Bundeli Alha Gayki बुन्देली आल्हा गायकी

बुन्देलखंड की आल्हा गायकी मे वाचिक,आंगिक अभिनय को काफी समय मिल जाता है और गायक स्वर या ढोल की भंगिमाओं तथा नेत्र एवं हस्त-संचालन से युक्त मुख मुद्राओं द्वारा एक अनोखी नाटकीयता bundeli Alha Gayki की विशेषता है।

बुन्देलखंड की आल्हा गायकी 

बनाफरी पेटी या महोबा गायकी
बनाफरी पेटी या महोबा गायकी में कहरवा की मध्य लय में साखी गाये जाने के बाद उसी से आल्हा की पंक्ति जोड़ दी जाती है और कुछ पंक्तियों के बाद कहरवा की द्रुत लय चलती है। द्रुत की चरम सीमा पर गायक आवेश में बिना ढोलक के कवितानुमा गाता है, मंजीरा की ध्वनि और बीच-बीच में ढोलक की थाप लय के प्रवाह को निरंतर बनाये रखती है।

कथोपकथनों या संवादों और युद्ध वर्णनों में अधिकतर इस शैली का प्रयोग होता है। उड़ान की समाप्ति कहरवा की ही विलम्बित मध्य लय में गायकी जाने वाली पंक्ति से होती है या फिर घत्ते के रूप में साखी कही जाती है। कभी-कभी गायक गद्यमय वाचनीक का सहारा इसी समय लेता है और पहले चक्र से दूसरे चक्र में जाने के अंतराल को इतिवृत्तात्मक या व्याख्यात्मक कथन से भरने का सफल प्रयत्न करता है। छप्पय या अन्य छंदों को उसी ताल और लय में ढालकर लोकमय बना देता है।

इस तरह से महोबा गायकी में ओजस्विता अधिक है। तार को स्पर्श करते अधिकतर मध्य सप्तक के स्वरों का प्रयोग प्रयोज्य स्वर मुख्यतः स रे ग मध्य के एवं म का ण कहरवा में मध्य लय से प्रारंभ और धीरे-धीरे द्रुत में आकर चरम सीमा में पहुँचकर फिर बिना किसी तोड़ के विलम्बित मध्य में आना तथा गायकी के एक चक्र की पूर्ति, उदात्त, कम्पित और स्वरित वर्षों से भावानुरूप स्वर-संयोजन, ’आंदोलन‘ और ’सुस्वरता‘ का सहज उपयोग, वाचिक एवं आंगिक अभिनय का अकृत्रिम जुड़ाव आदि इस गायकी की प्रमुख विशेषताएँ हैं।

अल्हैत बच्चासिंह और चरणसिंह की गायकी
प्रसिद्ध अल्हैत बच्चासिंह और चरणसिंह ने इसी गायकी में एक नया प्रयोग किया है। दोनों गायक आल्ह की एक-एक पंक्ति बारी-बारी से गाते हैं और गायन तथा वादन में पूरा-पूरा तालमेल रहता है। गायन-शैली वही है, इतना अवश्य है कि इसमें गायक को अवकाश मिलता जाता है।

साथ ही साथ कथोपकथनों के स्वरों में उचित नाटकीयता तथा वाचिक एवं आंगिक अभिनय की मुद्राओं के प्रदर्शन में सहज कौशल का समावेश हो जाता है। दोनों में इतिवृत्तात्मक और भावात्मक वृत्तों में स्वरों के उतार-चढ़ाव का संगत तारतम्य बनाये रखने की कुशलता भी है। विशेषता यह है कि उनकी युगल गायकी महोबा गायकी से कहीं भी नहीं हटी, वरना इस तरह के प्रयोग में परम्परित लोक शैली से बहक जाने का खतरा बना रहता है।

सागर गायकी में महोबा गायकी
सागर गायकी में महोबा गायकी का अनुसरण मिलता है, पर उसमें उतना जोश और ओज नहीं है। न तो गायक के स्वर में उतना आरोह और कम्पन है और न लय में उतनी द्रुति। वह कहरवा की मध्य लय का प्रयोग करता है और थोड़े आरोह-अवरोह से निरंतर सम में बना रहता है। दूसरे, इस गायकी में अधिकतर मध्य सप्तक के स्वर प्रयुक्त होते हैं, तार का स्पर्श नहीं रहता है।

उड़ान में दु्रत लय प्रयुक्त होती है, पर थोड़ी देर के लिए और स्वर मध्य का रहता है। इस कारण न तो वह पुछी-करगवाँ और दतिया की गंगोले गायकी की तरह संगीतात्मक है और न महोबा गायकी की तरह ओजस्विनी। स्पष्टता, प्रसादता, और प्रवाह की समता उसमें अधिक है। वाचिक अभिनय के लिए कम्पन या आंदोलन की भी कमी है। कुछ गायकों ने नये प्रयोगों से गायकी को आगे बढ़ाने का कार्य भी किया है, जो अभी उन्हीं तक सीमित है।

पुछी-करगवाँ और दतिया की गंगोली गायकी
पुछी-करगवाँ और दतिया की गंगोली गायकी अधिकतर व्यक्तिपरक है परम्परित गायकी लीक से हटकर संगीतात्मक अधिक हो गई है। असल में दतिया, ओरछा आदि रियासतों में 19 वीं शती में संगीत का बोलबाला रहा है अतएव लोकधुनों में संगीतात्मकता का प्रवेश बहुत कुछ स्वाभाविक सा है। यह स्पष्ट किया जा चुका है कि उसी समय आल्हा की कथा को लेकर कुछ कवियों ने अपने प्रबंधन भी रचे थे।

दूसरे, आल्हागायक अन्य गायकों की तरह राजदरबारों में भी गायन करते थे और उनमें होड़ की भावना आना सहज थी। इसी वजह से व्यक्तिपरक गायकी का जोड़तोड़ शुरू हुआ। पुछी-करगवाँ के गायक शिबू दा का आल्हा ही गाते हैं। उनके स्वर में लोच और मधुरता है और वे अधिकतर कोमल स्वरों का प्रयोग मध्य लय में करते हैं। तीनों गायक एक साथ गाकर समूह गायकी का एक उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं।

दतिया की गंगोले गायकी उस क्षेत्र में काफी प्रसिद्धि रही है और उसका एक स्कूल या घराना-सा बन गया है, जिसके पक्षकार संगीत की राय है कि आल्हखण्ड को यदि केवल ’’वीर-रस‘‘ की ही शैली में ही गाया जाये, तो उसके अन्य ’’रस‘‘ गौण हो जाते हैं तथा उनकी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती । दूसरे, उनका मत है कि आल्हखण्ड का मूल रस-भाव निर्वेद है। दोनों तर्क गायकी का औचित्य सिद्ध करने के लिए पेश किये गये हैं।

आल्हा ऊर्जा का लोक महाकाव्य है और उसका अंगीरस वीर ही है, इसलिए भावानुकूल गायकी भी ओजस्विनी होती है। श्रंगार, वीभत्स, करुण रसादि गौण और वीर रस के सहायक हैं। इसी तरह उनकी गायकी भी भावानुरूप होते हुए भी गौण और ओजपरक शैल का पोषण करती है।

गंगोले गायकी में साखी, चैपड़ी, तोड़ और लावनी चार अंग होते हैं तथा संगत में मृदंग, करताल, सारंगी और हारमोनियम वाद्य। दादरा की मध्य लय में साखी के तोड़ के बाद चैपड़ी भी दादरा ताल और मध्य लय में गायी जाती है। युद्धवर्णन परक चैपड़ी तोड़ के बाद कहरवा ताल में बदल जाती है और मध्य लय के बाद द्रुत एवं फिर तोड़ से एक चक्र पूरा होता है। बीच में प्रसंगानुसार लावनी का उपयोग अक्सर होता रहता है।

इस तरह इस गायकी में विविधता के साथ संगीतात्मकता भी है। ’’लावनी‘‘ की धुन का आल्हा गायकी में प्रवेश आश्चर्य में डालता है। ऐसा प्रतीत होता है कि सांगीत परम्परा (संभवतः नथाराम) का प्रभाव हो। मुझे कुछ दिन पहले एक अल्हैत श्री मलखान ग्राम बसेला (जिला-हमीरपुर) ने लिखा था कि उसके नाना नथाराम का सांगीत आल्हा गाते थे, जो समाजों, रईसों और राजदरबारों में साज के साथ होता था। उसी के प्रचलन से आल्हा गायकी में विविध छंदों और धुनों का प्रयोग स्वाभाविक है तथा उसी से जुड़कर आल्हा गायकी संगीत प्रधान हुई है।

गंगोले गायकी भी उसी से प्रभावित हुई थी। वस्तुतः इस गायकी को दतिया की क्षेत्रीय गायकी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह गंगोले के शिष्यों तक सीमित है। दतिया और उसके आस-पास के सभी अल्हैतों की गायकी इससे भिन्न परम्परित गायकी के निकट है। इसी तरह पुछी-करगवाँ की गायकी तीन अल्हैतों द्वारा ही अनुसरित की गयी है। तात्पर्य यह है कि वे लोकगायकी के रूप में लोकप्रचलित नहीं हो सकीं।

आल्हा गायकी की दोहरी भूमिकाएँ
आल्हा लोकगायकी में गायक को अक्सर दोहरी भागीदारी निभानी पड़ती है और उसके तीन रूप सामने आये हैं-
1-  गायन के साथ वादन
2-  गायन और अभिनय
3-  गायन और सृजन का दोहरा दायित्व

1 गायन के साथ वादन
बुंदेली की महोबा गायकी में सभी गायक ढोलक बजाते हैं और उससे उन्हें लय के अनुरूप ताल देने में सुविधा तो होती ही है, साथ ही वाचिक अभिनय द्वारा भाव की अभिव्यक्ति में भी सहायता मिलती है। अन्य क्षेत्रों या अंचलों के कलाकारों की शिकायत है कि गायक द्वारा वादन करने से गायन के लिए उचित अवकाश नहीं मिलता।

मेरे एक संगीतज्ञ मित्र का कहना है कि स्वयं ढोलक बजाने से गायन के दोष छिपे रहते हैं। अगर गायक दूसरे वादक की संगति पर गाए, तो उसकी पोल खुल जाय। लेकिन यह आदत की बात है, इसमें चुनौती देने का कोई औचित्य नहीं है।

2-  गायन और अभिनय
कुछ अंचलों में गायक गायन के साथ अभिनय भी करता है। उन्नाव के गायक लल्लू बाजपेई रंगीन वेशभूषा में तलवार लेकर ओजत्व के प्रदर्शन का प्रयत्न करते हैं, जिससे प्रतीत होता है कि गायन का उद्देश्य गीतत्व और अभिनय के सामंजस्य से आल्हा को और प्रभावी बनाना है। छत्तीसगढ़ी कथागीत पंडवानी की तरह। लेकिन यह तभी संभव है, जबकि गीत और अभिनय का तालमेल सही हो।

केवल उथले और असंगत प्रदर्शन से एक तो वस्तु और भाव में बाधा पड़ती है, दूसरे दर्शक श्रोता गहरी रसानुभूति से हटकर हल्के हास्य में वह जाता है। असल में गीत में निहित भावों का अभिनय यदि केवल मुख, हाथ और सिर से ही किया जाय, तो काफी प्रभावशीलता आ सकती है। यथावसर एक सीमा तक चेष्टाभिनय का सहारा भी लिया जा सकता है। इन सबमें सर्वाधिक महत्व वाचिक अभिनय का है, जिसको महोबा गायकी के गायकों ने भली भाँति अपनाया है।

ये वीर रस से उदात्त और कम्पित, करुण और वीभत्स में अनुदात्त, स्वरित और कम्पित तथा श्रृंगार से स्वरित और उदात्त वर्षों से भावानुरूप स्वर आन्दोलित करते हैं। ’’आंदोलन‘‘ और ’’सुस्वरता‘‘ (इन्टोनेशन) का उपयोग सहज ही हो गया है। कभी-कभी मुखज चेष्ठा और हस्त-संचालन से ऐसी अकृत्रिम भावाभिव्यक्ति दिखाई पड़ती है।

अभिनय की सार्थकता स्वतः सिद्ध हो जाती है। लेकिन यह सब आहार्य या आयासित नहीं है, वरन् गायक की गायन से तल्लीनता के कारण स्वतः फूटा है। तात्पर्य यह है कि अभिनय वस्तु और भाव के अनुरूप सहज स्वाभाविक होना जरूरी है। स्वर के उतार-चढ़ाव, काकु और कम्पन के साथ-साथ नेत्र, मुख और हस्तादि से भावोचित मुद्राएँ सोने में सुहागे का कार्य करती हैं।

3-  गायन और सृजन का दोहरा दायित्व
हर गायक हर बार की प्रस्तुति में एक निश्चित कथा के ढाँचे में स्वरचित गीत सुनाता है अर्थात् हर गायक की हर प्रस्तुति नवसृजन होती है, भले ही उसे एक प्रस्तुति के कुछ क्षणों के विराम के बाद ही तुरन्त सुना जाय। इस रूप में हर पाठ भिन्न होता है, सिर्फ कुछ पूर्व निर्धारित फारमूलों में बंधा रहता है।

आशु कविता जैसे इस सिद्धांत का अनुसरण करते हुये पश्चिम के आल्हा-शोधकर्मियों में भ्रान्ति पैठना स्वाभाविक है, लेकिन मैंने अभी तक जो सर्वेक्षण और साक्षात्कार किये हैं, उनके आधार पर मेरी मान्यता है कि पश्चिमी विद्वानों का यह सिद्धांत आल्हा पर लागू नहीं होता है। यहाँ तो हर आल्हा गायक के पास अपना लिखित या मौखिक पाठ है, जिसे वह हर प्रस्तुति में उसी रूप में गाता है, भले ही दो-चार पंक्तियों हेर-फेर हो।

यह बात अलग है कि दतिया के गायक कवि नवलसिंह प्रधान का और पुछी-करगवाँ के शिवू दा का आल्हा गाते हैं तथा कुछ आल्हा की पुरानी या नयी पाण्डुलिपि चुन लेते हैं। कुछ गायक श्रोताओं को प्रभावित करने के लिये रासो या अन्य किसी वीररस परक काव्य से कुछ छंद या एक-दो मुक्तक बीच-बीच में जोड़ देते हैं अथवा गद्यमय वचनिका से किसी प्रसंग या कथ्य की पुष्टि करते हैं।

यह भी संभव है कि एक अभ्यस्त और मँजा हुआ गायक भूलने पर उसकी पूर्ति के लिए अथवा अपना अतिरिक्त कौशल दिखाने की महात्वाकांक्षा से पाठ से मिलती-जुलती कुछ पंक्तियों का सृजन तत्काल कर देता हो, लेकिन सभी तरह की स्थितियों की जाँच के बाद यह परिणाम निकला है कि गायक अपनी प्रस्तुति या गाये जा रहे पाठ की रचना तत्काल नहीं करता। यदि इतने अल्हैतों में एक-दो मिल भी जाएँ, तो उन्हें अपवाद ही मानना पड़ेगा।

फड़वाजी
फड़बाजी और फड़काव्य दोनों में अंतर है फिर भी इतना सही है कि फड़बाजी से ही फड़काव्य जन्मा है और उसी के कारण लोककाव्य की वस्तु शैली और गायकी में चमत्कार आया है। फड़बाज कवि जिस प्रकार अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन में जबरन अलंकृति का प्रयोग करता है, उसी प्रकार गायक भी प्रदर्शन प्रतिद्वंद्विता को ध्यान में रखकर गायन-शैली में परिवर्तित करता है। फलस्वरूप लोकगायकी की जगह व्यक्तिपरक गायनशैलियाँ पनपती हैं और लोकगायकी का महत्व घटने लगता है। अतएव पुरस्कारधर्मी फड़बाजी में लोकगायकी की आंचलिक कसौटी ही निर्णय का प्रमुख आधार होना चाहिये।

आल्हा न तो फड़काव्य है और न उसमें फड़बाजी का कोई महत्व रहा है। यद्यपि 19 वीं शतीं के उत्तरार्द्ध में फाग, सेज, मंज, लावनी आदि की फड़बाजी उत्कर्ष पर थी, तथापि आल्हा पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इतना अवश्य है कि मेलों जैसे अवसरों पर एक ही फड़ पर हर रात अलग-अलग अल्हैतों का गायन होता था अथवा अलग-अलग स्थलों पर आल्हा के दो-चार फड़ लगते थे और श्रोताओं की रीझ ही प्रतियोगिता की कसौटी थी। अब तो एक ही मंच पर गायकों के लिऐ समय-सीमा (यहाँ तक कि 20 मिनिट) निर्धारित कर कन्नौज, बाराबंकी, महोबा आदि नगरों में पुरस्कारधर्मी फड़बाजी हो रही है, जो प्रेरणा और प्रोत्साहन का साधन तो है, पर उसके खतरों से भी सावधान रहने की आवश्यकता है।

आल्हा आंचलिक या राष्ट्रीय लोकगायकी
आल्हा अपनी अंचलगत विविध गायन शैलियों के होते हुए भी एक राष्ट्रीय लोकगायकी है। इस मान्यता की पुष्टि में पहली बात तो यह है कि उसका क्षेत्र उत्तरभारत ही नहीं है, वरन् उसका प्रचार दक्षिण-भारत के कई भागों में है। दूसरे, उसकी लोकप्रियता देश और काल की परिस्थितियों को पारकर निरंतर बढ़ती जा रही है।

आल्हा की परम्परित गायकी का लोकप्रचलन सभी लोकभाषाओं में हो रहा है, जिसकी वजह से आंचलिक गायन शैलियों में समानताए मिलती हैं। परम्परित गायकी को आधार बनाकर जिन व्यक्तिपरक शैलियों का विकास हुआ है, उनमें भी आत्मगत साम्य मिलता है। इस गायकी में इतनी लोचनीयता है कि वह व्यक्तिगत प्रयोगों के लिये पूर्ण स्वछंदता देती है।

किसी को भी किसी नियम का बंधन नहीं लगाती। सबसे प्रमुख विशेषता है उसकी प्रभावक्षमता, जो इतनी असाधारण है कि हर वर्ग, धर्म, सम्प्रदाय के श्रोताओं को प्रभावित करती है। अतएव, इतने विशाल लोक को हरदम प्रेरणा और उत्साह देने वाली गायकी को राष्ट्रीय लोकगायकी कहने में किसी को संकोच नहीं हो सकता।

संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

 

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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