बुन्देलखंड की अनेक परम्पराओं मे Bundelkhand Ki Diwali का अपना अलग दृष्टिकोण है। दीपावली मे लक्ष्मी पूजन के साथ गोवंश ( Cow) की सुरक्षा, संरक्षण, संवर्धन और पालन का संकल्प लिया जाता है। दीपावली के दिन मिट्टी के दिये जला कर पूजन करते हैं। मौनिया मौन धारण कर पूरे दिन अन्न जल ग्रहण नहीं करते। सुबह से लेकर रात तक दिवारी नृत्य खेला जाता है।
बुन्देलखंड की दिवारी Bundelkhand Ki Diwali
बुन्देलखंड मौनिया ( मौन व्रत)
पौराणिक किवदंतियों के आधार पर धार्मिक परम्पराओं के परिवेश में पूरे बुन्देलखण्ड में दिवारी/ दिवाली/ दीपावली पर्व पर दीवारी नृत्य-गायन dance recital और मौन चराने की अनूठी परंपरा देखते ही बनती है। Bundelkhand Ki Diwali के मौके पर मौन चराने वाले को “मौनिया” कहते हैं ये मौनियां सबसे अधिक इस बुन्देलखंड की दिवाली के आकर्षण का केन्द्र होते हैं।
द्वापर युग से यह परम्परा प्रचलित है। इस परम्परा के अनुसार विपत्तियों को दूर करने के लिए ग्वाले मौन चराने का कठिन व्रत रखते हैं। यह मौन व्रत बारह वर्ष तक रखना पड़ता है। तेरहवें वर्ष में मथुरा वृंदावन जाकर मौन चराना पड़ता है, वहां यमुना नदी के तट पर पूजा अर्चना करने के बाद इस व्रत, उपवास की समाप्ति होती है ।
बुन्देलखंड की दिवाली मे पहली बार जब मौनियां मौन वृत/ Silent fast (a vow of silence) करते हैं तो वे पांच मोर पंख लेते हैं और प्रतिवर्ष पांच-पांच पंख जुड़ते रहते हैं। इस प्रकार उनके मुट्ठे में बारह साल में साठ मोर पंख इकठ्ठे हो जाते हैं । परम्परा के अनुसार मौन चराने वाले “मौनियां” दीपावली के दिन नदी में स्नान ध्यान करते हैं।
कुछ लोग यमुना-बेतबा के संगम स्थल में स्नान करने जाते हैं फिर विधि पूर्वक पूजन कर पूरे नगर में ढोल बाजे के साथ दीवारी गाते, नृत्य करते हुए उछलते-कूदते हुए अपने गंतव्य को जाते हैं। इस दिन मौनिया विभिन्न प्रकारके पारम्परिक परिधान पहनते हैं और मोर पंख के साथ-साथ बांसुरी भी लिए रहते हैं। मौनिया बारह वर्षों तक मांस मदिरा आदि का सेवन नहीं करते हैं। मौनियों का एक गुरु होता है जो इन्हें अनुशासन में रखता है।
मौनिया व्रत का आरम्भ सुबह गाय (बछिया) पूजन (Cow worship) से होता है। इसके बाद वे गौ-माता व श्रीकृष्ण भगवान का जयकारा लगाकर मौन धारण कर लेते हैं फिर गोधूलि बेला में गायों को चराते हुए वापस नगर-गांव पहुंचते हैं। यहाँ विपरीत दिशा से आ रहे गांव/नगर के ही मौनियों के दूसरे समूह से भेंट करते हैं और फिर सभी को लाई-दाना व गरी बतासा-गट्टा का प्रसाद सभी श्रद्धालुओं को वितरित करते हैं। दिन भर मौन चारने के बाद मौनियां शाम को गायों को लेकर सभी गांव पहुंचते हैं और सामूहिक रुप से व्रत तोड़ते हैं।
बुन्देलखंड की दिवाली में ही दीवारी (दीपावली) गाने Deepawali songs और दीवारी (दीपावली) नृत्य Deepawali dance की अपनी अनूठी परंपरा है। दीवारी गाने व खेलने वालों में मुख्यतः अहीर, गड़रिया, आरख, केवट आदि जातियों के युवक ज्यादा रुचि रखते हैं।
पौराणिक व धार्मिक मान्यतायें
पौराणिक व धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस नृत्य को भगवान श्रीकृष्ण ने द्वापर युग में मथुरा के राजा कंस का वध करने के बाद किया था। यह नृत्य नटवर भेषधारी श्रीकृष्ण की लीला पर आधारित है। गोवर्धन पर्वत को उठाने के बाद ग्वाल बालों व राधा रानी की सहेलियों के साथ किए गये नृत्य की मनोहर झांकी को दिवारी में दिखाया जाता है। नृत्य में लाठी चलाना, आत्मरक्षार्थ हेतु वीरता प्रतीक है। एक साथ कमर मटकाना तथा बलखाते हुए नाचना इसकी पहचान है।
रंग-बिरंगे फुंदने वाले कपड़े, पांव में घुंघरू तथा सिर में बंधी पगड़ी इस नृत्य की वेशभूषा है। छोटे छोटे डण्डे लेकर एक ताल में तथा हाथ से हाथ मिलाते हुए नृत्य करने पर एक स्वर की ध्वनि निकलती है। इस नृत्य में घुंघरुओं की छमक व डण्डे की चटकार एकसाथ सुनाई देती है। ढोल या नगड़िया बजाई जाती है, ढोलक की थाप के साथ नृत्यकार में स्वतः ओज पैदा होता है।
बुन्देलखंड की दिवाली मे दीवारी गाने वाले सैकड़ों ग्वाले लोग गांव नगर के संभ्रांत लोगों के दरवाजे पर पहुंचकर चमचमाती मजबूत लाठियों से दीवारी खेलते हैं। उस समय युद्ध का सा दृश्य बन जाता है। एक आदमी पर एक साथ कई लोह लाठी से प्रहार करते हैं, और वह अकेला खिलाड़ी एक लाठी से उनके प्रहार को रोक लेता है। इसके बाद फिर लोगों को उसके प्रहारों को झेलना होता है।
चट-चटाचट चटकती लाठियों के बीच दीवारी गायक जोर-जोर से दीवारी के गीत गाते हैं और ढ़ोल बजाकर वीर रस से युक्त ओजपूर्ण नृत्य का प्रदर्शन करते हैं। नृत्य में धोखा होने से कई बार लोगों को चोट भी लग जाती है। लेकिन उनके जोश के कारण उन्हे किसी प्रकार की पीडा नही होती साथ ही परम्पराओं से बंधे ये लोग इसका कतई बुरा नहीं मानते हैं और पूरे उन्माद के साथ दीवारी का प्रदर्शन करते हैं।
बांदा ज़िला के बड़ोखर खुर्द गांव की दिवारी
Banda Jila ke Badokhar Khurd gaon Ki Diwari
आधुनिकता की अंधी दौड में प्राचीन लोक कलाएं विलुप्त होती जा रही हैं। बुन्देलखंड की दिवाली , बुंदेलखंड की शान कही जाने वाली पाई डंडा दिवारी नृत्य Pai Danda Divari Nritya कला भी ऐसी ही एक लोक कला है। जिसमें एक दूसरे पर लाठियों से प्रहार किया जाता है। लेकिन दोनों के बीच प्रेम सौहार्द का संगीत इन लाठियों से निकलता है।
इस अद्भुत कला की साख को संरक्षित करने का काम बांदा ज़िला के बड़ोखर खुर्द गांव के श्री रमेश पाल कर रहे हैं। अपनी अथक परिश्रम और मेहनत से गांव के लोगों की एक टोली के माध्यम से वह देश के कोने कोने में दिवारी लोक कला Diwari Folk Art के संवर्धन में जुटे हैं।
दीवारी का उद्भव
The emergence of Divari
बुन्देलखंड की दिवाली मे दीवारी नृत्य की आरम्भ द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण के बाल्यकाल के समय से माना जाता है। भगवान कृष्ण को गायों से अत्यधिक प्रेम था। बाल्यकाल के समय ग्वालों के साथ जंगल में गाय चराने जाते थे उस समय लकड़ी के छोटे डंडों को लेकर नृत्य किया करते थे। श्रीकृष्ण को संगीत और नृत्य अत्यधिक प्रिय था।
उनका प्रिय वाद्य यंत्र बांसुरी है। बांसुरी प्रायः बांस की बनी होती है। बाल्यकाल की छोटी उम्र में ग्वाल बालों के लिए लकड़ी के छोटे से डंडों का प्रयोग बाल गोपाल कृष्ण के साथ नृत्य में करते थे। आगे चलकर यहीं नृत्य पाई डंडा नृत्य (दिवारी) कहलाया। इन छोटे डंडों के प्रयोग पाई डंडा नृत्य के साथ गुजरात में गरबा एवं चौसड़ नृत्य में भी होता है।
दिवारी पाई डंडा का खेल
Game of Diwari Pai Danda
कृष्ण ग्वालों के साथ पाई डंडा (दिवारी) नृत्य में लकड़ी के इन छोटे डंडों का प्रयोग करते थे। इसमें ग्वाल गोले के आकार में खड़े होकर घूमते थे। अपने दोनों हाथों से अगल बगल खड़े सखाओं पर डंडों से वार करते थे। इनके साथ इन प्रहारों से सुरक्षा पाने के लिए रोकते थे। यह उपक्रम गोले के आकार में घूमते हुए लगातार चलता था। आज भी दिवारी पाई डंडा (Divari Pai Danda) की इसी परम्परा का निर्वाह करता है।
बड़े खिलाडी अपने छोटे खिलाडी को कंधों पर बैठाकर उनके हाथों में छोटे डंडे थमा देते थे। खुद के साथ छोटे खिलाडी गोलाकार घूमते हुए प्रहार के साथ नृत्य करते थे। यही परंपरा आज भी बुन्देलखंड की दिवाली मे है। कहने को पाई डंडा नृत्य दिवारी नृत्य का लघु रूप है।
कहीं कहीं पर छोटे डंडों के साथ बड़ी लाठी का भी प्रयोग होने लगा। बुन्देलखंड की दिवाली नृत्य में ठोस बांस की लाठी का प्रयोग होता है। इस लाठी की लंबाई लगभग छह फिट है। इसमें वीर रस की प्रधानता रहती है। ढोल बाजों के साथ हुंकार भरी जाती है। इस नृत्य की भाव भंगिमा आक्रोश, गुस्सा एवं साहत प्रदर्शित होता है।
ऐसा भी कहा जाता है कि दिवारी नृत्य की पहचान बुंदेलखंड के बांदा जनपद से हुई। यहां के राजा विराट थे। अज्ञातवास के समय पांडवों ने यहां निवास किया। कृष्ण यहां आते और संबंधियों के साथ रुकते थे। विराट की गायों को कौरवों द्वारा बलपूर्वक ले जाने पर विराट के साथ पांडवों ने छद्म वेश में कौरवों से युद्ध कर उन्हें पराजित किया था।
चित्रकूट की दिवारी Chitrakoot Ki Diwari
बुंदेलखंड में दीपावली का त्योहार काफी रोमांचक होता है यहाँ का परंपरागत “दिवारी नृत्य” की धूम अलग ही रहती है। जिसमे ढोलक की थाप पर थिरकते जिस्म के साथ लाठियों का अचूक वार करते हुए युद्ध कला को दर्शाने वाले नृत्य को देख कर लोग दांतों तले अंगुलियाँ दबाने पर मजबूर हो जाते हैं। चित्रकूट मे दिवारी नृत्य करते युवाओं के पैंतरे देख कर ऐसा लगता है मानो वह दीपावली मनाने नही बल्कि युद्ध का मैदान जीतने निकले हों।
यह धनतेरस से लेकर भैयादूज तक गाँव गाँव घूमते है। हाथों में लाठियाँ , रंगीन नेकर के ऊपर, कमर में फूलों की झालर पैरों में घुँघरू बंधे जोश से भरे यह नौजवान बुन्देलखंडी नृत्य दिवारी खेलते हुए परंपरागत ढंग से दीपोत्सव मना रहे हैं । इस दिवारी नृत्य में लट्ठ कला का बेहतरीन नमूना बुन्देलखंड की दिवाली मे पेश किया जाता है।
धर्म नगरी चित्रकूट के रामघाट व धार्मिक जगहो पर हर जगह दिवारी की धूम मची होती है और दूर दूर से लोग देखने आते है। बुन्देलखंड की दिवाली मे चित्रकूट की सड़कों पर परंपरागत परिधानों में सजे इन नौजवानों की टोलियाँ धूप की परवाह किए बिना ढोलक की थाप पर लाठियाँ चटकाते हुए युद्ध कला का प्रदर्शन कर दिवारी खेल रहे होते हैं।
लोकगीत-संगीत और नृत्य की ताल मे ताल मिलाते, थिरकते लाठियों का अचूक वार करते ऐसा समां बाँध रहे होते हैं जिसे देख कर लोगे दांतों तले अंगुलियाँ दबा लेते हैं। इस कला को श्री कृष्ण द्वारा ग्वालों को सिखाई गई आत्मरक्षा की कला मानते हैं। बुंदेलखंड की यह परम्परागत लोकबिधा है जो खासकर दीपावली में घूम-घूम कर नृत्य करती टोली चित्रकूट आती है।
बुन्देलखंड का मार्शल आर्ट
बुंदेलखंड के हर त्योहारों में वीरता और बहादुरी दर्शाने की पुरानी परम्परा है तभी तो रौशनी के पर्व में भी लाठी डंडों से युद्ध कला को दर्शाते हुए दीपोत्सव मानाने की यह अनूठी परम्परा सिर्फ़ इसी इलाके की दीपावली में ही देखने को मिलती है। लाल, हरी, नीली, पीली वेशभूषा और मज़बूत लाठी जब दीवारी लोक नृत्य खेलने वालो के हाथ आती है तब यह बुंदेली सभ्यता, परंपरा को और मजबूती से पेश करती है।
इस दीवारी कला को बड़े, बूढ़े और बच्चे सभी जानते मानते हैं और इसमें बढ़ चढ कर भाग लेते हैं। यह दीवारी नृत्य बुंदेलखंड के जनपद बांदा, चित्रकूट, जालौन, झांसी, ललितपुर, हमीरपुर और महोबा के हर गली चौराहों में देखने को मिल जाता है। बुंदेलखंड का दिवारी लोक नृत्य गोवधन पर्वत से भी संबंध रखता है।
मान्यता है कि द्वापर युग में श्री कृष्ण ने जब गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर उठा कर ब्रजवासियों को इंद्र के प्रकोप से बचाया था तब ब्रजवासियों ने खुश हो कर यह दिवारी नृत्य कर श्री कृष्ण की इंद्र पर विजय का जश्न मनाया और ब्रज के ग्वालावाले ने इसे दुश्मन को परास्त करने की सबसे अच्छी कला माना।
इसी कारण इंद्र को श्री कृष्ण की लीला को देख कर परास्त होना पडा। बुंदेलखंड में धनतेरस से लेकर दीपावली की दूज तक गांव-गांव में दिवारी नृत्य खेलते नौजवानों की टोलियां घूमती रहती हैं। दिवारी नृत्य देखने के लिए हजारों की भीड़ जुटती है। दिवारी खेलने वाले लोग इस कला को श्री कृष्ण द्वारा ग्वालों को सिखाई गई आत्म रक्षा की कला मानते हैं।
बुन्देली झलक ( बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य )
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल