Homeबुन्देलखण्ड का सहित्यBundelkhand Ka Madhyakalin lokkavya बुन्देलखंड का मध्यकालीन लोककाव्य

Bundelkhand Ka Madhyakalin lokkavya बुन्देलखंड का मध्यकालीन लोककाव्य

आदिकालीन चन्देली संस्कृति अपनी शक्ति और प्रभाव क्षमता के कारण बुन्देलखंडी संस्कृति की केन्द्र बन गई थी और उसे ही मध्ययुग के गोंड, तोमर, खंगार और बुन्देले राज्यों ने पोषित किया था। 13वीं शती में मुस्लिम शासन स्थापित होने पर राज-काज की भाषा फारसी हो गई थी जिसके कारण  Bundelkhand Ka Madhyakalin lokkavya विदेशी भाषाओं  से प्रभावित हो रहा था।

बुन्देलखंड  की मध्ययुगीन परिस्थितियाँ

चन्देलों का राज्य भले ही 13वीं शती के पूर्वार्द्ध तक रहा हो, लेकिन उनकी संस्कृति का प्रभाव 14वीं शती के अन्त तक बना रहा। फलस्वरूप लोकसाहित्य की लोककाव्य-धारा गतिशील होकर लोकहृदयों को सिंचित करती रही। Bundelkhand Ka Madhyakalin lokkavya विषम परिस्थिति मे अपने अस्तित्त्व को बनाये हुये था ।

13वीं शती में मुस्लिम शासन स्थापित होने पर राज-काज की भाषा फारसी हो गई थी और उसके दबदबा से लोकभाषाओं पर असर पड़ना स्वाभाविक था। साथ ही मुस्लिम संस्कृति के समवाय (पैटर्न्स) भी अपनी जड़ें जमाने के लिए तत्पर थे। मुस्लिम शासक के बाद अंग्रेजों का पदार्पण ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व रखता है।

1857 ई. का स्वतन्त्राता-संग्राम एक ऐसी विभाजक रेखा है, जो एक तरफ मध्ययुग के सांस्कृतिक और साहित्यिक पराभव को इंगित करती है और दूसरी तरफ पुनरुत्थान की सांस्कृतिक चेतना और नए प्रकार के लोकसाहित्य के विकास को उद्भासित करती है। इस वजह से 1860 ई. के मध्ययुग का दूसरा छोर कहना उपयुक्त है, क्योंकि 1858 ई. तक तो अंग्रेजों से संघर्ष चलता रहा।

दूसरे, पुनरुत्थान-काल के लोकसाहित्य के प्रवर्तक लोककवि ईसुरी ने 1860 ई. के लगभग चौकड़िया फाग का आविष्कार किया था। इस प्रकार बुन्देलखंड का मध्ययुग 1401 ई. से 1860 ई. तक लगभग चार सौ उनसठ वर्ष उत्कर्ष पर रहा।

बुन्देलखंड का मध्ययुगीन ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
Bundelkhand Ka Madhyakalin lokkavya बिस्तार से देखें तो मध्ययुगीन बुन्देलखंड के इतिहास की गाथा आक्रमणों और युद्धों के अक्षरों से लिखी गई है। वैसे बुन्देलखंड में चन्देलनरेश गंड के राज्यकाल (1003-1025 ई.) से ही आक्रमणों की शृंखला प्रारम्भ हो जाती है, किन्तु चन्देलों में मुँहतोड़ उत्तर देने की शक्ति थी।

1300 ई. में चन्देल, कलचुरी, कछवाहे आदि शक्तिशाली राजवंश निस्तेज हो गए और लगभग 1400 ई. तक यह प्रदेश तुर्कों तथाकथित गुलाम, खिलजी, तुगलक आदि के आक्रमणों से अशान्त और अस्थिर रहा। राजनीतिक स्थिति में स्थायित्व न होने के कारण सर्वत्र अनिश्चित अंधकार-सा छा गया।

पूरा प्रदेश टुकड़ों में बँट गया था और कोई ऐसी प्रबल शक्ति न रह गई थी, जो उसे एक सूत्र में आबद्ध करती। ऐसी निराशा  पूर्ण स्थिति में ग्वालियर के तोमर, ओरछा-मऊ के बुन्देला और गढ़ा-मंडला के गौड़ वंशों का उदय हुआ, जिन्होंने बुन्देलखंड की संस्कृति, कला और साहित्य के संरक्षण में महत्त्वपूर्ण योग दिया है और उनका पुनरुत्थान कर नवीन दिशाएँ देने का प्रयत्न किया।

तोमरों का राज्य 1402 ई. से 1517 ई. तक रहा, पर यह केवल एक सौ वर्ष का शासन राजनीतिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक महत्त्व का सिद्ध हुआ। ग्वालियर में प्राप्त शिलालेखों के आधार पर वीरमदेव तोमर तुगलकों के कमजोर शासन और तैमूरलंग के आक्रमण से उपजी अवस्था का लाभ उठाकर 1402 ई. में ग्वालियर के तोमर राज्य की नींव डालने में सफल हुआ। लेकिन वे अपने राज्य-काल में निरन्तर संघर्ष करते रहे।

उनके बाद गणपति देव तोमर ने अल्पकाल में ग्वालियर को सुरक्षित रखा। 1424 ई. में उनका पुत्रा डूँगरेन्द्रसिंह गद्दी पर बैठा और नरवर के कछवाहा राजा को पराजित कर अपने राज्य का विस्तार करने में अग्रणी हुआ। उसके राज्य-काल में जैन अनुयायियों ने अनेक जैन मूर्तियाँ निर्मित करवाई थीं। उपरान्त कीर्तिसिंह तोमर (1454-79 ई.) के समय में भी जैन मूर्तियाँ प्रतिष्ठित की गईं। उसके राज्य-काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी।

बहलोल लोदी के खिलाफ हुसैनशाह शर्की की सहायता, जिसके कारण बहलोल लोदी के हमले से बचने के लिए उसे 80 लाख रुपए लोदी को देने पड़े। उसके बाद कल्याणसिंह ने 1479 से 1486 ई. तक राज्य किया। 1486 ई. में ही मानसिंह तोमर गद्दी पर आसीन हुए। उनका राज्य-काल (1486-1516 ई.) बुन्देलखंड की संस्कृति, कला और साहित्य के विकास की दृष्टि से बेजोड़ था।

इतिहासकारों में सिकन्दर लोदी के ग्वालियर पर आक्रमण के सम्बन्ध में मतभेद है। तीन दशक तक राज्य करते हुए मानसिंह ने ग्वालियर को स्थायित्व प्रदान किया था। मानसिंह की मृत्यु पर विक्रमाजीत राजा हुए। उन्होंने अपने बल पर इब्राहीम के भाई जलाल खाँ को शरण दी, जिससे रुष्ट होकर इब्राहीम ने एक बड़ी सेना भेजकर ग्वालियर पर अधिकार कर लिया। तोमरों का शासन समाप्त हुआ।

तोमरों का शासन ग्वालियर में केन्द्रित रहा, जबकि दिल्ली सल्तनत दिल्ली के आसपास सिमट गई थी। इस कारण दिल्ली के आश्रित सामन्त या सूबेदार स्वतन्त्र हो गए थे। मालवा 1401 ई. में स्वतन्त्र होकर शक्तिशाली बन गया था और 1436 ई. में वहाँ खिलजी वंश का शासन शुरू हुआ। 15वीं शती में कालपी, दमोह आदि उसके अधिकार में थे, किन्तु चन्देरी के मेदिनीराय राजपूत ने मालवा पर कब्जा कर बुन्देलखंड के प्रमुख दुर्ग हथिया लिए।

रायसेन के राजा शिलादित्य के पराजित होने पर रायसेन, भिलसा और चन्देरी मुस्लिम शासन के अधीन हो गए। इस काल में मुस्लिम सामन्तों में भी इतना विघटन हुआ कि बुन्देलखंड के टुकड़े-टुकड़े हो गए। संघर्षों और युद्धों के कारण पूरा जनपद अशान्त रहा। गोंड़ों का राज्य भी मध्ययुग की राजनीतिक शक्ति रहा है। अनेक इतिहासकार उन्हें चन्देलकालीन शासक मानते हैं और गोंडनरेश संग्रामशाह (1491-1541 ई.) के पूर्व 46 राजाओं की नामावली उनकी प्राचीनता सिद्ध करती है।

संग्रामशाह ने 52 गढ़ जीतकर अपनी शक्ति बढ़ा ली थी। उनकी सूची में बुन्देलखंड का काफी हिस्सा आ जाता है। लेकिन उसकी राजधानी गढ़ा (जबलपुर के निकट) थी और वह मदनमहल में निवास करता था। उसके पुत्र दलपतिशाह ने दमोह के सिंगौरगढ़ को राजधानी बनाकर शासन की बागडोर सँभाली। उसने कालिंजर के चन्देलनरेश की पुत्री दुर्गावती से विवाह किया, लेकिन 1548 ई. में उसके निधन होने पर दुर्गावती को ही शासन का भार सँभालना पड़ा।

15 वर्ष तक राज्य को हर प्रकार से समृद्ध बनाने के बाद उसने कड़ा के सूबेदार आसफ खाँ के आक्रमण का वीरतापूर्वक सामना किया। पहले मुगलों की पराजय हुई, बाद में गढ़ा के पास दुर्गावती ने युद्ध में अपने पकड़े जाने के भय से स्वयं की कटार मारकर आत्महत्या कर ली। उसका पुत्रा वीरनारायण भी चौरागढ़ युद्ध में मारा गया।

मुगल सम्राट अकबर ने गोंड़ों के 10 दुर्ग लेकर उन्हें राजा की मान्यता प्रदान की।गोड़ों के कई राजा गद्दी पर बैठे, पर उनमें प्रमुख था प्रेमनारायण, जो प्रेमशाह के नाम से चर्चित हुआ। उसके समय ओरछानरेश जुझारसिंह बुन्देला ने गोंड़ों द्वारा गायों के जोते जाने का बहाना लेकर गोंड़वाना पर चढ़ाई कर दी। पहाड़सिंह बुन्देला विजयी हुए और प्रेमशाह मारे गए। चौरागढ़ दुर्ग पर बुन्देलों का अधिकार हो गया था ।

लेकिन मुगल बादशाह शाहजहाँ की आज्ञा से उन्हें वह दुर्ग गोंड़ों को सौंपना था और 10 लाख रुपये जुर्माने के रूप में जमा करने थे। जुझारसिंह के इनकार करने पर मुगल सेना ने औरंगजेब के नेतृत्व में आक्रमण किया और जुझारसिंह जंगल में भाग गया। बाद में वह गोड़ों द्वारा मार डाला गया। प्रेमशाह के उत्तराधिकारी मुगलों और मराठों के हाथों निरन्तर शोषित होते रहे।

1804 ई. में शंकरशाह राजा बने, पर 1857 ई. के स्वतन्त्राता-संग्राम में उन्हें क्रांतिकारियों का साथ देने के आरोप में तोप से उड़ा दिया गया। गोंड़ों के समकालीन बुन्देले थे और उनका राज्य 1400 से 1800 ई. तक रहा। उनके पूर्वज सोहनपाल ने खंगारों को हराकर गढ़कुंडार में अपने राज्य की नींव डाली थी, लेकिन उनका राज-काज 1531 ई. में नई राजधानी ओरछा की स्थापना से शुरू हुआ। रुद्रप्रताप बुन्देला (1501-31 ई.), भारतीचन्द (1531-54 ई.) और मधुकरशाह (1554-92 ई.) राजाओं ने राज्य का विस्तार करते हुए उसे स्थायित्व दिया था।

मधुकरशाह के राज्य-काल में मुगलों के पाँच-छह आक्रमण हुए थे, पर उस स्वाभिमानी नरेश ने टीका नहीं लगाकर दरबार जाने का मुगल बादशाह अकबर का आदेश नहीं माना। बुन्देलखंड नामकरण इसी आन-बान की देन है।

मधुकरशाह की मृत्यु (1592 ई.) के बाद ओरछा राज्य आठ भागों में बँट चुका था। मुगल बादशाह जहाँगीर ने 1607 ई. में ओरछा की गद्दी वीरसिंह देव को दे दी थी, क्योंकि रामशाह से मेल-मिलाप में असफलता के कारण मुगल सूबेदार अब्दुल्ला खाँ ने रामशाह को युद्ध में पराजित कर बन्दी बना लिया था।

रामशाह के अनुज वीरसिंह देव ने आगरा जाकर उन्हें मुक्त करवाकर चन्देरी-बानपुर की जागीर दिलवाई थी। वीरसिंह देव ने राज्य का विस्तार ही नहीं किया, वरन् अनेक किले और महल बनवाए थे। उनकी मृत्यु (1627 ई.) के बाद उनके पुत्र जुझारसिंह के राज्य-काल (1627-34 ई.) में मुगलों के तीन बार आक्रमण हुए, लेकिन वे तीनों बार पराजित हुए। इन विजयों का श्रेय चम्पतराय बुन्देला को देना उचित है, क्योंकि उनकी छापामार या गुरिल्ला युद्ध शैली ने ही मुगलों को छकाने में मदद की थी।

इस समय की एक करुण घटना है जुझारसिंह का अपने भाई हरदौल को रानी के द्वारा विष दिलवाना, जिसने हरदौल को लोकदेवता बना दिया और बुन्देलखंड की संस्कृति को एक लोक आदर्श। जुझारसिंह के बाद मुगल बादशाह शाहजहाँ ने चन्देरी के देवीसिंह को ओरछा की गद्दी पर बैठाया, लेकिन दो वर्ष तक विरोध झेलने के बाद वे चन्देरी चले गए। फिर शाही सरदार के हाथ में वहाँ का शासन रहा, पर ओरछा अशान्त रहा।

1641 ई. में जुझारसिंह के भाई पहाड़सिंह को गद्दी मिली। उसने चम्पतराय की लोकप्रियता से ईर्ष्यावश उन्हें विष देने का प्रयास किया, पर वह सफल नहीं हो सका। चम्पतराय बुन्देला बुन्देलखंड की स्वतन्त्राता के लिए संघर्ष कर रहे थे। उन्होंने दारा और औरंगजेब को युद्ध में साथ देकर कूटनीति अपनाई थी, लेकिन उससे कोई लाभ नहीं हुआ।

उन्हें बन्दी बनाने के लिए दतिया के शुभकरण बुन्देला, चन्देरी के देवीसिंह बुन्देला और ओरछा के राजा सुजान सिंह तत्पर रहे। चारों ओर से घिरे चम्पतराय बीमारी की हालत में अपनी पत्नी लाड़कुवरि और कुछ सैनिकों पर निर्भर हो गए थे, इसलिए शत्रुओं के आक्रमण के समय लाड़कुँवरि ने अपने पति चम्पतराय और अपना अन्त कर लिया था।

चम्पतराय के बाद बुन्देलखंड की स्वतन्त्राता का बीड़ा उनके पुत्र छत्रसाल ने उठाया। 16 वर्ष की आयु में वे मिर्जा राजा जयसिंह की सेना में भरती हुए, लेकिन पुरन्धर और देवगढ़ के युद्धों में वीरता दिखाने के बाद भी जब उन्हें उचित सम्मान न मिला, तब उन्होंने शिवाजी से भेंट की और उनसे प्रेरणा पाकर उन्होंने पाँच घुड़सवारों एवं पच्चीस सैनिकों से बुन्देलखंड की मुक्ति का अभियान प्रारम्भ किया।

औरंगजेब की कट्टर धार्मिक नीति के कारण बुन्देले आन्तरिक रूप में संगठित होने लगे, सही समय जानकर छत्रासाल ने 1671 ई. में युद्धों की शृंखला शुरू कर दी, जो 1729 ई. तक (उनकी मृत्यु 1731 ई. के निकट) चलती रही। 1687 ई. में राज्याभिषेक तक वे 23-24 युद्ध लड़ चुके थे और उनके अधिकार में बुन्देलखंड का अधिकांश भाग आ गया।

1707 ई. में औरंगजेब ने उन्हें राजा की उपाधि से विभूषित किया। बहादुरशाह (1707-12 ई.) एवं फर्रुखसियर (1712-19 ई.), दोनों बादशाह छत्रासाल का सम्मान करते थे, पर मुहम्मदशाह से सम्बन्ध अच्छे न रहे। फलस्वरूप 1720 ई. से मुहम्मद खाँ बंगश के आक्रमण शुरू हुए और 1729 ई. तक युद्ध का संकट छाया रहा।

बंगश ने जैतपुर पर अधिकार कर लिया था, लेकिन छत्रासाल के आमन्त्राण पर आए बाजीराव पेशवा ने उनकी बाजी रख ली। छत्रसाल ने पेशवा को तीसरा पुत्र मानकर राज्य का तीसरा हिस्सा देने का वचन दिया था और तभी से इस भूमि में मराठों का प्रवेश हुआ। छत्रासाल ने बुन्देलखंड को एक राजनीतिक इकाई के रूप में विकसित कर दिया था, परन्तु उनके बाद राज्य तीन हिस्सों बँट गया।

बुन्देले पेशवा का हिस्सा बहुत समय तक टालते रहे। हिरदेशाह का हिस्सा पन्ना राज्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ। हिरदेशाह की मृत्यु (1739 ई.) के बाद सभासिंह (1739-52 ई.) के समय उस राज्य के दो टुकड़े हो गए। उनके भाई पृथ्वीसिंह ने मराठों की सहायता से गढ़ाकोटा, दमोह, शाहगढ़ आदि परगने ले लिए और पेशवा को चौथ देना स्वीकार कर लिया।

1746 ई. में पेशवा ने सेना भेजकर जैतपुर राज्य के कालपी एवं हमीरपुर के पास के परगने अपने अधिकार में कर लिए। इस प्रकार मराठों ने अपने नीतिकौशल से बुन्देलखंड के क्षेत्र को अपने अधीन करना शुरू कर दिया था।

सभासिंह के बाद अमानसिंह (1752-58 ई.) ने अपनी उदार नीतियों से शासन को लोकप्रिय बनाना चाहा, पर हिन्दूपत ने उन्हें मरवा डाला और स्वयं गद्दी पर बैठ गया। हिन्दूपत ने एक तरफ अवध के नवाब शुजाउद्दौला के आक्रमणों का सबल प्रतिरोध किया, तो दूसरी तरफ राज्य में मन्दिरों, भवनों और दुर्गों का निर्माण करवाया। हीरा उद्योग का विकास भी उसी के समय हुआ था।

उसकी मृत्यु के बाद उसके तीन पुत्रों सरमेद सिंह, अनिरुद्ध सिंह और धोकलसिंह में कलह मच गई, जिसके फलस्वरूप 1783 ई. में गठेवरा का ‘महाभारत’ हुआ, जिसमें बुन्देलों की बची-खुची शक्ति नष्ट हो गई। इस युद्ध में पन्ना के पक्ष में चरखारी के राजा विजयबहादुर ने और सरमेद सिंह के पक्ष में अजयगढ़ के राजा परबतसिंह एवं नौने अर्जुनसिंह ने युद्ध किया था।

मराठा-राज्य की नींव महाराज छत्रासाल ने डाली थी, लेकिन उसकी स्थापना 1736 में हुई, जब जगतराज और बाजीराव पेशवा ने बंगश को दुबारा पराजित कर खदेड़ दिया था। पेशवा ने गोविन्द बल्लाल खेर को सागर और जालौन परगने, हरी विट्ठल डिंगणकर को कालपी और हमीरपुर परगने तथा कृष्णाजी अनन्त ताम्बे को बाँदा और हमीरपुर का कुछ भाग सौंप दिए थे, लेकिन कुछ ही समय बाद सारे परगने गोविन्द बल्लाल खेर के हाथ में आ गए।

1742 ई. में ओरछा से चौथ माँगने पर युद्ध के बाद झाँसी मिला, जिसका शासक नारोशंकर नियुक्त किया गया और वह 1756 ई. तक रहा। उसके बाद मऊ, रानीपुरा और बरुआसागर के क्षेत्र भी मराठों के हाथ में आ गए। इस प्रकार पूरे बुन्देलखंड पर मराठों का प्रभाव छा गया था।

बुन्देलखंड को केन्द्र बनाकर मराठों ने आस-पास के क्षेत्रों में हमला किया था और रुहेलों तथा गोंड़ों से कुछ क्षेत्र  जीत लिए थे। बुन्देले मराठों की सेना में सम्मिलित होकर उन्हें विजय दिलाते थे। लेकिन 1761 ई. में पानीपत में मराठों की पराजय से इस जनपद में भी उनका पतन होने लगा था। बुन्देलों ने उन्हें चौथ देना बन्द कर दिया था।

हिम्मतबहादुर के नेतृत्व में गोसाइयों के हमलों ने इस जनपद को अशान्त करने में काफी योग दिया था। गोसाइयों, मराठों और गोंड़ों के युद्धों से घिरकर जनता में राजा या शासक के प्रति अविश्वास पैदा हो गया था। उधर पूना के झगड़े और अंग्रेजों से सन्धि करने पर मराठों का पतन अनिवार्य-सा था।

1802 ई. में पेशवा और अंग्रेजों के बीच पूना सन्धि से अंग्रेजों को 36 लाख का क्षेत्र बुन्देलखंड में मिल गया। 1806 ई. में झाँसी के शिवराव भाऊ और कालपी के गोविन्द गंगाधर ने भी अंग्रेजों से सन्धि कर ली। बाँदा के नवाब शमशेर बहादुर ने अंग्रेजों और हिम्मत बहादुर की सम्मिलित से तीन युद्ध लड़ने के बाद 1804 ई. में सन्धि कर ली थी। इस प्रकार बुन्देलखंड में अंग्रेजों का राज्य स्थापित हो गया। 1804 ई. से लेकर 1818 ई. तक इस प्रदेश की रियासतों के राजाओं ने या तो अंग्रेजों से सन्धि कर ली थी या सनद प्राप्त कर ली थी।

18वीं शती से ही बुन्देलखंड टुकड़ों में बँटा हुआ था। मराठों ने इन टुकड़ों की आपसी लड़ाइयों से लाभ उठाया और अंग्रेजों ने भी इसी नीति से राज्य करना उचित समझा। उत्तराधिकारी के झगड़ों, गोद लेने के प्रयत्नों और राज्य की अव्यवस्था का फायदा उठाकर अंग्रेजों ने पूरे प्रदेश पर अधिकार कर लिया।

1840 ई. में जालौन के गोद लेने का प्रस्ताव और 1853 ई. में झाँसी के राजा गंगाधर राव की मृत्यु पर जालौन एवं झाँसी को अंग्रेजी राज्य में मिलाने का प्रयत्न सिद्ध हुआ। बहरहाल, येन-केन-प्रकारेण अंग्रेजी राज्य की सीमाएँ बढ़ती गईं। 1857 ई. के स्वतन्त्राता-संग्राम के पहले जैतपुरनरेश पारीछत और अंग्रेजों के बीच 1841-42 ई. में तीन युद्ध हुए।

पनवाड़ी और बिलगाँव में राजा की विजय हुई, पर जैतपुर में दीवान और गोलंदाज की गद्दारी से राजा पराजित होकर बगौरा के घने जंगल में चले गए और वहाँ युद्ध किया। बाद में अंग्रेजों ने उन्हें बन्दी बना लिया और कानपुर भेज दिया।

दूसरा बुन्देला-विद्रोह 1842 ई. में सागर परगने के चन्द्रपुर और नरहट क्षेत्रों में हुआ, जहाँ के जवाहर सिंह बुन्देला और मधुकरशाह एवं गणेशजू ने खिमलाशा, खुरई, नरियावली, धमौनी, विनैकी आदि पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों ने मधुकरशाह को फाँसी और गणेशजू को कालेपानी की सजा दे दी। नरसिंहपुर के गोंड़ सरदार दिलनशाह ने भी विद्रोह का झंडा खड़ा किया था। ये विद्रोह क्रान्ति की छोटी-छोटी चिंगारियाँ थीं, जो 1857 ई. के संघर्ष की ज्वालाएँ बनकर पूरे प्रदेश में फैल गईं।

कानपुर के संग्राम के समाचार झाँसी पहुँचते ही हवलदार गुरुबख्श की पल्टन बागी हो गई। उसने किले के शस्त्रों और गोला-बारूद पर कब्जा कर किले एवं नगर को अपने नियन्त्राण में ले लिया था। अंग्रेजों से युद्ध में सेनापति गार्डन और कमिश्नर स्कीन, दोनों मार डाले गए।

सागर में 42वीं पल्टन और तीसरी घुड़सवार फौज ने विद्रोह कर दिया। शाहगढ़ के राजा बख्तबली और बानपुर के राजा मर्दनसिंह ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया और सागर को छोड़कर सागर जिले के अधिकांश परगने उनके अधिकार में आ गए। दमोह की पल्टन बागी होने पर मर्दनसिंह ने दमोह, गढ़ाकोटा आदि क्षेत्र गुलामी से मुक्त कर दिए।

जबलपुर की 52वीं पल्टन बागी हो गई थी। गढ़ा के गोंड़ नरेश शंकरशाह और उनके पुत्र को तोपों के मुँह में बाँधकर उड़ा दिया गया था। इस स्वतन्त्राता-संग्राम की प्रमुख विशेषता थी कालपी के युद्ध द्वारा स्वतन्त्राता का राष्ट्रीय प्रयास, जिसने बिठूर के नाना साहेब, कालपी के राव साहब, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, शाहगढ़ के बख्तबली, बानपुर के मर्दनसिंह, बाँदा के नवाब अलीबहादुर द्वितीय और राष्ट्रीय सेनानी तात्याटोपे अपनी सेनाओं के साथ एकजुट होकर संघर्ष कर रहे थे। दुर्भाग्यवश अंग्रेज सेनापति ह्यूरोज की सेना की वीरता और युद्धकला के समक्ष वे टिक न सके।

फिर क्रान्तिकारी सेना ग्वालियर पहुँची और लक्ष्मीबाई ने सिन्धिया को मुरार के निकट पराजित किया और ग्वालियर पर अधिकार होना उस समय महत्त्वपूर्ण था, लेकिन ह्यूरोज ने वहाँ भी क्रान्तिकारियों को मात दे दी। रानी लक्ष्मीबाई घायल होकर महात्मा गंगादास बाबा की कुटिया में शहीद हो गईं। प्रसिद्ध इतिहासकार आर.सी. मजूमदार ने झाँसी को स्वतन्त्राता के लिए राष्ट्रीय युद्ध का केन्द्र स्वीकार कर बुन्देलखंड की क्रान्ति को गौरव प्रदान किया है।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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