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Bundeli sake ki Visheshta बुन्देली साके की विशेषता

बुन्देलखंड की लोक-गाथाओं का ‘साके’ एक प्रमुख प्रकार हैं। साकेकारों ने अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा तो खूब बढ़ा-चढ़ाकर की है। Bundeli sake ki Visheshta किसी भी कायर राजा को शक्तिशाली सिद्ध करना और किसी बुद्धिहीन राजा को सर्वगुण संपन्न करना साकेकारों के बायें हाथ का खेल था।

बुन्देलखंड लोक-गाथा साके की विशेषताएँ

बुन्देलखंड की अधिकांश लोक गाथाओं की रचना आदर्श-पात्रों की प्रशस्ति गायन के लिए हुई है। चाहे वे रासो, राछरे या पंवारे हों, सबके सब आदर्श पात्रों के प्रशस्ति गायन ही है। बहुत से साके तो ऐसे हैं, जो राछरों और पंवारों से मिलते-जुलते हैं। बुन्देलखंड के साकों की खास विशेषताएँ हैं – अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन, अप्रामाणिकता, लोक संगीतात्मकता, मौखिक परंपरा, सांस्कृतिक चेतना, आदर्श प्रधानता और राष्ट्रीय विचार धारा।

अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन 
किसी व्यक्ति के कार्य-कलापों का वर्णन बहुत बढ़ा-चढ़ाकर करने की प्रथा तो बहुत प्राचीन है। सारा का सारा पालि, प्राकृत और संस्कृत का साहित्य इस प्रवृत्ति से भरा पड़ा है। हिन्दी के रीतिकालीन काव्य की आधार भूमि तो अतिशयोक्ति ही है। कुछ विद्वान इसी प्रवृत्ति के कारण रीतिकालीन काव्य को अप्रामाणिक और असाहित्यिक मानते हैं।

लोक साहित्य में अनेक स्थलों पर इस प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं। लोक गाथाओं में तो इस प्रवृत्ति की अधिकता है ही। साकेकारों ने अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा तो खूब बढ़ा-चढ़ाकर की है। उन दिनों किसी भी कायर राजा को शक्तिशाली सिद्ध करना और किसी बुद्धिहीन राजा को सर्वगुण संपन्न करना साकेकारों के बायें हाथ का खेल था। यही कारण  है कि साकों का वर्णित विषय अतिशयोक्ति पूर्ण है।

अमानसिंह की लोकगाथा में कहा गया है कि राजा अमानसिंह अपनी बहिन को लिवाने के लिए ‘धेंगुवा-अकौड़ी को चल देते हैं। बहिन का डोला निकालने के लिए मार्ग में पड़ने वाले घने-घने जंगलों को कटवाते हैं। मल्लाह बुलाकर गहरी नदियों में नावें डलवाते हैं। साके में कहा भी गया है…
धेंगुवां अकोड़ी की डागें परतीं हैं, डोला कहाँ होकैं जायें।
धेंगुवां अकोड़ी की गैरी हैं नदियां, बढ़ई बुढ़ाये मइया।
डागें कटायें डोला ओई होकैं जाये,
मल्ला बुलाहैं नाव डराहैं, डोला होई होकैं जायें।।

हरदौल के साके में कहा गया है कि हरदौल मरने के बाद भी अपनी बहिन कुंजावती की पुत्री की शादी में विविध सामग्री सहित उपस्थित हो जाते हैं- ‘हरदौल चीकट लैकैं आये कुंजावति के द्वारे।’ मृत्यु के बाद व्यक्ति को और क्या कहा जा सकता है? इसे अतिशयोक्ति कहें या झूठोक्ति। राजा हिन्दूपति की लोकगाथा में कहा गया है कि हिन्दूपति की तलवारों के वार देखकर अंग्रेज सैनिक दंग रह जाते थे। रज्जब बेग पठान की वीरता का वर्णन भी अतिशयोक्ति पूर्ण है…
लड़े शूर सामन्त वर, लोहागढ़ की आन।
प्रान-दान दै राख लई, लोहागढ़ की शान।।
सात दिना नौ जुद्ध भओ, लोहागढ़ दरम्यान।
फिरे फिरंगी बचा त, अपनें अपनें प्रान।

अप्रामाणिकता
हालाँकि गाथाओं की मूल आधार तो इतिहास ही है। किन्तु कल्पना प्रचुरता के कारण मूल पात्रों और मूल घटनाओं के अतिरिक्त अनेक अनैतिहासिक पात्र और मूल घटनाएँ जुड़ गईं हैं, जिनके कारण  उनकी ऐतिहासिकता में संदेह होने लगा है।

अमानसिंह के साके में लिखी घटनाएँ काल्पनिक सी प्रतीत होती हैं। धेंगुवा अकौड़ी में उनकी बहिन का विवाह हुआ था। वे उन्हें लिवाने के लिए गये थे। भोजन करते समय किसी कारणवश साले-बहनोई का विवाद हो गया। अमानसिंह ने क्रुद्ध होकर बहनोई की छाती में कटार भोंक दी, जिससे स्थल पर ही बहनोई की मृत्यु हो गई और उनकी बहिन उनके कारण  ही विधवा हो गई, किन्तु अपनी बहिन की दीन दशा को देखकर आत्मग्लानि के कारण  आत्महत्या कर ली।

बुंदेलखण्ड के इतिहास में पन्ना के राजा अमानसिंह और उनके द्वारा लड़ी गई एकाध लड़ाई का वर्णन है किन्तु मुख्य घटना का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। इसी कारण से अधिकांश विद्वान इस गाथा को अप्रामाणिक ही मानते हैं।

इतिहास में दीवान हरदौल के कार्यों का विधिवत् उल्लेख किया गया है। वे इतिहास प्रसिद्ध व्यक्ति थे। उनकी वीरता और स्वाभिमान प्रियता के कारण उनके बड़े भाई जुझारसिंह के कुछ सामंत और सरदार उन्हें ईर्ष्या-द्वेष की दृष्टि से देखने लगे थे। हिदायत खाँ की शिकायत के कारण  ही जुझार सिंह ने हरदौल की हत्या का प्रपंच रचा था।

वीरसिंह देव के तीन विवाह हुए थे। प्रथम रानी से जुझारसिंह और दूसरी रानी से हरदौल हुए थे। ये सब ऐतिहासिक घटनाएँ ही हैं। हैदर खाँ से तलवार का सामना करने और कुंजावती की पुत्री के विवाह में जाने वाली घटनाएँ तो काल्पनिक ही हैं।

यही स्थिति लोहागढ़ के राजा हिन्दूपति की है। लुहारी (लोहागढ़) के जागीरदार हिन्दूपति तो थे और उनकी मुठभेड़ अंग्रेजों के साथ हुई थी। ये सब तो बुंदेलखण्ड के इतिहास में भी उल्लेख है। किन्तु वीरता अतिशयोक्ति पूर्ण और काल्पनिक ही है। कल्पना की ऊंची-ऊंची उड़ानों के कारण ऐतिहासिकता कुछ धुंधली सी पड़ जाती है।

लोकसंगीतात्मकता
समस्त बुंदेली साके लोक संगीतबद्ध हैं। ये सबके सब बुंदेली लोक-ध्वनियों में आबद्ध हैं। अमानसिंह कौ साकौ प्रायः ढोलक के साथ वर्षा ऋतु में गाया जाता है। जब आकाश में काले-काले बादल घनघोर गर्जना करने लगते हैं, तब संध्या के समय साकेकार ऊंची आवाज में ढोलक के स्वर में तीव्रता लाते हुए साके का आलाप भरने लगता है…
सदा तों तुरइया हाँ अरे फूलें नईं,
सदा  न  सावन  होय।  रे हा….. हा    हा

ये टेर सुनते ही गाँव के लोग चारों ओर एकत्रित होकर आनंद लेने लगते हैं। राजा धनसिंह कौ साकौ इकतारे की ध्वनि के साथ गाया जाता है। इसकी लोक ध्वनि कहीं-कहीं द्रुत और कहीं-कहीं मंद होती है। प्रायः इसका गायन सम पर ही होता है। वसुदेवा, भाट लोग द्वार-द्वार पर इसका गायन करते हुए भिक्षा माँगते हैं। जब इस गाथा को मधुर-ध्वनि में गाया जाता है, तब अधिक रूचिकर प्रतीत होता है।

इस को सुनने में लोगों को बहुत रूचि है। राजा हिन्दूपति कौ साकौ ढोलक, झाँझ और झेला के साथ गाया जाता है। इसको गाते समय प्रायः गायकों का स्वर उच्च होता है। ढोलक की कड़क के साथ लोक ध्वनि भी उच्च होती जाती है।

ऐ….. हाँ……हाँ…..हाँ……हाँ….. प्रान दान दै राख लई,
हाँ……हाँ…..हाँ……हाँ….. ऐ……हाँ……हाँ….. लोहागढ़ की शान।


हरदौल के साके की स्थिति बड़ी विचित्र है। यह विविध लोक ध्वनियों में हर समय गाया जाता है। यदा-कदा बुंदेली बालाएँ इसे समवेत स्वर में गाया करती हैं…
नजरिया के सामनें तुम, हरदम लाला रइयौ

प्रायः विवाहोत्सव के अवसर पर इन गीतों की विशेष उपयोगिता है। ये साकौ कभी गारी के रूप में, कभी फाग के रूप में और कभी कवित्त और सवैया के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। ये हर प्रकार से लोक संगीतबद्ध तो है ही, गेयता और संगीतात्मकता इसका प्रमुख गुण है।

मौखिक परंपरा
भारत का अधिकांश लोक साहित्य मौखिक है। जो मूल और स्वाभाविक लोक साहित्य है, वह तो अभी भी मौखिक है। उसे लिपिबद्ध करने में सैकड़ों वर्ष व्यतीत हो जायेंगे। कुछ इसी तरह की स्थिति लोक गाथाओं की भी है।

कुछ लोकगीत, लोकोक्तियाँ और लोक गाथाएँ तो लोगों ने संकलित कर ली हैं, किन्तु अभी तक लोग लोकगाथाओं के विषय में ज्यादा नहीं जानते। कुछ लोगों ने तो साकों का नाम सुना भी नहीं होगा। गाँवों में आज भी कुछ ऐसे वयोवृद्ध व्यक्ति विद्यमान हैं, जिन्हें अनेक साके कंठस्थ हैं।

सांस्कृतिक चेतना
लोक गाथाओं में तत्कालीन भारतीय सांस्कृतिक चेतना सुरक्षित है। साके इस क्षेत्र में आगे हैं। अमानसिंह के साके में डोला का संकेत है। उन दिनों राजाओं और जागीरदारों की वधुएँ और बेटियाँ डोला में बैठकर ही आया-जाया करती थीं। कहार डोला के भार को कंधे पर वहन किया करते थे। गाथा में कहा गया है –
धेंगुवां अकोड़ी की डाँगें परतीं, डोला कहाँ हो जाय।

भोज्य सामग्री में माँडला, बरा और पकौरी का विशेष स्थान रहा है। अमानसिंह की बहिन अपने भाई के स्वागत के लिए सुस्वादु व्यंजन तैयार करती है…
तीते-मीते गेंहुआं पिसाये बैंन नें, मँडला पकाये झक-झोर।
कचिया उड़द के बरला पकाये, दहियँन दये हैं बुझवाय।

ऐसा लगता है कि उन दिनों जाँघिया पहिनने का प्रचलन था। लाल पोशाक अच्छी मानी जाती थी। कहार लोग पचरंग पोशाक धारण किया करते थे।
सारन बँधें है लाल उड़न बछेरा, घुल्ला पै टँगी है लगाम।
बक्सन धरे लाला तुमरे जाँघियाँ। उतई टंगे हतयार।

हरदौल के साके में चीकट का वर्णन है…
हरदौल चीकट लैंकें आये, कुंजावति के द्वारे।

मरने के बाद भी हरदौल प्रेत के रूप में कुंजावति के घर चीकट लेकर उपस्थित हुए। साके में चीकट की सामग्री का वर्णन तत्कालीन संस्कृति का परिचायक है। आज भी बुंदेलखण्ड में उस चीकट की प्रथा का प्रचलन है। उन दिनों तलवारों, भालों और तोपों से युद्ध होता था। हिन्दूपति की लोकगाथा में उन सारे अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन किया गया है…
तोप की तड़क गरज  सुन  गोलन  की, छूटत मुनीश बड़े साहिबन के ध्यान।
भनत मुकुंद इतै काछिल तमंक लरो, काटि-काटि लीन्हें उन गोरन के प्रान।
राजा महाराजा हिन्दूपति कौ प्रताप बढ़ौ, नंदहू किसोर झुकि-झारी कृपान।

उन दिनों शकुन-अपशकुन का विशेष ध्यान दिया जाता था। वीर युद्ध में जाते समय छींक का विशेष विचार किया करते थे। धनसिंह की लोकगाथा में इसका स्पष्ट उल्लेख है…
छींकत घोरा पलान्यो, बरजत भये असवार।
जातन मारों गोर खौं, गढ़ एरच के मैंदान।

उसी गाथा में अपशकुन की भी चर्चा है
डेरी बोलैं टीटही, दाहिनी बोलें सियार।
सिरके सामैं तीतुर बोलें, पर भू में मरन काहे जात।।
खाली घड़ा, एकाक्ष व्यक्ति, सर्प के द्वारा रास्ता काटना आदि स्थितियों को बुंदेलखण्ड में अपशकुन सूचक माना जाता है। यहाँ के अधिकांश साकों में लोक-चेतना के दर्शन होते हैं।

आदर्श प्रधानता
हमारी संपूर्ण बुन्देली संस्कृति ही आदर्श प्रधान है। इस पुण्य वसुन्धरा पर अवतरित होने वाले महापुरुषों ने जीवन के ऐसे अनेक आदर्श प्रस्तुत किये हैं, जिन्हें आज सारा भारत मान्यता प्रदान कर रहा है। भारत ही नहीं अन्य देशों के लोग भी उन आदर्शों पर चलने का प्रयास कर रहे हैं।

अमानसिंह की गाथा में कहा गया है कि पन्ना के राजा अमानसिंह सावन के महीने में अपनी बहिन को लिवाने के लिए ‘अकोड़ी’ चले जाते हैं। भोजन करते समय साले-बहनोई में विवाद हो गया। विवाद इतना अधिक विद्रूप हुआ कि अमानसिंह ने क्रोधित होकर अपने बहनोई की छाती में कटार भोंक दी, जिससे घटनास्थल पर ही उनकी मृत्यु हो गई।

पति की मृत्यु का समाचार पाते ही उनकी बहिन विलाप करने लगी, अमानसिंह से बहिन का विलाप नहीं देखा गया और क्षुब्ध होकर छाती में कटार भोंककर प्राण त्याग दिये। ऐसे सहृदय राजा की यशगाथा आज भी जन-जन की ज़बान पर है -‘काँ गये राजा अमान, काँ गये राजा अमान तुम  खौं जे रो रई चिरइयाँ।’

लाला हरदौल का बलिदान तो सारे बुंदेलखण्ड का गौरव है। अपने उज्ज्वल चरित्र का परिचय देने के लिए जान-बूझकर भाभी के रोके जाने पर भी विष मिश्रित भोजन करके प्राण -त्याग देते हैं। अपनी भाभी को रोता हुआ देखकर कह उठते हैं…
भौजी कैसी सिर्रन हो गई, भइया की कई करनें।
साँसी आ जा नायं मांय की बातन में नई परनें।
विष कौ कौर बिना कयें खा  लओ  बात बड़े  की  मानीं।
जी के कारण भारत भरमें हो गई अमर कहानी।

उनके उच्चादर्श के कारण  ही उन्हें सारे बुंदेलखण्ड में देवतुल्य पूजा जाता है। आज भी बुंदेली बालाएँ सम्मान सहित गाया करती हैं-
नजरिया के सामनें तुम हरदम लाला रइयौ।

राष्ट्रीय विचार धारा
बुंदेलखण्ड में प्रचलित अधिकांश साके इस विचारधारा से ओतप्रोत है। उस समय सारे देश की राजनैतिक स्थिति ठीक नहीं थी। देश की अख डता कुछ-कुछ खंडित सी होने लगी थी। देश छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया था। राजा पारस्परिक ईर्ष्या और द्वेष के कारण एक दूसरे को फूटी आँखों नहीं देख रहे थे। इस फूट का लाभ विदेसियों को प्राप्त हुआ।

अनेक वर्ष तक भारत में मुगलों का शासन रहा, जिससे कुछ देशभक्त राजा हमेशा लड़ते रहे। महाराणा प्रताप, शिवाजी और छत्रसाल से तो सारा देश परिचित ही है। राजा छत्रसाल के साके विविध लोक ध्वनियों में गाये जाते हैं। चाहे आप हिन्दूपति, चाहे धनसिंह और चाहे मधुकर शाह का साकों देखें, उनमें राष्ट्रीयता के दर्शन अवश्य ही होते हैं। राजा हिन्दूपति ने अंग्रेजों के साथ घोर संग्राम किया था। लड़ते-लड़ते मातृभूमि की बलिवेदी पर प्राण न्यौछावर कर दिये। साके में कहा गया है…

पैलाँ मारो गोर खों, गढ़ एरच के मैंदान।
धोकौं हो गओ पाल में, सो मारे गये कुँवर धनसिंह।

संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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