, (2) स्फुट पद-दो ग्रंथ इन्होंने लिखे हैं सवैया और कवित्त आदि का संग्रह है।

छोटे-छोटे कैसे तृन अंकुरित भूमि भये,
जहाँ तहाँ फैली इन्द्रवधू वसुधान में,
लहकि-लहकि सीरी डोलत बयारि और,
बोलत मयूर माते सघन लतान में,
घुरवा धुकारें पिक दादुर पुकारें वक,
बाँधि कै कतारै उडै कारे बहरान में,
अंस-भुज डारे खरे, सूरज किनारे,
प्रेम सखी वारि डारे देखि पावस वितान में।।
वर्षा ऋतु का सुंदर चित्रण किया है कवियत्री ने।

तीन तरंग
इनका जन्म सं. 1610 वि. में ओरछा में हुआ था। इनकी कविता का समय सं. 1640 वि. माना जाता है। इन्होंने संगीत अखाड़ा ग्रंथ लिखा। ये ओरछा नरेश महाराज मधुकर शाह के आश्रित ओरछा दरबार की साहित्यकार थी ।

विलोचनयना
इनका जन्म स्थान ओरछा है। जन्म सं. 1612 वि. में हुआ था तथा कविता का समय सं. 1640 है। इन्होंने ‘कोक शास्त्र’ ग्रंथ लिखा। यह भी ओरछा दरबार की साहित्यकार थीं।

मधुर अली
मधुर अली का जन्म ओरछा में सं. 1615 वि. में हुआ कविता काल सं. 1640 वि. है। यह भी ओरछा दरबार की साहित्यकार थी। इन्होने रामचरित्र, गनेशदेव माला – ग्रंथों की रचना की।

वखतकुंवरि
इनका जन्म सं. 1800 वि. में दतिया में हुआ था। स. 1840 वि. में इन्होंने ‘वानी’ ग्रंथ की रचना की। इनका उपनाम प्रिया सखी था।

महारानी रूप कुंवर
बुंदेलखंड की महिला साहित्यकारों में महारानी रूपकुंवर का नाम उल्लेखनीय है। ये चरखारी नरेश मलखान सिंह की पत्नी थीं। इनका जन्म सलैया जिला दतिया में वि. 1933 के लगभग हुआ था और मृत्यु चरखारी में वि. 2008 में हुई थी। महाराज मलखान सिंह स्वयं एक अच्छे कवि थे। इनकी प्रशंसा में फाग की एक टेक इस जनपद में प्रसिद्ध है –
‘मलखान सिंह भये औतारी, वृन्दावन हो गई चरखारी।’

रानी साहिबा का वैधव्य जीवन भक्ति और साधना का जीवन रहा है। इनकी भजन माला नाम की पुस्तक प्रकाशित है। उसी में लोक जीवन से जुड़ी फागें संकलित है।

रसना राम कौ नाम नगीना, मन मुंदरी में दीना,
निराकार निर्वान सें खोहौ, ऐसी थान कहीं ना।
नेह दिवाल देह कर दीपक, कबहुँ न परत मलीना,
रूप कुंवरि की मान सिखावन, तन मन धन सब दीना।।

राम के नाम का नगीना मन रूपी अंगूठी में जड़ लेना चाहती हैं। शरीर को दीपक बनाकर प्रेम की लौ प्रज्ज्वलित करने की सीख देती हैं। पूर्ण समर्पित होकर अपने आराध्य का भजन करती हैं। ये भजन साधना के आधार हैं। बुंदेली भाषा का माधुर्य है। फूलमती :- इनका जन्म वि. 1963 में हुआ था। इन्होंने स्त्री समाज के लिये सुंदर, समय-समय के गीत लिखे हैं। जो अंचल में महिलाओं के द्वारा गाये जाते हैं।

ऊधौ जबसे श्याम सिधारे, बरसत जन हमारे।
अंजन थिर न रहत अँखियन में, कर कपोल भये कारे।
उर की अंगिया कभऊँ न सूखत, बै रये नैन पनारे।
डूब रऔ ब्रज फूलमती अब काये न आन उबारे।
कृष्ण के विरह में ब्रज की जो दशा है, उसका सजीव चित्रण है।

हीराबाई
हीराबाई का जन्म वि. 1959 में महोबा के सुप्रसिद्ध रईस पं. मकुन्दलाल तिवारी के यहाँ हुआ था। इन्होंने सर्वप्रथम संस्कार के हर अवसर के सुंदर गीत लिखे जिन्हें बड़ा सम्मान मिला। बुंदेलखंड के कोने-कोने मे इनके गीत गाये जाते हैं।

हमरौ संकट काट मुरारी, तुम्हरी है बलिहारी।
सुरपत कोप कियौ ब्रज ऊपर, सब तुब सरन पुकारी।
ब्रजवासिन तुम लियौ है, गोवर्धन गिरधारी।
ज्यों गज टेर सुनी जदुनंदन, त्यौं हीरा की बारी।

लोक भजन हमारी संस्कृति है। साधना के आधार है। बुदेली के ये भजन साहित्य की धरोहर हैं। भक्ति काव्य की दृष्टि से बुंदेलखंड हिन्दी जगत के शीर्ष पर है। इसी क्रम में गणेश कुंवरि का नाम उल्लेखनीय है।

पासवान खवासिन
इनका वास्तविक नाम कनकलता था। इनका जन्म सं. 1929 सेंहुडा के खवास (नाई) परिवार से हुआ था। दतिया नरेश भवानी सिंह को कन्हरगढ़ का किला बहुत प्रिय था। पुराने कागज पत्रों में सेंवटा पुराना नाम किन्नरगढ़ (कन्हरगढ़) लिखा हुआ मिलता है। महाराज भवानी सिंह राज्य व्यवस्था और शिकार के लिए यहाँ आया करते थे। यहीं कवित्री कनकलता को ‘खवासिन’ पद रनिवासे-में सम्मान सहित दिया गया था

कन्हरगढ़ अस्थान पै जुरौ संजोग सुदेश।
‘पासवान’ की खिलत मोहि लोकेन्द्र नरेश।

इनकी रचनायें ‘पदावली’, ‘तीर्थराज’, ‘जुगल सनेह प्रकाश’, ‘रसिक विनोद ‘वनमाला’, हित चरित्र’, ‘ब्रजभूषण’, ‘धन चालीसी’ उनके जीवन काल में ही प्रकाशित हो चुकी थी। उन्होंने बधाई, झूला, लावनी, गज़ल, पद, गारी, मल्हार गंज, कक्ति, दोहा, सोरठा, चौपाई आदि छंदों का प्रयोग किया है। भाषा बंदेली है। पासवान साहित्यकार के साथ-साथ एक अच्छी गायिका भी थीं। पासवान की एक मंत्र देखिए…

मोर मुकुट सिर विराजै, बलदाऊ के भैया।
करत चरित सकल गोकुल में कंसै मार गिरैया।।
जमुना तीर कदम चढ़ बैठो, गोपिन चीर हरैया।
पासवान सेंहुड़ेवारी को दर्शन देव कन्हैया।।

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रम्मा रति मेनुका सची सी लगै पासवान,
उपमा न और जिती सुषमा सबै निकेत,
कौन करै नारिन की समता सरोज मुखी,
कहत सरोज सर तेरी समता के हेत,
धन्य धन्य कीरति किसोरी तन तेरौ पाइ,
सोरह सिंगार ते बड़ाई सबही तें लेत,
औरन के पाइन में पायजेब जेबें देत,
प्यारी तेरे पायं पायजेबन को जेबें देत।

चन्द्रकुंवर
इनका दूसरा नाम प्रेमकुंवर भी था। ये दतिया के राजा गोविंद सिंह की रानी थीं। इनके द्वारा रचित कृष्ण भक्ति के पदों का संग्रह चन्द्रप्रकाश के नाम से प्रकाशित हो चुका हैं। इन्होंने प्रचलित सभी राग-रागनियों में पदों की रचना की है।

काग की जीभ से कोमल भीतर बाहर हमें रची मजबूती,
पीतम के पद के सहचारिन चारहु मुक्ति की चारू प्रसूती,
जो प्रभु नाहिं मिलैं जो मिलें तो मिलान करावहु ज्योवर,
चन्द्रकुंवरि की जान सुमाल श्री राधिका कृष्ण के पाँय की जूती।।

जसोदा
इन्होंने लोकगीत लिखे हैं। गाँधीवादी विचारधारा से प्रेरित हो विवाह के अवसर पर गाई जाने वाली गारियों की तर्ज पर गारियाँ लिखीं। जसोदा सन् 1935 तक वर्तमान थीं ।

डांड़े पै डंका लागौरी … डांड़े पै….
भारतवासी सोय रये सब, सारी दुनियाँ जागै री।
हिन्दू मुसलमान दोउ सोय रये, गाँधी गुनियाँ जागै री,
धनी सोय पै परौ गली में, भुंकौ भिक्षुक जागै री,
संतोषी सब सोय रये पै धन को इच्छुक जागै री,
मांते और महाजन सोय रये, खितहर रिनियाँ जागै री,
बूढौ वर सो रयै पै उनकी नई दुलहनियाँ जागै री,
घर के सो रये पै खटका में घर को मुखिया जागै री,
कहें जसोदा सधवा सो रये, दुखिया विधवा जागै री।
डांड़े पै डंका लागौ री ……
सोना दासी :- इन्होंने कृष्ण भक्तिपरक पदों की रचना की।

तुम बिन नाथ सुनै को मेरी।
हों नंदलाल बिहाल हो करत पुकार घनेरी।
काम क्रोध मद लोभ मोह बस रहत बर्ष रस घेरी,
ज्यों जाने त्यौं पार लगाओ बूडत नाव बिना भुज तेरी,
दुसरौ दीनबन्धु कहँ पाऊँ, जाके सरन जाय यह चेरी,
सोनादासी तन ताप मिटै जब कोर कटाक्ष कृपा कर हेरी।

लोक की हलचल को लोकभाषा में ही मेहसूस किया जा सकता है। बुंदेलखंड के विस्तृत भू-भाग मं बसने वाले जनमानस की भावनाओं और उनकी आकांक्षाओं को समझने के लिये बुंदेली की नितांत आवश्यकता है। बुंदेली का काव्य सशक्त है तथा गद्य भी प्रभावपूर्ण है। बोलियों में बुंदेली ही एक ऐसी बोली हैं। सनदें, ताम्रपत्र, बीजक, इकरारनामे,शिलालेख और चिठ्ठी पत्रियां आदि हैं ।

बंदेलखंड की महिला साहित्यकारों में सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम अब है। ‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी’ – यद्यपि हिन्दी खडी बोली में है किंत सुभद्रा कुमारी चौहान ने राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बुन्देलखंड का नाम गौरवान्वित किया है। वे नारी जाति की प्रेरणा स्रोत हैं।

लोकगीत जन-जीवन के प्राणों की धड़कन माने जाते हैं। इनमें धार्मिक सामाजिक, ऐतिहासिक और सामाजिक स्वर सम्मिलित हैं। फाग-साहित्य, फड साहित्य, गारियाँ, सैरे, रसिया, लेद, राछरे, बुंदेली लोकगीतों के परंपरागत् मूल्यवान कोश हैं। बुंदेली साहित्य का विकास गद्य और पद्य दोनों में हुआ है। इस विकास की यात्रा में महिला साहित्यकारों का योगदान उल्लेखनीय हैं।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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