लोकविश्वास है कि मानव का जीवन क्षणभंगुर है, इसलिए उसे क्षणिक जीवन में सुखों का भोग कर लेना चाहिए। इस विश्वास को Bundeli Lokgeeton Men Sanyog Shringar कई प्रकार से लोकगीतों में बुना गया है। एक पंक्ति का राई गीत है- ’हंसा कर ले किलोल, जानें कबै रे उड़ जानें।‘ जिसमें हंस जीव का प्रतीक है और उसका उड़ जाना क्षणभंगुरता का प्रतीक है ।
जीव के लिए किसी का कथन है कि उसे इस संसार में रहकर आनंदभ भरी क्रीड़ाएँ कर लेना चाहिए, क्यों कि उसका जीवन अनिश्चित और नश्वर है। लोक में भी कुछ लोग भोगप्रधान लोकदर्शन के विचारों के पक्षपाती हैं, तभी तो लोकगीतों में लौकिक सुखों के भोग के पक्ष में तर्क प्रस्तुत किया गया है।
हँस खेल बखत कटि जाय बारे रसिया,
को कहँ को रमि जाय बारे रसिया।
जैसें रंग पतंग रे रसिया, पवन चलै उड़ जाय
जैसें मोती ओस को रसिया, घाम परै ढरि जाय
हँस खेल बखत कटि जाय बारे रसिया।
उक्त पंक्तियों में पतंग के पवन में उड़ जाने और ओस के धूप में ढुलक जाने से जीवन का नाशवान होना सिद्ध किया गया है और हँस-खेल कर आनंदमय क्रीड़ाओं से जीवन व्यतीत करने की सीख दी गयी है। लोकसाहित्य के लोक में पशुपालकों और कृषकों की भागीदारी महत्वपूर्ण रही है। गाँवों में तो इन्हीं का लोक था, जो चरागाही और खेतिहर लोकसंस्कृति का प्रतिनिधि था।
जब कृषक किसी प्रिया पर मुग्ध हो जाता है, तब उसका मन खेती के कार्य में नहीं लगता। वह गा उठता है-’जब सें देखो तुमें, अब तो बखर नईं हँकत है’। यह उसकी मुग्धता का प्रमाण है, लेकिन जब मुग्धता आसक्ति में बदलती है, तबकी मानसिक स्थिति को प्रतिबिम्बित करने वाला लोकगीत प्रस्तुत है…
जो मैं होती बदरिया घुमड़ राती,
पिया प्यारे के अँगना बरस जाती।
जो मैं होती निब्बू नारंगी,
पिया प्यारे की बगिया लटक राती।
जो मैं होती मलयागिर चन्दन,
पिया प्यारे के माथे दमक राती।
जो मैं होती डबिया को कजरा,
पिया प्यारे के नैना चमक राती।
जो मैं होती लौंगा इलायची,
पिया प्यारे के मुख में गमक राती।
जो मैं होती मोतिन की माला,
पिया प्यारे की छतियाँ चिपक राती।।
इन पंक्तियों में आँगन, बाग के बाहरी जगत के बाद मस्तक, नयन और मुख जैसे अंगों से होकर हृदय के स्पर्श-सुख की इच्छा आसक्ति तक पहुँच गयी है, जो या तो अभिसार की प्रेरणा बनती है या फिर प्रिय के आने के शकुन देखती है। इस लोक गीत मे शकुन और अभिसार के उदाहरण देखें…
उड़ जा निगोड़े काग चोंच मढ़वा देंउ तोरी।
चोली के बंध गये टूट फरक रई डेरी आँख मोरी।
बिंदिया ररक रई माथे की, सारी अंग ते सरकत है।
छूट जात गाँठ जूरे की, मोतियन की लर लरकत है।
इस गीत में सात शुभ शकुन हैं, जो उस समय लोकप्रचलित थे। इन शकुनों से नायिका को अपने प्रिय के आने की आशा बँध गयी है। प्रिय आता है, तो प्रिय नायक का अभिसार माना जाना उचित है। यदि नायिका आती है, तो वह अभिसारिका होती है।
रतनारे हैं नैना भँवर कजरा
बड़ी बड़ी अँखियाँ थोरो थोरो कजरा
मानो चंद्र घेरे हैं जे बदरा।रतनारे.।
प्यारे सें मिलबे खों जा रईं गोरी
हाँतन में लीन्हें फुलन गजरा।रतनारे ।
इस गीत में नायिका के अरूणिम नेत्रों में भ्रमर जैसे वर्ण का काजल बहुत सुंदर लग रहा है। बड़ी-बड़ी आँखों में लगा हुआ काजल मुख के सौन्दर्य को निखार रहा है। ऐसा लगता है, जैसे काले बादल मुखचन्द्र को घेरे हुए हैं। गोरी हाथों में फूलों का गजरा लिये हुए प्रियतम से मिलने जा रही है। अभिसार में बाधक नायिका के शोर करने वाले आभूषण होते हैं, जो उसे उतारना पड़ते हैं-
मैं कैसें आओं मोरे बारे सँवरिया, पाँवों के बिछिया बाजना रे।
बिछिया उतार गोरी ओली में धर लेव, रुनक झुनक चलीं आँवना रे।।
बिछिया की तरह टोड़ल, कंगन, झुमका आदि भी बजनेवाले हैं, जिन्हें भी नायिका को उतारना पड़ता हैं। संयोग में हास-परिहास और विनोद भी आनंदमयी क्रीड़ाओं के अंग हैं, इसलिए लोकगीतों में दोनों के उदाहरण मिलते हैं।
रसिया को नारि बनाव गोरी, रसिया को ।टेक।
सालू सरद कसब का लहँगा
कर दयें कजरा ऊपर दयें सिंदुरा ।रसिया ।
बहियाँ बरा बाजूबंद सोहें, माथे पै बेंदी लगाव गोरी ।रसिया ।
इस गीत में रसिक को लहँगादि वस्त्र पहनाकर काजल और सिन्दूर लगाकर तथा बरा बाजूबंद एवं बेंदी जैसे आभूषण से नारी बनाने का विनोद परम्परित ही है।
कोऊ इतै आवरी, कोऊ उतै जावरी
मोरी नौंनी दुलइया खों देख जावरी।
सबेरे सें करबे जा बैठीं सिंगार
खीर में लगा दओ हींग को बघार
कोऊ चींख जावरी ।मोरी नौंनी.।
चूले पै डारें जा बैठी पटा
ईनें खबा दये मोये रौंने भटा।
कोऊ इतै आवरी ।मोरी नौंनी।
इस उदाहरण में उपालम्भ के द्वारा हास्य उत्पन्न किया गया है। संयोग में इस प्रकार के कई प्रसंग मिलते हैं। लोकोत्सवों में संयोग के अनेक अवसर प्राप्त होते हैं। इस कालखण्ड में रियासतों की समृद्धि और ऐश्वर्य का प्रदर्शन भी इन्हीं उत्सवों में हुआ करता था और इसीलिए उत्सव से संबद्ध मेले भी लगाये जाते थे।
इसमें वसन्तोत्सव, फाग, जलबिहार, बुड़की (मकर संक्रान्ति), नवरात्रि, शिवरात्रि आदि के मेलों में अपने रसिक प्रिया या प्रिया से मिलने का एकान्त मिल ही जाता था। होली या फाग में तो काफी आजादी रहती थी, इसलिए कई लोकगीतों में रंग-गुलाल मलने से संयोग-सुख की लूट होती थी। रसिया छैल अपनी प्रिया को आमंत्रित करता हुआ कहता है…
होरी में लाज न कर गोरी, होरी में।
जो तुम होरी में लाज कर रैहौ,
बरबस अबीर मलहौं गोरी। होरी में.।
हम रसिया तुम नई किसोरी,
अरे कैसी बनी सुन्दर जोरी। होरी में।
उक्त पंक्तियों में पुरूष प्रेमी मुखर है, अपनी प्रेमिका को होली खेलने के लिए आमंत्रण देता है।
आओ छैल तुमें होरी खिलाबैं
मन भाबे सोई लला कराबैं।
सखि सिरमौर होइ मनभावन, केसर रंग बरसाबैं।आओ.।
अबीर गुलाल कपोलन मींड़ै, नारि सिंगार बनाबैं।आओ.।
इन पंक्तियों में गाँव की गोरी, जो अपने प्रेमी को होरी खेलने के लिए बुलाती है और गुलाल से उसके कपोल मीड़कर मनभाई कर लेती है। परकीया तो और अधिक मुखर होती है। घर में अकेली होने पर वह किसी भी परदेशी को अपने घर में रोक लेती है और उसे भोजन की रसद भी देने को तैयार रहती है। बुंदेलखण्ड की स्वच्छंद रसिकता का यह साक्ष्य निम्न लोकगीत में मिलता है।
दैहों दैहों कनक उर दार, सिपहिया डेरा करो मोरी पौंर में।
अरी ओरी गुइयाँ कहाँ गये तोरे जेठ ससुर औ कहाँ गये तोर घरबारे?
तुम लरकिनी काँ रहत अकेली, ऊँचे महल दियना बारे?
दूर गये मोरे ससुर जेठ, परदेस गये मोरे घरबारे।
सास गई मायके ननद सासुरे, हम घर रहत अकेली,
ऊँचे महल दियना बारे।
अरे हाँ रे सिपहिया डेरा करो मोरी पौंर में।।
उक्त गीत में जब परदेशी युवती से पूछता है कि उसके ससुर, जेठ, पति आदि सब कहाँ गये हैं, तो उत्तर उक्त गीत में उसके ससुर और जेठ दूर गये हैं और पति परदेश सास मायके और ननद ससुराल में हैं, जबकि वह बिल्कुल अकेली है। नायिका को यह सब भेद खोलने में जरा भी संकोच नहीं है। व्यंजना में पूरा आमंत्रण।
लेकिन जब पति रात दूसरे घर में व्यतीत करता है, तब वह कठोर होकर पूछती है कि उसके पति ने रात्रि कहाँ काटी, क्योंकि उसकी टोपी, जुल्फें, फटा कुर्ता इस बात के गवाह हैं कि वह रात में कहीं रहे हैं। कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-
साँची बताओ पिया प्यारे कहाँ तुमनें रैन गँवाई।
माथे की टोपी तोरी येंड़ी-बेंड़ी, जुल्फन लटकन आई। साँची।
कुरता तोरो अबै फटो सइयाँ, छतिया धड़कन आई। साँची।
बादशाहों और राजाओं के अन्तःपुरी संस्कृति ने सौतों और रखैल सौतों का वातावरण फैलाया था, जिससे संयोग की क्रीड़ाओं में बाधा पड़ती थी। यह स्थिति धीरे-धीरे लोक को प्रभावित करने लगी थी, इसलिए सौत को केन्द्र बनाकर कई लोकगीत प्रचलित हुए। एक लोकोक्ति भी बनी। दोनों उदाहरण प्रस्तुत हैं-
बलम सें ऐसी का बिगरी,
ऐसी का बिगरी, मोये छोड़ अकेली गये परदेस रे, बलम सें हो…..।
बलम से कछू न बिगरी,
कछू ना बिगरी, मोरी सौतन नें भर दये उनके कान रे, बलम सें हो….।
इस उदाहरण में सौतों के कान भरने के कारण पति उसे अकेली छोड़कर चला जाता है।
काँटो बुरो करील का, औ बदरी का घाम।
सौत बुरी है चून की, औ साझे का काम।।
इस उदाहरण एक लोकोक्ति का है, जिसमें चून की (आटा की) सौत तक बुरी मानी गयी है। ठीक उसी तरह, जिस तरह करील का काँटा, बदली का घाम और साझे का काम बुरा होता है। संयोग के स्पर्श-सुख के गीत खोजने पर ही मिलते हैं, क्योंकि उनमें परिवार के बीच कहने या गाये जाने की मर्यादा का उल्लंघन है।
इसी कारण उनमें प्रतीकों का सहारा लिया गया है। हंस और सुआ तो दोनों जीव के प्रतीक हैं, पर हंस का जीव मुक्त जीव है, जबकि सुआ (तोता) का भोगी। सुआ के प्रतीक से भोग-सुख का एक गीत देखें-
उड़ जा बारे सुअना मोरी बेरी फरी।
उड़ सुअना ओके सिहरे पै बैठो,
घुँघटा को रस लै गओ री।उड़ जा।
उड़ सुअना ओके कन्धा पै बैठो,
हियरा को रस लै गओ री।उड़ जा।
सुअना के प्रतीक से छोटे-बड़े कई विधाओं के गीत मिलते हैं। इसी प्रकार का भोगी प्रतीक भ्रमर (भौंरा) है, जो कलियों तक का रस ले लेता है। तीन राई गीत देखें, जिनमें भौंरा ने पूरा उपभोग किया है-
बेला फूल की कली, बेला फूल की कली,
रनबन करी रे भौंरा नें।
बगिया हो रई लाल, बगिया हो रई लाल,
भौंरा घिरे रे अनघेरे।
बगिया हो रई लाल, बगिया हो रई लाल,
एक एक कली पै दो दो भौंरा।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल