बुन्देलखंड के लोक-जीवन का उल्लास-झरनों के स्वभाव वाला है, जो यथार्थ की चट्टानों से टकराता है, आवेश के अवसरों पर उफान में बदल जाता है और सहज होकर कल-कल करता बहाव बन जाता है। Bundelkhand Ke Ritu Geet लोक जीवन का एक हिस्सा होता है। लोक जीवन सहज होता है, सरल होता है और निश्छल होता है। खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा और धर्म के तौर-तरीके लोक-जीवन को विरासत में मिलते हैं।
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इसी से इस समाज में सहयोग की भावना है. समूह के प्रति आस्था है, समझौते हैं और संस्कृति के प्रति अनुराग है। समाज और संस्कृति का संबंध शरीर में प्राण की तरह है और दोनों का आधार व्यक्ति है। संस्कृति, सहानुभूति का वातावरण निर्मित करती है। एक दूसरे को आपस में जोड़ती है। संस्कृति हमारी आत्मा का गुण है। प्रेम का भाव हैं। बुंदेलखण्ड की संस्कृति समन्वय की संस्कृति है।
लोक अपने अधिकारों के प्रति जागरूक रहा है। लोक साहित्य ही लोक संस्कृति को पुष्ट करके पल्लवित करता है। लोक संस्कृति-भारतीय संस्कृति की जड़ है। भारत गाँवों में बसता है और लोक भी गाँवों में रचता-बसता है। व्रत, मेले और पर्व संस्कृति की प्राणवायु हैं।
लोकपर्वों में आस्तिकता के साथ सामाजिकता के आदर्श हैं। लोक संस्कृति में प्रकृति का सानिध्य सदैव से रहा है। इसीलिए पर्व प्रकृति से जुड़े है। उनमें ऋतुओं का संसर्ग है। स्वागत् है। कजारियाँ और जवारे फसलों के प्रतीक हैं। जेठ-दशहरा कृषि कार्य के प्रारंभ का पूजन है। आषाढ़ी
देवताओं का पूजन वर्षा का आराधन भी है और अभिनंदन भी। अक्षय तृतीया (अखती) के दिन घड़ा, सत्तू और पंखा के दान से वैशाख की ऋतु से जोड़ा जाता है। वसंत ऋतु उल्लास और नई उमंग पैदा कर देने वाली ऋतु है। प्रकृति का संग अनेक पर्वो पर वृक्ष-पूजा के रूप में प्रचलित है।
दीपावली आलोक पर्व है। सभी पर्वो के गीत है। सभी ऋतुओं के गीत हैं। ऋत् गीतों की परम्परा वेदों से संस्कृत में आई। भारतीय साहित्य में 6 ऋतुयें प्रमुख हैं। बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, शिशिर एवं हेमंत । बसंत का आगमन एक नया उल्लास लेकर आता है। बसंत ऋत जीवन के अनंत उत्साह का ऐसा अहसास है जिसे अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। ऋतुराज बसंत की अनुपम छटा।
‘वीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में
बनन में बागन में बगरौ वसंत है।‘
श्रृंगार करती है प्रकृति इन दिनों। प्यार के इजहार कर कवि ईसुरी कहने लगते हैं- ‘अंखिया जब काहू से लगतीं सब-सब रातन जगतीं। उत्सव है वसंत पंचमी। माँ सरस्वती का जन्म दिन। होली भी इन 40 दिनों के वसंतोत्सव में गिनी जाती है। मूलतः मदनोत्सव है यह।
बुन्देलखण्ड के लोक साहित्य में अंगार की समृद्ध परम्परा नारी अपने प्रिय के साथ इतनी तन्मय है कि उसे ‘भुनसारे चिरैया में व्यवधान उत्पन्न करता है। वह कुये पर, बाग में चौपर में हर प्रिय के साथ रहना चाहती है। वह ढिमरिया और मलिनियाँ बना है। वह कहती है।
नजरिया मोई सों लगइयो मोरे राजा।
कै मोरे राजा अँगना में कुअला खुदैओ।
ढिमरिया मोई कों बनइयो मोरे राजा।।
नजरिया. कै मोरे राजा अँगना में बगिया लगइयो।
मलिनियाँ मोई कों बनइयो मोरे राजा।।
नजरिया….. कै मोरे राजा अँगना में चौपर डरइयो।
बाजू मोई कों जितइयो मोरे राजा।।
नजरिया….. प्रेमिका मोतियों का चौक पूर कर और स्वर्ण कलश के साथ प्रिय का स्वागत करने के लिए बेचैन है। हृदय की कोमल भावनायें इन गीतों में अभिव्यक्त होती है। बुन्देली लोकगीत लोक संस्कृति का आइना है। जन मानस अपनी खुशी और कसक लोक गीतों के माध्यम से व्यक्त करता है। बुंदेलखण्ड आस्था और भक्ति का प्रदेश है। शिवरात्रि में शंकर जी की बंबलियाँ आस्था का प्रतीक हैं।
असनई के घाबा बुरे, बुरौ बरई को हार।
चंबल के भरका बुरे, बिरले सूर खटायं ।।
के भोला तेरी बंब।
कै बमबोले।।
शिवरात्रि के बाद रंगों की फागनी दस्तक होती है। होली का त्यौहार फागुनी बयार की सरसराहट से धरती का माथा अबीर हो जाता है। गाल गुल हो जाते हैं और आँखे अनुराग के रंग में लाल । प्रकृति के आँगन में फागुन ने अपनी उत्सव धर्मी दस्तक दे दी है। फागुन आ गया है और पूरे ठाठ के साथ आ गया है।
फाग-
दिल डारें अटा पै काये ठाड़ीं।
काय ठाड़ी, कैसे ठाड़ी, दिल डारें अटा पै काये ठगड़ीं।
के तोरी सास ननद, दुख दीनी,
कै तौरे सैंया ने दई गारी
ना मोरी सास ननद दुख दीनी,
ना मोरे सैंयाँ ने दई गारी।
मायके के यार सपने में दिखे,
सो आई हिलोर फटै छाती।।
दिल डारें अटा पै काये ठाड़ीं।।
बुंदलेखंड की ‘लेद’ गायिकी का अपना स्थान है। पूरा क्षेत्र ब्रज-मय हो जाता है। कृष्ण और राधा के साथ होरी खेलना, रसिया यहाँ की पहचान हैं।
लेद –
राधा खेलें हो, मनमोहन के साथ मोरे रसिया।
कै मन केसर गारी हो, कै मन उड़त गुलाल मोरे रसिया।।
नौं मन केसर गारी हो, दस मन उड़त गुलाल मोरे रसिया।।
कौना की चूनर भींजी हो, कौना की पचरंग पाग मोरे रसिया।।
राधा की चूनर भीजी हो, कान्हा की पचरंग पाग, मोरे रसिया।।
चैत का महिना शुरू होता है। ऋतुमूलक परिर्वतन होने लगते हैं। सम्वत्सर से हिन्दू संस्कृति के अनुसार नया साल शुरू होता है। फसलों का आगमन। आनंद का झरना श्रम के गीतों में फूट-फूट पड़ता है। व्यक्ति तेल पेरे या महिलाएँ चक्की पीसें, इन क्षणों मे उसकी तमन्यता के गीत सहायक होते हैं। स्वर लहरी में डूबकर वह अपनी थकान भूल जाता है।
इन्हीं व्यस्त समय में ‘बिलवारी’ तथा ‘दिनरी और स्त्रियाँ द्वारा चकिया पीसते समया ‘जंतसार के गीत लोक-जीवन में रच-बस गये है। नारी आभूषणों के बजने की ध्वनि स्वयं लोकवाद्यों का कार्य करती है। जब किसान पति खेत पर काम करता है तो उसकी स्त्री खेतों पर कलेऊ लेकर जाती है और कलेऊ गीत की ध्वनि आनंद विभोर कर देती है
कलेऊ कौ गीत
लै लो कलेबा मैं ठाड़ी पिया।
बैलन कौं रोक पिया, अपनों तो देख जिया
लै लो कलेवा…..
बरत दुफरिया, लगत ततुरिया,
ऊसई में आ गई न मानौं जिया,
लै लो कलेवा…
ये गीत कानों में अमृत घोलते हैं। चैतुआ गीत श्रम का परिहार करते है। श्रम के पसीने की सुगंध के क्या करने? ‘अरे रामा हो, ऊँचे से सेंमरा डगमगे। फूले हैं लाल गुलाब-मिसरी से घोरते हैं। चैत्र की नवरात्रि में जवारे बोये जाते हैं। माता की अचरियाँ, भजन और भेटें गाये जाने का प्रचलन है।
गाँव और नगर अचरियों के इस मंगल गायन से भक्तिमय हो जाता है। दुर्गा माँ, सीता माँ, राधाजू, कालका माँ और उनके आगे चलने वाले भैरव बाबा की भी अचरियाँ गाई जाती हैं। इसी क्रम में लॉंगुरियाँ गीत आते हैं। शक्ति पूजा में ‘माई का मार्ग पूजने का विधान है। भक्त जन ‘पैड’ भरते हुए मैया के मंदिर में जाते हैं। इस पूजा में शक्ति और गणेश के ‘मायले’ गाये जाते है।
अचरी-
कैसे के दरसन पाऊँरी,
माई तोरी संकरी दुअरियाँ।
माई के दुआरें एक भूको पुकारे,
देओ भोजन घर जाऊँरी, माई तोरी सॅकरी दुआरियाँ ।।
माई के दुआरें एक अंधा पुकार,
देओ मैंना घर जाऊँरी, माई तोरी संकरी दुअरियाँ।।
माई के दुआरें एक बाँझ पुकारे,
देओ ललन घर जाऊँरी, माई तोरी सँकुरी दुआरियाँ।
कैसे के दरसन पाऊँरी।।
किसान के घर फसल कट कर आ जाती है। घर-परिवार की खुशी दो-गुनी हो बढ़ जाती है। अभावों दुखों और संघर्षों के जुझते रहने के बाद भी जीवन और संसार के साथ ही लोक समाज के सारे सरोकार जुड़े रहते हैं। उसने अपने लोकदेवता बना लिये हैं। कारसदेव, घटौरिया, कालका और हरदौल उनके निकट रहते हैं। वैशाख में आसमाई की पूजा होती है। जेठ दशहरा, असाढ़ में अपने-अपने देवताओं की पूजा अर्चना होती है।
आसाढ़ ग्यास तक विवाह आदि की धूम रहती है यानी जीवन महिनो, दिनों, त्योहारों, शादियों और क्रिया-क्रमों में उलझा रहता है और जीवन कट जाता है। किसान की मेहनत को जो वह पूरे साल करता है बहुत गहराई से लोककवि बजीर ने मेहसूस किया था। बजीर की गारियाँ आज भी लोक-जीवन में गहरे तक समाई हुई हैं।
बजीर की गारी-
कैसी बज्जुर छाती किसान की,
खबर नइयाँ जियऊ जान की।।
जबसें लागौ जेठ महीना, एड़ी तलवे चुये पसीना,
विपदा कछ जात कही ना,
खाद घूरे में सुद गई किसान की,
जबसें लगौ असाढ़ कूड ठाड़े रोज उखारें डूंड,
जैसे हाती कैसे सूंड,
दगा दै गई जो बदिया किसान की,
खबर नइयाँ जियऊ जान की।
बरसौ खूब मघन में पानी, निकर गऔ खेतन मे पानी,
हो रई खुसी सबै मनमानी,
किरपा खेतन पै हो गई भगवान की
खबर नइयाँ जियऊ जान की।
थोरी स्यारी बहुत उनारी, हो गई क्वार में ठाड़ी नारी,
हो गऔ दसरऔ और दिबारी,
मन में चिंता सिरकारी लगान की,
खबर नइयाँ जियऊ जान की।
बुंदेलखण्ड में ऋतु गीतों का बहुत महत्व है। बुंदेलीखण्ड के घर-घर में होने वाले पारिवारिक समारोह मांगलिक आयोजन इन्हीं गीतों और संगीत के साथ आयोजित होते हैं। लोक जीवन में हर मौसम का अपना आनंद है। सावन का महिना बहिनों का महिना है। भाई की प्रतीक्षा का महिना।
आकाश में उमड़ते घुमड़ते हुये बादल, बरसती बूंदें जीवन में रस का संचार करती हैं। सैरे गीत और नृत्य पावस ऋतु का आनंद बढ़ाते हैं। बहिनें भुंजरियों के गीत गाती है। महोबा में भुंजरियों का लड़ाई, पृथ्वीराज की पराजय और बुंदेलखण्ड वासियों की विजय का पर्व है। बरसात भर गाँव में चौपालों पर ‘आल्हा’ गाया जाता है। इसी ऋतु में ढीमर, काछी, गड़रिये ‘रावला’ गाकर मदमस्त होते हैं
रावला (ढिमरयाई)-
ढीमर कक्का ने डारौ जाल,
बीद गई जल मछरी।
मोंड़ी-मोड़न को खुल गऔ भाग,
तनक डारें तेल और प्याज,
छौंक दै जल मछरी,
लइये-लइये फुलका चार,
सूंत दऊँ जल मछरी।।
सावन ऋतु में ‘सैरे’ और ‘राछरे’ झूला-झूलते हुये महिलायें गाती है। अमान जू को राछरौ, प्रानधंधेरे को राछरौ, चन्द्रावली कौ राछरौ। राछरे का अर्थ रायसे या रसौ से है। राछरे बुंदेलखण्ड में गाये जाने वाले ऐसे ही लोक गीत हैं जो कथात्मक होते हैं मुगलो से अपने सतीत्व रक्षा के लिए चन्द्रावली जौहर करने की यह कथा साहसिक व्यक्तित्व की कसौटी है। इसी प्रकार अमान जू और प्रानधंधेरे के शौर्य को याद करते हुए गाये जाते हैं।
साउन आये नियरे अमन जू।।
अमन सींगा तिहारी बहना परदेस को राजा।
प्रान घंधेरे को राछरौ,
धाओ कै नउआ और धाओ कै बरिया,
सो बइया जू के दिन घर आओ,
नउआ हो बरिया जिन घर जावै,
जावें सो तिनकें बैरिन न होंय राजा।
इतनी जो सुनकें जो चले हैं अमन जू,
सो रीती मिली है पनिहार ओ राजा।
कै तेरी फोरौं गागरिया, सो कैसें बदर घर जायें राजा।
ना मेरी फोरौ सिर की गगरिया, गगरिया सो नार घर जाओ ओ राजा।
प्रान घंधेरे को राछरौ।
X X X X X
सदा न तुरैया फूलै अमान जू सदा न सावन होय,
सदा न राजा रन चढ़े, सदा न जीवन होय।
राजा मोरे असल बुंदेला कौ राछरौ
सबकी बहनियाँ झूले हिंडोरा,
तुमरी बहिन बिसूरै परदेस,
नउआ पठै हो, बम्मन पढ़ दो,
बैइया जू को दिन घर आये,
राजा मोरे असल बुंदेला को राछरौ।।
राछरों की तरह बरसाती रसिया गाने का चलन है।
गाड़ी बारे मसक दै रे बैल, अबै पुरवइया के बाहर ऊनये।
कौन बदरिया ऊनई रसिया, कौन बरस गये मेघ, अबै…..
अग्गिम बदरिया ऊनई रसिया,
पच्छिम बरस गये मेघ, अबै…..
भादौं के महिने में पानी की झड़ी लगती है। जायसी की विरहणी नायिका ‘पदमावत’ में नागमती सामान्य नारी की तरह चिंतित है। ‘को विन नाँह छप्पर को छाबा। जायसी का ‘बारह मासा’ बारहों महिनों की विरह-गाथा है। भादों में उतरते मास में त्यौहार की त्योहार हैं। साउन तीज, नागपंचमी, मौंर छठ, सन्तान सातें, गड़ा लैनी आठे और डोल ग्यारह (जल विहार) अनंत चौदस । बामी पूजी जाती हैं। भादौं में ही कारसदेव की बड़ी चौथ होती है। ढॉकें रात-रात भर बजती हैं और गोंटे गाई जाती है।
गोट-
एक वन चाली ऐला दे हो रे जहाँ,
तीजें वन पोंच गई सकरनी खोरा,
जां पै राजन को ठादै गज मंगल सपर खोर,
बदल बदल ऐला दे मांवती खो रई समकाय,
कै देवर लागत, कै लागत मोरे जेठ,
के लोगौ धरम के वीर, न मैं देवर लागों न लागौं जेठ,
मैं तो लागें धरम के वीर।।
क्वाँर का महिना शरद ऋतु का महिना है। कवाँरी लड़कियाँ पूरे महिने मामुलिया, गौरें, सुअटा और झिंझिया का खेल खेलती हैं। शरद पूर्णिमा के दिन सुअटा लुटने पर टेसू और झिंझिया का विवाह होने पर इस खेल का समापन होता है। साथ ही शारदीय नवरात्रि में माँ दुर्गा की अराधना की जाती है। महालक्ष्मी जवारे, माँ शारदा की अर्चना। हाथी की पूजा असत्य पर सत्य की विजय का पर्व दशहरा मनाया जाता है।
दशहरा के बीस दिन बाद कातिक के महिने में दिवारी। दिवारी एक रूत है। दिवाली के मौसम में हमारे रास्तों पर रोशनी की कंदीले जलती हैं। दिवाली संपूर्ण अर्थों में महापर्व है। दिवाली आत्म-उजास की थाती है। हमारी संस्कृति में सुख हो या दुःख दोनों स्थितियों में प्रकाश करने की परम्परा है। कार्तिक-स्नान हर तीसरे साल लौंड़ के महिने में किया जाता है। कार्तिक स्नान पर्व में महिलायें प्रभात बेला में झुंडों में निकलकर गाती हुई नदी या तालाब पर जातीं है ।
कार्तिक गीत –
दहिया लैकें आ जाऊँगी बड़े भोर।
आ जाऊँगी बड़े भोर, दहिया लैकें आ जाऊँगी।
ना मानो चुनरी धर राखौ सिगरे बिरज को मोल
दहिया लैकें आ जाऊँगी बड़े भोर।।
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नित आबत हो जू को हो लला।
नित आबत हौ, नित मुरली बजावत,
सोबत सखियाँ जगावत हौ जू.
जगावत हौ जू, को है लला।।
अगहन और पुस का महिना सदी की ठिठुरन बढ़ा देता है। जाने कैसे कटे। बुन्देलखंड क्षेत्र में जाड़े की रितु अपना असर छोड़ती है। पित चालीस दिनों में हाड़ को कँपा देता है। ठंड के मौसम को लेक कहावत प्रचलित है।
जाडौ ठाडो खेते में, करै हेत की बात।
बैरी मोरे तीन हैं रूई,कम्बल और प्यार।।
विभिन्न प्रकार के लोक गीत भी जाड़े की ऋतु में सुनने को मिलते हैं।
आ गई रे जाड़े की बहार,
परोसन गुंइया, रुइया तो भरवा ले नई खोरों में।
कन्हैया को आधार बनाकर ‘ऋतुओं के चित्रण’ में मानव जीवन की भावना साकार हुई हैं।
कन्हैया बिना कौन हरै मोरी पीरा,
पूस मास में ठंड जो व्यापै,
माघ में हलत सरीरा।।
नायिका का पति जब परदेस से लौटकर नहीं आता है तो वह कह उठती है।
उन बिन जाडौ सहो न जाबै,
ना बालम घर आबै ।।
वह पूँछती है- ‘आहौ राजा कौने से महिना में।’ ऐसी अनेक स्थितियाँ जाड़े की रितु से जुड़ी हुई हैं। लोक-भाषा के माध्यम से सामान्य जन-जीवन का दैनिक दिनचर्या के साथ जुडे हए हैं। माघ के महिने में संक्रात का पर्व ‘मगोरन की डौल है’ कहता हुआ आता है। परव लिया जाता है। और सक्रांत के बाद मौसम में बदलाव आने लगता है।
माघ का महिना ऋतुराज वंसत की अगवानी करता है। तिली, फूला, मूंग और लाई के लडुओं से । गढिया, घुल्ला में भरकर प्रमुदित होते हैं। बाग-बगीचों में गेंदा फलने लगते हैं। वातावरण मे रंगत छाने लगती है। कोयल के बोल’, बडे भोर की समीर, जाने क्या चार गया नीर । अलगोजा, कींगड़ी, ढोलक, मदंग तथा लोटा की संगति । लय, सुर और प्र प्रसन्नता का समन्वित रूप। पर्वत सूरजमुखी जैसे लगने लगत हैं मृगनयनी तथा घाटियाँ शहद से भरी हुई।
भारत का हृदय प्रदेश बुंदेलखंड त्याग और बलिदान का क्षेत्र है। यह क्षेत्र अपनी संस्कृति, कला और भाषायी अस्मिता के लिए अपना विशिष्ट महत्व रखता है। यहाँ की परंपरायें और संस्कृति हमारी विरासत हैं। इतिहास साक्षी हैं कि यहाँ की माटी में शस्त्र और शास्त्र की योग्यता, कोमलता, त्याग, उत्सर्ग, वीरता, भक्ति, प्रेम, संगीत, स्थापत्य और शिल्प ने ऊँचे प्रतिमान रचे ।
यहाँ ‘ठसक’ रची बसी है। लोक की संवेदना और रसमयता में डूबकर ही संस्कृति से संस्कार विकसित हुए हैं। आज मूल पंरपरायें समाप्त होने का भय है। चमकीली रेत है। पाश्चात्य संस्कृति की गिलगिली माटी है। ऐसे संक्रमण काल में हमारी लोक विधायें, ऋतु गीत हमारे जीवन और समाज में नई स्फूर्ति, चेतना और आनंद ही अनुभूति कराने में सहायक हैं। ऋतु गीत हमें हमारी जड़ों से पंरपराओं से जोड़ते हैं और लोक-लय हमारे शुष्क-जीवन में रस और आनंद का संचार करती है। ये हमारी धरोहर है। हमारी पहचान हैं।