Homeबुन्देलखण्ड की लोक संस्कृतिBundelkhand Ke Devigeet बुन्देलखण्ड के देवीगीत

Bundelkhand Ke Devigeet बुन्देलखण्ड के देवीगीत

शक्ति पूजा एवं देवी गीत बुंदेलखंड अंचल के संस्कृति में आदिकाल से ही समाहित है। इससे स्पष्ट होता है कि बुंदेलखंड में Bundelkhand Ke Devigeet की रचना आदिकाल से ही आरंभ हो गयी थी जिसके अनेक साक्ष आज भी विद्यमान है।

बुन्देलखंड मे शक्तिपूजा और देवीगीतों  की रचना-काल

बुन्देलखंड अंचल में शक्ति पूजा बहुत प्राचीन है, जिसके प्रमाण आज भी मौजूद हैं। भुइयाँरानी या भियाँरानी की पूजा भूदेवी की ही पूजा है। चंदेलयुग में शाक्तमत का खूब प्रसार था। भेड़ाघाट (जबलपुर) का चैंसठ योगिनी का मंदिर, खजुराहो का चैंसठ योगिनी और जगदम्बी का मंदिर, कालिंजर दुर्ग के पाँचबे द्वार पर काली और चण्डिका की मूर्तियाँ, चंदेलों की राजधानी महोबा में हर दिशा पर प्रतिष्ठित चण्डिका के मंदिर या मूर्तियाँ आदि से पता चलता है कि इस युग में शक्ति-पूजा का उत्कर्ष था।

इतिहासकार अल्बेरूनी ने महानवमी को देवी का उत्सव और क्वाँर की अष्टमी में उपवास का उल्लेख किया है। राजशेखरकृत ’’काव्यमीमांसा‘‘ में क्वाँर की महानवमी और चैत्र की नवरात्र को महत्व मिला है। चंदेलनरेश परमर्दिदेव के अमात्य वत्सराज के ’’रूपकषटकम्‘‘ में पार्वती की पूजा (समुद्रमंथन, पृ. 157) और अनुरूप वर पाने के लिए भवानी-पूजा या भवानीमंत्र का प्रयोग (रूपकषटकम्, पृ. 64, 65, 70,157) के साक्ष्य मिलते हैं।

नौरता का खेल इसी समय प्रचलित था, जिसमें गौरी की पूजा प्रमुख थी। खजुराहो के लक्ष्मण मंदिर में ब्रह्मा और महेश के साथ विष्णु के स्थान पर लक्ष्मी की मूर्ति उत्कीर्ण है, जिससे देवी के महत्व का पता चलता है। शक्ति-पूजा से प्रेरणा पाकर देवी गीतों की रचना सहज स्वाभाविक थी। चंदेलों और देवी गीत के संबंध में दो उदाहरण प्रस्तुत हैं, जिनसे स्पष्ट है कि देवी गीत की रचना आदिकाल में होने लगी थी। पहला उदाहरण है मिर्जापुर तरफ के आदिवासियों का जो मोरपंख हाथ में लिए जवारों के जुलूस में आगे-आगे गाते हैं-

बन केदली से सजइ हथिनियाँ, आल्हा भयल असवार होमाऽऽऽइ।
इक पर लादै धुजा (नारियल), एक पर लादै निसान हो माऽऽऽइ।।
उक्त पंक्तियों में ’’बन केदली‘‘ अर्थात् ’’कदली बन‘‘ से आल्हा का हथिनी पर सवार होकर देवी-पूजा के लिए चलना वर्णित है। ’’आल्हा गाथा‘‘ से भी आल्हा का देवीभक्त होना देवी-पूजा के लिए चलना वर्णित है। आल्हा गाथा से भी आल्हा या देवीभक्त होना सिद्ध है। आदिवासियों की ये पंक्तियाँ प्राचीन होना भी स्वयंसिद्ध है। इससे स्पष्ट है कि देवी गीतों की रचना चंदेलयुग की है और आल्हा गाथा की गायकी देवी गीत से निसृत हुई है। दूसरा उदाहरण उस गीत का है, जिसमें झाँसी के जार पहाड़ और करौंदी का उल्लेख है-

फूलो जार पहार करौंदी बन, फूलो गमकत फूल मोरी माँय।
कौन बरन जाकी बोंड़ी जगतारन, कौन बरन फूल होंय मोरी माँय।।…..
उक्त पंक्तियों का जार पहाड़ झाँसी के समीप चंदेलों द्वारा बसाये हुए लहर ग्राम में है और करौंदी बन ’’झाँसी से 6 मील पश्चिम सातार नदी के तीर से प्रारंभ होता है और ओरछा तक जाता है। लहर गाँव के पास जगदम्बा का चंदेलकालीन मंदिर है। इन पंक्तियों से भी इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि देवी गीतों का उद्वभव चंदेलयुग में हुआ था।

ऊपर के पहले उदाहरण से निश्चित ही है कि ’’आल्हागाथा‘‘ की रचना के पूर्व देवी-गीत लोकप्रचलित और लोकप्रिय हो गये थे, तभी तो जगनिक ने 1182 ई. से 1202 ई. के बीच ’’आल्हा‘‘ की रचना की थी। ’’आल्हा गाथा‘‘ के रचना-काल से दो सौ वर्ष पूर्व यानी कि 10 वीं शती के अंतिम चरण में देवी गीतों की रचना प्रारंभ हुई थी।

गायन का समय
क्वाँर और चैत की नौदेवियों में देवी गीतों के गायन की कोई सीमा नहीं रहती। प्रतिदिन जवारों के सामने स्त्री-पुरुष गीत गाते हैं। दोनों महीनों के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को दौना और खप्परों में जौ बोये जाते हैं, फिर होम और नारियल आदि से पूजा होती है और गीत गाये जाते हैं। पंचमी, अष्टमी को आरती के बाद गीत-गायन चलता है। देवी जू के सिरै आने पर भाव आते हैं।

हमारे अनेक बुजुर्ग विद्वानों ने बताया है कि देवी नहीं आतीं, उनकी आभा आती है और एक नशा-सा छा जाता है। सबको पहचानता रहता है। उनसे विनती करने वालों को फल अवश्य मिलता है। और कुछ विद्वानो का कहना था कि भाव आने पर एक ताकत-सी महसूस होती है, जो दूर फेंक देती है। उस समय किसी को भी नहीं पहचानते। उस स्थिति में जिसको जो कहते हैं, वह याद नहीं रहता।

नवमी को जवारे सामूहिक रूप में नगर के प्रमुख मार्गों पर जाते हुए नदी या सरोवर में पहुँचते हैं। नगरवासी उनके आगमन के पहले मार्ग को सिंचित कर पवित्र करते है और उनकी पूजा कर भभूत का प्रसाद लेते हैं। जवारे खोंटे जाते हैं, फिर जल में सिराये जाते हैं। पवित्र जवारों को अपने संबंधियों को ही नहीं, पुरा-पड़ोसियों को भी वितरित करना मांगलिक समझा जाता है।

जवारे के दिवाले होते हैं, जहाँ वर्षभर पूजा-रचा होती रहती है। ये दिवाले अलग घर में या एक कमरे में प्रतिष्ठित किये जाते हैं। देवी की लोकमूर्ति, साँगे, ढाल, कँटीला, साँर, खड़ाऊँ आदि से सुशोभित इन दिवालों की सबसे बड़ी सम्पदा श्रद्धा है। मनौती मानने पर साँग गाल, गले और जीभ में छिदवाते हैं। ढाल एक लकड़ी का लम्बा लट्ठा है, जिसके सिर से लगी लकड़ी पर दो तलवारें लटकती रहती हैं और जो मंत्र के प्रभाव से आगे पीछे होता है। दो मंत्रों के मंत्र-संघर्ष का चमत्कार जवारे के जुलूस का आकर्षण है।

लोहे की साँकर आग में तपाये जाने पर जब लाल हो जाती है, तब उसे हाथ से सूँटते हैं। लकड़ी की खड़ाऊँ पर लगी नुकीली कीलों की परवाह ने करते हुए उन्हें पहनकर चलना भी दैवी चमत्कार है। पहले जवारों के साथ अखाड़े भी चलते थे, जिनमें शस्त्रों की प्रतियोगिता और पटा-बनैती होती थी, लेकिन अब उनका चाव घट गया है। जवारे तो आदिकाल से अब तक अपनी परम्परा सुरक्षित रखे हुए हैं और देवीगीतों का गायन भी बराबर होता रहता है, लेकिन मध्ययुग में सूफियों के प्रभाव से प्रचलित चमत्कार अब नाम मात्र को रह गये हैं।

किसी भी उत्सव और उछाह के आरंभ में देवी गीतों से वंदना करना लोक में शुभ समझा जाता है। जन्म, विवाह आदि संस्कारों का प्रारंभ भी देवी गीतों से होता है। चेचक निकलने पर अथवा मनौती मानने पर देवी-पूजा और देवी-गीत अनिवार्य-से हैं। इस प्रकार देवीगीतों की गूँज हर मौसम में गूँजती रहती है।

समृद्धि और वर्गीकरण
देवी गीत तीन रूपों में मिलते हैं-
1 – साखी, जिसे देवी जू की साखी कहते हैं।
2 – गीत, जो विभिन्न लयों और रसों से प्राप्त हैं।
3 – आख्यानक गीत या गाथा, जो किसी आख्यान या कथा को केन्द्र में रखकर रचा गया हैं ये तीनों रूप आदिकाल से लेकर अभी तक प्रचलित हैं। स्थानांतरण होने पर काल-निर्धारण कठिन हो जाता है। देवी जू की साखी दिवारी और फाग (सखयाऊ) की परम्परा में बहुत प्राचीन है। अब भी कहीं-कहीं गायी जाती हैं, पर उनका प्रचलन बहुत कम हो गया है। आदिकाल में साखियों की संख्या अधिक थी और उनमें अधिकांश ओजपरक थीं।

विजातीय आक्रमणों से लिखित सामग्री तो नष्ट हो गयी, जिससे उनके उपलब्ध होने का प्रश्न ही नहीं है। मौखिक परम्परा में साखियों की जगह गीतों ने ले ली और एकदम अभाव हो गया। नौदेवी के समय मरई माता की साखीं गायी जातीं हैं। संभव है कि अंचल की विशिष्ट लोकदेवियों की साखियाँ रची गयी हों। साखियाँ उपलब्ध न होने से उनका वर्गीकरण उचित नहीं है, फिर भी उनके दो रूप निश्चित हैं। एक तो ओजपरक साखियाँ, जो दिवारी गीतों और कड़खों की तरह प्रचलित थीं और दूसरी भक्तिपरक साखियाँ, जो देवी की भक्तिभावना से प्रेरित होकर भक्तिरस में ही सनीं थीं।

भक्तिपरक, दार्शनिक और प्रकृतिपरक प्रधान है। शाक्तमत के तंत्रवाद से लंगुरा का प्रवेश हो गया था, जो देवी का परमभक्त, सेवक और सहचर बना। बहुत थोड़े से गीतों में ही श्रृंगार की झलक मिलती है, जो भक्ति के आँचर में शिशु की तरह दुबक कर सोयी रहती है। ओजपरक गीत रचे गये थे, परंतु वे भक्ति-आंदोलन की लहर में बह गये। कुछ थोड़े से बचे हैं, जो आख्यानक रूप में ढल गये हैं। उनका आधार पौराणिक आख्यान रहे है।

आख्यानक देवी गीत दो प्रकार के हैं। एक वे गीत हैं, जिनमें आख्यानक रंग भर है और दूसरे वे, जो पौराणिक या कल्पनात्मक कथानक के आधार पर रचे गये हैं। आख्यानक गीत ही विस्तार पाकर गाथा का रूप धारण कर लेते हैं। देवीपरक गाथाओं में सुरहिन, दानौ, धाँदू और राजा भोज की गाथाएँ प्रमुख रूप में लोकप्रिय हैं।

देवी गीतों की विशेषता
देवी गीतों की विशेषताओं को दो वर्गों में रखा जा सकता है-एक में विषयवस्तु का विवेचन और उसकी विशेष दिशाओं का संकेत तथा दूसरे में शैली या शिल्पगत विशेषता  और लोककाव्य को उसका योगदान।

वस्तुगत विशेषता
मुक्तक गीतों में देवी की स्तुति गुणों और पराक्रम की प्रशस्ति उनके स्थान, बनक, शोभा का वर्णन, उद्यान, पुष्पों, माली के उल्लेख आदि प्रमुख विषय हैं, जो देवी को केन्द्र में रखकर महत्वपूर्ण हो जाते हैं। दूसरी तरफ भक्त की स्थिति, उसके अभाव और वांछित वरदानों का विवरण रहता है। तीसरी तरफ कुछ गीतों में सरल और सुबोध प्रतीकों द्वारा आध्यात्मिक चिन्तन या रहस्यमयता संकेतिक है। रहस्यमय गीतों में दार्शनिकता का लोकरूप ही मिलता है। कुछ पंक्तियाँ देखें….

उड़ चल रे परबतवारे सुअना, घर अँगना न सुहाय मोरी माँय।
कै उड़ चल भइया बाग बगीचा, कै बिन्ध्याचन डाँग हो माँय।….
इन पंक्तियों में पर्वत के उच्च शिखर वाला सुअना (तोता) जीव का लोकप्रतीक है और घर-आँगन जगत का। बाग-बगीचा और विन्ध्याचल की डाँग (बन) माया के बंधनों से मुक्त लोक का संकेत देते हैं। इस प्रकार इन पंक्तियों में जहाँ संसार के मायाजाल से ऊबने का भाव है, वहाँ जगत, जीव और विराग संबंधी लोकसहज वैचारिकता है।

देवी गीतों में बेला, चमेली, रूचकेवरे, लाल अनार, चम्पा, चंदन आदि की बहार है। ऐसा प्रतीक होता है कि देवी को प्रकृति से अत्यधिक प्रेम है। खासतौर से एकान्त में पुष्पित गंधयुक्त प्रकृति में देवी का वास है। उसका मढ़ या मढ़िया बेला-चमेली से आच्छादित है, उसकी चुनरिया फूलों के रंग से रंजित है और उसके भक्त सुंगधित फूलों से उसे सुशोभित करते हैं। वस्तुतः यह देवी का कोमल नारीत्व है, जिसका चित्रण बार-बार हुआ है।

घोर जंगल, सिंह पर सवारी और भयंकर दानव का संहार आदि देवी का कठोर नारीत्व है। नारीत्व के इसी समन्वित रूप का आदर्श अवतरण देवी है। भक्ति का लोकरूप ही इन गीतों में मिलता है। धुजा-नारियल, पान-बताशा और पत्र-पुष्प से ही देवी प्रसन्न हो जाती हैं। किसी भी गीत में मदिरा, पशुबलि और नरबलि का उल्लेख नहीं है।

आख्यानक गीतों और गाथाओं में भक्ति खाँड़े की धार की तरह कठिन है। धाँदू और जगदेव अपने सिर उतारकर देवी को भेंट कर देते हैं। देवी की परीक्षा बहुत कठिन है, लेकिन उसमें उत्तीर्ण होकर व्यक्ति अमरत्व प्राप्त कर लेता है। भक्त के हित के लिए देवी दानव (असुर) का संहार करती है। अपने पराक्रमी और लोकरक्षक रूप में वह युगचेतना से जुड़कर लोक का संहार के लिए देवी दुर्गा को पाती भेजकर बुलाते हैं, जिससे देवी का महत्व और अधिक बढ़ जाता है।

’’सुरहिन की गाथा‘‘ नीतिपरक हैं उसमें सत्य की निष्ठा विजयी होती है। बछड़ा यह कहता है कि उसे देवी माता ने सीख दी है और सिंह देवी की सवारी है, इस कारण से भी सिंह उसे नहीं मारता। इस गाथा में देवी की भूमिका उतनी प्रभावी नहीं है, जितनी सत्य की।

’’सुरहिन की गाथा‘‘ दानौ, जगदेव और धाँदू की गाथाओं से पुरानी है। उसकी वस्तु ढाँचे में पंचतंत्र की कथा जैसी है और परिणाम में जातक की तरह। गाय-बछड़े और सिंह के संवाद पंचतंत्र की शैली का अनुसरण करते हैं और नैतिकता या नीतिपरक-कथन भी पंचतंत्र की कथा जैसा है, परंतु सिंह जैसे हिंसक की क्षमा पर जातक का प्रभाव प्रतीत होता है।

सुरहिन गोमाता है और सिंह देवी की सवारी, इसलिए वह देवी गीतों में ले ली गयी हैं बछड़े को देवी की सीख का ऋणी बताया गया है। साथ ही गीत की लय भी देवी गीत की है। सिंह की उदारता और क्षमा देवी की उदारता और क्षमा को चैगुना बढ़ा देती है। फिर सुरहिन ने देवी के चंदन बिरछा को चर कर अपराध किया था और सिंह ने उसे देख लिया था। देवी के स्थान पर सिंह को सजा देने का कार्य हर दृष्टि से उचित है।

एक तो सिंह की प्रकृति हिंसक है, दूसरे वह इस स्थिति में देवी का प्रतिनिधि है। देवी अंतर्यामी है, गाय जैसे निरीह पशु को कैसे दण्डित करती। इसलिए सिंह का चयन लोककवि की प्रतिभा का परिचायक है। सिंह की हिंसक प्रवृत्ति उसका जातीय गुण है, लेकिन क्षमा करना देवी के सिंह विशेष का ही अर्जित गुण है। इस दृष्टि से यह देवी गीत ही है।

’’दानौ की गाथा‘‘ का प्रेरणास्रोत पौराणिक कथा है। शिवपुराण के अनुसार दुर्गम असुर का संहार करने के लिए देवताओं ने देवी से प्रार्थना की थी और दुर्गा का अवतरण हुआ था। प्रस्तुत गाथा में देवताओं के देव नारायण पाती से संदेश भेजकर दुर्गा का आह्वान करते हैं। दुर्गा सिंह की खोज कराती हैं । जब नहीं मिलता, तब स्वयं जाती हैं। डमरू के बजने पर दो-दो सिंह आ जाते हैं। देवी का पूरा दल चलता है। साथ में डूँड़ा नादिया पर महादेव, गरूड़ पर भगवान (नरायन) और अन्य देव चलते हैं, पर दानौ की गर्जना से भयभीत होकर सभी देव-महादेव भाग जाते हैं।

दुर्गा ने त्रिशूल चलाया और उसके आघात से दानौ के लहू की जितनी बूँदें गिरी, उतने दानव प्रकट हो गये। इस पर दुर्गा ने अपने अंग के मैल से पुतरी बनाकर चैंसठ योगिनी खड़ी कर दीं, जो लहू की बूँदों को अपने खप्परों में ले सकें। अंत में देवी की खड्ग के एक घात से दानौ का बध हो गया। इस गाथा में सीधी-सादी कथा है, जिसे एक दीर्घ गीत का शीर्षक देना उचित है। गाथा में युद्धादि के विस्तृत वर्णन होते हैं, पर इसमें घटना या वर्णन का उतना विस्तार नहीं है।

’’राजा भोज की गाथा‘‘ अपूर्ण प्रतीत होती है। उसकी कथा में कुछ पंक्तियाँ छूट गयी हैं। कथा इकहरी है और उसका नायक राजा भोज है। राजा भोज दरबार के बाद घर बैठे थे कि उन्होंने राजकुमार को बुलाकर गोद में बैठाया। कहा-’’अब तो तुम्हारे पिता वृद्ध हो गये हैं। चिन्ता है कि हमारी प्रजा दुखी न हो’‘ यह सुनकर राजकुमार ने वचन दिया कि प्रजा तो चोली के पान की तरह रखी जाएगी।

राजा ने उसे सीख दी कि वह करन गूजर की दिशा में शिकार खेलने न जाय, भले ही अन्य तीनों दिशाओं में खूब शिकार खेले। करन गूजर उनका शत्रु है और वह दाँव दिखा सकता है। लेकिन राजकुमार नहीं माने। घोड़ा सजाने में छींक हुई और वर्जन करने पर भी वे सवार होकर उसी दिशा में शिकार खेलने चल दिये। करन गूजर की चैकी बहुत बढ़ी थी। राजकुमार पालन्दर ने लखूरे बाग में डेरा डाल दिया। हिरणी और हिरण छोड़कर रोज का शिकार किया। बिना अन्य-जल वे सात दिन तक शिकार खेलते रहे और आठवें दिन लौटे।

राजकुमार की कुशल वापसी पर सबने स्वागत किया। निर्विघ्न यात्रा को समझ कर ब्राह्मण ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की कि अब राजा भोज के अच्छे दिन आ गये। वहीं एक परदेशी ब्राह्मण बैठा था, जिसकी बात कोई नहीं सुन रहा था। उसने कहा-’’चाहे राजा मुझे मार डाले, पर राजा भोज की मृत्यु कल निश्चित है।‘‘ इस पर उस ब्राम्ह्ण को काठ में डाल दिया गया। उसका अपराध यही था कि उसने राजा भोज का बुरा सोचा था।

राजा को भी लोहे की दीवारों से बने कक्ष में वज्र कपाठों के भीतर बंद कर दिया गया। दरवाजे पर सवा लाख घुड़सवार सैनिक रक्षा के लिए तैनात कर दिये गए। इस व्यवस्था से राजा अपनी निर्जीव स्थिति त्याग कर सजीव हो गया। उसके शरीर में गर्मी आ गयी। इस बीच अंगों के मैल से दो सींग, दो कान, पूँछ, मुख, चरण आदि लगाकर एक साँड़ बनाया, जो सजीव होकर खड़ा हो गया।

इस अर्थ की दो पंक्तियाँ निस्सहाय-सी खड़ी हैं। साँड़ की रचना दैवी है और वह रक्षा के लिए बनाया गया है। अगर यह देवी का चमत्कार है, तो राजा भोज की प्राणरक्षा के लिए एक पहरूआ की तरह बैठाया गया था। लेकिन उपलब्ध पाठ में न तो देवी का उल्लेख है और न राजा भोज देवी के भक्त के रूप में। सवा प्रहर दिन चढ़ने पर राजा का निधन हो जाता है। लोहे का कक्ष और वज्र कपाट तुड़वाये जाते हैं और सवा लाख रक्षक भाग जाते हैं, वहाँ राजा का शव मात्र बचता है। इस प्रकार कथा का करुण अंत हो जाता है।

यह गाथा देवी गीत के रूप में गायी जाती है, पर उपलब्ध पाठ में देवीभक्ति का संकेत तक नहीं है। राजा भोज एक ऐतिहासिक पात्र है, जो इतिहास के धार के परमार नरेश के रूप में प्रसिद्ध रहा है। उदयपुर प्रशस्ति के आधार पर ’’भोज ने ऐसा राज्य किया, सत्ता स्थापित की, दान दिये और शास्त्रों को जाना, जैसा किसी राजा ने नहीं किया था।‘‘, जिसने उसकी सार्वभौम सत्ता, भारत भर में बनवाये मंदिरों और कवि-विद्वानों को प्रदत्त उपहारों, अपार शास्त्रज्ञान आदि का पता चल जाता है।

शिल्प की दृष्टि से इस गाथा में कोई नयापन नहीं है। सुरहिन गऊ के गोबर से ढिक देकर लीपना, गजमोतिन के चैक पूरना, कंचन कलश रखना आदि लोकसंस्कृति की पहचान खड़ी करते हैं। कहीं-कहीं सटीक उपमान-संयोजन से अर्थ की गरिमा बढ़ी है, जैसे ’’रइयत तो तोरी ऐसें कै राखों जैसें चोलन में पलोटें पान हो माँय‘‘। इस अंचल में पान की उपज बहुत होती है। पान चुलिया में रखे जाते हैं, लेकिन उन्हें सड़ने से बचाने के लिए बार-बार पलटना पड़ता हैं इस रूप में हर पान की व्यक्तिगत देखरेख करना पड़ती है। यही देखभाल प्रजा के लिए जरूरी है।

’’धाँदू की गाथा‘‘ में कथा इकहरी और सीधी है। पहले धाँदू का जन्म, फिर शैशव और बाद में उसकी भक्ति का वर्णन है। गायें चराना और देवी के गुण गाना ही उनका काम था। स्नान के बाद चंदन गार कर देवी जी को तिलक लगाना, चनों का खेत रखाते हुए चने की घेंटी से देवल निकाल कर देवी को भोग अर्पित करना धाँदू की दिनचर्या का अंग था। बहुत दिनों से धाँदू देवी मंदिर नहीं आये, इसलिए देवी ने लंगुरा को बुलाने हेतु भेजा।

धांदु को बुलाने जब  लंगुरा जाता है तो धाँदु ने कहा कि उनके पास न तो गाँठ मे  कुछ है और नहीं जमीन-जाँगा है। लँगुरा ने उन्हें खर्च दिया, तब उन्होंने धुजा, नारियल आदि भेंट खरीदी। माता ने कहा कि देवी की सेवा (भक्ति) खाँड़े की धार की तरह कठिन है। इस पर धाँदू ने उत्तर दिया कि अब तो देवी से ध्यान लग गया है। धाँदू माता-पिता, बहन-भाई किसी से भी नहीं मिलता और नदी पार कर देवी के पास जाता है।

देवी पूछती है कि वह इतने दीर्घकाल के बाद आकर भेंट में क्या लाया है ? धाँदू धुजा-नारियल आदि अर्पित कर देता है, पर देवी स्वीकार नहीं करतीं। इस पर धाँदू स्नानादि के बाद चंदन-खौर लगाकर अपना माथा (सिर) उतार देता है। उसका शरीर नदी में डाल दिया जाता है, पर उसे कोई नहीं खाता। न तो वह सूखता है, न कुम्हलाता है। अंत में, लँगुरा के कहने पर देवी उँगली चीरकर इमरत (अमृत) छिड़कती है, जिससे धाँदू जीवित हो जाता है और उठकर देवी के चरण पकड़ लेता है-’’अब न चरन छुटाव मोरी माया हों चरनन की धूर हो माँय‘‘ उक्त कथा में एक सच्चे भक्त का संक्षिप्त वृत्त है।

बुंदेलखण्ड में शाक्तों के प्रभाव का संकेत पहले ही किया जा चुका है, इसलिए किसी देवी लोकभक्ति को कथा-गीत में रूपायित करना एक सहज कार्य था। देवी के लिए सिर उतारना एक कठिन परीक्षा और भक्ति की चरमसीमा है, जो किसी भी भक्त को अमर करने में सक्षम है। इसी तरह एक प्राणहीन व्यक्ति में प्राण भर देना देवत्व का दुर्लभ चमत्कार है। इस प्रकार इस गाथा में भक्त और आराध्य दोनों के आदर्श चरमविन्दु पर हैं, जो एक भक्तिपरक कथा की सफलता के लिए पर्याप्त हैं।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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