बुन्देली कविता परंपरा Bundeli Kavita Parmpara पुस्तक में हमने प्रयत्न किया है कवि का प्रतिनिधित्व उनकी रचनाओं में आ जाए लेकिन फिर भी कमी रह गई होगी। इसका दोष मेरा है। बुन्देली में विपुल मात्रा में काव्य रचा गया है, हमने कुछ बानगी में रचनाकारों को लिया है।
भाषा वैज्ञानिक बुन्देली भाषा का उद्भव मध्यदेशीया प्राकृत से मानते हैं, जो अपभ्रंश स्वरूप से बुन्देली में विकसित हुई । ‘बुन्देली’ शब्द बुन्देखण्ड और बुन्देला से ही निसृत है । इन दोनों शब्दों का प्रयोग पन्द्रहवीं शताब्दी के पूर्व नहीं मिलता है । यह शब्द ‘बुन्देला’ क्षत्रियों से जुड़ा बताया गया है। इसकी व्युत्पत्ति को लेकर दो मत प्रचलित हैं जिनमें एक दंतकथा के आधार पर विंध्यवासिनी देवी की कृपा से जुड़ा है जबकि दूसरा आधार भाषाविदों ने ‘विंध्य’ से जुड़ा माना है । जो भी हो ‘बुन्देली’ शब्द के पहले इस अँचल में बुन्देली भाषा थी, जिसका नाम कुछ और रहा हो ।
यह अँचल जिसे आज हम बुन्देलखण्ड के नाम से जानते हैं, पूर्व में जुझौति, चेदि, जेजाकभुक्ति, दर्शाण आदि नामों से ग्रंथों में जाना जाता रहा है । यहाँ चंदेलों, गोड़ों, भरों, प्रतिहारों, खंगारों आदि ने शासन किया है। बुन्देलाओं के आगमन से इसे बुन्देलखण्ड कहा गया और यहाँ प्रयुक्त भाषा को बुन्देली या बुन्देलखण्डी नाम से अभिहित किया गया ।
बुन्देली में साहित्य रचना परंपरा का अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि यहाँ भी हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं की भाँति काव्य की परम्परा प्राचीन है । इसी काव्य रूप से सृजन होता रहा है । कविता के माध्यम से कवि अपनी कलात्मक अभिरुचि की अभिव्यक्ति के साथ ज्ञान की विरासत को व्यक्त करते हैं । काव्य पर तत्कालीन परिवेश का सीधा प्रभाव पड़ता है । मानवीय जीवन का प्रकटन साहित्य में होता है । सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिवेश के साथ भूगोल का प्रभाव भी रचनाओं पर दृष्टव्य होता है । बुन्देली के विकास पर भी यह परिलक्षित होता है ।
जगनिक बुन्देली के प्रथम ज्ञात कवि माने जाते हैं जिनकी रचनाएँ आल्हखण्ड के नाम से विख्यात हैं। हिन्दी में परमाल रासो इन्हीं की रचना है। चंदेलों के परवर्ती शासक परमर्दि देव को परमाल के नाम से जाना जाता है। ‘आल्हखण्ड’ की प्रामाणिकता को लेकर आलोचकों द्वारा प्रश्नचिन्ह लगाये गए और इसकी प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए लोकविद् डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त ने उपलब्ध आल्ह खण्ड की लड़ाइयों का पाठालोचन करके ‘प्रामाणिक आल्हखण्ड’ के नाम से प्रकाशन कराया है।
जगनिक का आल्हखण्ड वाचिक परंपरा में इतना लोकप्रिय हुआ कि इसका पाठ बुन्देली के अतिरिक्त बघेली, कन्नौजी, अवधी, ब्रज, भोजपुरी, बांगरू तथा राजस्थानी में भी पाठान्तर के साथ मिलता है। आल्हखण्ड केवल युद्धों का वर्णन नहीं है बल्कि उसमें तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों के साथ श्रृंगार का उत्कृष्ट ज्ञान मिलता है।
डॉ. बलभद्र तिवारी ने विष्णु दास की ‘रामायन कथा’ को प्रकाशित कराकर यह सिद्ध किया कि गोस्वामी तुलसीदास के पूर्व बुन्देली में रामायन कथा रची जा चुकी थी । प्रथम रामकाव्य रचयिता विष्णुदास का जन्म आचार्य हरिहर निवास द्विवेदी ने सन् 1400 ई. के पूर्व अनुमानित किया है। इन्होंने रामायन कथा के अतिरिक्त महाभारत कथा भी लोक भाषा में रची। इन्होंने जनभाषा में प्रचलित छंद, दोहा, सोरठा तथा चौपाई का प्रयोग किया है ।
इस कालखण्ड तक इस अँचल में भी विदेशी आक्रमणों के कारण सांस्कृतिक अस्मिता खतरे में पड़ गई थी। धर्म के आधार पर भेदभाव होने से जनसामान्य में निराशा का भाव व्याप गया था । इसको आशा में बदलने के लिए बुन्देलखण्ड के कवियों ने दो तरीके से प्रयत्न किए।
पहले प्रयास में भक्ति भाव के माध्यम से नैराश्य को आशा में बदलने के लिए काव्य रचना की । ईश्वर में आस्था और धैर्य से विपरीत काल को बीतने की शिक्षा दी। दूसरे तरीके से वीर रस प्रधान ऐसा काव्य रचा जिससे निराशा समाप्त हो । बख्शी हंसराज, हरिराम व्यास तथा बोधा ऐसे ही बुन्देलखण्ड के कवि हैं जिनकी रचनाओं में जन सामान्य का भाव परिवर्तित करने की क्षमता है।
हिन्दी साहित्य की अन्य समुच्चय बोलियों की भांति बुन्देली में युगीन प्रभाव पड़ा और यहाँ भी निर्गुण कवि अक्षर अनन्य जैसे रचनाकार हुए जिनकी रचनाएं कबीर पंथ का विकास ही है। अग्रदास ऐसे महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं जिनकी रचनाओं में भक्ति भाव आपूरित है। रीतिकाल के प्रथम आचार्य कवि केशवदास की ओरछा में निवास करके रामचंद्रिका, कवि प्रिया, रसिक प्रिया तथा जहांगीर जस चंद्रिका जैसे रचनाएं लिख रहे थे ।
बुन्देलखण्ड अँचल में कवि पद्माकर, ठाकुर तथा बिहारी जैसे रचनाकार लिख रहे थे । बुन्देलखण्ड में दक्षिण के शिवाजी से प्रेरणा लेकर वीर चंपतराय के पुत्र छत्रसाल का प्रादुर्भाव एक विशिष्ट घटना है। छत्रसाल ने शनैः-शनैः अपनी शक्ति बढ़ाकर मुगल सत्ता को चुनौती जनता को जागृत कर दी ।
इन्होंने सामाजिक सौमनस्य के साथ समस्त वर्गों को साथ लेकर स्वभूमि, स्वधर्म तथा स्वसंस्कृति के प्रति विशिष्ट गौरव का भाव उत्पन्न किया। इनके संरक्षण में गोरे लाल ने छत्रप्रकाश जैसा महत्वपूर्ण ग्रंथ रचा । छत्रसाल स्वयं अच्छे कवि व सहृदय कवियों को संरक्षण देने वाले शासक थे । दीवान प्रतिपाल सिंह बुन्देला के इतिहास अनुसार इनके शासन में तीन सौ कवियों को संरक्षण प्राप्त था । छत्रसाल
सरस्वती पुत्रों का बहुत आदर करते थे । महाकवि भूषण जो शिवाजी के राज्याश्रय में रहते थे, जब पन्ना पधारे तो महाराज छत्रसाल ने सम्मान में उनकी पालकी में स्वयं कंधा लगाया और भूषण को लिखने को विवश कर दिया कि – “शिवा कौ सराहौं या छत्रसाल को ।” वह उनकी प्रशस्ति में छत्रसाल दशक रचते हैं। ऐसे समय इस अंचल में हरिसेवक मिश्र, पृथ्वी सिंह रसनिधि, मोहन भट्ट, अक्षर अनन्य, ज्ञानी जू, गुमान मिश्र जैसे कवि हुए, जिन्होंने अपनी रचनाओं से बुन्देली कविता का मान बढ़ाया ।
महाराजा छत्रसाल के जीवन के उतरार्द्ध में बंगश का युद्ध हुआ जिसमें उनको बाजीराव पेशवा से सहयोग लेना पड़ा और बंगश को तो पराजित कर दिया किंतु इसके बाद मराठों का बुन्देलखण्ड में प्रवेश हो गया क्योंकि महाराजा छत्रसाल ने अपने राज्य को तीन भागों में विभाजित कर क्रमशः हृदयशाह, जगतराज तथा बाजीराव को दिया। बाजीराव के उत्तराधिकारियों का अनुराग इस मिट्टी से तो था नहीं इसलिए यहाँ की प्रजा पर उन्होंने अत्याचार किए। जो यहाँ की काव्य परंपरा में अंकित है।
बुन्देलखण्ड के राज घरानों की आपसी अंतर्कलह तथा अक्षमता से छोटे-छोटे टुकड़ों में अनेक राज सत्ताएं स्थापित हो गई। इस दौर में साहित्य, कला तथा संगीत को राज्याश्रय प्राप्त हुआ । राज दरबारों में राजकवि, राजनर्तकी तथा संगीतज्ञ रखने का रिवाज हो गया । जनता के मध्य भी लोक चेतना विकसित होती रही है। धीरे-धीरे अंग्रेजों का शासन देश के अनेक हिस्सों पर हो गया ।
बुन्देलखण्ड की रियासतों के साथ अंग्रेजों ने संधियाँ कर सनदें दी तथा वसूली की। अंग्रेजों की बदसलूकी तथा भेदभाव से आक्रोश पनपा जिसे बुन्देला विद्रोह के नाम से इतिहास में जाना जाता है । नारहाट के मधुकर शाह, जैतपुर किशोर सिंह तथा अनेक रियासतों के पारीछत, हिंडोरिया के राजाओं ने अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों का विरोध कर बगावत की। सैकड़ों, अंग्रेज कत्ल किए गए। कैथा की चौकी जला दी गई।
दिमान देशपत सहित अनेक सेनानियों ने अंग्रेजों को छकाया जिन्हें छल से पकड़ा व मारा गया। इस दौर में बुंदेलखण्ड को अंग्रेजों ने अपनी सैन्य शक्ति से कुचला लेकिन चिंगारी छिपी रही जिसका विस्फोट 1857 ई. में झाँसी, शाहगढ़, वानपुर, चरखारी, सागर आदि में हुआ जिसे इतिहासकारों ने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा। इस दौर में अपनी माटी, अपने धर्म और अपनी संस्कृति से अनुराग साहित्य में प्रकट हुआ जिसको आवाज देने वाले कवि हुए। कवि ठाकुर, पद्माकर, बिहारी आदि उल्लेखनीय हैं।
1857 ई. की विद्रोह को कुचलने के बाद अंग्रेजों ने बुन्देलखण्ड अँचल में नौगॉव छावनी स्थापित की जहाँ छत्तीस रियासतों के राजाओं को नियंत्रित करने के लिए पॉलीटिकल एजेन्ट की निगरानी में सेना रखी गई। समस्त राजाओं के प्रतिनिधियों को लगातार पॉलीटिकल एजेंट को रिपोर्ट देना पड़ती थी।
इसके बाद राष्ट्रीय परिदृश्य में भी नवजागरण की लहर आई। आर्य समाज, प्रार्थना समाज, कांग्रेस, ब्रह्म समाज की स्थापना हुई। इन सबका प्रभाव पूरे देश के साथ बुन्देखण्ड पर भी पड़ा। विवेकानंद, बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गाँधी, सुभाष चन्द्र बोस, चन्द्रशेखर आजाद आदि के प्रभाव से इस क्षेत्र में राष्ट्रवाद, मानवतावाद तथा सांस्कृतिक जागरण का अभ्युदय हुआ। जिससे काव्य रचनाओं में भी आधुनिक जीवन बोध दिखाई देने लगा।
इस दौर में लोक काव्य की परम्परा में लिखने वाले ईसुरी जैसे जनप्रिय कवि भी हुई जिन्होंने श्रृंगार के साथ लोक नीति, भक्ति तथा जागरण की कविता रचकर लोक को प्रमाणित किया । ये आम आदमी की जिन्दगी जीकर आम आदमी की भावनाओं को मुखरित करते रहे। इनकी लोकप्रियता की परिधि बहुत व्यापक रही । इन्हीं के समकालीन छतरपुर के राजकवि गंगाधर व्यास भी महत्वपूर्ण कवि रहे । विजावर स्टेट में दरोगा के पद पर पदस्थ ख्यालीराम की रचनाएं भी लोक कंठ की हार बनी । इन्हें बुन्देली त्रयी के कवि कहा जाता है ।
आधुनिक काल में आजादी की ललक बुन्देलखण्ड में भी जनता के बीच पनपी । इसका सीधा प्रभाव कवियों पर पड़ा। कवियों ने अतीत के प्रेरक चरित्रों को आधार बनाकर जनजागरण की रचनाएं रचीं । आधुनिक चेतना जैसे स्त्री पुरुष भेद को समाप्त करने के कारण अस्पृश्यता के खिलाफ रचनाएं बहुतायत लिखी गई । पुरानी कुरीतियों को तजकर वैज्ञानिक चेतना आधारित कथ्य भी दृष्टव्य हैं। इस दौर में मदनेश, चतुरेश, ऐनानंद, मीर अमीर अली, लोक नाथ द्विवेदी, ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी, भैयालाल व्यास, माधव शुक्ल ‘मनोज’, अवधेश आदि महत्वपूर्ण बुन्देली के कवि हुए । इन कविताओं में जन-जागरण का स्वर प्रचुरता से परिलक्षित है ।
आजादी प्राप्त होने पर देशी राजाओं की सत्ता चली गई । प्रजातंत्र की स्थापना हुई । संविधान अंगीकार किया गया। देश के नागरिकों को समानता का मौलिक अधिकार मिला । भेदभाव की तमाम दीवारें ध्वस्त हुईं। बुन्देखण्ड का कुछ हिस्सा राजनैतिक व प्रशासनिक दृष्टि से उत्तर प्रदेश में रहा और कुछ हिस्सा म.प्र. में रहा। इससे एक सांस्कृतिक इकाई अभी भी विभक्त है । आजादी के बाद देश और प्रदेश में जनता के वोट से निर्वाचित सरकारें आईं। विकास की योजनाएं बनीं, उनका क्रियान्वयन हुआ। योजनाएं के क्रियान्वयन में भी पक्षपात देखने को मिला । भ्रष्टाचार तथा पक्षपात भी जनता ने महसूस किया । यह सभी विषय कवियों की रचनाओं में विषय के रूप में आए ।
आजाद भारत में शिक्षा का विकास, आकाशवाणी, दूरदर्शन तथा विश्वविद्यालय स्थापित हुए । जिससे क्षेत्रीय भाषाओं का विकास संभव हुआ । विश्वविद्यालयों में अनुसंधान एवं अध्यापन में भी बुन्देली को महत्व मिला। आजादी के पहले कुण्डेश्वर से मधुकर, गुरसरांय से लोक वार्ता आजादी के बाद सागर से ईसुरी, छतरपुर से मामुलिया, बुन्देली बसंत तथा अथाई जी बातें जैसी पत्रिकाओं के प्रकाशन से बुन्देली रचनाकारों को विस्तार मिला।
इस दौर में बुन्देली कविता की विषय वस्तु में भी वैविध्य आया । इस काल में संतोष सिंह बुन्देला, शिवाजी चौहान, गोपालदास रूसिया, अवधकिशोर जड़िया, बाबूलाल गुप्त, महेश कटारे ‘सुगम’, राघवेन्द्र उदैनिया, देवदत्त द्विवेदी ‘सरस’, नवल किशोर सोनी ‘मायूस’ रतिभानु तिवारी ‘कंज’, श्याम बहादुर श्रीवास्तव, मोहन लाल गुप्त ‘चातक’ दुर्गेश दीक्षित, गुणसागर सत्यार्थी, आशाराम त्रिपाठी, ओम प्रकाश सक्सेना तथा लक्ष्मी प्रसाद शुक्ल आदि प्रमुख हैं।
बुन्देली कविता आज नए-नए शिल्प में लिखी जा रही है, जो उसकी समृद्धता की द्योतक है ।’बुन्देली कविता परम्परा’ पुस्तक का उद्देश्य बुन्देली की काव्य परम्परा, के प्रमुख कवियों को एक साथ लाकर अध्ययन-अध्यापन के लिए सुगमता से उपलब्ध कराना है। इस कार्य को साकार करने में हमने डॉ. बलभद्र तिवारी सहित अनेक पूर्वज विद्वानों की पुस्तकों का सहारा लिया है। अनेक रचनाकारों के काव्य संग्रहों से उनकी रचनाओं का चयन किया है ।
हमने प्रयत्न किया है कवि का प्रतिनिधित्व उनकी रचनाओं में आ जाए लेकिन फिर भी कमी रह गई होगी। इसका दोष मेरा है। बुन्देली में विपुल मात्रा में काव्य रचा गया है, हमने कुछ बानगी में रचनाकारों को लिया है। ऐसा नहीं है कि इन कवियों के अतिरिक्त महत्वपूर्ण कवि नहीं है। सभी का योगदान बुन्देली काव्य कोश को समृद्ध करने में अतुलनीय है। सभी को समाहित करना संभव नहीं था, अतः जो रह गए हैं हम उनके प्रति क्षमाप्रार्थी हैं। जिन रचनाकारों को समाहित किया गया है उनके प्रति हृदय से कृतज्ञ हूँ । आशा है कि इस पुस्तक से अध्येताओं को कुछ सहायता मिलेगी ।
डॉ. बहादुर सिंह परमार