बुंदेली का व्यवहार क्षेत्र विस्तृत है। व्यवहार क्षेत्र के विस्तार ने बुंदेली को रूप विविधता प्रदान की है। रूप विविधता ने ध्वानियों को बहुवर्णी बनाया और क्रिया रूप सर्वाधिक प्रभावित हुए। बुंदेली, हिन्दी की एक बोली है। बुन्देलखंड मे Bundeli Bhasha Ke Vividh Roop देखने को मिलते हैं। उसका व्यवहार क्षेत्र-ग्वालियर संभाग के मुरैना मिण्ड से लेकर जबलपुर संभाग के छिदवाड़ा सिवनी तक है। इसी से इसके-क्षेत्रीय रूपों में शब्द, अर्थ और ध्वनि के धरातल पर विभिन्नता है।
बुन्देली भाषा के विविध रूप और उनमें एकत्व की संभावना
बुदेली पश्चिमी हिन्दी की एक महत्वपूर्ण भाषा है। यह 19 हजार वर्ग मील में बसे लोगों द्वारा बोली जाने वाली लोक भाषा है। बुंदेली भाषी क्षेत्र की सीमाओं के संबंध में विद्वानों में मतैक्य नहीं हैं।
इन जिलों में बुंदेली का मानक, मिश्रित और आंशिक रूप में व्यवहार होता है। उस-भू-भाग में बुंदेली के उत्तर से दक्षिण की ओर क्रमशः सिंकरवारी, तँवरधारी, महावरी, राजपूतधारी, जटवारे की बोली, कछवाय घारी, पंवारी, रघुवंशी, लोधांती, खटोला, बनाफरी, कुंदरी, तिरहारी, निभट्टा ओर छिंदवाड़ा की बुंदेली आदि रूप व्यवहार में है। डॉ. रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल ने बुंदेली के इन बोली रूपों को उत्तर से दक्षिण की ओर क्रमशः ‘कौं बोली रूप’, ‘खौं बोली रूप’, ‘खाँ बोली रूप’ नाम दिये हैं।
भक्ति काल से लेकर रीतिकाल तक बुंदेली की शब्द-सपंदा में तत्सम, तद्भव, देशज, ध्वन्यात्मक, विदेशी स्थानीय, अन्य भाषाओं से गृहीत तथा संकर शब्द सम्मिलित हैं। विस्तृत भू-भाग में व्याहत होने के कारण बुंदेली की शब्द-संपदा में स्थानीय रूपों का विशेष महत्व है। बुंदेली भाषा और उसके लोक-साहित्य पर विगत 60-70 वर्षों से शोध-कार्य हो रहे हैं। बुंदेली का विकास प्राचीन भाषिक परम्परा का परिणाम है।
उपलब्ध प्रमाण और प्रकाशित और अप्रकाशित गद्य और पद्य की रचनायें यह प्रमाणित करने में समर्थ हैं कि बुंदेली बोली स्टैंडर्ड कोटि तक पहुँची है। बुंदेली काव्य भाषा, राजभाषा और लोकभाषा के रूप में विकसित हुई। जगनिक द्वारा लिखा गया आल्हा हजार साल पहले लिखा गया था। बुंदेली, भाषा की पूँजी है। ईसुरी, गंगाधर व्यास जैसे लोक कवियों की परंपरा सशक्त है। गद्य में सनदें, रुक्का, पट्टा, शिलालेख, पत्र-पांडुलियाँ आदि बुंदेली में उपलब्ध हैं।
छत्रसाल के हजारों, पत्र बुंदेली गद्य के उच्चकोटि के नमूना है। ‘मधुकर’ के प्रकाशन बुंदेली में हुआ। डॉ. कैलाश बिहारी द्विवेदी के अनुसार- ‘परिमिक मानक बंदेली का क्षेत्र टीकमगढ के चारों ओर लगभग एक सौ मील के के कल्पित वत्त में आने वाले क्षेत्र में सभी उपबोली क्षेत्रों से संबंधित की अभिव्यंजना समर्थ है। बुंदेली-भाषा का अतीत अत्यधिक गौरवशाली बुंदेली-भाषा का शब्द भंडार और वातावरण अपने जन-मानस की हर पूरी करने के योग्य है।
बोली के साथ भाषा सामाजिक संपदा है। पश्चिमी हिन्दी बंदेली रूप शौरसेनी नागर से पल्लवित और पुष्पित हुये हैं। भाषा भूगोल अधुनातन स्थापनाओं के आधार पर बोलियों के मिलन-स्थल के अंदी रचना करते है। ग्वालियर-चंबल क्षेत्र के बोली-रूप उत्तर पश्चिम में मानक से सिकरवारी की ओर बढ़े है। उत्तरपूर्व में इन बोली-रूपों ने भदावरी तेंवरघारी को रूप प्रदान किया, दक्षिण पूर्व में ये बोली रूप पँवारी होगी।
ग्वालियर और मुरैना की सिकरवारी को आसन नदी विभाजित करती हैऔर पूर्व में भदावरी, उत्तर में तँवरघारी, डबरा के आसपास पंचमहली, अट्ठाइसी तथा जटवारी के बोली-रूप स्पष्ट हैं। लहजे में अंतर है किंतु एकात्म की पूरी संभावना है। भाषाशास्त्रीय दृष्टि से पँवारी दतिया में बोली जाती है। इस क्षेत्र में पंवार क्षत्रियों का बाहुल्य था। बुंदेली-भाषी उस भू-भाग में जिन बोली रूपों का व्यवहार किया जाता है, वे बोली रूप अपनी प्राचीन परंपरा पर विकसित हये हैं।
उस भू-भाग में उपलब्ध गुफा चित्र, भित्ति चित्र, शैलाश्रय, सिक्के, शिलालेख, पांडुलिपियाँ, ताम्रपत्र, सनदें और अन्य कागज पत्र यह प्रमाणित करते हैं कि बंदेली भाषा के विविध क्षेत्रीय रूप प्राचीन भाषिक परिपाटी के परिणाम हैं। बुंदेली को चार सौ साल पहले से राजभाषा होने को गौरव प्राप्त है।
ब्रज से ग्वालियर तक के क्षेत्र में सामान्य भाषायी रूप समान था। इसी से शौरसेनी से उदभूत यह मट यदेशीय हिन्दी के ब्रज और बुंदेली दो रूप हैं। प्रारंभिक अवस्था में शौरसेनी अपभ्रंश प्राचीन हिन्दी में परिवर्तित हुई और यही प्राचीन हिन्दी ब्रज बुंदेली एव खड़ी बोली के विकास का आधार बनी।
स्थानीय शब्द संपत्ति और उच्चारण विधिया के परिणाम स्वरुप हिन्दी के जो रूप विकसित हए उनमें से ही बुंदेली एक है। बुंदेली का विकास तीन रूपों में हुआ है। काव्य-भाषा के रूप में, राजभाषा कलम में ओर लोकभाषा के रूप में। बुंदेली आरंभ से ही एक लोकभाषा के रूप मे बुंदेलखण्ड के निवासियों की वाणी का माध्यम रही है।
बंदेली एक सविस्तृत का की भाषा है। विस्तृत भू-भाग में व्यवहार होने के कारण बुंदेली के शब्द में स्थानीय रूपों का विशेष महत्त्व है। डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त के अनुसार 17 वीं – 18 वीं शती में राजकाज एक परिष्कृत बुंदेली का ऐतिहासिक रूप और दूसरा ग्रामीण बुंदेली का लोक-रूप उन रूपों में निरंतर सृजन होता रहा।
बुंदेली के परिनिष्ठित रूप चिट्ठी-पत्री, सनदें, बीजक, रूक्का, इस्तहार, ताम्रपत्र, दुर्गलेख, पादाघ, तोप के ऊपर उकेरा गया लेख, शिलालेख, आदि हैं, अतः बुंदेली के मानकीकरण की पुष्टि होती है। बोली और भाषा का मूल रूप-चनियाँ होती हैं। क्षेत्रीय उच्चारणगत, बलाघात के कारण उस क्षेत्र की बोलियों में अर्थद्योतन क्षमता अधिक है। अनुकरण की प्रवृत्ति, द्वित्व की बहुलता, समीकरण का प्रभाव और द्विरुक्तियों का व्यवहार उन बोली रूपों को प्राणवान बना देता हैं।
बुंदेली भाषा की सभी बोलियाँ और उपबोलियों बुंदेली-भाषा की समृद्धता की परिचायक हैं। बोलियों की सीमायें न तो अचल होती है और न सनातन । आवश्यकता और संपर्क के आधार पर बोलियाँ व्याक्ति से आरंभ होकर समाज तक पहुँचाती हैं। एक दूसरे के निकट लाती हैं। बोलियों का उच्चारित रूप मानव हृदय को झझकोरता है। क्रोध के साथ करुणा है और सूक्ष्म-भावों को अभिव्यक्ति प्रदान करता है।
ग्वालियर-चंबल क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले ‘घारों के बोली-रूप एक दूसरे को प्रभावित करते हैं और उनमें एकत्व दिखलाई देता है। मध्य देशीय ग्वालियरी को जैनों, नाथों और सूफियों ने उपदेशों का माध्यम बनाया। विष्णुदास ने महाभारत और रामायण-कथा लिखी। मानिक की बेतान पच्चीसी, गोविंद स्वामी के विष्णुपद, आसकरन और तानसेन के स्वर उन्हीं बोली-रूपों के जीते-जागते प्रमाण हैं।
बुंदेली-भाषा के विविध रूप पुलक को आकार देते हैं। उनमें मुदिता का भाव समावेशित है। इन बोली रूपों की क्षमता ध्वानि के साथ राष्ट्र, वाक्य, मुहावरा और लोकोक्तियों तक मिल जाती है। काव्य-शास्त्र, भक्तिकाव्य, यात्रा विवरण, नाटक और कोश-रचना भी उन बोली रूपों में की गई। जोगी दास, खंडन, अक्षर अनन्य, रसनिधि, दिग्गज, कन्हरदास, ऐंनसाईं, ‘कारें फलक’ और बजीर की अनुभूतियों ने इन बोली-रूपों को काव्य-भाषा का पद प्रदान किया।
उसी से बुंदेली भाषा के विविध रूपों में विभिन्नता होते हुए भी अदभुत प्रभाव क्षमता है और एकत्व का समावेश है। विभिन्नता में एकता के रूप हैं। बुंदेली अपनी शब्द सामर्थ्य, शैली एवं विविधता में एकता के कारण गद्य एवं पद्य में उपलब्ध साहित्य के आधार पर सशक्त भाषा है। उसमें एकत्व की अपार संभावनायें हैं।